Thursday 27 June 2019

प्रेरणा

पिछले हफ्ते मैं जब ब्रिटेन से घर लौटा तो मुझे महसूस हुआ जैसे मैं आधा अधूरा हो कर लौटा हूं. मन में कहीं यह अपराधबोध था कि मैं ने यौवन और सौंदर्य से भरपूर नारी के आमंत्रण को ठुकरा कर उस की भावनाओं को आहत किया था. इस में उस औरत का क्या दोष? हर किसी के भीतर स्थायी व संचारी भाव होते हैं. कभी कोई भाव इनसान पर हावी रहता है तो कभी कोई. उस समय उस के रति भाव का मुझे मान रखना चाहिए था.

ब्रिटेन के लंदन, बर्मिंघम, मैनचेस्टर, यार्कशायर, नाटिंघम आदि शहरों में स्थित यू.के. हिंदी समिति, गीतांजलि, हिंदी भाषा समिति, भारतीय भाषा संगम आदि संस्थाओं ने मुझे हिंदी दिवस के अवसर पर अलगअलग समारोहों के लिए आमंत्रित किया था.

लंदन में मेरी मुलाकात मैगी से हुई थी. वह छरहरे बदन की युवती थी. समारोह समापन के बाद वह मेरे पास आई और बोली, ‘‘आप के व्याख्यान और व्यक्तित्व ने मुझे बेहद प्रभावित किया है. मैं आप के दिशानिर्देशन में एक पुस्तक लिखना चाहती हूं. मुझे हिंदी भाषा से बेहद लगाव है.’’

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एक अंगरेज लड़की के मुख से इतनी शुद्ध हिंदी सुन कर मैं भौचक रह गया. मुझे इस स्थिति में देख कर उस ने बताया था कि उस के पिता ब्रिटेन के हैं और मां भारत की. मैं मां के साथ भारत जाती रहती हूं. वह मुझ से हिंदी में ही बात करती हैं और सच कहूं तो हिंदी में बोलना मुझे अंगरेजी से ज्यादा सहज लगता है. आप भारत से आए हैं और हिंदी के प्रखर विद्वान हैं यह जान कर मैं खुद को आप से मिलने के लिए रोक न सकी.

मैगी से मिल कर मुझे भी बहुत खुशी हुई. वह लंदन में किसी कंपनी में नौकरी करती थी. उस के मातापिता यार्कशायर में रहते थे.

लंदन में मेरा 3 दिन का कार्यक्रम था. इन 3 दिन में हमारे बीच खासी मित्रता हो गई. उस ने मुझे पूरा लंदन घुमा दिया. आखिरी दिन मुझे रात्रिभोज के लिए उस ने अपने घर पर आमंत्रित किया तो मैं उस के स्नेहिल निमंत्रण को ठुकरा न सका.

शाम को 7 बजे मैं उस के बताए पते पर पहुंच गया. उस ने मुसकरा कर मेरा स्वागत किया. कौफी के लिए जब वह रसोई में गई तो मैं ने कमरे में चारों तरफ नजर दौड़ाई. कमरा छोटा जरूर था पर था पूरी तरह व्यवस्थित. अलमारी में ढेरों हिंदी की किताबें रखी थीं. मेज पर जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ रखी थी. शायद वह उसे पढ़ रही थी.

‘लीजिए, प्रो. पल्लवजी, कौफी,’ कहते हुए उस ने मुझे कप थमाया तो मैं मुसकरा कर बोला, ‘यहां आ कर तो मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं किसी पुस्तकालय में आ गया हूं.’

कौफी पीने के थोड़ी देर बाद मैगी ने खाना लगा दिया. खाना खाने के बाद वह बोली, ‘पल्लवजी, जिस तरह कालिदास के ‘मेघदूत’ में प्रेमिका का रूप वर्णन है उसी तरह मैं भी अपनी पुस्तक में अपने काल्पनिक प्रेमी के अनोखे रूप का वर्णन करना चाहती हूं.’

यह सुन कर मुझे हंसी आ गई, ‘तो तुम कालिदास बनना चाहती हो.’

‘मैं कालिदास तो नहीं बन सकती लेकिन अपनी पुस्तक में अपने काल्पनिक प्रेमी का रूप तो उतार सकती हूं,’ कहती हुई वह मेरे नजदीक कुछ ज्यादा ही खिसक आई थी. उस के इरादे भांप कर मैं उसे अपने से दूर करता हुआ बोला, ‘इस में मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूं?’

मेरे गालों पर हाथ फेरते हुए मैगी रोमांटिक अंदाज में बोली, ‘इस में आप ही मेरी मदद कर सकते हैं. मैं आप को अपना प्रेमी मान कर, आप के रूप को निहार कर, हर भाव को पढ़ कर ही तो कुछ लिख सकूंगी,’ कहते हुए मैगी मुझ पर पूरी तरह झुक गई थी.

मैं जानता था कि मैगी उस समय होश में नहीं थी क्योंकि खाने के बाद उस ने बीयर का एक बड़ा पैग लिया था. उन नाजुक क्षणों में मैं ने अपनी भावनाओं को पूरी तरह नियंत्रण में रखते हुए उसे परे धकेल दिया और जोर से चीखा, ‘तुम होश में तो हो, मैगी.’

मैगी अपनी ही रौ में बोली, ‘बिना अनुभव और सत्यता के कोई भी एक शब्द नहीं लिख सकता. चाहे वह कितना ही महान कवि और लेखक क्यों न हो,’ कहते हुए वह मेरे गले में अपनी बांहें डाल कर झूल गई.

मैं बड़ी बेरहमी से मैगी को अपने से अलग करते हुए बोला, ‘क्या तुम ने अश्विनी दत्त की ‘भक्तियोग’ नहीं पढ़ी, जिस में लिखा है कि ब्रह्मचारी को नारी से दूर रहना चाहिए. मैं ने तब तक ब्रह्मचर्य का व्रत ले रखा है जब तक मैं अपने लक्ष्य को प्राप्त न कर लूं. तुम्हारे उन्माद में साथ दे कर मैं अपने त्याग को व्यर्थ नहीं करना चाहता.’

‘लेकिन पल्लवजी, मैं ने भी किसी पुस्तक में पढ़ा है कि भोग के बिना त्याग की स्थिति तक नहीं पहुंचा जा सकता.’

उस का जवाब दिए बगैर मैं वापस अपने होटल आ गया था. फिर कार्यक्रमों को पूरा कर मैं वापस भारत आ गया.

मेरा लक्ष्य था एक पुस्तक लिखने का, जोकि बहुत ही जटिल विषय पर आधारित थी और जिस के लिए मैं ने ब्रह्मचर्य धारण किया था. पिछले 2 सालों से वह अधूरी पड़ी थी. उसे पूरा कर के ही मैं अपने व्रत को तोड़ना चाहता था. यद्यपि इस प्रतिज्ञा से मेरे मातापिता खासे नाराज थे. उन का मानना था कि विवाह किसी कार्यविशेष में बाधक नहीं बल्कि सहायक है क्योंकि जीवनसाथी की प्रेरणा से ही ऊर्जा और प्रेम प्राप्त होता है.

मैंजब भी लिखने बैठता मैगी का रूपयौवन मुझे उद्वेलित कर जाता और मैं लिखना भूल कर उस के खयालों में डूब जाता. कभी न कभी तो मुझे खुद झुरझुरी आ जाती कि आखिर मुझे हो क्या गया है. कहां मैं हिंदी का इतना बड़ा विद्वान जो पचासों पुस्तकें और सैकड़ों कहानियां लिख चुका हूं, आज एक लाइन तक नहीं लिख पा रहा हूं. जिस उद्देश्य के लिए मैं ने मैगी को ठुकराया था अब उसी को पाने को मन क्यों बारबार मचल उठता है. जितना ही मैं उसे अपने खयालों से दूर करने की कोशिश करता उतना ही वह अपने पूरे वजूद के साथ मेरे पास आ कर मुझे बेचैन करती. ऐसी स्थिति में एक साल बीत गया और मेरी पुस्तक अधूरी ही पड़ी रही.

अचानक एक दिन लंदन की एक हिंदी संस्था ने मुझे पुस्तक विमोचन के लिए आमंत्रित किया. यह निमंत्रण पा कर मैं खुशी से उछल पड़ा. मैगी से मिलन की अनुभूति मात्र से मैं रोमांचित हो उठा था.

हवाई अड्डे पर संस्था के सदस्यों ने मेरा स्वागत किया तथा मुझे होटल पहुंचाया. पुस्तक का विमोचन शाम को था इसलिए सोचा कि विमोचन के बाद होटल से अपना सामान ले कर सीधा मैगी के घर जाऊंगा और अपनी पूर्व की गलती की क्षमा भी मांग लूंगा.

शाम को मेरा मन पुस्तक विमोचन में कम और मैगी में अधिक था. विमोचन की गई पुस्तक का शीर्षक था ‘प्रेरणा.’ लेखिका के रूप में मैगी का नाम पढ़ कर पूरे शरीर में सनसनी फैल गई.

ये भी पढ़ें- एक छोटी सी गलतफहमी

मैगी मुसकरा कर मेरे सामने आई तो मैं उसे एकटक देखता ही रह गया. संस्था के अध्यक्ष बोले, ‘पल्लवजी, मैगी का विशेष आग्रह था कि इस पुस्तक के विमोचन के लिए भारत से सिर्फ आप को ही बुलाया जाए.’

मैं वहीं मंच पर बैठ कर पुस्तक पढ़ने लगा. भूमिका में लिखा था, ‘मेरी प्रेरणा के प्रेरणास्रोत को सादर समर्पित  —मैगी.’

पुस्तक विमोचन के बाद मैं सीधा होटल गया. अब मैं मैगी की पुस्तक को पढ़ने के बाद ही उस के घर जाने की सोच रहा था. मैगी की इस ‘प्रेरणा’ नामक पुस्तक में हृदय से उपजी कविताओं का संग्रह था जो बेहद मार्मिक था. कविता की एकएक पंक्ति मेरे मन को छू गई.

अचानक दरवाजा खुला. सामने मैगी खड़ी पूछ रही थी, ‘क्या मैं अंदर आ सकती हूं?’

‘हांहां, क्यों नहीं. मैं तुम्हारी ही कविताएं पढ़ रहा था. वाकई जवाब नहीं इन का. कितने सुंदर, सहज और मधुर भावों को समेट कर तुम ने इन कविताओं का सृजन किया है. कहां से मिली तुम्हें प्रेरणा? आखिर कौन है तुम्हारा प्रेरणास्रोत?’

मैगी मुसकरा कर निरुत्तर सी बस, मुझे देखती रही.

मैं भावावेश में बोला, ‘मैगी, मैं तो तुम से मिलने के बाद से ही कुछ बेचैनी सी अनुभव करने लगा हूं. इस वजह से मैं 3 साल से अधूरी पड़ी अपनी पुस्तक को भी पूरी नहीं कर पाया. प्लीज, तुम मेरी मदद करो, मुझे संभालो और सहारा दो,’ कहते हुए मैं ने उसे अपने बाहुपाश में बांध लिया.

मैगी फुरती दिखाते हुए एक झटके से मुझ से अलग हो गई और तेज स्वर मैं बोली, ‘आप को शरम नहीं आती एक औरत के साथ जबरदस्ती करते हुए.’

उस के इस अप्रत्याशित रूप और व्यवहार को देख कर मैं हतप्रभ रह गया. मेरा जोश बर्फ की तरह ठंडा पड़ गया. मैं सोचने लगा, पहले तो खुद को समर्पित करने के लिए आतुर थी, आज सती होने का ढोंग रच रही है. लगता है इसे अपनी ‘प्रेरणा’ पर बहुत गर्व हो रहा है और खुद को बहुत बड़ी लेखिका समझने लगी है. अब मैं भी अपनी वर्षों से अधूरी पड़ी पुस्तक को पूरा कर के साहित्याकाश में तहलका मचा दूंगा.

भारत आने के बाद मैं अपनी पुस्तक को पूरा करने में एकाग्र हो कर जुट गया. मुझे ताज्जुब हुआ कि जो काम मैं पिछले 3 वर्षों से नहीं कर पा रहा था वह मात्र 3 माह में हो गया. पुस्तक का विमोचन शहर के प्रसिद्ध प्रेक्षागृह में होना था. इस अवसर पर मैं ने लंदन से मैगी को भी आमंत्रित किया.

पुस्तक विमोचन के अवसर पर हिंदी जगत की सैकड़ों जानीमानी हस्तियां मौजूद थीं लेकिन मैगी नहीं आई तो मुझे अत्यधिक निराशा हुई.

मेरी इस पुस्तक ने देशविदेश में तहलका मचा दिया. अपनी इस उपलब्धि पर मैं इतरा उठा. अचानक एक दिन मैगी का पत्र देख कर मुझे आश्चर्य हुआ.

‘‘मेरी ‘प्रेरणा’ के प्रेरणास्रोत

प्रो. पल्लवजी, आप को  सादर नमस्कार.

स्वास्थ्य अच्छा न होने की वजह से आप के पुस्तक विमोचन के अवसर पर न आ सकी, इस के लिए क्षमा मांगती हूं. आप ने मुझ से पूछा था कि मेरी ‘प्रेरणा’ का पे्ररणास्रोत कौन है? अब मैं बताती हूं, वह आप हैं, सिर्फ आप. अगर आप उस रात मुझे न संभालते तो शायद इस ‘प्रेरणा’ का जन्म ही नहीं होता. आप के ठुकराने से मैं अंदर तक आहत अवश्य हुई थी लेकिन मैं ने अपने भीतर कुछ नया सा महसूस किया था, शायद वह आप की प्रेरणा थी, जिस के फलस्वरूप मेरी ‘प्रेरणा’ का सृजन हुआ.

आप की 3 वर्षों से पुस्तक अधूरी पड़ी थी तो इसलिए कि आप का मन भटक गया था. आप के प्रस्ताव को मैं ने इतनी बेरहमी और बेरुखी से इसीलिए ठुकराया ताकि आप भी मेरी तरह एकाग्र हो कर अपने उद्देश्य को मछली की आंख की तरह निशाना बनाएं.

अगर उस रात मैं आप के प्रति समर्पित हो जाती तो शायद आप जिंदगी भर अपनी इस पुस्तक को पूरी न कर पाते क्योंकि मनुष्य जो वस्तु एक बार सहजता से प्राप्त कर लेता है उसे बारबार पाने के लिए अपनी राह से भटक कर उसी के खयालों में डूबा रहता है.

आप की पुस्तक पूरी हो गई इस बात की मुझे बेहद खुशी है. मेरी ‘प्रेरणा’ के प्रेरणास्रोत के कदमों को सफलताएं जिंदगी भर इसी तरह चूमती रहें यही कामना है मेरी.   मैगी.’’

पत्र पढ़ कर मैं इस सोच में डूब गया कि आखिर कौन किस की प्रेरणा है. मैं मैगी की प्रेरणा हूं या मैगी मेरी. अंदर से आवाज आई, ‘मैगी मेरी प्रेरणा है क्योंकि उस में त्याग की भावना निहित है.’

मैं तो मैगी की प्रेरणा हो ही नहीं सकता क्योंकि उस में मेरे त्याग की नहीं बल्कि स्वार्थ की भावना निहित थी.

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डौ. अनिता राठौर ‘मंजरी’

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पिछले हफ्ते मैं जब ब्रिटेन से घर लौटा तो मुझे महसूस हुआ जैसे मैं आधा अधूरा हो कर लौटा हूं. मन में कहीं यह अपराधबोध था कि मैं ने यौवन और सौंदर्य से भरपूर नारी के आमंत्रण को ठुकरा कर उस की भावनाओं को आहत किया था. इस में उस औरत का क्या दोष? हर किसी के भीतर स्थायी व संचारी भाव होते हैं. कभी कोई भाव इनसान पर हावी रहता है तो कभी कोई. उस समय उस के रति भाव का मुझे मान रखना चाहिए था.

ब्रिटेन के लंदन, बर्मिंघम, मैनचेस्टर, यार्कशायर, नाटिंघम आदि शहरों में स्थित यू.के. हिंदी समिति, गीतांजलि, हिंदी भाषा समिति, भारतीय भाषा संगम आदि संस्थाओं ने मुझे हिंदी दिवस के अवसर पर अलगअलग समारोहों के लिए आमंत्रित किया था.

लंदन में मेरी मुलाकात मैगी से हुई थी. वह छरहरे बदन की युवती थी. समारोह समापन के बाद वह मेरे पास आई और बोली, ‘‘आप के व्याख्यान और व्यक्तित्व ने मुझे बेहद प्रभावित किया है. मैं आप के दिशानिर्देशन में एक पुस्तक लिखना चाहती हूं. मुझे हिंदी भाषा से बेहद लगाव है.’’

ये भी पढ़े- अधिक्रमण

एक अंगरेज लड़की के मुख से इतनी शुद्ध हिंदी सुन कर मैं भौचक रह गया. मुझे इस स्थिति में देख कर उस ने बताया था कि उस के पिता ब्रिटेन के हैं और मां भारत की. मैं मां के साथ भारत जाती रहती हूं. वह मुझ से हिंदी में ही बात करती हैं और सच कहूं तो हिंदी में बोलना मुझे अंगरेजी से ज्यादा सहज लगता है. आप भारत से आए हैं और हिंदी के प्रखर विद्वान हैं यह जान कर मैं खुद को आप से मिलने के लिए रोक न सकी.

मैगी से मिल कर मुझे भी बहुत खुशी हुई. वह लंदन में किसी कंपनी में नौकरी करती थी. उस के मातापिता यार्कशायर में रहते थे.

लंदन में मेरा 3 दिन का कार्यक्रम था. इन 3 दिन में हमारे बीच खासी मित्रता हो गई. उस ने मुझे पूरा लंदन घुमा दिया. आखिरी दिन मुझे रात्रिभोज के लिए उस ने अपने घर पर आमंत्रित किया तो मैं उस के स्नेहिल निमंत्रण को ठुकरा न सका.

शाम को 7 बजे मैं उस के बताए पते पर पहुंच गया. उस ने मुसकरा कर मेरा स्वागत किया. कौफी के लिए जब वह रसोई में गई तो मैं ने कमरे में चारों तरफ नजर दौड़ाई. कमरा छोटा जरूर था पर था पूरी तरह व्यवस्थित. अलमारी में ढेरों हिंदी की किताबें रखी थीं. मेज पर जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ रखी थी. शायद वह उसे पढ़ रही थी.

‘लीजिए, प्रो. पल्लवजी, कौफी,’ कहते हुए उस ने मुझे कप थमाया तो मैं मुसकरा कर बोला, ‘यहां आ कर तो मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं किसी पुस्तकालय में आ गया हूं.’

कौफी पीने के थोड़ी देर बाद मैगी ने खाना लगा दिया. खाना खाने के बाद वह बोली, ‘पल्लवजी, जिस तरह कालिदास के ‘मेघदूत’ में प्रेमिका का रूप वर्णन है उसी तरह मैं भी अपनी पुस्तक में अपने काल्पनिक प्रेमी के अनोखे रूप का वर्णन करना चाहती हूं.’

यह सुन कर मुझे हंसी आ गई, ‘तो तुम कालिदास बनना चाहती हो.’

‘मैं कालिदास तो नहीं बन सकती लेकिन अपनी पुस्तक में अपने काल्पनिक प्रेमी का रूप तो उतार सकती हूं,’ कहती हुई वह मेरे नजदीक कुछ ज्यादा ही खिसक आई थी. उस के इरादे भांप कर मैं उसे अपने से दूर करता हुआ बोला, ‘इस में मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूं?’

मेरे गालों पर हाथ फेरते हुए मैगी रोमांटिक अंदाज में बोली, ‘इस में आप ही मेरी मदद कर सकते हैं. मैं आप को अपना प्रेमी मान कर, आप के रूप को निहार कर, हर भाव को पढ़ कर ही तो कुछ लिख सकूंगी,’ कहते हुए मैगी मुझ पर पूरी तरह झुक गई थी.

मैं जानता था कि मैगी उस समय होश में नहीं थी क्योंकि खाने के बाद उस ने बीयर का एक बड़ा पैग लिया था. उन नाजुक क्षणों में मैं ने अपनी भावनाओं को पूरी तरह नियंत्रण में रखते हुए उसे परे धकेल दिया और जोर से चीखा, ‘तुम होश में तो हो, मैगी.’

मैगी अपनी ही रौ में बोली, ‘बिना अनुभव और सत्यता के कोई भी एक शब्द नहीं लिख सकता. चाहे वह कितना ही महान कवि और लेखक क्यों न हो,’ कहते हुए वह मेरे गले में अपनी बांहें डाल कर झूल गई.

मैं बड़ी बेरहमी से मैगी को अपने से अलग करते हुए बोला, ‘क्या तुम ने अश्विनी दत्त की ‘भक्तियोग’ नहीं पढ़ी, जिस में लिखा है कि ब्रह्मचारी को नारी से दूर रहना चाहिए. मैं ने तब तक ब्रह्मचर्य का व्रत ले रखा है जब तक मैं अपने लक्ष्य को प्राप्त न कर लूं. तुम्हारे उन्माद में साथ दे कर मैं अपने त्याग को व्यर्थ नहीं करना चाहता.’

‘लेकिन पल्लवजी, मैं ने भी किसी पुस्तक में पढ़ा है कि भोग के बिना त्याग की स्थिति तक नहीं पहुंचा जा सकता.’

उस का जवाब दिए बगैर मैं वापस अपने होटल आ गया था. फिर कार्यक्रमों को पूरा कर मैं वापस भारत आ गया.

मेरा लक्ष्य था एक पुस्तक लिखने का, जोकि बहुत ही जटिल विषय पर आधारित थी और जिस के लिए मैं ने ब्रह्मचर्य धारण किया था. पिछले 2 सालों से वह अधूरी पड़ी थी. उसे पूरा कर के ही मैं अपने व्रत को तोड़ना चाहता था. यद्यपि इस प्रतिज्ञा से मेरे मातापिता खासे नाराज थे. उन का मानना था कि विवाह किसी कार्यविशेष में बाधक नहीं बल्कि सहायक है क्योंकि जीवनसाथी की प्रेरणा से ही ऊर्जा और प्रेम प्राप्त होता है.

मैंजब भी लिखने बैठता मैगी का रूपयौवन मुझे उद्वेलित कर जाता और मैं लिखना भूल कर उस के खयालों में डूब जाता. कभी न कभी तो मुझे खुद झुरझुरी आ जाती कि आखिर मुझे हो क्या गया है. कहां मैं हिंदी का इतना बड़ा विद्वान जो पचासों पुस्तकें और सैकड़ों कहानियां लिख चुका हूं, आज एक लाइन तक नहीं लिख पा रहा हूं. जिस उद्देश्य के लिए मैं ने मैगी को ठुकराया था अब उसी को पाने को मन क्यों बारबार मचल उठता है. जितना ही मैं उसे अपने खयालों से दूर करने की कोशिश करता उतना ही वह अपने पूरे वजूद के साथ मेरे पास आ कर मुझे बेचैन करती. ऐसी स्थिति में एक साल बीत गया और मेरी पुस्तक अधूरी ही पड़ी रही.

अचानक एक दिन लंदन की एक हिंदी संस्था ने मुझे पुस्तक विमोचन के लिए आमंत्रित किया. यह निमंत्रण पा कर मैं खुशी से उछल पड़ा. मैगी से मिलन की अनुभूति मात्र से मैं रोमांचित हो उठा था.

हवाई अड्डे पर संस्था के सदस्यों ने मेरा स्वागत किया तथा मुझे होटल पहुंचाया. पुस्तक का विमोचन शाम को था इसलिए सोचा कि विमोचन के बाद होटल से अपना सामान ले कर सीधा मैगी के घर जाऊंगा और अपनी पूर्व की गलती की क्षमा भी मांग लूंगा.

शाम को मेरा मन पुस्तक विमोचन में कम और मैगी में अधिक था. विमोचन की गई पुस्तक का शीर्षक था ‘प्रेरणा.’ लेखिका के रूप में मैगी का नाम पढ़ कर पूरे शरीर में सनसनी फैल गई.

ये भी पढ़ें- एक छोटी सी गलतफहमी

मैगी मुसकरा कर मेरे सामने आई तो मैं उसे एकटक देखता ही रह गया. संस्था के अध्यक्ष बोले, ‘पल्लवजी, मैगी का विशेष आग्रह था कि इस पुस्तक के विमोचन के लिए भारत से सिर्फ आप को ही बुलाया जाए.’

मैं वहीं मंच पर बैठ कर पुस्तक पढ़ने लगा. भूमिका में लिखा था, ‘मेरी प्रेरणा के प्रेरणास्रोत को सादर समर्पित  —मैगी.’

पुस्तक विमोचन के बाद मैं सीधा होटल गया. अब मैं मैगी की पुस्तक को पढ़ने के बाद ही उस के घर जाने की सोच रहा था. मैगी की इस ‘प्रेरणा’ नामक पुस्तक में हृदय से उपजी कविताओं का संग्रह था जो बेहद मार्मिक था. कविता की एकएक पंक्ति मेरे मन को छू गई.

अचानक दरवाजा खुला. सामने मैगी खड़ी पूछ रही थी, ‘क्या मैं अंदर आ सकती हूं?’

‘हांहां, क्यों नहीं. मैं तुम्हारी ही कविताएं पढ़ रहा था. वाकई जवाब नहीं इन का. कितने सुंदर, सहज और मधुर भावों को समेट कर तुम ने इन कविताओं का सृजन किया है. कहां से मिली तुम्हें प्रेरणा? आखिर कौन है तुम्हारा प्रेरणास्रोत?’

मैगी मुसकरा कर निरुत्तर सी बस, मुझे देखती रही.

मैं भावावेश में बोला, ‘मैगी, मैं तो तुम से मिलने के बाद से ही कुछ बेचैनी सी अनुभव करने लगा हूं. इस वजह से मैं 3 साल से अधूरी पड़ी अपनी पुस्तक को भी पूरी नहीं कर पाया. प्लीज, तुम मेरी मदद करो, मुझे संभालो और सहारा दो,’ कहते हुए मैं ने उसे अपने बाहुपाश में बांध लिया.

मैगी फुरती दिखाते हुए एक झटके से मुझ से अलग हो गई और तेज स्वर मैं बोली, ‘आप को शरम नहीं आती एक औरत के साथ जबरदस्ती करते हुए.’

उस के इस अप्रत्याशित रूप और व्यवहार को देख कर मैं हतप्रभ रह गया. मेरा जोश बर्फ की तरह ठंडा पड़ गया. मैं सोचने लगा, पहले तो खुद को समर्पित करने के लिए आतुर थी, आज सती होने का ढोंग रच रही है. लगता है इसे अपनी ‘प्रेरणा’ पर बहुत गर्व हो रहा है और खुद को बहुत बड़ी लेखिका समझने लगी है. अब मैं भी अपनी वर्षों से अधूरी पड़ी पुस्तक को पूरा कर के साहित्याकाश में तहलका मचा दूंगा.

भारत आने के बाद मैं अपनी पुस्तक को पूरा करने में एकाग्र हो कर जुट गया. मुझे ताज्जुब हुआ कि जो काम मैं पिछले 3 वर्षों से नहीं कर पा रहा था वह मात्र 3 माह में हो गया. पुस्तक का विमोचन शहर के प्रसिद्ध प्रेक्षागृह में होना था. इस अवसर पर मैं ने लंदन से मैगी को भी आमंत्रित किया.

पुस्तक विमोचन के अवसर पर हिंदी जगत की सैकड़ों जानीमानी हस्तियां मौजूद थीं लेकिन मैगी नहीं आई तो मुझे अत्यधिक निराशा हुई.

मेरी इस पुस्तक ने देशविदेश में तहलका मचा दिया. अपनी इस उपलब्धि पर मैं इतरा उठा. अचानक एक दिन मैगी का पत्र देख कर मुझे आश्चर्य हुआ.

‘‘मेरी ‘प्रेरणा’ के प्रेरणास्रोत

प्रो. पल्लवजी, आप को  सादर नमस्कार.

स्वास्थ्य अच्छा न होने की वजह से आप के पुस्तक विमोचन के अवसर पर न आ सकी, इस के लिए क्षमा मांगती हूं. आप ने मुझ से पूछा था कि मेरी ‘प्रेरणा’ का पे्ररणास्रोत कौन है? अब मैं बताती हूं, वह आप हैं, सिर्फ आप. अगर आप उस रात मुझे न संभालते तो शायद इस ‘प्रेरणा’ का जन्म ही नहीं होता. आप के ठुकराने से मैं अंदर तक आहत अवश्य हुई थी लेकिन मैं ने अपने भीतर कुछ नया सा महसूस किया था, शायद वह आप की प्रेरणा थी, जिस के फलस्वरूप मेरी ‘प्रेरणा’ का सृजन हुआ.

आप की 3 वर्षों से पुस्तक अधूरी पड़ी थी तो इसलिए कि आप का मन भटक गया था. आप के प्रस्ताव को मैं ने इतनी बेरहमी और बेरुखी से इसीलिए ठुकराया ताकि आप भी मेरी तरह एकाग्र हो कर अपने उद्देश्य को मछली की आंख की तरह निशाना बनाएं.

अगर उस रात मैं आप के प्रति समर्पित हो जाती तो शायद आप जिंदगी भर अपनी इस पुस्तक को पूरी न कर पाते क्योंकि मनुष्य जो वस्तु एक बार सहजता से प्राप्त कर लेता है उसे बारबार पाने के लिए अपनी राह से भटक कर उसी के खयालों में डूबा रहता है.

आप की पुस्तक पूरी हो गई इस बात की मुझे बेहद खुशी है. मेरी ‘प्रेरणा’ के प्रेरणास्रोत के कदमों को सफलताएं जिंदगी भर इसी तरह चूमती रहें यही कामना है मेरी.   मैगी.’’

पत्र पढ़ कर मैं इस सोच में डूब गया कि आखिर कौन किस की प्रेरणा है. मैं मैगी की प्रेरणा हूं या मैगी मेरी. अंदर से आवाज आई, ‘मैगी मेरी प्रेरणा है क्योंकि उस में त्याग की भावना निहित है.’

मैं तो मैगी की प्रेरणा हो ही नहीं सकता क्योंकि उस में मेरे त्याग की नहीं बल्कि स्वार्थ की भावना निहित थी.

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डौ. अनिता राठौर ‘मंजरी’

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June 28, 2019 at 10:21AM

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