Thursday 27 June 2019

वसंत आ गया

बड़े अरमानों से रंजू ने अपने भैया सौरभ के लिए संगीता का चुनाव किया था. शादी के बाद संगीता की बीमारी की खबर से सारा उत्साह ठंडा पड़ गया. लेकिन सौरभ ने पति का पूरा फर्ज निभाते हुए संगीता के जीवन को नई दिशा दे डाली.

ट्रिन ट्रिन…फोन की घंटी बजती जा रही थी मगर इस से बेखबर आलोक टीवी पर विश्व कप फुटबाल मैच संबंधी समाचार सुनने में व्यस्त थे. तब मैं बच्चों का नाश्ता पैक करती हुई उन पर झुंझला पड़ी, ‘‘अरे बाबा, जरा फोन तो अटेंड कीजिए, मैं फ्री नहीं हूं. ये समाचार तो दिन में न जाने कितनी बार दोहराए जाएंगे.’’

आलोक चौंकते हुए उठे और अपनी स्टाइल में फोन रिसीव किया, ‘‘हैलो…आलोक एट दिस एंड.’’

स्कूल जाते नेहा और अतुल को छोड़ने मैं बाहर की ओर चल पड़ी. दोनों को रिकशे में बिठा कर लौटी तो देखा, आलोक किसी से बात करने में जुटे थे. मुझे देखते ही बोले, ‘‘रंजू, तुम्हारा फोन है. कोई मिस्टर अनुराग हैं जो सिर्फ तुम से बात करने को बेताब हैं,’’ कह कर उन्होंने रिसीवर मुझे थमा दिया और खुद अपने छूटते समाचारों की ओर दौड़ पड़े.

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मुझे कुछ याद ही नहीं आ रहा था कि कौन अनुराग है जिसे मैं जानती हूं, पर बात तो करनी ही थी सो बोल पड़ी, ‘‘हैलो, मैं रंजू बोल रही हूं…क्या मैं जान सकती हूं कि आप कौन साहब बोल रहे हैं?’’

‘‘मैं अनुराग, पहचाना मुझे? जरा दिमाग पर जोर डालना पड़ेगा. इतनी जल्दी भुला दिया मुझे?’’ फोन करने वाला जब अपना परिचय न दे कर मजाक करने लगा और पहेलियां बुझाने लगा तो मुझे बहुत गुस्सा आया कि पता नहीं कौन है जो इस तरह की बातें कर रहा है, पर आवाज कुछ जानीपहचानी सी लग रही थी. इसलिए अपनी वाणी पर अंकुश लगाती हुई मैं बोली, ‘‘माफ कीजिएगा, अब भी मैं आप को पहचान नहीं पाई.’’

‘‘मेरी प्यारी बहना, अपने सौरभ भाई की आवाज भी तुम पहचान नहीं पाओगी, ऐसा तो मैं ने सोचा ही नहीं था.’’

‘‘सौरभ भाई, आप…वाह…, तो मुझे उल्लू बनाने के लिए अपना नाम अनुराग बता रहे थे,’’ खुशी से मैं इतनी जोर से चीखी कि आलोक घबरा कर मेरे पास दौड़े चले आए.

‘‘क्या हुआ? इतनी जोर से क्यों चीखीं? कहीं छिपकली दिख गई क्या?’’

मैं इनकार में सिर हिलाती हुई हंस पड़ी, क्योंकि छिपकली देख कर भी मैं डर के मारे हमेशा चीख पड़ती हूं. फिर रिसीवर में माउथपीस पर हाथ रख कर बोली, ‘‘जरा रुकिए, अभी आ कर बताती हूं,’’ तो आलोक लौट गए.

‘‘हां, अब बताइए भाई, इतने दिनों बाद बहन की याद आई? कब आए आप स्ंिगापुर से? बाकी लोग कैसे हैं?’’ मैं ने सवालों की झड़ी लगा दी.

‘‘फिलहाल किसी के बारे में मुझे कोई खबर नहीं है, क्योंकि सब से ज्यादा मुझे सिर्फ तुम्हारी याद आई, इसलिए भारत आने के बाद सब से पहले मैं ने तुम्हें फोन किया. तुम से मिलने मैं कल ही तुम्हारे घर आ रहा हूं. पूरे 2 दिन तुम्हें बोर होना पड़ेगा. इसलिए कमर कस कर तैयार हो जाओ. बाकी बातें अब तुम्हारे घर पर ही होंगी, बाय,’’ इतना कह कर भाई ने फोन काट दिया.

सौरभ भाई कल सच में हमारे घर आने वाले हैं, सोच कर मैं खुशी से झूम उठी. 10 साल हो गए थे उन्हें देखे. आखिरी बार उन्हें अपनी शादी के वक्त देखा था.

अपने मातापिता की मैं अकेली संतान थी, पर दोनों चचेरे भाई सौरभ और सौभिक मुझ पर इतना प्यार लुटाते

थे कि मुझे कभी एहसास ही न हुआ कि मेरा अपना कोई सगा भाई या बहन नहीं है. काकाकाकी की तो मैं वैसे भी लाड़ली थी.

इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि हम भुवनेश्वर में रहते थे और काका का परिवार पुरी में. हमारा लगभग हर सप्ताह ही एकदूसरे से मिलनाजुलना हो जाता था. इसलिए 60-65 किलोमीटर की दूरी हमारे लिए कोई माने नहीं रखती थी.

मेरी सौभिक भाई से उतनी नहीं पटती थी, जितनी सौरभ भाई से. मेरे प्यारे और चहेते भैया तो सौरभ भाई ही थे. उन के अलावा समुद्र का आकर्षण ही था जो प्रत्येक सप्ताह मुझे पुरी खींच लाता था.

उन दिनों मैं दर्शनशास्त्र में एम.ए. कर रही थी इसलिए सौरभ भाई की जीवनदर्शन की गहरी बातें मुझे अच्छी लगती थीं. एक दिन वह कहने लगे, ‘रंजू, अपने भाई की एक बात गांठ बांध लो, गलती स्वीकार करने में ही समझदारी होती है. जीवन कोई कोर्ट नहीं है जहां कभीकभी गलत बात को भी तर्क द्वारा सही साबित कर दिया जाता है.’

मैं उन का मुंह ताकती रह गई तो वह आगे बोले, ‘तुम शायद ठीक से मेरी बात समझ नहीं पाईं. ठीक है, इस बात को मैं तुम्हें फिल्मी भाषा में समझाता हूं. थोड़ी देर पहले तुम ‘आनंद’ फिल्म का जिक्र कर रही थीं. मैं ने भी देख रखी है यह फिल्म. इस के एक सीन में जब अमिताभ रमेश देव से पूछता है कि तुम ने क्यों उस धनी सेठ को कोई बीमारी न होते हुए भी झूठमूठ की महंगी गोलियां दे कर एक मोटी रकम झटक ली. तो इस पर रमेश देव कहता है कि अगर ऐसे धनी लोगों को बेवकूफ बना कर मैं पैसे नहीं लूंगा तो गरीब लोगों का मुफ्त इलाज कैसे करूंगा?

‘एक नजर में रमेश देव का यह तर्क सही भी लगता है, परंतु सचाई की कसौटी पर परखा जाए तो क्या वह गलत नहीं था? अगर किसी गरीब की वह मदद करना चाहता था तो अपनी ओर से जितनी हो सके करनी चाहिए थी. इस के लिए किसी अमीर को लूटना न तो न्यायसंगत है और न ही तर्कसंगत, इसलिए ज्ञानी पुरुष गलत बात को सही साबित करने के लिए तर्क नहीं दिया करते बल्कि उस भूल को सुधारने का प्रयास करते हैं.’

एक दिन कालिज से घर लौटी तो मां एक खुशखबरी के साथ मेरा इंतजार कर रही थीं. मुझे देखते ही बोलीं, ‘सुना तू ने, तेरे काका का फोन आया था कि कल तेरे सौरभ भाई के लिए लड़की देखने कानपुर चलना है. सौरभ ने कहा है कि उसे हम सब से ज्यादा तुझ पर भरोसा है कि तू ही उस के लिए सही लड़की तलाश सकती है.’

मुझे अपनेआप पर नाज हो आया कि मेरे भाई को मुझ पर कितना यकीन है.

दूसरे दिन सौरभ भाई और सौभिक भाई के अलावा हम सब कानपुर पहुंचे तो मैं बहुत खुश थी. हम सभी को लड़की पसंद आ गई. हां, उस की उम्र जरूर मेरी मां और काकी के विचार से कुछ ज्यादा थी, पर आजकल 27 साल में शादी करना कोई खास बात नहीं होती. फिर उसे देख कर कोई 22-23 से ज्यादा की नहीं समझ सकता था.

बैठक में सब को चायनाश्ता देने और थोड़ी देर वहां बैठने के बाद जब भाभी अंदर जाने लगीं तो काकी ने मुझ से कहा, ‘रंजू, तुम अंदर जा कर संगीता के साथ बातें करो. यहां बड़ों के बीच बैठी बोर हो जाओगी. फिर हमें तो कुछ उस से पूछना है नहीं.’

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मैं भी भाभी के साथ बात करना चाहती थी, इसलिए अंदर चली गई. तभी उन के  घर में भाभी के बचपन से काम करने वाली आया कमली ने उन्हें एक टेबलेट खाने को दी. मेरे कुछ पूछने से पहले की कमली बोली, ‘शायद घबराहट के मारे बेबी के सिर में कुछ दर्द सा होने लगा है. आप तो समझ ही सकती हैं क्योंकि आप भी लड़की हैं.’

इस पर मैं बोली, ‘मैं समझ सकती हूं, पर च्ंिता करने की कोई बात नहीं है. हम सब को भाभी पहले ही पसंद आ चुकी हैं.’

भाभी ने तब तल्ख स्वर में कहा था, ‘पसंद तो सभी करते हैं पर शादी कोई नहीं.’

‘पर हम तो आज सगाई भी कर के जाने वाले हैं.’ मुझे लगा कि पहले कोई रिश्ता नहीं हो पाया होगा इसलिए भाभी ऐसे बोल रही हैं.

फिर सगाई कर के ही लौटे थे. इस के 10 दिन बाद सौरभ भाई के पास एक गुमनाम फोन आया कि जिस लड़की से आप शादी करने जा रहे हैं वह एक गिरे हुए चरित्र की लड़की है. अपने स्वभाव के मुताबिक सुनीसुनाई बात पर यकीन न करते हुए भाई ने फोन करने वाले से सख्त लहजे में कहा था, ‘आप को इस विषय में च्ंिता करने की कोई आवश्यकता नहीं है. उस के चरित्र के विषय में मुझे सब पता है.’

करीब एक महीने बाद ही धूमधाम से हम सब संगीता भाभी को दुलहन बना कर घर ले आए. उन के साथ दहेज में कमली भी आई थी. हमारे घर वालों ने सोचा ससुराल में भाभी को ज्यादा परेशानी न हो इस वजह से उन के मायके वालों ने उसे साथ भेजा है.

सौरभ भाई खूबसूरत दुलहन पा कर बहुत खुश थे. दुलहन पसंद करने के एवज में मैं ने उन से लाकेट समेत सोने की खूबसूरत एक चेन और कानों की बालियां मांगी थीं जो शादी के दिन ही उन्होंने मुझे दे दी थीं.

अगले दिन जब मैं फूलों का गजरा देने भाभी के कमरे की ओर जा रही थी तो मैं ने सौभिक भाई को छिप कर भाभी के कमरे में झांकते हुए देखा. मैं ने उत्सुकतावश घूम कर दूसरी ओर की खिड़की से कमरे के अंदर देखा तो दंग रह गई. भाभी सिर्फ साया और ब्लाउज पहने घुटने मोड़ कर पलंग पर बैठी थीं. साया भी घुटने तक चढ़ा हुआ था जिस में गोरी पिंडलियां छिले हुए केले के तने जैसी उजली और सुंदर लग रही थीं. उन के गीले केशों से टपकते हुए पानी से पीछे ब्लाउज भी गीला हो रहा था. उस पर गहरे गले का ब्लाउज पुष्ट उभारों को ढकने के लिए अपर्याप्त लग रहा था. इस दशा में वह साक्षात कामदेव की रति लग रही थीं.

सहसा ही मैं स्वप्नलोक की दुनिया से यथार्थ के धरातल पर लौट आई. फिर सधे कदमों से जा कर पीछे से सौभिक भाई की पीठ थपथपा दी और अनजान सी बनती हुई बोली, ‘भाई, तुम यहां खड़े क्या कर रहे हो? बाहर काका तुम्हें तलाश रहे हैं.’

सौभिक भाई बुरी तरह झेंप गए, बोले, ‘वो…वो…मैं. सौरभ भाई को ढूंढ़ रहा था.’

वह मुझ से नजरें चुराते हुए बिजली की गति से वहां से चले गए. मैं गजरे की थाली लिए भाभी के कमरे में अंदर पहुंची. ‘यह क्या भाभी? इस तरह क्यों बैठी हो? जल्दी से साड़ी बांध कर तैयार हो जाओ, तुम्हें देखने आसपास के लोग आते ही होंगे.’

‘मुझे नहीं पता साड़ी कैसे बांधी जाती है. कमली मेरे लिए दूध लेने गई है, वही आ कर मुझे साड़ी पहनाएगी,’ भाभी का स्वर एकदम सपाट था.

‘अच्छा, लगता है, तुम सिर्फ सलवारसूट ही पहनती हो. आओ, मैं तुम्हें बताती हूं कि साड़ी कैसे बांधी जाती है. मैं तो कभीकभी घर पर शौकिया साड़ी बांध लेती हूं.’

बातें करते हुए मैं ने उन की साड़ी बांधी. फिर केशों को अच्छी तरह पोंछ कर हेयर ड्रायर से सुखा कर पोनी बना दी. फिर हेयर पिन से मोगरे का गजरा लगाया और चेहरे का भी पूरा मेकअप कर डाला. सब से अंत में मांग भरने के बाद जब मैं ने उन के माथे पर मांगटीका सजाया तो कुछ पलों तक मैं खुद उस अपूर्व सुंदरी को निहारती रह गई.

इतनी देर तक मैं उन से अकेले ही बात करती रही. उन का चेहरा एकदम निर्विकार था. पूरे शृंगार के बावजूद कुछ कमी सी लग रही थी. शायद वह कमी थी भाभी के मुखड़े पर नजर न आने वाली स्वाभाविक लज्जा, क्योंकि यही तो वह आभूषण है जो एक भारतीय दुलहन की सुंदरता में चार चांद लगा देता है. ऐसा क्यों था, मैं तब समझ नहीं पाई थी, परंतु अगली रात को रिसेप्शन पार्टी के वक्त इस का राज खुल गया.

वह रात शायद सौरभ भाई के जीवन की सब से दुख भरी रात थी.

उस दिन मौका मिलने पर जबतब मैं सौरभ भाई को भाभी का नाम ले कर छेड़ती थी. रात को रिसेप्शन पार्टी पूरे शबाब पर थी. दूल्हादुलहन को मंडप में बिठाया गया था. लोग तोहफे और बुके ले कर जब दुलहन के पास पहुंचते तो इतनी सुंदर दुलहन देख पलक झपकाना भूल जाते. हम सब खुश थे, पर हमारी खुशी पर जल्दी ही तुषारापात हो गया.

वह पूर्णिमा की रात थी. हर पूर्णिमा को ज्वारभाटे के साथ समुद्र का शोर इतना बढ़ जाता कि काका के घर तक साफ सुनाई पड़ता. उस वक्त ऐसा ही लगा था जैसे अचानक ही शांत समुद्र में इस कदर ज्वारभाटा आ गया हो जो हमारे घर के अमनचैन को तबाह और बरबाद कर डालने पर उतारू हो. मेरे मन में भी शायद समुद्र से कम ज्वारभाटे न थे.

अचानक ही दुलहन बनी भाभी अपने शरीर की हरेक वस्तु को नोंचनोंच कर फेंकने लगीं, फिर पूरे अहाते में चीखती हुई इधर से उधर दौड़ने लगीं. बड़ी मुश्किल से उन्हें काबू में किया गया. कमली ने दौड़ कर कोई दवा भाभी को खिलाई तो वह धीरेधीरे कुरसी पर बेहोश सी पड़ गईं. तब भाभी को उठा कर कमरे में लिटा दिया गया. फिर तो सभी लोगों ने कमली को कटघरे में ला खड़ा किया. उस का चेहरा सफेद पड़ चुका था. उस ने डरते और रोते हुए बताया, ‘पिछले 4 सालों से संगीता बेबी को अचानक दौरे पड़ने शुरू हो गए. रोज दवा लेने से वह कुछ ठीक रहती हैं, परंतु अगर किसी कारणवश 10-11 दिन तक दवा नहीं लें तो दौरा पड़ जाता है. यह सब जान कर कौन शादी के लिए तैयार होता? इसलिए इस बारे में कुछ न बता कर यह शादी कर दी गई.

‘मैं ने उन्हें बचपन से पाला है, इसलिए मुझे साथ भेज दिया गया ताकि उन्हें समय से दवा खिला सकूं. सब ने सोचा कि नियति ने चाहा तो किसी को पता नहीं चलेगा, पर शायद नियति को यह मंजूर नहीं था,’ कह कर कमली फूटफूट कर रोने लगी.

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काकी तो यह सुन कर बेहोश हो गईं. मां ने उन्हें संभाला. घर के सभी लोग एकदम आक्रोश से भर उठे. इतने बड़े धोखे को कोई कैसे पचा सकता था. तुरंत उन के मायके वालों को फोन कर दिया कि आ कर अपनी बेटी को ले जाएं. सहसा ही मैं अपराधबोध से भर उठी थी. जिस भाई ने मुझ पर भरोसा कर के मेरी स्वीकृति मात्र से लड़की देखे बिना शादी कर ली उसी भाई का जीवन मेरी वजह से बरबादी के कगार पर पहुंच गया था. इस की टीस रहरह कर मेरे मनमस्तिष्क को विषैले दंश से घायल करती रही और मैं अंदर ही अंदर लहूलुहान होती रही.

2 दिन बाद भाभी के मातापिता आए. हमारे सारे रिश्तेदारों ने उन्हें जितना मुंह उतनी बातें कहीं. जी भर कर उन्हें लताड़ा, फटकारा और वे सिर झुकाए सबकुछ चुपचाप सुनते रहे. 2 घंटे बाद जब सभी के मन के गुबार निकल गए तो भाभी के पिता सब के सामने हाथ जोड़ कर बोले, ‘आप लोगों का गुस्सा जायज है. हम यह स्वीकार करते हैं कि हम ने आप से धोखा किया. हम अपनी बेटी को ले कर अभी चले जाएंगे.

‘परंतु जाने से पहले मैं आप लोगों से यह कहना चाहता हूं कि हमारी बेटी कोई जन्म से ऐसी मानसिक रोगी नहीं थी. उसे इस हाल में पहुंचाने वाला आप का यह बेदर्द समाज है. 7 साल पहले एक जमींदार घराने के अच्छे पद पर कार्यरत लड़के के साथ हम ने संगीता का रिश्ता तय किया था. सगाई होने तक तो वे यही कहते रहे कि आप अपनी मरजी से अपनी बेटी को जो भी देना चाहें दे सकते हैं, हमारी ओर से कोई मांग नहीं है. फिर शादी के 2 दिन पहले इतनी ज्यादा मांग कर बैठे जो किसी भी सूरत में हम पूरी नहीं कर सकते थे.

‘अंतत: हम ने इस रिश्ते को यहीं खत्म कर देना बेहतर समझा, परंतु वे इसे अपना अपमान समझ बैठे और बदला लेने पर उतारू हो गए. चूंकि वे स्थानीय लोग थे इसलिए हमारे घर जो भी रिश्ता ले कर आता उस से संगीता के चरित्र के बारे में उलटीसीधी बातें कर के रिश्ता तोड़ने लगे. इस के अलावा वे हमारे जानपहचान वालों के बीच भी संगीता की बदनामी करने लगे.

‘इन सब बातों से संगीता का आत्मविश्वास खोने लगा और वह एकदम गुमसुम हो गई. फिर धीरेधीरे मनोरोगी हो गई. इलाज के बाद भी खास फर्क नहीं पड़ा. जब आप लोग किसी की बातों में नहीं आए तो किसी तरह आप के घर रिश्ता करने में हम कामयाब हो गए.

‘मन से हम इस साध को भी मिटा न सके  कि बेटी का घर बसता हुआ देखें. हम यह भूल ही गए कि धोखा दे कर न आज तक किसी का भला हुआ है और न होगा. हो सके तो हमें माफ कर दीजिए. आप लोगों का जो अपमान हुआ और दिल को जो ठेस पहुंची उस की भरपाई तो मैं नहीं कर पाऊंगा, पर आप लोगों का जितना खर्चा हुआ है वह मैं घर पहुंचते ही ड्राफ्ट द्वारा भेज दूंगा. बस, अब हमें इजाजत दीजिए.’

फिर वह कमली से बोले, ‘जाओ कमली, संगीता को ले आओ.’

यह सुन कर एकदम सन्नाटा छा गया. तभी जाती हुई कमली को रोकते हुए सौरभ भाई बोले, ‘ठहरो, कमली, संगीता कहीं नहीं जाएगी. यह सही है कि इन लोगों ने हमें धोखा दिया और हम सब को ठेस पहुंचाई. इस के लिए इन्हें सजा भी मिलनी चाहिए, और सजा यह होगी कि आज के बाद इन से हमारा कोई संबंध नहीं होगा. परंतु इस में संगीता की कोई गलती नहीं है, क्योंकि उस की मानसिक दशा तो ऐसी है ही नहीं कि वह इन बातों को समझ सके.

‘परंतु मैं ने तो अपने पूरे होशोहवास में मनप्राण से उसे पत्नी स्वीकारा है. अग्नि को साक्षी मान कर हर दुखसुख में साथ निभाने का प्रण किया है. कहते हैं जन्म, शादी और मृत्यु सब पहले से तय होते हैं. अगर ऐसा है तो यही सही, संगीता जैसी भी है अब मेरे साथ ही रहेगी. मैं अपने सभी परिजनों से हाथ जोड़ कर विनती करता हूं

कि मुझे मेरे जीवनपथ से विचलित न करें क्योंकि मेरा निर्णय अटल है.’

सौरभ भाई के स्वभाव से हम सब वाकिफ थे. वह जो कहते उसे पूरा करने में कोई कसर न छोड़ते, इसलिए एकाएक ही मानो सभी को सांप सूंघ गया.

संगीता भाभी के मातापिता सौरभ भाई को लाखों आशीष देते चले गए. बाकी वहां मौजूद सभी नातेरिश्तेदारों में से किसीकिसी ने सौरभ भाई को सनकी, बेवकूफ और पागल आदि विशेषणों से विभूषित किया और धीरेधीरे चलते बने. आजकल किसी के पास इतना वक्त ही कहां होता है कि किसी की व्यक्तिगत बातों और समस्याओं में अपना कीमती वक्त गंवाए.

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भाभी के आने के बाद मैं बहुत मौजमस्ती करने की योजना मन ही मन बना चुकी थी, पर अब तो सब मन की मन ही में रही. तीसरे दिन अपने मम्मीपापा के साथ ही मैं ने लौटने का मन बना लिया.

दुखी मन से मैं भुवनेश्वर लौट आई. आने से पहले चुपके से एक रुमाल में सोने की चेन और कानों की बालियां कमली को दे आई कि मेरे जाने के बाद सौरभ भाई को दे देना. जब उन की ज्ंिदगी में बहार आई ही नहीं तो मैं कैसे उस तोहफे को कबूल कर सकती थी.

सौरभ भाई के साथ हुए हादसे को काकी झेल नहीं पाईं और एक साल के अंदर ही उन का देहांत हो गया. काकी के गम को हम अभी भुला भी नहीं पाए थे कि एक दिन नाग के डसने से कमली का सहारा भी टूट गया. बिना किसी औरत के सहारे के सौरभ भाई के लिए संगीता भाभी को संभालना मुश्किल होने लगा था, इसलिए सौरभ भाई ने कोशिश कर के अपना तबादला भुवनेश्वर करवा लिया ताकि मैं और मम्मी उन की देखभाल कर सकें.

मकान भी उन्होंने हमारे घर के करीब ही लिया था. वहां आ कर मेरी मदद से घर व्यवस्थित करने के बाद सब से पहले वह संगीता भाभी को अच्छे मनोचिकित्सक के पास ले गए. मैं भी साथ थी.

डाक्टर ने पहले एकांत में सौरभ भाई से संगीता भाभी की पूरी केस हिस्ट्री सुनी फिर जांच करने के बाद कहा कि उन्हें डिप्रेसिव साइकोसिस हो गया है. ज्यादा अवसाद की वजह से ऐसा हो जाता है. इस में रोेगी जब तक क्रोनिक अवस्था में रहता है तो किसी को जल्दी पता नहीं चल पाता कि अमुक आदमी को कोई बीमारी भी है, परंतु 10 से ज्यादा दिन तक वह दवा न ले तो फिर उस बीमारी की परिणति एक्यूट अवस्था में हो जाती है जिस में रोगी को कुछ होश नहीं रहता कि वह क्या कर रहा है. अपने बाल और कपड़े आदि नोंचनेफाड़ने जैसी हरकतें करने लगता है.

डाक्टर ने आगे बताया कि एक बार अगर यह बीमारी किसी को हो जाए तो उसे एकदम जड़ से खत्म नहीं किया जा सकता, परंतु जीवनपर्यंत रोजाना इस मर्ज की दवा की एक गोली लेने से सामान्य जीवन जीया जा सकता है. दवा के साथ ही साथ साईकोथैरेपी से मरीज में आश्चर्यजनक सुधार हो सकता है और यह सिर्फ उस के परिवार वाले ही कर सकते हैं. मरीज के साथ प्यार भरा व्यवहार रखने के साथसाथ बातों और अन्य तरीकों से घर वाले उस का खोया आत्मविश्वास फिर से लौटा सकते हैं.

डाक्टर के कहे अनुसार हम ने भाभी का इलाज शुरू कर दिया. मां तो अपने घर के काम में ही व्यस्त रहती थीं, इसलिए भाई की अनुपस्थिति में भाभी के साथ रहने और उन में आत्मविश्वास जगाने के लिए मैं ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी. भाई और मैं बातोंबातों में निरंतर उन्हें यकीन दिलाने की कोशिश करते कि वह बहुत अच्छी हैं, सुंदर हैं और हरेक काम अच्छी तरह कर सकती हैं.

शुरू में वह नानुकर करती थीं, फिर धीरेधीरे मेरे साथ खुल गईं. हम तीनों मिल कर कभी लूडो खेलते, कभी बाहर घूमने चले जाते.

लगातार प्रयास से 6 महीने के अंदर संगीता भाभी में इतना परिवर्तन आ गया कि वह हंसनेमुसकराने लगीं. लोगों से बातें करने लगीं और नजदीक के बाजार तक अकेली जा कर सब्जी बगैरह खरीद कर लाने लगीं. दूसरे लोग उन्हें देख कर किसी भी तरह से असामान्य नहीं कह सकते थे. यों कहें कि वह काफी हद तक सामान्य हो चुकी थीं.

हमें आश्चर्य इस बात का हो रहा था कि इस बीच न तो काका और न ही सौभिक भाई कभी हालचाल पूछने आए, पर सब कुछ ठीक चल रहा था, इसलिए हम ने खास ध्यान नहीं दिया.

इस के 5 महीने बाद ही मेरी शादी हो गई और मैं अपनी ससुराल दिल्ली चली गई. ससुराल आ कर धीरेधीरे मेरे दिमाग से सौरभ भाई की यादें पीछे छूटने लगीं क्योंकि आलोक के अपने मातापिता के एकलौते बेटे होने के कारण वृद्ध सासससुर की पूरी जिम्मेदारी मेरे ऊपर थी. उन्हें छोड़ कर मेरा शहर से बाहर जाना मुश्किल था.

मेरे ससुराल जाने के 2 महीने बाद ही पापा ने एक दिन फोन किया कि अच्छी नौकरी मिलने के कारण सौरभ भाई संगीता भाभी के साथ सिंगापुर चले गए हैं. फिर तो सौरभ भाई मेरे जेहन में एक भूली हुई कहानी बन कर रह गए थे.

अचानक किसी के हाथ की थपथपाहट मैं ने अपने गाल पर महसूस की तो सहसा चौंक पड़ी और सामने आलोक को देख कर मुसकरा पड़ी.

‘‘कहां खोई हो, डार्ल्ंिग, कल तुम्हारे प्यारे सौरभ भाई पधार रहे हैं. उन के स्वागत की तैयारी नहीं करनी है?’’ आलोक बोले. वह सौरभ भाई के प्रति मेरे लगाव को अच्छी तरह जानते थे.

‘‘अच्छा, तो आप को पता था कि फोन सौरभ भाई का था.’’

‘‘हां, भई, पता तो है, आखिर वह हमारे साले साहब जो ठहरे. फिर मैं ने ही तो उन से पहले बात की थी.’’

दूसरे दिन सुबह जल्दी उठ कर मैं ने नहाधो कर सौरभ भाई के मनपसंद दमआलू और सूजी का हलवा बना कर रख दिया. पूरी का आटा भी गूंध कर रख दिया ताकि उन के आने के बाद जल्दी से गरमगरम पूरियां तल दूं.

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आलोक उठ कर तैयार हो गए थे और बच्चे भी तैयार होने लगे थे. रविवार होने की वजह से उन्हें स्कूल तो जाना नहीं था. कोई गाड़ी घर के बाहर से गुजरती तो मैं खिड़की से झांक कर देखने लगती. आलोक मेरी अकुलाहट देख कर मंदमंद मुसकरा रहे थे.

आखिर जब तंग आ कर मैं ने देखना छोड़ दिया तो अचानक पौने 9 बजे दरवाजे की घंटी बज उठी. मैं ने दौड़ कर दरवाजा खोला तो सामने सदाबहार मुसकान लिए सौरभ भाई अटैची के साथ खड़े थे. वह तो वैसे ही थे, बस बदन पहले की अपेक्षा कुछ भर गया था और मूंछें भी रख ली थीं.

उन से पहली बार मिलने के कारण बच्चे नमस्ते करने के बाद कुछ सकुचाए से खड़े रहे. सौरभ भाई ने घुटनों के बल बैठते हुए अपनी बांहें पसार कर जब उन्हें करीब बुलाया तो दोनों बच्चे उन के गले लग गए.

मैं भाई को प्रणाम करने के बाद दरवाजा बंद करने ही वाली थी कि वह बोले, ‘‘अरे, क्या अपनी भाभी और भतीजे को अंदर नहीं आने दोगी?’’

मैं हक्कीबक्की सी उन का मुंह ताकने लगी क्योंकि उन्होंने भाभी और भतीजे के बारे में फोन पर कुछ कहा ही नहीं था. तभी भाभी ने अपने 7 वर्षीय बेटे के साथ कमरे में प्रवेश किया.

कुछ पलों तक तो मैं कमर से भी नीचे तक चोटी वाली सुंदर भाभी को देख ठगी सी खड़ी रह गई, फिर खुशी के अतिरेक में उन के गले लग गई.

सभी का एकदूसरे से मिलनेमिलाने का दौर खत्म होने और थोड़ी देर बातें करने के बाद भाभी नहाने चली गईं. फिर नाश्ते के बाद बच्चे खेलने में व्यस्त हो गए और आलोक तथा सौरभ भाई अपने कामकाज के बारे में एकदूसरे को बताने लगे.

थोड़ी देर उन के साथ बैठने के बाद जब मैं दोपहर के भोजन की तैयारी करने रसोई में गई तो मेरे मना करने के बावजूद संगीता भाभी काम में हाथ बंटाने आ गईं. सधे हाथों से सब्जी काटती हुई वह सिंगापुर में बिताए दिनों के बारे में बताती जा रही थीं. उन्होंने साफ शब्दों में स्वीकारा कि अगर सौरभ भाई जैसा पति और मेरी जैसी ननद उन्हें नहीं मिलती तो शायद वह कभी ठीक नहीं हो पातीं. भाभी को इस रूप में देख कर मेरा अपराधबोध स्वत: ही दूर हो गया.

दोपहर के भोजन के बाद भाभी ने कुछ देर लेटना चाहा. आलोक अपने आफिस के कुछ पेंडिंग काम निबटाने चले गए. बच्चे टीवी पर स्पाइडरमैन कार्टून फिल्म देखने में खो गए तो मुझे सौरभ भाई से एकांत में बातें करने का मौका मिल गया.

बहुतेरे सवाल मेरे मानसपटल पर उमड़घुमड़ रहे थे जिन का जवाब सिर्फ सौरभ भाई ही दे सकते थे. आराम से सोफे  पर पीठ टिका कर बैठती हुई मैं बोली, ‘‘अब मुझे सब कुछ जल्दी बताइए कि मेरी शादी के बाद क्या हुआ. मैं सब कुछ जानने को बेताब हूं,’’ मैं अपनी उत्सुकता रोक नहीं पा रही थी.

भैया ने लंबी सांस छोड़ते हुए कहना शुरू किया, ‘‘रंजू, तुम्हारी शादी के बाद कुछ भी ऐसा खास नहीं हुआ जो बताया जा सके. जो कुछ भी हुआ था तुम्हारी शादी से पहले हुआ था, परंतु आज तक मैं तुम्हें यह नहीं बता पाया कि पुरी से भुवनेश्वर तबादला मैं ने सिर्फ संगीता के लिए नहीं करवाया था, बल्कि इस की और भी वजह थी.’’

मैं आश्चर्य से उन का मुंह देखने लगी कि अब और किस रहस्य से परदा उठने वाला है. मैं ने पूछा, ‘‘और क्या वजह थी?’’

‘‘मां के बाद कमली किसी तरह सब संभाले हुए थी, परंतु उस के गुजरने के बाद तो मेरे लिए जैसे मुसीबतों के कई द्वार एकसाथ खुल गए. एक दिन संगीता ने मुझे बताया कि सौभिक ने आज जबरन मेरा चुंबन लिया. जब संगीता ने उस से कहा कि वह मुझ से कह देंगी तो माफी मांगते हुए सौभिक ने कहा कि यह बात भैया को नहीं बताना. फिर कभी वह ऐसा नहीं करेगा.

‘‘यह सुन कर मैं सन्न रह गया. मैं तो कभी सोच भी नहीं सकता था कि मेरा अपना भाई भी कभी ऐसी हरकत कर सकता है. बाबा को मैं इस बात की भनक भी नहीं लगने देना चाहता था, इसलिए 2-4 दिन की छुट्टियां ले कर दौड़धूप कर मैं ने हास्टल में सौभिक के रहने का इंतजाम कर दिया. बाबा के पूछने पर मैं ने कह दिया कि हमारे घर का माहौल सौभिक की पढ़ाई के लिए उपयुक्त नहीं है.

‘‘वह कुछ पूछे बिना ही हास्टल चला गया क्योंकि उस के मन में चोर था. रंजू, आगे क्या बताऊं, बात यहीं तक रहती तो गनीमत थी, पर वक्त भी शायद कभीकभी ऐसे मोड़ पर ला खड़ा करता है कि अपना साया भी साथ छोड़ देता नजर आता है.

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‘‘मेरी तो कहते हुए जुबान लड़खड़ा रही है पर लोगों को ऐसे काम करते लाज नहीं आती. कामांध मनुष्य रिश्तों की गरिमा तक को ताक पर रख देता है. उस के सामने जायजनाजायज में कोई फर्क नहीं होता.

‘‘एक दिन आफिस से लौटा तो अपने कमरे में घुसते ही क्या देखता हूं कि संगीता घोर निद्रा में पलंग पर सोई पड़ी है क्योंकि तब उस की दवाओं में नींद की गोलियां भी हुआ करती थीं. उस के कपड़े अस्तव्यस्त थे. सलवार के एक पैर का पायंचा घुटने तक सिमट आया था और उस के अनावृत पैर को काका की उंगलियां जिस बेशरमी से सहला रही थीं वह नजारा देखना मेरे लिए असह्य था. मेरे कानों में सीटियां सी बजने लगीं और दिल बेकाबू होने लगा.

‘‘किसी तरह दिल को संयत कर मैं यह सोच कर वापस दरवाजे की ओर मुड़ गया और बाबा को आवाज देता हुआ अंदर आया जिस से हम दोनों ही शर्मिंदा होने से बच जाएं. जब मैं दोबारा अंदर गया तो बाबा संगीता को चादर ओढ़ा रहे थे, मेरी ओर देखते हुए बोले, ‘अभीअभी सोई है.’ फिर वह कमरे से बाहर निकल गए. इन हालात में तुम ही कहो, मैं कैसे वहां रह सकता था? इसीलिए भुवनेश्वर तबादला करा लिया.’’

‘‘यकीन नहीं होता कि काका ने ऐसा किया. काकी के न रहने से शायद परिस्थितियों ने उन का विवेक ही हर लिया था जो पुत्रवधू को उन्होंने गलत नजरों से देखा,’’ कह कर शायद मैं खुद को ही झूठी दिलासा देने लगी.

भाई आगे बोले, ‘‘रिश्तों का पतन मैं अपनी आंखों से देख चुका था. जब रक्षक ही भक्षक बनने पर उतारू हो जाए तो वहां रहने का सवाल ही पैदा नहीं होता. इत्तिफाकन जल्दी ही मुझे सिंगापुर में एक अच्छी नौकरी मिल गई तो मैं संगीता को ले कर हमेशा के लिए उस घर और घर के लोगों को अलविदा कह आया ताकि दुनिया के सामने रिश्तों का झूठा परदा पड़ा रहे.

‘‘जब मुझे यकीन हो गया कि दवा लेते हुए संगीता स्वस्थ और सामान्य जीवन जी सकती है तो डाक्टर की सलाह ले कर हम ने अपना परिवार आगे बढ़ाने का विचार किया. जब मुझे स्वदेश की याद सताने लगी तो इंटरनेट के जरिए मैं ने नौकरी की तलाश जारी कर दी. इत्तिफाक से मुझे मनचाही नौकरी दिल्ली में मिल गई तो मैं चला आया और सब से पहले तुम से मिला. अब और किसी से मिलने की चाह भी नहीं है,’’ कह कर सौरभ भाई चुप हो गए.

वह 2 दिन रह कर लाजपतनगर स्थित अपने नए मकान में चले गए. मैं बहुत खुश थी कि अब फिर से सौरभ भाई से मिलना होता रहेगा. मेरे दिल से

मानो एक बोझ उतर गया था क्योंकि हो न हो मेरी ही वजह से पतझड़ में

तब्दील हो गए मेरे प्रिय और आदरणीय भाई के जीवन में भी आखिर वसंत आ ही गया.

जातेजाते भाभी ने मेरे हाथ में छोटा सा एक पैकेट थमा दिया. बाद में उसे मैं ने खोला तो उस में उन की शादी के वक्त मुझे दी गई चेन और कानों की बालियों के साथ एक जोड़ी जड़ाऊ कंगन थे, जिन्हें प्यार से मैं ने चूम लिया.

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 लक्ष्मी प्रिया टांडि

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बड़े अरमानों से रंजू ने अपने भैया सौरभ के लिए संगीता का चुनाव किया था. शादी के बाद संगीता की बीमारी की खबर से सारा उत्साह ठंडा पड़ गया. लेकिन सौरभ ने पति का पूरा फर्ज निभाते हुए संगीता के जीवन को नई दिशा दे डाली.

ट्रिन ट्रिन…फोन की घंटी बजती जा रही थी मगर इस से बेखबर आलोक टीवी पर विश्व कप फुटबाल मैच संबंधी समाचार सुनने में व्यस्त थे. तब मैं बच्चों का नाश्ता पैक करती हुई उन पर झुंझला पड़ी, ‘‘अरे बाबा, जरा फोन तो अटेंड कीजिए, मैं फ्री नहीं हूं. ये समाचार तो दिन में न जाने कितनी बार दोहराए जाएंगे.’’

आलोक चौंकते हुए उठे और अपनी स्टाइल में फोन रिसीव किया, ‘‘हैलो…आलोक एट दिस एंड.’’

स्कूल जाते नेहा और अतुल को छोड़ने मैं बाहर की ओर चल पड़ी. दोनों को रिकशे में बिठा कर लौटी तो देखा, आलोक किसी से बात करने में जुटे थे. मुझे देखते ही बोले, ‘‘रंजू, तुम्हारा फोन है. कोई मिस्टर अनुराग हैं जो सिर्फ तुम से बात करने को बेताब हैं,’’ कह कर उन्होंने रिसीवर मुझे थमा दिया और खुद अपने छूटते समाचारों की ओर दौड़ पड़े.

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मुझे कुछ याद ही नहीं आ रहा था कि कौन अनुराग है जिसे मैं जानती हूं, पर बात तो करनी ही थी सो बोल पड़ी, ‘‘हैलो, मैं रंजू बोल रही हूं…क्या मैं जान सकती हूं कि आप कौन साहब बोल रहे हैं?’’

‘‘मैं अनुराग, पहचाना मुझे? जरा दिमाग पर जोर डालना पड़ेगा. इतनी जल्दी भुला दिया मुझे?’’ फोन करने वाला जब अपना परिचय न दे कर मजाक करने लगा और पहेलियां बुझाने लगा तो मुझे बहुत गुस्सा आया कि पता नहीं कौन है जो इस तरह की बातें कर रहा है, पर आवाज कुछ जानीपहचानी सी लग रही थी. इसलिए अपनी वाणी पर अंकुश लगाती हुई मैं बोली, ‘‘माफ कीजिएगा, अब भी मैं आप को पहचान नहीं पाई.’’

‘‘मेरी प्यारी बहना, अपने सौरभ भाई की आवाज भी तुम पहचान नहीं पाओगी, ऐसा तो मैं ने सोचा ही नहीं था.’’

‘‘सौरभ भाई, आप…वाह…, तो मुझे उल्लू बनाने के लिए अपना नाम अनुराग बता रहे थे,’’ खुशी से मैं इतनी जोर से चीखी कि आलोक घबरा कर मेरे पास दौड़े चले आए.

‘‘क्या हुआ? इतनी जोर से क्यों चीखीं? कहीं छिपकली दिख गई क्या?’’

मैं इनकार में सिर हिलाती हुई हंस पड़ी, क्योंकि छिपकली देख कर भी मैं डर के मारे हमेशा चीख पड़ती हूं. फिर रिसीवर में माउथपीस पर हाथ रख कर बोली, ‘‘जरा रुकिए, अभी आ कर बताती हूं,’’ तो आलोक लौट गए.

‘‘हां, अब बताइए भाई, इतने दिनों बाद बहन की याद आई? कब आए आप स्ंिगापुर से? बाकी लोग कैसे हैं?’’ मैं ने सवालों की झड़ी लगा दी.

‘‘फिलहाल किसी के बारे में मुझे कोई खबर नहीं है, क्योंकि सब से ज्यादा मुझे सिर्फ तुम्हारी याद आई, इसलिए भारत आने के बाद सब से पहले मैं ने तुम्हें फोन किया. तुम से मिलने मैं कल ही तुम्हारे घर आ रहा हूं. पूरे 2 दिन तुम्हें बोर होना पड़ेगा. इसलिए कमर कस कर तैयार हो जाओ. बाकी बातें अब तुम्हारे घर पर ही होंगी, बाय,’’ इतना कह कर भाई ने फोन काट दिया.

सौरभ भाई कल सच में हमारे घर आने वाले हैं, सोच कर मैं खुशी से झूम उठी. 10 साल हो गए थे उन्हें देखे. आखिरी बार उन्हें अपनी शादी के वक्त देखा था.

अपने मातापिता की मैं अकेली संतान थी, पर दोनों चचेरे भाई सौरभ और सौभिक मुझ पर इतना प्यार लुटाते

थे कि मुझे कभी एहसास ही न हुआ कि मेरा अपना कोई सगा भाई या बहन नहीं है. काकाकाकी की तो मैं वैसे भी लाड़ली थी.

इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि हम भुवनेश्वर में रहते थे और काका का परिवार पुरी में. हमारा लगभग हर सप्ताह ही एकदूसरे से मिलनाजुलना हो जाता था. इसलिए 60-65 किलोमीटर की दूरी हमारे लिए कोई माने नहीं रखती थी.

मेरी सौभिक भाई से उतनी नहीं पटती थी, जितनी सौरभ भाई से. मेरे प्यारे और चहेते भैया तो सौरभ भाई ही थे. उन के अलावा समुद्र का आकर्षण ही था जो प्रत्येक सप्ताह मुझे पुरी खींच लाता था.

उन दिनों मैं दर्शनशास्त्र में एम.ए. कर रही थी इसलिए सौरभ भाई की जीवनदर्शन की गहरी बातें मुझे अच्छी लगती थीं. एक दिन वह कहने लगे, ‘रंजू, अपने भाई की एक बात गांठ बांध लो, गलती स्वीकार करने में ही समझदारी होती है. जीवन कोई कोर्ट नहीं है जहां कभीकभी गलत बात को भी तर्क द्वारा सही साबित कर दिया जाता है.’

मैं उन का मुंह ताकती रह गई तो वह आगे बोले, ‘तुम शायद ठीक से मेरी बात समझ नहीं पाईं. ठीक है, इस बात को मैं तुम्हें फिल्मी भाषा में समझाता हूं. थोड़ी देर पहले तुम ‘आनंद’ फिल्म का जिक्र कर रही थीं. मैं ने भी देख रखी है यह फिल्म. इस के एक सीन में जब अमिताभ रमेश देव से पूछता है कि तुम ने क्यों उस धनी सेठ को कोई बीमारी न होते हुए भी झूठमूठ की महंगी गोलियां दे कर एक मोटी रकम झटक ली. तो इस पर रमेश देव कहता है कि अगर ऐसे धनी लोगों को बेवकूफ बना कर मैं पैसे नहीं लूंगा तो गरीब लोगों का मुफ्त इलाज कैसे करूंगा?

‘एक नजर में रमेश देव का यह तर्क सही भी लगता है, परंतु सचाई की कसौटी पर परखा जाए तो क्या वह गलत नहीं था? अगर किसी गरीब की वह मदद करना चाहता था तो अपनी ओर से जितनी हो सके करनी चाहिए थी. इस के लिए किसी अमीर को लूटना न तो न्यायसंगत है और न ही तर्कसंगत, इसलिए ज्ञानी पुरुष गलत बात को सही साबित करने के लिए तर्क नहीं दिया करते बल्कि उस भूल को सुधारने का प्रयास करते हैं.’

एक दिन कालिज से घर लौटी तो मां एक खुशखबरी के साथ मेरा इंतजार कर रही थीं. मुझे देखते ही बोलीं, ‘सुना तू ने, तेरे काका का फोन आया था कि कल तेरे सौरभ भाई के लिए लड़की देखने कानपुर चलना है. सौरभ ने कहा है कि उसे हम सब से ज्यादा तुझ पर भरोसा है कि तू ही उस के लिए सही लड़की तलाश सकती है.’

मुझे अपनेआप पर नाज हो आया कि मेरे भाई को मुझ पर कितना यकीन है.

दूसरे दिन सौरभ भाई और सौभिक भाई के अलावा हम सब कानपुर पहुंचे तो मैं बहुत खुश थी. हम सभी को लड़की पसंद आ गई. हां, उस की उम्र जरूर मेरी मां और काकी के विचार से कुछ ज्यादा थी, पर आजकल 27 साल में शादी करना कोई खास बात नहीं होती. फिर उसे देख कर कोई 22-23 से ज्यादा की नहीं समझ सकता था.

बैठक में सब को चायनाश्ता देने और थोड़ी देर वहां बैठने के बाद जब भाभी अंदर जाने लगीं तो काकी ने मुझ से कहा, ‘रंजू, तुम अंदर जा कर संगीता के साथ बातें करो. यहां बड़ों के बीच बैठी बोर हो जाओगी. फिर हमें तो कुछ उस से पूछना है नहीं.’

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मैं भी भाभी के साथ बात करना चाहती थी, इसलिए अंदर चली गई. तभी उन के  घर में भाभी के बचपन से काम करने वाली आया कमली ने उन्हें एक टेबलेट खाने को दी. मेरे कुछ पूछने से पहले की कमली बोली, ‘शायद घबराहट के मारे बेबी के सिर में कुछ दर्द सा होने लगा है. आप तो समझ ही सकती हैं क्योंकि आप भी लड़की हैं.’

इस पर मैं बोली, ‘मैं समझ सकती हूं, पर च्ंिता करने की कोई बात नहीं है. हम सब को भाभी पहले ही पसंद आ चुकी हैं.’

भाभी ने तब तल्ख स्वर में कहा था, ‘पसंद तो सभी करते हैं पर शादी कोई नहीं.’

‘पर हम तो आज सगाई भी कर के जाने वाले हैं.’ मुझे लगा कि पहले कोई रिश्ता नहीं हो पाया होगा इसलिए भाभी ऐसे बोल रही हैं.

फिर सगाई कर के ही लौटे थे. इस के 10 दिन बाद सौरभ भाई के पास एक गुमनाम फोन आया कि जिस लड़की से आप शादी करने जा रहे हैं वह एक गिरे हुए चरित्र की लड़की है. अपने स्वभाव के मुताबिक सुनीसुनाई बात पर यकीन न करते हुए भाई ने फोन करने वाले से सख्त लहजे में कहा था, ‘आप को इस विषय में च्ंिता करने की कोई आवश्यकता नहीं है. उस के चरित्र के विषय में मुझे सब पता है.’

करीब एक महीने बाद ही धूमधाम से हम सब संगीता भाभी को दुलहन बना कर घर ले आए. उन के साथ दहेज में कमली भी आई थी. हमारे घर वालों ने सोचा ससुराल में भाभी को ज्यादा परेशानी न हो इस वजह से उन के मायके वालों ने उसे साथ भेजा है.

सौरभ भाई खूबसूरत दुलहन पा कर बहुत खुश थे. दुलहन पसंद करने के एवज में मैं ने उन से लाकेट समेत सोने की खूबसूरत एक चेन और कानों की बालियां मांगी थीं जो शादी के दिन ही उन्होंने मुझे दे दी थीं.

अगले दिन जब मैं फूलों का गजरा देने भाभी के कमरे की ओर जा रही थी तो मैं ने सौभिक भाई को छिप कर भाभी के कमरे में झांकते हुए देखा. मैं ने उत्सुकतावश घूम कर दूसरी ओर की खिड़की से कमरे के अंदर देखा तो दंग रह गई. भाभी सिर्फ साया और ब्लाउज पहने घुटने मोड़ कर पलंग पर बैठी थीं. साया भी घुटने तक चढ़ा हुआ था जिस में गोरी पिंडलियां छिले हुए केले के तने जैसी उजली और सुंदर लग रही थीं. उन के गीले केशों से टपकते हुए पानी से पीछे ब्लाउज भी गीला हो रहा था. उस पर गहरे गले का ब्लाउज पुष्ट उभारों को ढकने के लिए अपर्याप्त लग रहा था. इस दशा में वह साक्षात कामदेव की रति लग रही थीं.

सहसा ही मैं स्वप्नलोक की दुनिया से यथार्थ के धरातल पर लौट आई. फिर सधे कदमों से जा कर पीछे से सौभिक भाई की पीठ थपथपा दी और अनजान सी बनती हुई बोली, ‘भाई, तुम यहां खड़े क्या कर रहे हो? बाहर काका तुम्हें तलाश रहे हैं.’

सौभिक भाई बुरी तरह झेंप गए, बोले, ‘वो…वो…मैं. सौरभ भाई को ढूंढ़ रहा था.’

वह मुझ से नजरें चुराते हुए बिजली की गति से वहां से चले गए. मैं गजरे की थाली लिए भाभी के कमरे में अंदर पहुंची. ‘यह क्या भाभी? इस तरह क्यों बैठी हो? जल्दी से साड़ी बांध कर तैयार हो जाओ, तुम्हें देखने आसपास के लोग आते ही होंगे.’

‘मुझे नहीं पता साड़ी कैसे बांधी जाती है. कमली मेरे लिए दूध लेने गई है, वही आ कर मुझे साड़ी पहनाएगी,’ भाभी का स्वर एकदम सपाट था.

‘अच्छा, लगता है, तुम सिर्फ सलवारसूट ही पहनती हो. आओ, मैं तुम्हें बताती हूं कि साड़ी कैसे बांधी जाती है. मैं तो कभीकभी घर पर शौकिया साड़ी बांध लेती हूं.’

बातें करते हुए मैं ने उन की साड़ी बांधी. फिर केशों को अच्छी तरह पोंछ कर हेयर ड्रायर से सुखा कर पोनी बना दी. फिर हेयर पिन से मोगरे का गजरा लगाया और चेहरे का भी पूरा मेकअप कर डाला. सब से अंत में मांग भरने के बाद जब मैं ने उन के माथे पर मांगटीका सजाया तो कुछ पलों तक मैं खुद उस अपूर्व सुंदरी को निहारती रह गई.

इतनी देर तक मैं उन से अकेले ही बात करती रही. उन का चेहरा एकदम निर्विकार था. पूरे शृंगार के बावजूद कुछ कमी सी लग रही थी. शायद वह कमी थी भाभी के मुखड़े पर नजर न आने वाली स्वाभाविक लज्जा, क्योंकि यही तो वह आभूषण है जो एक भारतीय दुलहन की सुंदरता में चार चांद लगा देता है. ऐसा क्यों था, मैं तब समझ नहीं पाई थी, परंतु अगली रात को रिसेप्शन पार्टी के वक्त इस का राज खुल गया.

वह रात शायद सौरभ भाई के जीवन की सब से दुख भरी रात थी.

उस दिन मौका मिलने पर जबतब मैं सौरभ भाई को भाभी का नाम ले कर छेड़ती थी. रात को रिसेप्शन पार्टी पूरे शबाब पर थी. दूल्हादुलहन को मंडप में बिठाया गया था. लोग तोहफे और बुके ले कर जब दुलहन के पास पहुंचते तो इतनी सुंदर दुलहन देख पलक झपकाना भूल जाते. हम सब खुश थे, पर हमारी खुशी पर जल्दी ही तुषारापात हो गया.

वह पूर्णिमा की रात थी. हर पूर्णिमा को ज्वारभाटे के साथ समुद्र का शोर इतना बढ़ जाता कि काका के घर तक साफ सुनाई पड़ता. उस वक्त ऐसा ही लगा था जैसे अचानक ही शांत समुद्र में इस कदर ज्वारभाटा आ गया हो जो हमारे घर के अमनचैन को तबाह और बरबाद कर डालने पर उतारू हो. मेरे मन में भी शायद समुद्र से कम ज्वारभाटे न थे.

अचानक ही दुलहन बनी भाभी अपने शरीर की हरेक वस्तु को नोंचनोंच कर फेंकने लगीं, फिर पूरे अहाते में चीखती हुई इधर से उधर दौड़ने लगीं. बड़ी मुश्किल से उन्हें काबू में किया गया. कमली ने दौड़ कर कोई दवा भाभी को खिलाई तो वह धीरेधीरे कुरसी पर बेहोश सी पड़ गईं. तब भाभी को उठा कर कमरे में लिटा दिया गया. फिर तो सभी लोगों ने कमली को कटघरे में ला खड़ा किया. उस का चेहरा सफेद पड़ चुका था. उस ने डरते और रोते हुए बताया, ‘पिछले 4 सालों से संगीता बेबी को अचानक दौरे पड़ने शुरू हो गए. रोज दवा लेने से वह कुछ ठीक रहती हैं, परंतु अगर किसी कारणवश 10-11 दिन तक दवा नहीं लें तो दौरा पड़ जाता है. यह सब जान कर कौन शादी के लिए तैयार होता? इसलिए इस बारे में कुछ न बता कर यह शादी कर दी गई.

‘मैं ने उन्हें बचपन से पाला है, इसलिए मुझे साथ भेज दिया गया ताकि उन्हें समय से दवा खिला सकूं. सब ने सोचा कि नियति ने चाहा तो किसी को पता नहीं चलेगा, पर शायद नियति को यह मंजूर नहीं था,’ कह कर कमली फूटफूट कर रोने लगी.

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काकी तो यह सुन कर बेहोश हो गईं. मां ने उन्हें संभाला. घर के सभी लोग एकदम आक्रोश से भर उठे. इतने बड़े धोखे को कोई कैसे पचा सकता था. तुरंत उन के मायके वालों को फोन कर दिया कि आ कर अपनी बेटी को ले जाएं. सहसा ही मैं अपराधबोध से भर उठी थी. जिस भाई ने मुझ पर भरोसा कर के मेरी स्वीकृति मात्र से लड़की देखे बिना शादी कर ली उसी भाई का जीवन मेरी वजह से बरबादी के कगार पर पहुंच गया था. इस की टीस रहरह कर मेरे मनमस्तिष्क को विषैले दंश से घायल करती रही और मैं अंदर ही अंदर लहूलुहान होती रही.

2 दिन बाद भाभी के मातापिता आए. हमारे सारे रिश्तेदारों ने उन्हें जितना मुंह उतनी बातें कहीं. जी भर कर उन्हें लताड़ा, फटकारा और वे सिर झुकाए सबकुछ चुपचाप सुनते रहे. 2 घंटे बाद जब सभी के मन के गुबार निकल गए तो भाभी के पिता सब के सामने हाथ जोड़ कर बोले, ‘आप लोगों का गुस्सा जायज है. हम यह स्वीकार करते हैं कि हम ने आप से धोखा किया. हम अपनी बेटी को ले कर अभी चले जाएंगे.

‘परंतु जाने से पहले मैं आप लोगों से यह कहना चाहता हूं कि हमारी बेटी कोई जन्म से ऐसी मानसिक रोगी नहीं थी. उसे इस हाल में पहुंचाने वाला आप का यह बेदर्द समाज है. 7 साल पहले एक जमींदार घराने के अच्छे पद पर कार्यरत लड़के के साथ हम ने संगीता का रिश्ता तय किया था. सगाई होने तक तो वे यही कहते रहे कि आप अपनी मरजी से अपनी बेटी को जो भी देना चाहें दे सकते हैं, हमारी ओर से कोई मांग नहीं है. फिर शादी के 2 दिन पहले इतनी ज्यादा मांग कर बैठे जो किसी भी सूरत में हम पूरी नहीं कर सकते थे.

‘अंतत: हम ने इस रिश्ते को यहीं खत्म कर देना बेहतर समझा, परंतु वे इसे अपना अपमान समझ बैठे और बदला लेने पर उतारू हो गए. चूंकि वे स्थानीय लोग थे इसलिए हमारे घर जो भी रिश्ता ले कर आता उस से संगीता के चरित्र के बारे में उलटीसीधी बातें कर के रिश्ता तोड़ने लगे. इस के अलावा वे हमारे जानपहचान वालों के बीच भी संगीता की बदनामी करने लगे.

‘इन सब बातों से संगीता का आत्मविश्वास खोने लगा और वह एकदम गुमसुम हो गई. फिर धीरेधीरे मनोरोगी हो गई. इलाज के बाद भी खास फर्क नहीं पड़ा. जब आप लोग किसी की बातों में नहीं आए तो किसी तरह आप के घर रिश्ता करने में हम कामयाब हो गए.

‘मन से हम इस साध को भी मिटा न सके  कि बेटी का घर बसता हुआ देखें. हम यह भूल ही गए कि धोखा दे कर न आज तक किसी का भला हुआ है और न होगा. हो सके तो हमें माफ कर दीजिए. आप लोगों का जो अपमान हुआ और दिल को जो ठेस पहुंची उस की भरपाई तो मैं नहीं कर पाऊंगा, पर आप लोगों का जितना खर्चा हुआ है वह मैं घर पहुंचते ही ड्राफ्ट द्वारा भेज दूंगा. बस, अब हमें इजाजत दीजिए.’

फिर वह कमली से बोले, ‘जाओ कमली, संगीता को ले आओ.’

यह सुन कर एकदम सन्नाटा छा गया. तभी जाती हुई कमली को रोकते हुए सौरभ भाई बोले, ‘ठहरो, कमली, संगीता कहीं नहीं जाएगी. यह सही है कि इन लोगों ने हमें धोखा दिया और हम सब को ठेस पहुंचाई. इस के लिए इन्हें सजा भी मिलनी चाहिए, और सजा यह होगी कि आज के बाद इन से हमारा कोई संबंध नहीं होगा. परंतु इस में संगीता की कोई गलती नहीं है, क्योंकि उस की मानसिक दशा तो ऐसी है ही नहीं कि वह इन बातों को समझ सके.

‘परंतु मैं ने तो अपने पूरे होशोहवास में मनप्राण से उसे पत्नी स्वीकारा है. अग्नि को साक्षी मान कर हर दुखसुख में साथ निभाने का प्रण किया है. कहते हैं जन्म, शादी और मृत्यु सब पहले से तय होते हैं. अगर ऐसा है तो यही सही, संगीता जैसी भी है अब मेरे साथ ही रहेगी. मैं अपने सभी परिजनों से हाथ जोड़ कर विनती करता हूं

कि मुझे मेरे जीवनपथ से विचलित न करें क्योंकि मेरा निर्णय अटल है.’

सौरभ भाई के स्वभाव से हम सब वाकिफ थे. वह जो कहते उसे पूरा करने में कोई कसर न छोड़ते, इसलिए एकाएक ही मानो सभी को सांप सूंघ गया.

संगीता भाभी के मातापिता सौरभ भाई को लाखों आशीष देते चले गए. बाकी वहां मौजूद सभी नातेरिश्तेदारों में से किसीकिसी ने सौरभ भाई को सनकी, बेवकूफ और पागल आदि विशेषणों से विभूषित किया और धीरेधीरे चलते बने. आजकल किसी के पास इतना वक्त ही कहां होता है कि किसी की व्यक्तिगत बातों और समस्याओं में अपना कीमती वक्त गंवाए.

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भाभी के आने के बाद मैं बहुत मौजमस्ती करने की योजना मन ही मन बना चुकी थी, पर अब तो सब मन की मन ही में रही. तीसरे दिन अपने मम्मीपापा के साथ ही मैं ने लौटने का मन बना लिया.

दुखी मन से मैं भुवनेश्वर लौट आई. आने से पहले चुपके से एक रुमाल में सोने की चेन और कानों की बालियां कमली को दे आई कि मेरे जाने के बाद सौरभ भाई को दे देना. जब उन की ज्ंिदगी में बहार आई ही नहीं तो मैं कैसे उस तोहफे को कबूल कर सकती थी.

सौरभ भाई के साथ हुए हादसे को काकी झेल नहीं पाईं और एक साल के अंदर ही उन का देहांत हो गया. काकी के गम को हम अभी भुला भी नहीं पाए थे कि एक दिन नाग के डसने से कमली का सहारा भी टूट गया. बिना किसी औरत के सहारे के सौरभ भाई के लिए संगीता भाभी को संभालना मुश्किल होने लगा था, इसलिए सौरभ भाई ने कोशिश कर के अपना तबादला भुवनेश्वर करवा लिया ताकि मैं और मम्मी उन की देखभाल कर सकें.

मकान भी उन्होंने हमारे घर के करीब ही लिया था. वहां आ कर मेरी मदद से घर व्यवस्थित करने के बाद सब से पहले वह संगीता भाभी को अच्छे मनोचिकित्सक के पास ले गए. मैं भी साथ थी.

डाक्टर ने पहले एकांत में सौरभ भाई से संगीता भाभी की पूरी केस हिस्ट्री सुनी फिर जांच करने के बाद कहा कि उन्हें डिप्रेसिव साइकोसिस हो गया है. ज्यादा अवसाद की वजह से ऐसा हो जाता है. इस में रोेगी जब तक क्रोनिक अवस्था में रहता है तो किसी को जल्दी पता नहीं चल पाता कि अमुक आदमी को कोई बीमारी भी है, परंतु 10 से ज्यादा दिन तक वह दवा न ले तो फिर उस बीमारी की परिणति एक्यूट अवस्था में हो जाती है जिस में रोगी को कुछ होश नहीं रहता कि वह क्या कर रहा है. अपने बाल और कपड़े आदि नोंचनेफाड़ने जैसी हरकतें करने लगता है.

डाक्टर ने आगे बताया कि एक बार अगर यह बीमारी किसी को हो जाए तो उसे एकदम जड़ से खत्म नहीं किया जा सकता, परंतु जीवनपर्यंत रोजाना इस मर्ज की दवा की एक गोली लेने से सामान्य जीवन जीया जा सकता है. दवा के साथ ही साथ साईकोथैरेपी से मरीज में आश्चर्यजनक सुधार हो सकता है और यह सिर्फ उस के परिवार वाले ही कर सकते हैं. मरीज के साथ प्यार भरा व्यवहार रखने के साथसाथ बातों और अन्य तरीकों से घर वाले उस का खोया आत्मविश्वास फिर से लौटा सकते हैं.

डाक्टर के कहे अनुसार हम ने भाभी का इलाज शुरू कर दिया. मां तो अपने घर के काम में ही व्यस्त रहती थीं, इसलिए भाई की अनुपस्थिति में भाभी के साथ रहने और उन में आत्मविश्वास जगाने के लिए मैं ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी. भाई और मैं बातोंबातों में निरंतर उन्हें यकीन दिलाने की कोशिश करते कि वह बहुत अच्छी हैं, सुंदर हैं और हरेक काम अच्छी तरह कर सकती हैं.

शुरू में वह नानुकर करती थीं, फिर धीरेधीरे मेरे साथ खुल गईं. हम तीनों मिल कर कभी लूडो खेलते, कभी बाहर घूमने चले जाते.

लगातार प्रयास से 6 महीने के अंदर संगीता भाभी में इतना परिवर्तन आ गया कि वह हंसनेमुसकराने लगीं. लोगों से बातें करने लगीं और नजदीक के बाजार तक अकेली जा कर सब्जी बगैरह खरीद कर लाने लगीं. दूसरे लोग उन्हें देख कर किसी भी तरह से असामान्य नहीं कह सकते थे. यों कहें कि वह काफी हद तक सामान्य हो चुकी थीं.

हमें आश्चर्य इस बात का हो रहा था कि इस बीच न तो काका और न ही सौभिक भाई कभी हालचाल पूछने आए, पर सब कुछ ठीक चल रहा था, इसलिए हम ने खास ध्यान नहीं दिया.

इस के 5 महीने बाद ही मेरी शादी हो गई और मैं अपनी ससुराल दिल्ली चली गई. ससुराल आ कर धीरेधीरे मेरे दिमाग से सौरभ भाई की यादें पीछे छूटने लगीं क्योंकि आलोक के अपने मातापिता के एकलौते बेटे होने के कारण वृद्ध सासससुर की पूरी जिम्मेदारी मेरे ऊपर थी. उन्हें छोड़ कर मेरा शहर से बाहर जाना मुश्किल था.

मेरे ससुराल जाने के 2 महीने बाद ही पापा ने एक दिन फोन किया कि अच्छी नौकरी मिलने के कारण सौरभ भाई संगीता भाभी के साथ सिंगापुर चले गए हैं. फिर तो सौरभ भाई मेरे जेहन में एक भूली हुई कहानी बन कर रह गए थे.

अचानक किसी के हाथ की थपथपाहट मैं ने अपने गाल पर महसूस की तो सहसा चौंक पड़ी और सामने आलोक को देख कर मुसकरा पड़ी.

‘‘कहां खोई हो, डार्ल्ंिग, कल तुम्हारे प्यारे सौरभ भाई पधार रहे हैं. उन के स्वागत की तैयारी नहीं करनी है?’’ आलोक बोले. वह सौरभ भाई के प्रति मेरे लगाव को अच्छी तरह जानते थे.

‘‘अच्छा, तो आप को पता था कि फोन सौरभ भाई का था.’’

‘‘हां, भई, पता तो है, आखिर वह हमारे साले साहब जो ठहरे. फिर मैं ने ही तो उन से पहले बात की थी.’’

दूसरे दिन सुबह जल्दी उठ कर मैं ने नहाधो कर सौरभ भाई के मनपसंद दमआलू और सूजी का हलवा बना कर रख दिया. पूरी का आटा भी गूंध कर रख दिया ताकि उन के आने के बाद जल्दी से गरमगरम पूरियां तल दूं.

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आलोक उठ कर तैयार हो गए थे और बच्चे भी तैयार होने लगे थे. रविवार होने की वजह से उन्हें स्कूल तो जाना नहीं था. कोई गाड़ी घर के बाहर से गुजरती तो मैं खिड़की से झांक कर देखने लगती. आलोक मेरी अकुलाहट देख कर मंदमंद मुसकरा रहे थे.

आखिर जब तंग आ कर मैं ने देखना छोड़ दिया तो अचानक पौने 9 बजे दरवाजे की घंटी बज उठी. मैं ने दौड़ कर दरवाजा खोला तो सामने सदाबहार मुसकान लिए सौरभ भाई अटैची के साथ खड़े थे. वह तो वैसे ही थे, बस बदन पहले की अपेक्षा कुछ भर गया था और मूंछें भी रख ली थीं.

उन से पहली बार मिलने के कारण बच्चे नमस्ते करने के बाद कुछ सकुचाए से खड़े रहे. सौरभ भाई ने घुटनों के बल बैठते हुए अपनी बांहें पसार कर जब उन्हें करीब बुलाया तो दोनों बच्चे उन के गले लग गए.

मैं भाई को प्रणाम करने के बाद दरवाजा बंद करने ही वाली थी कि वह बोले, ‘‘अरे, क्या अपनी भाभी और भतीजे को अंदर नहीं आने दोगी?’’

मैं हक्कीबक्की सी उन का मुंह ताकने लगी क्योंकि उन्होंने भाभी और भतीजे के बारे में फोन पर कुछ कहा ही नहीं था. तभी भाभी ने अपने 7 वर्षीय बेटे के साथ कमरे में प्रवेश किया.

कुछ पलों तक तो मैं कमर से भी नीचे तक चोटी वाली सुंदर भाभी को देख ठगी सी खड़ी रह गई, फिर खुशी के अतिरेक में उन के गले लग गई.

सभी का एकदूसरे से मिलनेमिलाने का दौर खत्म होने और थोड़ी देर बातें करने के बाद भाभी नहाने चली गईं. फिर नाश्ते के बाद बच्चे खेलने में व्यस्त हो गए और आलोक तथा सौरभ भाई अपने कामकाज के बारे में एकदूसरे को बताने लगे.

थोड़ी देर उन के साथ बैठने के बाद जब मैं दोपहर के भोजन की तैयारी करने रसोई में गई तो मेरे मना करने के बावजूद संगीता भाभी काम में हाथ बंटाने आ गईं. सधे हाथों से सब्जी काटती हुई वह सिंगापुर में बिताए दिनों के बारे में बताती जा रही थीं. उन्होंने साफ शब्दों में स्वीकारा कि अगर सौरभ भाई जैसा पति और मेरी जैसी ननद उन्हें नहीं मिलती तो शायद वह कभी ठीक नहीं हो पातीं. भाभी को इस रूप में देख कर मेरा अपराधबोध स्वत: ही दूर हो गया.

दोपहर के भोजन के बाद भाभी ने कुछ देर लेटना चाहा. आलोक अपने आफिस के कुछ पेंडिंग काम निबटाने चले गए. बच्चे टीवी पर स्पाइडरमैन कार्टून फिल्म देखने में खो गए तो मुझे सौरभ भाई से एकांत में बातें करने का मौका मिल गया.

बहुतेरे सवाल मेरे मानसपटल पर उमड़घुमड़ रहे थे जिन का जवाब सिर्फ सौरभ भाई ही दे सकते थे. आराम से सोफे  पर पीठ टिका कर बैठती हुई मैं बोली, ‘‘अब मुझे सब कुछ जल्दी बताइए कि मेरी शादी के बाद क्या हुआ. मैं सब कुछ जानने को बेताब हूं,’’ मैं अपनी उत्सुकता रोक नहीं पा रही थी.

भैया ने लंबी सांस छोड़ते हुए कहना शुरू किया, ‘‘रंजू, तुम्हारी शादी के बाद कुछ भी ऐसा खास नहीं हुआ जो बताया जा सके. जो कुछ भी हुआ था तुम्हारी शादी से पहले हुआ था, परंतु आज तक मैं तुम्हें यह नहीं बता पाया कि पुरी से भुवनेश्वर तबादला मैं ने सिर्फ संगीता के लिए नहीं करवाया था, बल्कि इस की और भी वजह थी.’’

मैं आश्चर्य से उन का मुंह देखने लगी कि अब और किस रहस्य से परदा उठने वाला है. मैं ने पूछा, ‘‘और क्या वजह थी?’’

‘‘मां के बाद कमली किसी तरह सब संभाले हुए थी, परंतु उस के गुजरने के बाद तो मेरे लिए जैसे मुसीबतों के कई द्वार एकसाथ खुल गए. एक दिन संगीता ने मुझे बताया कि सौभिक ने आज जबरन मेरा चुंबन लिया. जब संगीता ने उस से कहा कि वह मुझ से कह देंगी तो माफी मांगते हुए सौभिक ने कहा कि यह बात भैया को नहीं बताना. फिर कभी वह ऐसा नहीं करेगा.

‘‘यह सुन कर मैं सन्न रह गया. मैं तो कभी सोच भी नहीं सकता था कि मेरा अपना भाई भी कभी ऐसी हरकत कर सकता है. बाबा को मैं इस बात की भनक भी नहीं लगने देना चाहता था, इसलिए 2-4 दिन की छुट्टियां ले कर दौड़धूप कर मैं ने हास्टल में सौभिक के रहने का इंतजाम कर दिया. बाबा के पूछने पर मैं ने कह दिया कि हमारे घर का माहौल सौभिक की पढ़ाई के लिए उपयुक्त नहीं है.

‘‘वह कुछ पूछे बिना ही हास्टल चला गया क्योंकि उस के मन में चोर था. रंजू, आगे क्या बताऊं, बात यहीं तक रहती तो गनीमत थी, पर वक्त भी शायद कभीकभी ऐसे मोड़ पर ला खड़ा करता है कि अपना साया भी साथ छोड़ देता नजर आता है.

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‘‘मेरी तो कहते हुए जुबान लड़खड़ा रही है पर लोगों को ऐसे काम करते लाज नहीं आती. कामांध मनुष्य रिश्तों की गरिमा तक को ताक पर रख देता है. उस के सामने जायजनाजायज में कोई फर्क नहीं होता.

‘‘एक दिन आफिस से लौटा तो अपने कमरे में घुसते ही क्या देखता हूं कि संगीता घोर निद्रा में पलंग पर सोई पड़ी है क्योंकि तब उस की दवाओं में नींद की गोलियां भी हुआ करती थीं. उस के कपड़े अस्तव्यस्त थे. सलवार के एक पैर का पायंचा घुटने तक सिमट आया था और उस के अनावृत पैर को काका की उंगलियां जिस बेशरमी से सहला रही थीं वह नजारा देखना मेरे लिए असह्य था. मेरे कानों में सीटियां सी बजने लगीं और दिल बेकाबू होने लगा.

‘‘किसी तरह दिल को संयत कर मैं यह सोच कर वापस दरवाजे की ओर मुड़ गया और बाबा को आवाज देता हुआ अंदर आया जिस से हम दोनों ही शर्मिंदा होने से बच जाएं. जब मैं दोबारा अंदर गया तो बाबा संगीता को चादर ओढ़ा रहे थे, मेरी ओर देखते हुए बोले, ‘अभीअभी सोई है.’ फिर वह कमरे से बाहर निकल गए. इन हालात में तुम ही कहो, मैं कैसे वहां रह सकता था? इसीलिए भुवनेश्वर तबादला करा लिया.’’

‘‘यकीन नहीं होता कि काका ने ऐसा किया. काकी के न रहने से शायद परिस्थितियों ने उन का विवेक ही हर लिया था जो पुत्रवधू को उन्होंने गलत नजरों से देखा,’’ कह कर शायद मैं खुद को ही झूठी दिलासा देने लगी.

भाई आगे बोले, ‘‘रिश्तों का पतन मैं अपनी आंखों से देख चुका था. जब रक्षक ही भक्षक बनने पर उतारू हो जाए तो वहां रहने का सवाल ही पैदा नहीं होता. इत्तिफाकन जल्दी ही मुझे सिंगापुर में एक अच्छी नौकरी मिल गई तो मैं संगीता को ले कर हमेशा के लिए उस घर और घर के लोगों को अलविदा कह आया ताकि दुनिया के सामने रिश्तों का झूठा परदा पड़ा रहे.

‘‘जब मुझे यकीन हो गया कि दवा लेते हुए संगीता स्वस्थ और सामान्य जीवन जी सकती है तो डाक्टर की सलाह ले कर हम ने अपना परिवार आगे बढ़ाने का विचार किया. जब मुझे स्वदेश की याद सताने लगी तो इंटरनेट के जरिए मैं ने नौकरी की तलाश जारी कर दी. इत्तिफाक से मुझे मनचाही नौकरी दिल्ली में मिल गई तो मैं चला आया और सब से पहले तुम से मिला. अब और किसी से मिलने की चाह भी नहीं है,’’ कह कर सौरभ भाई चुप हो गए.

वह 2 दिन रह कर लाजपतनगर स्थित अपने नए मकान में चले गए. मैं बहुत खुश थी कि अब फिर से सौरभ भाई से मिलना होता रहेगा. मेरे दिल से

मानो एक बोझ उतर गया था क्योंकि हो न हो मेरी ही वजह से पतझड़ में

तब्दील हो गए मेरे प्रिय और आदरणीय भाई के जीवन में भी आखिर वसंत आ ही गया.

जातेजाते भाभी ने मेरे हाथ में छोटा सा एक पैकेट थमा दिया. बाद में उसे मैं ने खोला तो उस में उन की शादी के वक्त मुझे दी गई चेन और कानों की बालियों के साथ एक जोड़ी जड़ाऊ कंगन थे, जिन्हें प्यार से मैं ने चूम लिया.

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 लक्ष्मी प्रिया टांडि

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June 28, 2019 at 10:20AM

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