Tuesday 25 June 2019

मुक्ति का बंधन

वह रीता सा बचपन था और अब यह व्यस्त सा यौवन. जाने क्यों सूनापन मीलों से मीलों तक यों पसरा है मानो बाहर कुहरा और घना हो आया है. राउरकेला से 53 किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ के जशपुर के इस छोटे से साफसुथरे लौज में अचानक मैं क्या कर रही हूं, खुद ही नहीं जानती.

लौज के इस कमरे में बैठी खुली खिड़की से दूर कुहरे में मैं अपलक ताकती हुई खुद को वैसा महसूस करने की कोशिश कर रही हूं जैसा हमेशा से करना चाहती थी, हां, चाहती थी, लेकिन कर नहीं  पाई थी.

हो सकता है ऐसा लगे कि युवा लड़की अकसर व्रिदोहिणी हो जाती है, घरपरिवार, पेरैंट्स हर किसी से लोहा लेना चाहती है क्योंकि वह अपनी सोच के आगे किसी को कुछ नहीं समझती. पर रुको, ठहरो, पीछे चलो. देखोगे तो ऐसा पूरी तरह सच नहीं है.

चलो, थोड़ा इतिहास खंगालें.

तब मैं बहुत छोटी थी. यही कोई 5 साल की. मुझे याद है मेरे पापा मुझे प्यार करते थे. गोद में बिठाते थे. लेकिन जैसे ही मैं मां के पास जाना चाहती, पापा क्रोधित हो कर मुझे प्रताडि़त करते. मुझे अपशब्द कहते. मुझे गोद में पटक देते.

धीरेधीरे मैं बड़ी होती गई. देखा, मां अपने शास्त्रीय गायन की वजह से कई बार पापा के हाथों पिटती थीं. उन के गायन की वजह से कई बार लोग हमारे घर आते. पापा मां पर गाहेबगाहे व्यंग्य कसते, मां को ले कर अपशब्द कहते. और उन के जाने के बाद कई दिनों तक मां को जलील करते रहते. ऐसा वातावरण बना देते कि घर के  काम के बाद मां अपना गायन ले कर बैठ ही नहीं पातीं, और बेहद दुखी रहतीं.

मां मेरे नानानानी की इकलौती संतान थीं. बहुत ही सरल, शांत, कर्मठ और अपने गायन में व्यस्त रहने वाली. पापा पार्टी पौलिटिक्स में रुचि रखने वाले, दूसरों पर रोब जमाने वाले बड़बोले. पापा के परिवार को ऊंचे खानदान के होने का बड़ा गर्व था. कुल, मान और पैसे के बूते समाज में उन के रोब को देखते हुए मेरे नाना ने मेरी मां के रूप में दुधारू गाय यहां बांध दी. उन्होंने सोचा था कि इन के रोब से बेटी का और उस के बाद बेटी के पिता का मान और रोब बढ़ेगा. मगर हुआ कुछ उलटा ही.

मां हैं मेरी शांत प्रकृति की. वे अपशब्दों और पीड़ा के आगे अपने होंठ सिल लेतीं ताकि बेटी को लड़ाई के माहौल से दूर रखा जा सके. मगर परिवार में किसी एक व्यक्ति की भी मनमानी से बच्चों के विकास का माहौल नहीं रहता, चाहे दूसरा कितना ही चुप रह जाए.

उस वक्त मेरी उम्र कोई 12 वर्ष की रही होगी जब जाने किनकिन घटनाओं के बाद मेरे पापा चिल्लाते हुए आए और मां का गला दबोच लिया. मेरी मां बड़ी स्वाभिमानी थीं. पापा उन का गला दबा रहे थे और वे चुपचाप उन से आंखें मिलाए खड़ी थीं. यह दृश्य देख मैं अंदर से कांप गई. पापा की छत्रछाया में मुझे मेरी मौत नजर आने लगी. मैं बिलख कर पापा के पैरों में पड़ कर भीख मांगने लगी कि वे मां को छोड़ दें.

मुझे पापा ने झटका दिया. मैं नाजुक सी, बेबस बच्ची अभी संभलती, उन्होंने मां को छोड़ मुझे गरदन पकड़ कर उठाया और धक्का दे कर कहा, ‘कमीनी, मां की तरफदारी करती है.’ मैं उन के धक्के से दूर जा गिरी, मां ने दौड़ कर मुझे अपनी बांहों के घेरे में ले लिया.

इस तरह हम मांबेटी के न चाहते हुए भी पापा के खुद के व्यवहार की वजह से पापा को लगता गया कि हम उन के विरोधी हैं, मां उन के बारे में मुझे भड़काती हैं और तभी मैं उन से दूर होती जा रही हूं.

घर का माहौल बेवजह विषैला हो गया था. लेकिन मां को पापा से अलग होने की सलाह देने पर मां का साफ इनकार ही रहता. मैं बड़ी पसोपेश में थी कि इतनी भी क्या मजबूरी कि मां को घुटघुट कर जीना पड़े और तब, जब वे रेडियो की हाई आर्टिस्ट भी हैं.

खैर, 15 साल की अवस्था में उस का भी पता मुझे लग ही गया कि मां की आखिर मजबूरी क्या थी. नानीजी का देहांत हुआ तो हम दोनों मांबेटी के साथ पापा भी रस्म निभाने कोलकाता पहुंचे.

मां की स्थिति देख नाना कुछ अवाक दिखे. मां के साथ पापा का अभद्र व्यवहार नानाजी को खलने लगा. नाना ने जरा पापा को समझाना क्या चाहा, पापा उखड़ गए. उन के अनुसार, नाना को हमेशा दामाद के आगे झुक कर रहना चाहिए, और कुछ समझाने का दुस्साहस कदापि नहीं करना चाहिए.

नाना सकते में थे. अब तक कभी मां ने कुछ बताया नहीं था, और लगातार हो रहे मां के साथ गलत व्यवहार का नाना को पता भी नहीं था.

मैं ने नाना को सबकुछ बता कर हमारे घर की परेशानी दूर करनी चाही. मां के पीछे मैं ने नाना के सामने मेरी मां की जिंदगी के कई सारे पन्ने खोल दिए. पर बात इस तरह बिगड़ जाएगी, मुझे तो अंदाजा ही नहीं था. नाना को हार्टअटैक आ गया और हम पर कई सारी परेशानियां एकसाथ आ गईं.

खैर, जैसेतैसे जब वे ठीक हो कर आए तो उन में काफी मानसिक परिवर्तन आ गया था. उन्होंने मां को सुझाव दिया कि मां चाहें तो यहीं रुक जाएं. लेकिन मां ने ऐसा करने से मना कर दिया. अभी मैं 10वीं में थी और मेरे जीवन में कोई बाधा उत्पन्न हो, वे ऐसा नहीं चाहती थीं. क्या बस इतनी ही बात थी? हम ने जोर डाला मां पर, तो कुछ बातें और सामने आईं.

दरअसल, मेरी नानी के पिता ने नानी की मां को अपनी जिंदगी से इस तरह अलग कर रखा था और अपनी भाभी के इतने करीबी थे कि उन की मां ने जहर खा लिया था.

नानी और उन की दीदी को बड़े दुख सहने पड़े थे. तो नानी ने वचन लिया था मेरी मां से कि जिंदगी में कभी हिम्मत हार कर पलायन नहीं करेगी. अपने बच्चों को समाज के नजर में कमतर नहीं होने देगी. मां तो वचन निभा रही थीं लेकिन मैं पापा के ईर्ष्या, क्रोध, घृणा, प्रतिशोध से खूब परेशान थी.

किसी भी तरह घर से निकलने के लिए मैं 12वीं करते हुए प्रतियोगी परीक्षा में बैठ रही थी. इस लिहाज से पहली बार में होटल मैनजमैंट में मेरा सरकारी कालेज में चयन हो गया तो बिना वक्त गंवाए भुवेनश्वर में मैं ने ऐडमिशन ले लिया. अब दूसरे साल कोलकाता के मैरियट होटल से मैं इंडस्ट्रियल टे्रनिंग कर रही थी. पर इस बार भी परिस्थितियां जटिल होती गईं.

परिवारनुमा कठघरे में खड़े जवाबतलब से मैं बेतहाशा ऊब चुकी थी और वाकई अपने चारों ओर की बददिमाग दीवारों को हथौड़ों के बेइंतहा वार से तोड़ देना चाहती थी. ट्रेनिंग के दौरान मैं अपने दूसरे दोस्तों की तरह अलग फ्लैट ले कर रहना चाहती थी. पापा ने ऐसा होने नहीं दिया. कंपनी के जीएम पद पर थे वे. पैसे की कोई कमी नहीं थी, लेकिन थी तो विश्वास की कमी.

पीछे मुड़ कर देखने पर उन्हें सिर्फ अंधड़ ही तो दिखता था, धुआं ही धुआं. न रिश्ता साफ था, न प्यार, न विश्वास. उन के दिल में हमेशा मेरे लिए शक ही रहे. उन्हें लगा कि अकेलेपन का मौका मिलते ही मैं सब से पहले उन की इज्जत पर वार करूंगी. बदले की जिस फितरत में वे झुलस रहे थे उसी में दूसरों को भी आंकना उन की आदत हो गईर् थी.

मां पर उन्होंने यह जिम्मेदारी डाल दी कि वे अपने पिताजी को यह दायित्व दे दें कि वे मेरी जिम्मेदारी उठाएं. पापा की यह बात, जो उन्होंने मेरी मां से कही, मेरे कानों में गूंजती रहती, ‘अपने पिताश्री से कहो कि बेटी ब्याह कर सिंहासन पर बैठ सम्राट बने पैर न डुलाते रहें बल्कि पोती की सेवा कर के कुछ दामाद का भी ऋ ण उतारें.’

अवाक थी मैं, नाना हमेशा से ही अपनी कम आर्थिक स्थिति में भी हमारा खयाल रखते रहे हैं.

इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग के लिए मैं भुवनेश्वर से कोलकाता गई थी. मेरी इच्छा थी मैं दिल्ली के लीलाज होटल गु्रप में अपनी ट्रेनिंग पूरी करूं. मैं ने पापा से छिपा कर वहां के लिए इंटरव्यू दिया और चयन भी हो गया. मगर पापा की मरजी के बगैर मैं एक कदम भी नहीं बढ़ा सकी.

नाना पूरी लगन से मेरी जिम्मेदारी में जुट गए थे. लेकिन यहां भी प्रेम का बंधन अब भारी पड़ने लगा मुझ पर. मुझे ट्रेनिंग से वापस आने में रात के 2 बज रहे थे. होटल की गाड़ी घर तक छोड़ रही थी. अभी नींद आने तक सारे दिन का संदेश मुझे फोन पर चैक करना होता था. दरअसल, ड्यूटी में अथौरिटी के आदेश से फोन जमा रहते थे.

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अब नाना की हिदायत होने लगी कि मैं रात को फोन न पकड़ूं, दोपहर तक न सोई रहूं, भले ही रात 3 बजे तक नींद आई हो. मेरा ड्रायर से गीले बाल सुखाना उन्हें गवारा न था जबकि होटल में हमें ऐसी ही हिदायतें दी गई थीं क्योंकि हमें ड्यूटी में गीले बाल ले कर आना मना था. पोशाक मेरी मरजी की मैं पहनूं तो नाना की सभ्यता में खलल पड़ता.

मतलब इन कोलाहलों ने मेरे अंतर्मन को सन्नाटे में तबदील कर दिया था. नाना अपनी जगह सही थे. और मैं अब बच्ची नहीं रह गई थी, यह सब नाना को समझाते रहने की एक बड़ी कठिन परिस्थिति से मैं जूझने को मजबूर थी.

अब बहुत हो चुका था. अंतर्मुखी होना मेरी खासीयत से ज्यादा नियति हो गई थी. प्यारइमोशन, सुखदुख अब मैं किसी से साझा नहीं करना चाहती थी. मुझे अपने पापा के आदेशोंनिर्देशों, नाना के अफसोसों, मां की प्यारभरी फिक्रों से नफरत होने लगी थी. मैं सब से दूर जाना चाहती थी. और तब जाने कैसे इस निर्बंध के बंधन में जकड़ कर यहां आ पहुंची थी. यह था उस की अभी तक की जिंदगी का इतिहास.

खुली खिड़की से कुहरा मेरी तरफ बढ़ता सा नजर आया, जैसे अब आ कर मुझे पूरी तरह जकड़ लेगा और मैं खो जाऊंगी इस घने से शून्य में.

ठंड से जकड़न बढ़ती जा रही थी मेरी. पीछे से जैसे कुहरे ने हाथ रखा हो मेरी पीठ पर. मैं सिहर कर पीछे मुड़ी. ओह, प्रबाल वापस आ गया था और अपना ठंडा बर्फीला हाथ मेरी पीठ पर रख मुझे बुला रहा था. वह बोला, ‘‘यह लो अदरक वाली चाय. मैं पी कर तुम्हारे लिए एक ले आया. इस लौज के नीचे क्या मस्त चाय बन रही है. यहां से दूर उस सामने पहाड़ी तक घने कुहरे की चादर बिछ गई है. चलो न, अब तैयार हो कर पैदल चलें पहाड़ी तक.’’

मैं ने चाय ली और उस से थोड़ी मोहलत मांगी. वह नीचे चला गया.

6 फुट का यह लंबा, गोरा, गठीला, रोबीला नौजवान मेरी एक बात पर मेरे साथ कहीं भी चला जाता है. मेरे लिए लोगों से कितनी ही बातें सुनता है और मैं कभी इस से ढंग से बात ही नहीं कर पाती. आज इस की इच्छा का मान रखना चाहिए मुझे.

वूलन ट्राउजर पर ग्रे कलर की हूडी चढ़ा कर मैं नीचे आ गई. वह मेरे इंतजार में इधरउधर घूमते हुए अगलबगल के छोटे होटलों में लंच के लिए जानकारी जुटा रहा था. मेरी 5 फुट 4 इंच की हाइट और उस की 6 फुट की हाइट के साथ खड़े होते ही अपने ठिगनेपन के एहसास भर से बिदक कर मैं हमेशा उस से दूर जा खड़ी होती हूं और वह एक रहस्यमयी मुसकान के साथ मेरी ओर देख कर फिर दूसरी ओर देखने लगता है.

छत्तीसगढ़ के मनोरम जशपुर में क्रिसमस का यह दिसंबरी महीना गुलाबी खुमारी से पत्तेपत्ते को मदहोश किए था. पहाड़ी तक पहुंचने की सड़क बर्फीली लेकिन चमकीली हो रही थी. पास ही दोनों ओर खाईनुमा ढलानों में मकानों और पेड़ों की कतारें एकदूसरे से दूरियों के बावजूद जैसे लिपटे खड़े दिख रहे थे.

प्रकृति और मानव जिजीविषा का अनुपम समागम. जितना यहां तालमेल है मानव और प्रकृति के बीच, हम शहर के कारिंदों में कहां? रहना होता है बित्तेभर की दूरी में और दिल की खाई पाटे नहीं पाटी जाती.

प्रबाल आगे निकल रहा था. इस कुहेलिका ने उसे कुतूहल से भर दिया था और अकसर मेरा ध्यान रखने वाला प्रबाल आज कुदरत के नजारों में डूबा हुआ आगे बढ़ गया था.

मैं ने घड़ी देखी. सुबह के 8 बज रहे थे. कल आए थे हम दोनों यहां.

होटल मैरियट में क्रिसमस की भारी व्यस्तता के बाद 28 और 29 दिसंबर को हम दोनों को छुट्टी मिली थी.

20 साल की उम्र भारतीय समाज में शिशुकाल ही मानी जाती है, अपने परिवार और रिश्तेदारों में तो अवश्य. ऐसे में पीछे जरूर ही पहाड़ टूट कर ध्वंस लीला चलने की उम्मीद कर सकती हूं. वह भी जब बिना बताए एक लड़के के साथ मैं यहां आ गई हूं.

प्रबाल को मैं 2 सालों से जानती हूं. कालेज में भी वह मेरा अच्छा दोस्त रहा. और इस ट्रेनिंग में भी बराबर मुझे समझने का और साथ देने का जैसे बीड़ा ही उठा रखा था उस ने.

प्रबाल रुक कर मेरा इंतजार कर रहा था. पास जाते ही उस ने एक ऊंची पहाड़ी के पास गोल से एक सफेद रुई से मेघ की ओर इशारा किया. मैं ने देखा तो उस ने कहा, ‘‘ठीक तुम्हारी तरह है यह मेघ.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘तुम भी तो ऐसी ही सफेद रुई सी लगती हो कोमल, लेकिन अंदर दर्द का गुबार भरा हुआ, लगता है बरस पड़ोगी अभी. लेकिन बिन बरसे ही निकल जाती हो दूर बिना किसी से कुछ कहे.’’

मैं खुद को कठोर दिखाने का प्रयास करती रहती हूं, लेकिन सच, शरमा गई थी अभी, कैसे समझ पाता है वह इतना मुझे. उस के साथ मेरी दोस्ती बड़ी सरल सी है. ‘कुछ तो है’ जैसा होते भी जैसे कुछ नहीं है. उस के साथ क्यों आई, न जानते हुए भी मुझे उस के साथ ही आने की इच्छा हुई, जाने क्यों. वह भी तो कभी किसी बात पर मुझे मना नहीं करता.

‘‘एकदम अविश्वसनीय,’’ मैं अचानक बोल पड़ी तो वह अवाक हुआ, ‘‘क्या?’’

‘‘तुम्हारा यों बोलना.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कभी कहते नहीं ऐसे.’’

झेंपते हुए वह आगे बढ़ गया. मैं नहीं बढ़ पाई. वहीं रुकी रही. सोच रही थी पीछे क्या हो रहा होगा. नाना, पापा, मां ‘क्यों और क्यों नहीं’ के सवाल लिए सब बरसने को तैयार खड़े मिलेंगे.

77 साल की उम्र में कई तरह की शारीरिक, मानसिक परेशानियों की वजह से थकेहारे नाना अब भी सहर्ष उस युवा लड़की की जिम्मेदारी उठाने को तत्पर थे, जो दबंग दामाद की व्रिदोहिणी बेटी थी और कभी भी उन की नपीतुली कटोरी में नहीं उतरने वाली थी. मेरे अचानक कहीं चले जाने की बात नाना को, मेरे पापा को बतानी पड़ी, कहीं मैं कुछ करगुजर जाऊं और पूरे परिवार को पछताना पड़े.

मैं ने अपना फोन खोला तो पापा के ढेरों संदेश दिखे, ज्यादातर धमकीभरे.

‘पापा, मैं जिऊंगी, मेरी सांसों को आप मेरी मां की तरह डब्बे में बंद नहीं कर सकते. भले ही कितनी ही माइनस हो जाए औक्सीजन मेरे लिए, मैं सांसें तो पूरी लूंगी, पापा,’ मैं ने सोचा.

मैं पीछे से जा कर प्रबाल के बराबर चलने लगी थी. हम एक पहाड़ी पर आ पहुंचे थे. दूधिया कुहरा छंट गया था और अब सूरज की चंपई किरणों ने हमें अपने आलिंगन में ले लिया था.

प्रबाल ने झिझकते हुए मेरा हाथ पकड़ा. मैं धड़कनों को महसूस कर रही थी. मैं ने उस के हाथ से अपना हाथ छुड़ा कर उस के पीठ पर हाथ रखा और कहा, ‘‘प्रबाल, हम दोस्त क्यों हैं, कभी यह सवाल तुम ने सोचा है?’’

‘‘तुम यह सवाल क्यों सोचती हो?’’

‘‘जरूरी है प्रबाल, मेरे लिए यह सवाल जरूरी है. मैं खुद को बहुत अच्छी तरह जानती हूं, इसलिए.’’

‘‘मैं ने तो सोचा नहीं. बस.’’

‘‘अगर सोचोगे नहीं तो आगे चल कर शायद पछताना भी पड़े.’’

‘‘तुम तो अपने घर वालों के बारे में सबकुछ बता ही चुकी हो, मेरे बारे में भी जानती ही हो कि मेरे बड़े भाई इंजीनियर हैं, शादीशुदा हैं, बेंगलुरु में जौब करते हैं, मम्मीपापा दोनों सरकारी जौब में थे और अब दोनों ही रिटायर हो चुके हैं, काफी पैंशन मिलती है, घरबार है. मेरी होटल की पढ़ाई को नाक कटाने वाला मान कर वे मुझ से सीधेमुंह बात नहीं करते थे. तो खानदान से लगभग बिछड़ा हुआ मैं अपने बलबूते ताकत जुटाने की कोशिश कर रहा हूं और तब तक पापा के पैसे से फलफूल रहा हूं. क्या तुम्हें मेरे इन विशेषणों से कोई परेशानी है?’’

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‘‘इसलिए, इसलिए ही प्रबाल, मैं तुम से बात करना चाह रही थी. तुम ने लक्ष्य निर्धारित कर के दौड़ना शुरू कर दिया है लेकिन जिसे संग लिए तुम दौड़ में जीतना चाहते हो वह तो सैर पर निकली है. उसे तो तुम्हारे लक्ष्य से कोई वास्ता नहीं, प्रबाल. उसे अभी हवाओं के कतरों को अपनी झोली में भरने की फिक्र है.’’

‘‘समझता हूं अभ्रा. लेकिन मुझे तुम्हारे साथ की आदत हो गई है. इसलिए नहीं कि तुम बहुत खूबसूरत, मासूम, गोरी और स्लिम हो या तुम अपने पापा की इकलौती हो, या तुम्हारा ब्यूटी सैंस बिंदास है, बल्कि इसलिए कि हम दोनों की सोच में बहुत अंतर नहीं, हम एकदूसरे को एकदूसरे पर थोपते नहीं. और हम समानांतर साथ चल सकते हैं बहुत दूर, इसलिए.’’

‘‘पर उम्मीद के बंधन में मैं नहीं बंध सकती प्रबाल. मैं खरा उतरने से आजिज आ गई हूं. भूल जाओ मुझे और जिन पलों में जब तक साथ हैं उतने में ही जीने दो मुझे.’’

प्रबाल मुझे अपलक देखता रहा. सूरज की भरपूर रोशनी के बावजूद सारे कुहरे उस के चेहरे पर ही आ कर जम गए थे जैसे. हम वापसी में सारे रास्ते चुप रहे और अपने कमरे में आ कर कुछ देर अपनेअपने पलंग पर लेटे रहे.

हम थक कर सो तो गए थे लेकिन हमारे अंदर भी एक कोलाहल था और बाहर भी.

कोलकाता वापस जा कर इस कोलाहल ने मेरे जीवन में भारी संघर्ष का रूप ले लिया. एक लड़के के साथ भागी हुई लड़की फिर से वापस आई है. यह तो भारतीय समाज में कलंक ही नहीं, मौत के समान दंडनीय है. भला हो कानून का जो अंधा है, इसलिए सारे पक्षों को देख पाता है, वरना आंख वालों से इस की उम्मीद नहीं.

मांपापा दोनों इस बीच नाना के पास आ गए थे और पापा अपने मोरचे पर तहकीकात में मुस्तैद रहते हुए भी अपनी कटी नाक के लिए मुझ पर जीभर लानत भेज रहे थे.

नाना ने आते ही मुझे लड़के से बात कराने पर जोर देना चाहा. बात करा दूं तो शादी के लिए ठोकाबजाया जा सके.

अब किस तरह किसकिस को समझाऊं कि इन लोगों की नापतोल से बाहर भागी थी मैं, और साथ था एक समझने वाला दोस्त.

पापा ने इस बीच फरमान सुना दिया, ‘‘सब बंद. पढ़ाई के नाम पर सारे चोंचले बंद. तुम मेरे साथ वापस चल रही हो, एक लड़का देखूंगा और तुम्हें विदा कर दूंगा. सांप नहीं पाल सकता मैं.’’

‘क्या मुझे नाना की बात से हमदर्दी थी? या मैं पापा के आगे घुटने टेक दूं? नहीं पापा, मैं जिऊंगी मां के इतिहास को पलट कर. मैं जिऊंगी खुद की सांसों के सहारे,’ यह सब सोचती मैं सभी को अनदेखा कर अपनी ट्रेनिंग पूरी करने को होटल के लिए निकल गई. होटल पहुंच कर नाना को फोन कर दिया कि ट्रेनी के लिए बने होटल के बंकर में ही मैं रह जाऊंगी, पर वापस उन के घर अब नहीं जाऊंगी.

मुझे होटल से 4 हजार रुपए भत्ते के मिलते और होटल में ही रहनाखाना फ्री था. यह ट्रेनिंग पीरियड कट जाने के लिए काफी था. लेकिन बाद की बात भी माने रखने वाली थी.

मेरे बंकर में रह जाने से प्रबाल को मेरे पीछे के हालात का अनुमान हो गया था और उस की मेरे प्रति सहानुभूति से मुझे उन्हीं गृहस्थी के पचड़े की बदबू सी महसूस हो रही थी. प्रबाल मेरे सख्त रवैए के प्रति अचंभित था. आखिर लड़की को क्या जरा भी सहारा नहीं चाहिए?

नहीं प्रबाल, मैं अपनी सांसें खुद अपने ही संघर्ष की ऊष्मा से तैयार करूंगी.

होटल में रह जाने के मेरे निर्णय की गाज नाना और मां पर गिरी. पापा मां को बिना लिए ही लौट गए इस हिदायत के साथ कि नाना और मां मिल कर जितना बिगाड़ना है मुझे बिगाड़ते रहें, वे अब जिम्मेदार नहीं.

इधर नाना से भी और गिड़गिड़ाया न गया, मां तो पापा के आगे थीं ही गूंगी.

मां की दुर्गति देख यही लगा कि मैं पापा के आगे हथियार डाल दूं और पापा के ढूंढ़े कसाई के खूंटे से बंध जाऊं. लेकिन यह मेरी दुर्गति की इंतहा हो जाती और मां के भविष्य की सुधार की कोई गारंटी भी नहीं थी.

दूसरी मुश्किल थी अगले 6 महीने की कालेज फीस का इंतजाम करना, जो

50 हजार रुपए के करीब थी और यह नाना से लेने की कोशिश पापा के साथ बवाल को अगले पड़ाव तक ले जाने के लिए काफी थी. तो क्या करती, प्रबाल के फीस भर देने के अनुरोध को मजबूरी में मान जाती या पढ़ाई और जिंदगी छोड़ सामंती अहंकार के आगे फिर टूट कर गिर जाती?

साल के बीच से एजुकेशन लोन मिलना मुश्किल था. मैं ने प्रबाल से ही कहना बेहतर समझा. उस ने सालभर की फीस भर दी और मेरी तसल्ली के लिए इस बात पर राजी हो गया कि मैं कोर्स पूरा होते ही नौकरी कर के उस का कर्ज चुका दूंगी.

एक दिन मैं ट्रेनी की हैसियत से होटल की ड्यूटी के तहत रिसैप्शन काउंटर पर खड़ी थी. पापा एक 30 वर्षीय युवक के साथ अचानक कार से उतर कर मेरे पास आए.

पापा ने मुझे मेरे एचआर मैनेजर का मेल दिखाया. मेरे यहां से रवानगी का इंतजाम करा लिया था उन्होंने.

मैं जल्द एचआर मैनेजर मैम से मिलने गई और वस्तुस्थिति का संक्षेप में खुलासा कर उन से सकारात्मक फीडबैक ले कर पापा के साथ दुर्गापुर लौट गई. हां, जातेजाते एक शर्त लगा दी कि मां वापस आएंगी, तभी आप का कहा सुनूंगी.

अजायबघर के उस लड़की घूरने वाले शख्स, जिसे पापा साथ लाए थे, के आगे पापा को हां कहना पड़ा.

घर आ कर मेरे कुछ भी कर जाने की धमकी के आगे झुक कर पापा ने मां को बुलवा लिया.

अब शठे शाठ्यम समाचरेत यानी जिस ने लाठी का प्रयोग किया उस के लिए लाठी का ही तो प्रयोग करना पड़ेगा, समान आचरण से ही क्रूर इंसान को सीख मिल सकेगी.

एक तरफ मुझे ट्रेनिंग में वापस जाने की हड़बड़ी थी. दूसरी ओर शादी वाले युवक से पीछा छुड़ाना था. और तो और, प्रबाल के लिए हमारे परिवार में एक स्थान बनाना था ताकि मुझे ले कर उस की कोशिश को महत्त्व मिल सके.

सब से पहले मैं ने प्रबाल से बात की. वह सहर्ष तैयार हो गया कि नाना और पापा की कड़ी को जोड़ने में वह मुख्य भूमिका में आएगा. धीरेधीरे उस की पहल पर नाना की प्रबाल के साथ जहां अच्छी ट्यूनिंग हो गई वहीं मेरे पापा के स्वभाव के प्रति भी उन में नर्म रुख आया.

इधर, एचआर मैनेजर मैम को उन की बात की याद दिलाते हुए मैं ने उन से मुझे जल्द ट्रेनिंग में वापस बुलाने को कहा. मैम मेरी आत्मनिर्भरता की सोच का स्वागत करती थीं और उन्होंने पापा पर जोर डाला कि वे मेरी ट्रेनिंग को पूरी करने दें. अड़ी तो मैं भी थी. उन्होंने भी सोचा कि एक बार यह पारंपरिक बिजनैसमैन फैमिली में चली गई तो यों ही इस का बेड़ा गर्क होने ही वाला है. कहीं ज्यादा रोक से बिगड़ गई तो लड़के वालों के सामने हेठी हो जाएगी. पापा ने मुझे ट्रेनिंग में जाने दिया. प्रबाल मुझ पर लगातार नजर रखे था.

एक दिन बड़ी घुटी सी महसूस कर रही थी मैं. माइग्रेन से सिर फटा जा रहा था मेरा. प्रबाल पास आया और मुझे देखता रहा, फिर कहा, ‘‘व्यर्थ ही परेशान होती हो. मैं हूं तुम्हारा दोस्त, क्यों इतना सोचती हो. तुम मेरे साथ होती हो तो मुझे खुशी होती है, और मैं यह तुम से कह कर और ज्यादा खुश होना चाहता हूं. तुम भी कहो, अगर मैं तुम्हारे किसी काम आ सकूं तो. इस से मुझे बेहद खुशी होगी. विचारों को खुला छोड़ो. इतना घुटती क्यों हो?’’

मैं, बस, रो पड़ी. मेरी स्थिति भांप कर प्रबाल ने आगे कहा, ‘‘मैं तुम्हारे साथ हूं अभ्रा, तुम चाहो तब भी और न चाहो, तब भी. जरूरी नहीं कि हम सामाजिक रीति से पतिपत्नी बनें कभी, लेकिन साथ होने का एहसास, जो समझे जाने का एहसास है, वह अनमोल है. अगर मेरा तुम से जुड़े रहना तुम्हें पसंद नहीं, तो बेझिझक तुम वह भी कह दो. हां, मैं तुम्हें भूलने की गारंटी तो नहीं दे सकूंगा, लेकिन तुम जैसा चाहोगी वैसा ही होगा.’’

आंखों में आंसू थे मेरे जरूर, लेकिन दिल में सुकून के फूल खिल उठे थे. सच, प्रबाल की सोच मेरी सोच के कितने करीब थी.

जब तुम्हें कोई पसंद आता है तो तुम अपनी मरजी से उसे पसंद करते हो. फिर बंधन के नाम पर प्रेम की जगह उम्मीदों, आदेशों, निर्देशों और खुद की मनमानी की जंजीरों से क्यों बांध देते हो उसे? यह तो सामने वाले के दायरे को संकरा करना हुआ.

परिवार में पिता कमा कर लाता है, अपना दायित्व निभाता है. यह उस का बड़प्पन है. लेकिन बदले में परिवार के अन्य सदस्यों के विचारों और इच्छाओं का मान न करना, अपनी मनमानी करना, न्यायसंगत नहीं है. पैसे के बदले उसे ऐसे अधिकार तो नहीं मिल सकते. बच्चे पैदा करने में आप ने किसी पर दया तो नहीं की थी. विचारों के उथलपुथल के बीच मैं सुन्न सी पड़ गई थी.

प्रबाल ने कहा, ‘‘जो भी परेशानी हो, मुझे बताना. मैं हल निकालूंगा.’’

शादी वाले युवक का फोन नंबर कुछ सोच कर मैं ने पापा से यह कह कर रख लिया था कि शादी से पहले परिचय कर लूंगी फोन पर. बाद में मैं ने यह नंबर प्रबाल को दिया और हम ने इस पर मंथन करना शुरू किया.

प्रबाल इस बीच नाना के साथ अपनेपन की जमीन तैयार कर चुका था. अब वह वहां जा कर मेरे उन विचारों से मेरे घर वालों को अवगत करा रहा था जिन में अब तक किसी की दिलचस्पी नहीं थी. उस ने नाना से अपनी बात पूरी करते हुए कहा, ‘‘अहंकार पर मत लो नाना. मैं समझता हूं उसे, क्योंकि मैं ने समझने की कोशिश की है. आप लोग उस के ज्यादा करीबी जरूर हो, लेकिन बात किसी को महत्त्व देने की है. आप लोग खुद को और खुद की सोचों को ज्यादा महत्त्व देते हो और मैं अभ्रा को. इसलिए, मैं ज्यादा आसानी से उसे समझ पाता हूं.’’

नाना इतने भी अडि़यल नहीं थे, वे समझ गए और मुझे मदद देने को तैयार हो गए. शादी वाले युवक को फोन कर नाना ने कहा, ‘‘बेटा, आप का बहुत ही परंपरावादी परिवार है, लेकिन यह शादी आप को कोई सुख नहीं दे पाएगी. लड़की के पिता सिर्फ बेटी को सजा देने के लिए यह शादी करवा रहे हैं. लेकिन बेटी किसी दबाव या मनमानी सह कर नहीं जिएगी. वह स्वतंत्र सोच वाली आधुनिक लड़की है. शादी के बाद आप सब की जगहंसाई न हो. बाकी, आप की इच्छा.’’

लड़के ने तुरंत फोन रखने की कोशिश में कहा, ‘‘मैं नहीं करने वाला यह शादी, मुझे शुरू से ही शक था.’’

‘‘सुनो बेटे, सुनोसुनो, यह तुम मत कहना कि हम ने आगाह किया तुम्हें, क्योंकि लड़की के पापा के डर से हमें यह कहना पड़ेगा हम ने ऐसा नहीं कहा. और तुम प्रमाण देने लगे तो हमें फिर और दूसरा रास्ता अपनाना पड़ेगा. आप लोग लड़के वाले हो, लड़की के बारे में पता करना आप का हक है. इसी लिहाज से कह देना कि आप को लड़की जमी नहीं.’’

‘‘हां, कह दूंगा.’’

बात शांति से खत्म. पापा को जब सुनने में आया कि होटल मैनेजमैंट पढ़ने वाली लड़की खानदानी बहू नहीं बन सकती और इसलिए रिश्ता खत्म, तो पापा ने खूब लानत भेजी मुझे. मैं ने भी कह दिया, ‘‘अब तो कहीं ऊंची नौकरी कर लूं तभी आप की कटी नाक फिर से निकले. फीस जारी रखिए ताकि अपने पैरों पर खड़ी हो कर आप का नाम रोशन करूं.’’

‘‘और लड़कों के साथ जो भाग जाती हो?’’

‘‘एक दोस्त है मेरा प्रबाल, लड़की की शक्ल नहीं है उस की. बस, इतना ही कुसूर है. थोड़ा तो आगे बढि़ए पापा.’’

इस बीच, प्रबाल नाना की पुरानी सोचों में काफी बदलाव ले आया था. वे अब नई पीढ़ी को समझने को तैयार रहने लगे थे. मैं ट्रेनिंग में ही थी और होटल का बंकर ही फिलहाल मेरा ठिकाना था.

मेरे जन्मदिन पर नाना ने अपने घर में एक छोटा सा आयोजन रखा और कुछ परिचितों को बुलाया. पार्टी के खास आकर्षण मेरे मांपापा थे जिन्हें नाना ने अपनी वाकपटुता से आने के लिए राजी कर लिया था. निसंदेह इस में प्रबाल की दक्षता भी कम नहीं थी.

प्रबाल का मानना था कि तोड़ने में हम जितनी ऊर्जा गंवाते हैं, जोड़ने में उतनी ही ऊर्जा क्यों न गंवा कर देखा जाए. जिंदगी को खूबसूरती से जिया जाए तो दुनिया की सुंदरता को हम शिद्दत से महसूस कर सकते हैं.

प्रबाल और मेरी उपस्थिति में जब एक अच्छी पार्टी रात गए खत्म हुई तो नाना ने प्रबाल को रात हमारे साथ ही रुक जाने को कहा.

पापा का पहला सवाल, ‘‘अभी तक यहां क्यों है?’’ इशारा प्रबाल की ओर था उन का.

नाना ने कहा, ‘‘ताकि हम सब साथ हो सकें. कुछ देर रुक कर मेरी बात सुनो आकाश, किसी की कुछ न सुनना और अपना फरमान दूसरों पर थोप देना, तुम्हारी यह आदत तुम्हें दूसरों की नजर में गिरा रही है.’’

‘‘मैं आप का कोई ज्ञान नहीं सुनूंगा. आप बेटी के बाप हैं, उतना ही रहें.’’

‘‘बस पापा,’’ मैं कूद पड़ी थी बीच में, ‘‘पुराने ढकोसलों से पटी पड़ी आप की सोच और उन निरर्थक सोचों पर आप की दूसरों की जिंदगी चलाने की कोशिश हमें ले डूबेगी. आप बुरी तरह अहंकार की चपेट में हैं, पैसे और रुतबे की धौंस से आप अपने परिवार को बांधे नहीं रख सकते. जिंदगीभर आप तानाशाही नहीं चला सकते. आप मेरा खर्च उठा कर अपना कर्तव्य निभा रहे हैं, बदले में लेने की कुछ फिक्र न करें. बेटी का पिता कह कर किसे नीचे दिखा रहे हैं? आप क्या हैं?’’

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मेरी मां अवाक मुझे देख रही थीं. अचानक बोल उठीं, ‘‘यह प्रबाल की संगत का असर है, वरना सोच तो कब से थी हम में, लेकिन बोलने की हिम्मत कहां थी.’’

‘‘यही तो चाहते रहे पापा कि उन के आगे किसी की हिम्मत नहीं पड़े. उन्हें कभी हिम्मत हुई कि अपने अंदर के अहंकार के शिलाखंड को तोड़ें? कोशिश ही नहीं की कभी खुद को गलत कहने की, खुद की सोचों को मथने की.’’

पापा सिर झुकाए बैठे रहे जैसे सिर से पैर तक  ज्वालामुखी पिघल कर गिरतेगिरते बर्फ सा जमता जा रहा था. धीरेधीरे उन्होंने सिर उठाया और प्रबाल की ओर देखा और देखते रह गए. 6 फुट की हाइट, गोरा, शांत, सुंदर चेहरा, समझदार ऐसा कि सब को साथ लिए चलने का हुनर हो जिस में, अच्छा परिवार, लेकिन नौकरीकैरियर? होटल? नहींनहीं.

पापा अभी कुछ नकारात्मक कह पड़ते, इस से पहले मैं ने कमान संभाल ली, ‘‘पापा, अभी मुझे काफी कुछ करना है, दुनिया को अपने सिरे से ढूंढ़ना है, इसलिए नहीं कि मैं मनमानी करना चाहती हूं, बल्कि इसलिए क्योंकि मुझे खुद को खुद के अनुसार गढ़ना है किसी अन्य के अनुसार नहीं.

‘‘मेरे खयाल से प्रबाल अगर होटल लाइन में है तो यह उस की खुद की मरजी है, किसी और की मरजी की गुलामी कर के आप के अनुसार किसी खानदानी लाइन जैसे कि डाक्टरी या इंजीनियरिंग में जाता और अपना परफौर्मैंस खराब करता तो क्या वह किसी काम का होता?’’

तुरंत मां ने कहा, ‘‘हम प्रबाल को अपना समझते हैं. यह हमेशा हमारे परिवार के साथ खड़ा रहा है. मेरे हिसाब से आकाश, आप भी समझ रहे होंगे. हम इसे अपने लिए बांध कर रख लेते हैं. अभ्रा को पढ़ने देते हैं.’’

पापा ने पहली बार खुलेदिल से प्रबाल की ओर देखा, फिर मां से कहा, ‘‘ठीक है.’’

ये दो शब्द उपस्थित सारे लोगों की सांसों में सुगंधित, मीठी बयार भर गए.

प्रबाल समझ गया था कि उसे राजगद्दी मिल चुकी है लेकिन उसे राजगद्दी से ज्यादा ‘मैं’ चाहिए थी. वह मेरी भावनाओं को अच्छी तरह समझता था.

उस ने कहा, ‘‘मां, मैं वचन देता हूं मैं आप सब का ही हूं और रहूंगा. मैं अभ्रा को छोड़ कर कहां जाऊंगा? मगर उसे खुल कर जीने दें. उसे जब जैसे मेरे साथ आना हो, आए. यह मुक्ति का बंधन है, टूटेगा नहीं.’’

मैं प्रबाल की आंखों से उतर कर जाने कहां खो कर भी प्रबाल में ही समा गई. हां, यह मुक्ति का ही बंधन था जिस ने मुझे अदृश्य डोर में बांधे रखे था, बिना बंधन का एहसास दिए. द्य

ऐसा भी

होता है

मेरे पड़ोस में एक सज्जन रहते हैं. वे अपने दूसरे पुत्र की शादी के लिए विशेष चिंतित थे क्योंकि उस की उम्र बढ़ती जा रही थी. वैसे तो वे हमेशा कहते फिरते थे कि वरयोग्य कन्या मिल जाने पर शादी कर लेंगे पर जब भी कोई लड़की वाला आता, इतनी मांग सामने रख देते कि वह लौट जाता.

चूंकि लड़का कदकाठी और देखने में ठीक था व मुंबई में कमाता था सो आने वालों की कतार लगी रहती थी. एक जगह शादी तय होने लगी पर लेनदेन का मामला आड़े आने लगा. उसे भी हाथ से निकल जाते देख उन्होंने शादी के लिए हां कर दी. विवाह के बाद जब कन्यापक्ष के लोग चौथ ले कर आए और लड़की की विदाई की चर्चा करने लगे, तब उन्होंने टाल दिया. वे इसी प्रकार 3-4 बार आए, मगर वापस लौटा दिए जाते.

लोगों के बहुत पूछने पर उन्होंने बताया कि दानदहेज की जितनी मेरी चाह थी, वह रकम मिलने पर ही विदाई करेंगे. अंत में बेचारे रिश्तेदारों को कर्ज ले कर उन की मांगें पूरी करनी पड़ीं. यह खबर चारों ओर हवा की तरह फैल गई और उन की थूथू होने लगी. इस के बाद भी उन के कान पर जूं न रेंगी. किसी के सामने पड़ जाने पर अपनी नजरें चुराते हुए घर में घुस जाते.  सभाजीत

मुझे औफिस के काम से देहरादून जाना

था. मेरा बेटा मुझे बस में बिठाने आया था. वहां पहुंच कर मालूम हुआ कि देहरादून की बस जाने वाली है, मैं तुरंत बस की तरफ बढ़ गई और जल्दीजल्दी बस में चढ़ने लगी. मेरी इस जल्दबाजी में बैग बस के दरवाजे में फंस कर फट गया. अब तक बस चल दी थी, इसलिए मैं ने कपड़े उठाए और बस की पीछे वाली सीट पर ही बैठ गई.

मैं सोच रही थी, इन कपड़ों को कैसे ले जाऊंगी और बेटे से भी चलते समय कोई बात नहीं हो पाई. तभी झटके से बस रुक गई, शायद ड्राइवर ने बस के पीछे स्कूटर से आते हुए लड़के को देख लिया था. लड़का बस के पास आ कर खिड़की से कंडक्टर को बैग दे कर कह रहा था कि कृपया, यह बैग मेरी मां को दे दीजिएगा.

मैं अपने बेटे की आवाज से चौंक गई. तभी कंडक्टर ने मुझे बैग थमाते हुए कहा कि मैडम, यह बैग आप का बेटा दे गया है.

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वह रीता सा बचपन था और अब यह व्यस्त सा यौवन. जाने क्यों सूनापन मीलों से मीलों तक यों पसरा है मानो बाहर कुहरा और घना हो आया है. राउरकेला से 53 किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ के जशपुर के इस छोटे से साफसुथरे लौज में अचानक मैं क्या कर रही हूं, खुद ही नहीं जानती.

लौज के इस कमरे में बैठी खुली खिड़की से दूर कुहरे में मैं अपलक ताकती हुई खुद को वैसा महसूस करने की कोशिश कर रही हूं जैसा हमेशा से करना चाहती थी, हां, चाहती थी, लेकिन कर नहीं  पाई थी.

हो सकता है ऐसा लगे कि युवा लड़की अकसर व्रिदोहिणी हो जाती है, घरपरिवार, पेरैंट्स हर किसी से लोहा लेना चाहती है क्योंकि वह अपनी सोच के आगे किसी को कुछ नहीं समझती. पर रुको, ठहरो, पीछे चलो. देखोगे तो ऐसा पूरी तरह सच नहीं है.

चलो, थोड़ा इतिहास खंगालें.

तब मैं बहुत छोटी थी. यही कोई 5 साल की. मुझे याद है मेरे पापा मुझे प्यार करते थे. गोद में बिठाते थे. लेकिन जैसे ही मैं मां के पास जाना चाहती, पापा क्रोधित हो कर मुझे प्रताडि़त करते. मुझे अपशब्द कहते. मुझे गोद में पटक देते.

धीरेधीरे मैं बड़ी होती गई. देखा, मां अपने शास्त्रीय गायन की वजह से कई बार पापा के हाथों पिटती थीं. उन के गायन की वजह से कई बार लोग हमारे घर आते. पापा मां पर गाहेबगाहे व्यंग्य कसते, मां को ले कर अपशब्द कहते. और उन के जाने के बाद कई दिनों तक मां को जलील करते रहते. ऐसा वातावरण बना देते कि घर के  काम के बाद मां अपना गायन ले कर बैठ ही नहीं पातीं, और बेहद दुखी रहतीं.

मां मेरे नानानानी की इकलौती संतान थीं. बहुत ही सरल, शांत, कर्मठ और अपने गायन में व्यस्त रहने वाली. पापा पार्टी पौलिटिक्स में रुचि रखने वाले, दूसरों पर रोब जमाने वाले बड़बोले. पापा के परिवार को ऊंचे खानदान के होने का बड़ा गर्व था. कुल, मान और पैसे के बूते समाज में उन के रोब को देखते हुए मेरे नाना ने मेरी मां के रूप में दुधारू गाय यहां बांध दी. उन्होंने सोचा था कि इन के रोब से बेटी का और उस के बाद बेटी के पिता का मान और रोब बढ़ेगा. मगर हुआ कुछ उलटा ही.

मां हैं मेरी शांत प्रकृति की. वे अपशब्दों और पीड़ा के आगे अपने होंठ सिल लेतीं ताकि बेटी को लड़ाई के माहौल से दूर रखा जा सके. मगर परिवार में किसी एक व्यक्ति की भी मनमानी से बच्चों के विकास का माहौल नहीं रहता, चाहे दूसरा कितना ही चुप रह जाए.

उस वक्त मेरी उम्र कोई 12 वर्ष की रही होगी जब जाने किनकिन घटनाओं के बाद मेरे पापा चिल्लाते हुए आए और मां का गला दबोच लिया. मेरी मां बड़ी स्वाभिमानी थीं. पापा उन का गला दबा रहे थे और वे चुपचाप उन से आंखें मिलाए खड़ी थीं. यह दृश्य देख मैं अंदर से कांप गई. पापा की छत्रछाया में मुझे मेरी मौत नजर आने लगी. मैं बिलख कर पापा के पैरों में पड़ कर भीख मांगने लगी कि वे मां को छोड़ दें.

मुझे पापा ने झटका दिया. मैं नाजुक सी, बेबस बच्ची अभी संभलती, उन्होंने मां को छोड़ मुझे गरदन पकड़ कर उठाया और धक्का दे कर कहा, ‘कमीनी, मां की तरफदारी करती है.’ मैं उन के धक्के से दूर जा गिरी, मां ने दौड़ कर मुझे अपनी बांहों के घेरे में ले लिया.

इस तरह हम मांबेटी के न चाहते हुए भी पापा के खुद के व्यवहार की वजह से पापा को लगता गया कि हम उन के विरोधी हैं, मां उन के बारे में मुझे भड़काती हैं और तभी मैं उन से दूर होती जा रही हूं.

घर का माहौल बेवजह विषैला हो गया था. लेकिन मां को पापा से अलग होने की सलाह देने पर मां का साफ इनकार ही रहता. मैं बड़ी पसोपेश में थी कि इतनी भी क्या मजबूरी कि मां को घुटघुट कर जीना पड़े और तब, जब वे रेडियो की हाई आर्टिस्ट भी हैं.

खैर, 15 साल की अवस्था में उस का भी पता मुझे लग ही गया कि मां की आखिर मजबूरी क्या थी. नानीजी का देहांत हुआ तो हम दोनों मांबेटी के साथ पापा भी रस्म निभाने कोलकाता पहुंचे.

मां की स्थिति देख नाना कुछ अवाक दिखे. मां के साथ पापा का अभद्र व्यवहार नानाजी को खलने लगा. नाना ने जरा पापा को समझाना क्या चाहा, पापा उखड़ गए. उन के अनुसार, नाना को हमेशा दामाद के आगे झुक कर रहना चाहिए, और कुछ समझाने का दुस्साहस कदापि नहीं करना चाहिए.

नाना सकते में थे. अब तक कभी मां ने कुछ बताया नहीं था, और लगातार हो रहे मां के साथ गलत व्यवहार का नाना को पता भी नहीं था.

मैं ने नाना को सबकुछ बता कर हमारे घर की परेशानी दूर करनी चाही. मां के पीछे मैं ने नाना के सामने मेरी मां की जिंदगी के कई सारे पन्ने खोल दिए. पर बात इस तरह बिगड़ जाएगी, मुझे तो अंदाजा ही नहीं था. नाना को हार्टअटैक आ गया और हम पर कई सारी परेशानियां एकसाथ आ गईं.

खैर, जैसेतैसे जब वे ठीक हो कर आए तो उन में काफी मानसिक परिवर्तन आ गया था. उन्होंने मां को सुझाव दिया कि मां चाहें तो यहीं रुक जाएं. लेकिन मां ने ऐसा करने से मना कर दिया. अभी मैं 10वीं में थी और मेरे जीवन में कोई बाधा उत्पन्न हो, वे ऐसा नहीं चाहती थीं. क्या बस इतनी ही बात थी? हम ने जोर डाला मां पर, तो कुछ बातें और सामने आईं.

दरअसल, मेरी नानी के पिता ने नानी की मां को अपनी जिंदगी से इस तरह अलग कर रखा था और अपनी भाभी के इतने करीबी थे कि उन की मां ने जहर खा लिया था.

नानी और उन की दीदी को बड़े दुख सहने पड़े थे. तो नानी ने वचन लिया था मेरी मां से कि जिंदगी में कभी हिम्मत हार कर पलायन नहीं करेगी. अपने बच्चों को समाज के नजर में कमतर नहीं होने देगी. मां तो वचन निभा रही थीं लेकिन मैं पापा के ईर्ष्या, क्रोध, घृणा, प्रतिशोध से खूब परेशान थी.

किसी भी तरह घर से निकलने के लिए मैं 12वीं करते हुए प्रतियोगी परीक्षा में बैठ रही थी. इस लिहाज से पहली बार में होटल मैनजमैंट में मेरा सरकारी कालेज में चयन हो गया तो बिना वक्त गंवाए भुवेनश्वर में मैं ने ऐडमिशन ले लिया. अब दूसरे साल कोलकाता के मैरियट होटल से मैं इंडस्ट्रियल टे्रनिंग कर रही थी. पर इस बार भी परिस्थितियां जटिल होती गईं.

परिवारनुमा कठघरे में खड़े जवाबतलब से मैं बेतहाशा ऊब चुकी थी और वाकई अपने चारों ओर की बददिमाग दीवारों को हथौड़ों के बेइंतहा वार से तोड़ देना चाहती थी. ट्रेनिंग के दौरान मैं अपने दूसरे दोस्तों की तरह अलग फ्लैट ले कर रहना चाहती थी. पापा ने ऐसा होने नहीं दिया. कंपनी के जीएम पद पर थे वे. पैसे की कोई कमी नहीं थी, लेकिन थी तो विश्वास की कमी.

पीछे मुड़ कर देखने पर उन्हें सिर्फ अंधड़ ही तो दिखता था, धुआं ही धुआं. न रिश्ता साफ था, न प्यार, न विश्वास. उन के दिल में हमेशा मेरे लिए शक ही रहे. उन्हें लगा कि अकेलेपन का मौका मिलते ही मैं सब से पहले उन की इज्जत पर वार करूंगी. बदले की जिस फितरत में वे झुलस रहे थे उसी में दूसरों को भी आंकना उन की आदत हो गईर् थी.

मां पर उन्होंने यह जिम्मेदारी डाल दी कि वे अपने पिताजी को यह दायित्व दे दें कि वे मेरी जिम्मेदारी उठाएं. पापा की यह बात, जो उन्होंने मेरी मां से कही, मेरे कानों में गूंजती रहती, ‘अपने पिताश्री से कहो कि बेटी ब्याह कर सिंहासन पर बैठ सम्राट बने पैर न डुलाते रहें बल्कि पोती की सेवा कर के कुछ दामाद का भी ऋ ण उतारें.’

अवाक थी मैं, नाना हमेशा से ही अपनी कम आर्थिक स्थिति में भी हमारा खयाल रखते रहे हैं.

इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग के लिए मैं भुवनेश्वर से कोलकाता गई थी. मेरी इच्छा थी मैं दिल्ली के लीलाज होटल गु्रप में अपनी ट्रेनिंग पूरी करूं. मैं ने पापा से छिपा कर वहां के लिए इंटरव्यू दिया और चयन भी हो गया. मगर पापा की मरजी के बगैर मैं एक कदम भी नहीं बढ़ा सकी.

नाना पूरी लगन से मेरी जिम्मेदारी में जुट गए थे. लेकिन यहां भी प्रेम का बंधन अब भारी पड़ने लगा मुझ पर. मुझे ट्रेनिंग से वापस आने में रात के 2 बज रहे थे. होटल की गाड़ी घर तक छोड़ रही थी. अभी नींद आने तक सारे दिन का संदेश मुझे फोन पर चैक करना होता था. दरअसल, ड्यूटी में अथौरिटी के आदेश से फोन जमा रहते थे.

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अब नाना की हिदायत होने लगी कि मैं रात को फोन न पकड़ूं, दोपहर तक न सोई रहूं, भले ही रात 3 बजे तक नींद आई हो. मेरा ड्रायर से गीले बाल सुखाना उन्हें गवारा न था जबकि होटल में हमें ऐसी ही हिदायतें दी गई थीं क्योंकि हमें ड्यूटी में गीले बाल ले कर आना मना था. पोशाक मेरी मरजी की मैं पहनूं तो नाना की सभ्यता में खलल पड़ता.

मतलब इन कोलाहलों ने मेरे अंतर्मन को सन्नाटे में तबदील कर दिया था. नाना अपनी जगह सही थे. और मैं अब बच्ची नहीं रह गई थी, यह सब नाना को समझाते रहने की एक बड़ी कठिन परिस्थिति से मैं जूझने को मजबूर थी.

अब बहुत हो चुका था. अंतर्मुखी होना मेरी खासीयत से ज्यादा नियति हो गई थी. प्यारइमोशन, सुखदुख अब मैं किसी से साझा नहीं करना चाहती थी. मुझे अपने पापा के आदेशोंनिर्देशों, नाना के अफसोसों, मां की प्यारभरी फिक्रों से नफरत होने लगी थी. मैं सब से दूर जाना चाहती थी. और तब जाने कैसे इस निर्बंध के बंधन में जकड़ कर यहां आ पहुंची थी. यह था उस की अभी तक की जिंदगी का इतिहास.

खुली खिड़की से कुहरा मेरी तरफ बढ़ता सा नजर आया, जैसे अब आ कर मुझे पूरी तरह जकड़ लेगा और मैं खो जाऊंगी इस घने से शून्य में.

ठंड से जकड़न बढ़ती जा रही थी मेरी. पीछे से जैसे कुहरे ने हाथ रखा हो मेरी पीठ पर. मैं सिहर कर पीछे मुड़ी. ओह, प्रबाल वापस आ गया था और अपना ठंडा बर्फीला हाथ मेरी पीठ पर रख मुझे बुला रहा था. वह बोला, ‘‘यह लो अदरक वाली चाय. मैं पी कर तुम्हारे लिए एक ले आया. इस लौज के नीचे क्या मस्त चाय बन रही है. यहां से दूर उस सामने पहाड़ी तक घने कुहरे की चादर बिछ गई है. चलो न, अब तैयार हो कर पैदल चलें पहाड़ी तक.’’

मैं ने चाय ली और उस से थोड़ी मोहलत मांगी. वह नीचे चला गया.

6 फुट का यह लंबा, गोरा, गठीला, रोबीला नौजवान मेरी एक बात पर मेरे साथ कहीं भी चला जाता है. मेरे लिए लोगों से कितनी ही बातें सुनता है और मैं कभी इस से ढंग से बात ही नहीं कर पाती. आज इस की इच्छा का मान रखना चाहिए मुझे.

वूलन ट्राउजर पर ग्रे कलर की हूडी चढ़ा कर मैं नीचे आ गई. वह मेरे इंतजार में इधरउधर घूमते हुए अगलबगल के छोटे होटलों में लंच के लिए जानकारी जुटा रहा था. मेरी 5 फुट 4 इंच की हाइट और उस की 6 फुट की हाइट के साथ खड़े होते ही अपने ठिगनेपन के एहसास भर से बिदक कर मैं हमेशा उस से दूर जा खड़ी होती हूं और वह एक रहस्यमयी मुसकान के साथ मेरी ओर देख कर फिर दूसरी ओर देखने लगता है.

छत्तीसगढ़ के मनोरम जशपुर में क्रिसमस का यह दिसंबरी महीना गुलाबी खुमारी से पत्तेपत्ते को मदहोश किए था. पहाड़ी तक पहुंचने की सड़क बर्फीली लेकिन चमकीली हो रही थी. पास ही दोनों ओर खाईनुमा ढलानों में मकानों और पेड़ों की कतारें एकदूसरे से दूरियों के बावजूद जैसे लिपटे खड़े दिख रहे थे.

प्रकृति और मानव जिजीविषा का अनुपम समागम. जितना यहां तालमेल है मानव और प्रकृति के बीच, हम शहर के कारिंदों में कहां? रहना होता है बित्तेभर की दूरी में और दिल की खाई पाटे नहीं पाटी जाती.

प्रबाल आगे निकल रहा था. इस कुहेलिका ने उसे कुतूहल से भर दिया था और अकसर मेरा ध्यान रखने वाला प्रबाल आज कुदरत के नजारों में डूबा हुआ आगे बढ़ गया था.

मैं ने घड़ी देखी. सुबह के 8 बज रहे थे. कल आए थे हम दोनों यहां.

होटल मैरियट में क्रिसमस की भारी व्यस्तता के बाद 28 और 29 दिसंबर को हम दोनों को छुट्टी मिली थी.

20 साल की उम्र भारतीय समाज में शिशुकाल ही मानी जाती है, अपने परिवार और रिश्तेदारों में तो अवश्य. ऐसे में पीछे जरूर ही पहाड़ टूट कर ध्वंस लीला चलने की उम्मीद कर सकती हूं. वह भी जब बिना बताए एक लड़के के साथ मैं यहां आ गई हूं.

प्रबाल को मैं 2 सालों से जानती हूं. कालेज में भी वह मेरा अच्छा दोस्त रहा. और इस ट्रेनिंग में भी बराबर मुझे समझने का और साथ देने का जैसे बीड़ा ही उठा रखा था उस ने.

प्रबाल रुक कर मेरा इंतजार कर रहा था. पास जाते ही उस ने एक ऊंची पहाड़ी के पास गोल से एक सफेद रुई से मेघ की ओर इशारा किया. मैं ने देखा तो उस ने कहा, ‘‘ठीक तुम्हारी तरह है यह मेघ.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘तुम भी तो ऐसी ही सफेद रुई सी लगती हो कोमल, लेकिन अंदर दर्द का गुबार भरा हुआ, लगता है बरस पड़ोगी अभी. लेकिन बिन बरसे ही निकल जाती हो दूर बिना किसी से कुछ कहे.’’

मैं खुद को कठोर दिखाने का प्रयास करती रहती हूं, लेकिन सच, शरमा गई थी अभी, कैसे समझ पाता है वह इतना मुझे. उस के साथ मेरी दोस्ती बड़ी सरल सी है. ‘कुछ तो है’ जैसा होते भी जैसे कुछ नहीं है. उस के साथ क्यों आई, न जानते हुए भी मुझे उस के साथ ही आने की इच्छा हुई, जाने क्यों. वह भी तो कभी किसी बात पर मुझे मना नहीं करता.

‘‘एकदम अविश्वसनीय,’’ मैं अचानक बोल पड़ी तो वह अवाक हुआ, ‘‘क्या?’’

‘‘तुम्हारा यों बोलना.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कभी कहते नहीं ऐसे.’’

झेंपते हुए वह आगे बढ़ गया. मैं नहीं बढ़ पाई. वहीं रुकी रही. सोच रही थी पीछे क्या हो रहा होगा. नाना, पापा, मां ‘क्यों और क्यों नहीं’ के सवाल लिए सब बरसने को तैयार खड़े मिलेंगे.

77 साल की उम्र में कई तरह की शारीरिक, मानसिक परेशानियों की वजह से थकेहारे नाना अब भी सहर्ष उस युवा लड़की की जिम्मेदारी उठाने को तत्पर थे, जो दबंग दामाद की व्रिदोहिणी बेटी थी और कभी भी उन की नपीतुली कटोरी में नहीं उतरने वाली थी. मेरे अचानक कहीं चले जाने की बात नाना को, मेरे पापा को बतानी पड़ी, कहीं मैं कुछ करगुजर जाऊं और पूरे परिवार को पछताना पड़े.

मैं ने अपना फोन खोला तो पापा के ढेरों संदेश दिखे, ज्यादातर धमकीभरे.

‘पापा, मैं जिऊंगी, मेरी सांसों को आप मेरी मां की तरह डब्बे में बंद नहीं कर सकते. भले ही कितनी ही माइनस हो जाए औक्सीजन मेरे लिए, मैं सांसें तो पूरी लूंगी, पापा,’ मैं ने सोचा.

मैं पीछे से जा कर प्रबाल के बराबर चलने लगी थी. हम एक पहाड़ी पर आ पहुंचे थे. दूधिया कुहरा छंट गया था और अब सूरज की चंपई किरणों ने हमें अपने आलिंगन में ले लिया था.

प्रबाल ने झिझकते हुए मेरा हाथ पकड़ा. मैं धड़कनों को महसूस कर रही थी. मैं ने उस के हाथ से अपना हाथ छुड़ा कर उस के पीठ पर हाथ रखा और कहा, ‘‘प्रबाल, हम दोस्त क्यों हैं, कभी यह सवाल तुम ने सोचा है?’’

‘‘तुम यह सवाल क्यों सोचती हो?’’

‘‘जरूरी है प्रबाल, मेरे लिए यह सवाल जरूरी है. मैं खुद को बहुत अच्छी तरह जानती हूं, इसलिए.’’

‘‘मैं ने तो सोचा नहीं. बस.’’

‘‘अगर सोचोगे नहीं तो आगे चल कर शायद पछताना भी पड़े.’’

‘‘तुम तो अपने घर वालों के बारे में सबकुछ बता ही चुकी हो, मेरे बारे में भी जानती ही हो कि मेरे बड़े भाई इंजीनियर हैं, शादीशुदा हैं, बेंगलुरु में जौब करते हैं, मम्मीपापा दोनों सरकारी जौब में थे और अब दोनों ही रिटायर हो चुके हैं, काफी पैंशन मिलती है, घरबार है. मेरी होटल की पढ़ाई को नाक कटाने वाला मान कर वे मुझ से सीधेमुंह बात नहीं करते थे. तो खानदान से लगभग बिछड़ा हुआ मैं अपने बलबूते ताकत जुटाने की कोशिश कर रहा हूं और तब तक पापा के पैसे से फलफूल रहा हूं. क्या तुम्हें मेरे इन विशेषणों से कोई परेशानी है?’’

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‘‘इसलिए, इसलिए ही प्रबाल, मैं तुम से बात करना चाह रही थी. तुम ने लक्ष्य निर्धारित कर के दौड़ना शुरू कर दिया है लेकिन जिसे संग लिए तुम दौड़ में जीतना चाहते हो वह तो सैर पर निकली है. उसे तो तुम्हारे लक्ष्य से कोई वास्ता नहीं, प्रबाल. उसे अभी हवाओं के कतरों को अपनी झोली में भरने की फिक्र है.’’

‘‘समझता हूं अभ्रा. लेकिन मुझे तुम्हारे साथ की आदत हो गई है. इसलिए नहीं कि तुम बहुत खूबसूरत, मासूम, गोरी और स्लिम हो या तुम अपने पापा की इकलौती हो, या तुम्हारा ब्यूटी सैंस बिंदास है, बल्कि इसलिए कि हम दोनों की सोच में बहुत अंतर नहीं, हम एकदूसरे को एकदूसरे पर थोपते नहीं. और हम समानांतर साथ चल सकते हैं बहुत दूर, इसलिए.’’

‘‘पर उम्मीद के बंधन में मैं नहीं बंध सकती प्रबाल. मैं खरा उतरने से आजिज आ गई हूं. भूल जाओ मुझे और जिन पलों में जब तक साथ हैं उतने में ही जीने दो मुझे.’’

प्रबाल मुझे अपलक देखता रहा. सूरज की भरपूर रोशनी के बावजूद सारे कुहरे उस के चेहरे पर ही आ कर जम गए थे जैसे. हम वापसी में सारे रास्ते चुप रहे और अपने कमरे में आ कर कुछ देर अपनेअपने पलंग पर लेटे रहे.

हम थक कर सो तो गए थे लेकिन हमारे अंदर भी एक कोलाहल था और बाहर भी.

कोलकाता वापस जा कर इस कोलाहल ने मेरे जीवन में भारी संघर्ष का रूप ले लिया. एक लड़के के साथ भागी हुई लड़की फिर से वापस आई है. यह तो भारतीय समाज में कलंक ही नहीं, मौत के समान दंडनीय है. भला हो कानून का जो अंधा है, इसलिए सारे पक्षों को देख पाता है, वरना आंख वालों से इस की उम्मीद नहीं.

मांपापा दोनों इस बीच नाना के पास आ गए थे और पापा अपने मोरचे पर तहकीकात में मुस्तैद रहते हुए भी अपनी कटी नाक के लिए मुझ पर जीभर लानत भेज रहे थे.

नाना ने आते ही मुझे लड़के से बात कराने पर जोर देना चाहा. बात करा दूं तो शादी के लिए ठोकाबजाया जा सके.

अब किस तरह किसकिस को समझाऊं कि इन लोगों की नापतोल से बाहर भागी थी मैं, और साथ था एक समझने वाला दोस्त.

पापा ने इस बीच फरमान सुना दिया, ‘‘सब बंद. पढ़ाई के नाम पर सारे चोंचले बंद. तुम मेरे साथ वापस चल रही हो, एक लड़का देखूंगा और तुम्हें विदा कर दूंगा. सांप नहीं पाल सकता मैं.’’

‘क्या मुझे नाना की बात से हमदर्दी थी? या मैं पापा के आगे घुटने टेक दूं? नहीं पापा, मैं जिऊंगी मां के इतिहास को पलट कर. मैं जिऊंगी खुद की सांसों के सहारे,’ यह सब सोचती मैं सभी को अनदेखा कर अपनी ट्रेनिंग पूरी करने को होटल के लिए निकल गई. होटल पहुंच कर नाना को फोन कर दिया कि ट्रेनी के लिए बने होटल के बंकर में ही मैं रह जाऊंगी, पर वापस उन के घर अब नहीं जाऊंगी.

मुझे होटल से 4 हजार रुपए भत्ते के मिलते और होटल में ही रहनाखाना फ्री था. यह ट्रेनिंग पीरियड कट जाने के लिए काफी था. लेकिन बाद की बात भी माने रखने वाली थी.

मेरे बंकर में रह जाने से प्रबाल को मेरे पीछे के हालात का अनुमान हो गया था और उस की मेरे प्रति सहानुभूति से मुझे उन्हीं गृहस्थी के पचड़े की बदबू सी महसूस हो रही थी. प्रबाल मेरे सख्त रवैए के प्रति अचंभित था. आखिर लड़की को क्या जरा भी सहारा नहीं चाहिए?

नहीं प्रबाल, मैं अपनी सांसें खुद अपने ही संघर्ष की ऊष्मा से तैयार करूंगी.

होटल में रह जाने के मेरे निर्णय की गाज नाना और मां पर गिरी. पापा मां को बिना लिए ही लौट गए इस हिदायत के साथ कि नाना और मां मिल कर जितना बिगाड़ना है मुझे बिगाड़ते रहें, वे अब जिम्मेदार नहीं.

इधर नाना से भी और गिड़गिड़ाया न गया, मां तो पापा के आगे थीं ही गूंगी.

मां की दुर्गति देख यही लगा कि मैं पापा के आगे हथियार डाल दूं और पापा के ढूंढ़े कसाई के खूंटे से बंध जाऊं. लेकिन यह मेरी दुर्गति की इंतहा हो जाती और मां के भविष्य की सुधार की कोई गारंटी भी नहीं थी.

दूसरी मुश्किल थी अगले 6 महीने की कालेज फीस का इंतजाम करना, जो

50 हजार रुपए के करीब थी और यह नाना से लेने की कोशिश पापा के साथ बवाल को अगले पड़ाव तक ले जाने के लिए काफी थी. तो क्या करती, प्रबाल के फीस भर देने के अनुरोध को मजबूरी में मान जाती या पढ़ाई और जिंदगी छोड़ सामंती अहंकार के आगे फिर टूट कर गिर जाती?

साल के बीच से एजुकेशन लोन मिलना मुश्किल था. मैं ने प्रबाल से ही कहना बेहतर समझा. उस ने सालभर की फीस भर दी और मेरी तसल्ली के लिए इस बात पर राजी हो गया कि मैं कोर्स पूरा होते ही नौकरी कर के उस का कर्ज चुका दूंगी.

एक दिन मैं ट्रेनी की हैसियत से होटल की ड्यूटी के तहत रिसैप्शन काउंटर पर खड़ी थी. पापा एक 30 वर्षीय युवक के साथ अचानक कार से उतर कर मेरे पास आए.

पापा ने मुझे मेरे एचआर मैनेजर का मेल दिखाया. मेरे यहां से रवानगी का इंतजाम करा लिया था उन्होंने.

मैं जल्द एचआर मैनेजर मैम से मिलने गई और वस्तुस्थिति का संक्षेप में खुलासा कर उन से सकारात्मक फीडबैक ले कर पापा के साथ दुर्गापुर लौट गई. हां, जातेजाते एक शर्त लगा दी कि मां वापस आएंगी, तभी आप का कहा सुनूंगी.

अजायबघर के उस लड़की घूरने वाले शख्स, जिसे पापा साथ लाए थे, के आगे पापा को हां कहना पड़ा.

घर आ कर मेरे कुछ भी कर जाने की धमकी के आगे झुक कर पापा ने मां को बुलवा लिया.

अब शठे शाठ्यम समाचरेत यानी जिस ने लाठी का प्रयोग किया उस के लिए लाठी का ही तो प्रयोग करना पड़ेगा, समान आचरण से ही क्रूर इंसान को सीख मिल सकेगी.

एक तरफ मुझे ट्रेनिंग में वापस जाने की हड़बड़ी थी. दूसरी ओर शादी वाले युवक से पीछा छुड़ाना था. और तो और, प्रबाल के लिए हमारे परिवार में एक स्थान बनाना था ताकि मुझे ले कर उस की कोशिश को महत्त्व मिल सके.

सब से पहले मैं ने प्रबाल से बात की. वह सहर्ष तैयार हो गया कि नाना और पापा की कड़ी को जोड़ने में वह मुख्य भूमिका में आएगा. धीरेधीरे उस की पहल पर नाना की प्रबाल के साथ जहां अच्छी ट्यूनिंग हो गई वहीं मेरे पापा के स्वभाव के प्रति भी उन में नर्म रुख आया.

इधर, एचआर मैनेजर मैम को उन की बात की याद दिलाते हुए मैं ने उन से मुझे जल्द ट्रेनिंग में वापस बुलाने को कहा. मैम मेरी आत्मनिर्भरता की सोच का स्वागत करती थीं और उन्होंने पापा पर जोर डाला कि वे मेरी ट्रेनिंग को पूरी करने दें. अड़ी तो मैं भी थी. उन्होंने भी सोचा कि एक बार यह पारंपरिक बिजनैसमैन फैमिली में चली गई तो यों ही इस का बेड़ा गर्क होने ही वाला है. कहीं ज्यादा रोक से बिगड़ गई तो लड़के वालों के सामने हेठी हो जाएगी. पापा ने मुझे ट्रेनिंग में जाने दिया. प्रबाल मुझ पर लगातार नजर रखे था.

एक दिन बड़ी घुटी सी महसूस कर रही थी मैं. माइग्रेन से सिर फटा जा रहा था मेरा. प्रबाल पास आया और मुझे देखता रहा, फिर कहा, ‘‘व्यर्थ ही परेशान होती हो. मैं हूं तुम्हारा दोस्त, क्यों इतना सोचती हो. तुम मेरे साथ होती हो तो मुझे खुशी होती है, और मैं यह तुम से कह कर और ज्यादा खुश होना चाहता हूं. तुम भी कहो, अगर मैं तुम्हारे किसी काम आ सकूं तो. इस से मुझे बेहद खुशी होगी. विचारों को खुला छोड़ो. इतना घुटती क्यों हो?’’

मैं, बस, रो पड़ी. मेरी स्थिति भांप कर प्रबाल ने आगे कहा, ‘‘मैं तुम्हारे साथ हूं अभ्रा, तुम चाहो तब भी और न चाहो, तब भी. जरूरी नहीं कि हम सामाजिक रीति से पतिपत्नी बनें कभी, लेकिन साथ होने का एहसास, जो समझे जाने का एहसास है, वह अनमोल है. अगर मेरा तुम से जुड़े रहना तुम्हें पसंद नहीं, तो बेझिझक तुम वह भी कह दो. हां, मैं तुम्हें भूलने की गारंटी तो नहीं दे सकूंगा, लेकिन तुम जैसा चाहोगी वैसा ही होगा.’’

आंखों में आंसू थे मेरे जरूर, लेकिन दिल में सुकून के फूल खिल उठे थे. सच, प्रबाल की सोच मेरी सोच के कितने करीब थी.

जब तुम्हें कोई पसंद आता है तो तुम अपनी मरजी से उसे पसंद करते हो. फिर बंधन के नाम पर प्रेम की जगह उम्मीदों, आदेशों, निर्देशों और खुद की मनमानी की जंजीरों से क्यों बांध देते हो उसे? यह तो सामने वाले के दायरे को संकरा करना हुआ.

परिवार में पिता कमा कर लाता है, अपना दायित्व निभाता है. यह उस का बड़प्पन है. लेकिन बदले में परिवार के अन्य सदस्यों के विचारों और इच्छाओं का मान न करना, अपनी मनमानी करना, न्यायसंगत नहीं है. पैसे के बदले उसे ऐसे अधिकार तो नहीं मिल सकते. बच्चे पैदा करने में आप ने किसी पर दया तो नहीं की थी. विचारों के उथलपुथल के बीच मैं सुन्न सी पड़ गई थी.

प्रबाल ने कहा, ‘‘जो भी परेशानी हो, मुझे बताना. मैं हल निकालूंगा.’’

शादी वाले युवक का फोन नंबर कुछ सोच कर मैं ने पापा से यह कह कर रख लिया था कि शादी से पहले परिचय कर लूंगी फोन पर. बाद में मैं ने यह नंबर प्रबाल को दिया और हम ने इस पर मंथन करना शुरू किया.

प्रबाल इस बीच नाना के साथ अपनेपन की जमीन तैयार कर चुका था. अब वह वहां जा कर मेरे उन विचारों से मेरे घर वालों को अवगत करा रहा था जिन में अब तक किसी की दिलचस्पी नहीं थी. उस ने नाना से अपनी बात पूरी करते हुए कहा, ‘‘अहंकार पर मत लो नाना. मैं समझता हूं उसे, क्योंकि मैं ने समझने की कोशिश की है. आप लोग उस के ज्यादा करीबी जरूर हो, लेकिन बात किसी को महत्त्व देने की है. आप लोग खुद को और खुद की सोचों को ज्यादा महत्त्व देते हो और मैं अभ्रा को. इसलिए, मैं ज्यादा आसानी से उसे समझ पाता हूं.’’

नाना इतने भी अडि़यल नहीं थे, वे समझ गए और मुझे मदद देने को तैयार हो गए. शादी वाले युवक को फोन कर नाना ने कहा, ‘‘बेटा, आप का बहुत ही परंपरावादी परिवार है, लेकिन यह शादी आप को कोई सुख नहीं दे पाएगी. लड़की के पिता सिर्फ बेटी को सजा देने के लिए यह शादी करवा रहे हैं. लेकिन बेटी किसी दबाव या मनमानी सह कर नहीं जिएगी. वह स्वतंत्र सोच वाली आधुनिक लड़की है. शादी के बाद आप सब की जगहंसाई न हो. बाकी, आप की इच्छा.’’

लड़के ने तुरंत फोन रखने की कोशिश में कहा, ‘‘मैं नहीं करने वाला यह शादी, मुझे शुरू से ही शक था.’’

‘‘सुनो बेटे, सुनोसुनो, यह तुम मत कहना कि हम ने आगाह किया तुम्हें, क्योंकि लड़की के पापा के डर से हमें यह कहना पड़ेगा हम ने ऐसा नहीं कहा. और तुम प्रमाण देने लगे तो हमें फिर और दूसरा रास्ता अपनाना पड़ेगा. आप लोग लड़के वाले हो, लड़की के बारे में पता करना आप का हक है. इसी लिहाज से कह देना कि आप को लड़की जमी नहीं.’’

‘‘हां, कह दूंगा.’’

बात शांति से खत्म. पापा को जब सुनने में आया कि होटल मैनेजमैंट पढ़ने वाली लड़की खानदानी बहू नहीं बन सकती और इसलिए रिश्ता खत्म, तो पापा ने खूब लानत भेजी मुझे. मैं ने भी कह दिया, ‘‘अब तो कहीं ऊंची नौकरी कर लूं तभी आप की कटी नाक फिर से निकले. फीस जारी रखिए ताकि अपने पैरों पर खड़ी हो कर आप का नाम रोशन करूं.’’

‘‘और लड़कों के साथ जो भाग जाती हो?’’

‘‘एक दोस्त है मेरा प्रबाल, लड़की की शक्ल नहीं है उस की. बस, इतना ही कुसूर है. थोड़ा तो आगे बढि़ए पापा.’’

इस बीच, प्रबाल नाना की पुरानी सोचों में काफी बदलाव ले आया था. वे अब नई पीढ़ी को समझने को तैयार रहने लगे थे. मैं ट्रेनिंग में ही थी और होटल का बंकर ही फिलहाल मेरा ठिकाना था.

मेरे जन्मदिन पर नाना ने अपने घर में एक छोटा सा आयोजन रखा और कुछ परिचितों को बुलाया. पार्टी के खास आकर्षण मेरे मांपापा थे जिन्हें नाना ने अपनी वाकपटुता से आने के लिए राजी कर लिया था. निसंदेह इस में प्रबाल की दक्षता भी कम नहीं थी.

प्रबाल का मानना था कि तोड़ने में हम जितनी ऊर्जा गंवाते हैं, जोड़ने में उतनी ही ऊर्जा क्यों न गंवा कर देखा जाए. जिंदगी को खूबसूरती से जिया जाए तो दुनिया की सुंदरता को हम शिद्दत से महसूस कर सकते हैं.

प्रबाल और मेरी उपस्थिति में जब एक अच्छी पार्टी रात गए खत्म हुई तो नाना ने प्रबाल को रात हमारे साथ ही रुक जाने को कहा.

पापा का पहला सवाल, ‘‘अभी तक यहां क्यों है?’’ इशारा प्रबाल की ओर था उन का.

नाना ने कहा, ‘‘ताकि हम सब साथ हो सकें. कुछ देर रुक कर मेरी बात सुनो आकाश, किसी की कुछ न सुनना और अपना फरमान दूसरों पर थोप देना, तुम्हारी यह आदत तुम्हें दूसरों की नजर में गिरा रही है.’’

‘‘मैं आप का कोई ज्ञान नहीं सुनूंगा. आप बेटी के बाप हैं, उतना ही रहें.’’

‘‘बस पापा,’’ मैं कूद पड़ी थी बीच में, ‘‘पुराने ढकोसलों से पटी पड़ी आप की सोच और उन निरर्थक सोचों पर आप की दूसरों की जिंदगी चलाने की कोशिश हमें ले डूबेगी. आप बुरी तरह अहंकार की चपेट में हैं, पैसे और रुतबे की धौंस से आप अपने परिवार को बांधे नहीं रख सकते. जिंदगीभर आप तानाशाही नहीं चला सकते. आप मेरा खर्च उठा कर अपना कर्तव्य निभा रहे हैं, बदले में लेने की कुछ फिक्र न करें. बेटी का पिता कह कर किसे नीचे दिखा रहे हैं? आप क्या हैं?’’

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मेरी मां अवाक मुझे देख रही थीं. अचानक बोल उठीं, ‘‘यह प्रबाल की संगत का असर है, वरना सोच तो कब से थी हम में, लेकिन बोलने की हिम्मत कहां थी.’’

‘‘यही तो चाहते रहे पापा कि उन के आगे किसी की हिम्मत नहीं पड़े. उन्हें कभी हिम्मत हुई कि अपने अंदर के अहंकार के शिलाखंड को तोड़ें? कोशिश ही नहीं की कभी खुद को गलत कहने की, खुद की सोचों को मथने की.’’

पापा सिर झुकाए बैठे रहे जैसे सिर से पैर तक  ज्वालामुखी पिघल कर गिरतेगिरते बर्फ सा जमता जा रहा था. धीरेधीरे उन्होंने सिर उठाया और प्रबाल की ओर देखा और देखते रह गए. 6 फुट की हाइट, गोरा, शांत, सुंदर चेहरा, समझदार ऐसा कि सब को साथ लिए चलने का हुनर हो जिस में, अच्छा परिवार, लेकिन नौकरीकैरियर? होटल? नहींनहीं.

पापा अभी कुछ नकारात्मक कह पड़ते, इस से पहले मैं ने कमान संभाल ली, ‘‘पापा, अभी मुझे काफी कुछ करना है, दुनिया को अपने सिरे से ढूंढ़ना है, इसलिए नहीं कि मैं मनमानी करना चाहती हूं, बल्कि इसलिए क्योंकि मुझे खुद को खुद के अनुसार गढ़ना है किसी अन्य के अनुसार नहीं.

‘‘मेरे खयाल से प्रबाल अगर होटल लाइन में है तो यह उस की खुद की मरजी है, किसी और की मरजी की गुलामी कर के आप के अनुसार किसी खानदानी लाइन जैसे कि डाक्टरी या इंजीनियरिंग में जाता और अपना परफौर्मैंस खराब करता तो क्या वह किसी काम का होता?’’

तुरंत मां ने कहा, ‘‘हम प्रबाल को अपना समझते हैं. यह हमेशा हमारे परिवार के साथ खड़ा रहा है. मेरे हिसाब से आकाश, आप भी समझ रहे होंगे. हम इसे अपने लिए बांध कर रख लेते हैं. अभ्रा को पढ़ने देते हैं.’’

पापा ने पहली बार खुलेदिल से प्रबाल की ओर देखा, फिर मां से कहा, ‘‘ठीक है.’’

ये दो शब्द उपस्थित सारे लोगों की सांसों में सुगंधित, मीठी बयार भर गए.

प्रबाल समझ गया था कि उसे राजगद्दी मिल चुकी है लेकिन उसे राजगद्दी से ज्यादा ‘मैं’ चाहिए थी. वह मेरी भावनाओं को अच्छी तरह समझता था.

उस ने कहा, ‘‘मां, मैं वचन देता हूं मैं आप सब का ही हूं और रहूंगा. मैं अभ्रा को छोड़ कर कहां जाऊंगा? मगर उसे खुल कर जीने दें. उसे जब जैसे मेरे साथ आना हो, आए. यह मुक्ति का बंधन है, टूटेगा नहीं.’’

मैं प्रबाल की आंखों से उतर कर जाने कहां खो कर भी प्रबाल में ही समा गई. हां, यह मुक्ति का ही बंधन था जिस ने मुझे अदृश्य डोर में बांधे रखे था, बिना बंधन का एहसास दिए. द्य

ऐसा भी

होता है

मेरे पड़ोस में एक सज्जन रहते हैं. वे अपने दूसरे पुत्र की शादी के लिए विशेष चिंतित थे क्योंकि उस की उम्र बढ़ती जा रही थी. वैसे तो वे हमेशा कहते फिरते थे कि वरयोग्य कन्या मिल जाने पर शादी कर लेंगे पर जब भी कोई लड़की वाला आता, इतनी मांग सामने रख देते कि वह लौट जाता.

चूंकि लड़का कदकाठी और देखने में ठीक था व मुंबई में कमाता था सो आने वालों की कतार लगी रहती थी. एक जगह शादी तय होने लगी पर लेनदेन का मामला आड़े आने लगा. उसे भी हाथ से निकल जाते देख उन्होंने शादी के लिए हां कर दी. विवाह के बाद जब कन्यापक्ष के लोग चौथ ले कर आए और लड़की की विदाई की चर्चा करने लगे, तब उन्होंने टाल दिया. वे इसी प्रकार 3-4 बार आए, मगर वापस लौटा दिए जाते.

लोगों के बहुत पूछने पर उन्होंने बताया कि दानदहेज की जितनी मेरी चाह थी, वह रकम मिलने पर ही विदाई करेंगे. अंत में बेचारे रिश्तेदारों को कर्ज ले कर उन की मांगें पूरी करनी पड़ीं. यह खबर चारों ओर हवा की तरह फैल गई और उन की थूथू होने लगी. इस के बाद भी उन के कान पर जूं न रेंगी. किसी के सामने पड़ जाने पर अपनी नजरें चुराते हुए घर में घुस जाते.  सभाजीत

मुझे औफिस के काम से देहरादून जाना

था. मेरा बेटा मुझे बस में बिठाने आया था. वहां पहुंच कर मालूम हुआ कि देहरादून की बस जाने वाली है, मैं तुरंत बस की तरफ बढ़ गई और जल्दीजल्दी बस में चढ़ने लगी. मेरी इस जल्दबाजी में बैग बस के दरवाजे में फंस कर फट गया. अब तक बस चल दी थी, इसलिए मैं ने कपड़े उठाए और बस की पीछे वाली सीट पर ही बैठ गई.

मैं सोच रही थी, इन कपड़ों को कैसे ले जाऊंगी और बेटे से भी चलते समय कोई बात नहीं हो पाई. तभी झटके से बस रुक गई, शायद ड्राइवर ने बस के पीछे स्कूटर से आते हुए लड़के को देख लिया था. लड़का बस के पास आ कर खिड़की से कंडक्टर को बैग दे कर कह रहा था कि कृपया, यह बैग मेरी मां को दे दीजिएगा.

मैं अपने बेटे की आवाज से चौंक गई. तभी कंडक्टर ने मुझे बैग थमाते हुए कहा कि मैडम, यह बैग आप का बेटा दे गया है.

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June 26, 2019 at 10:37AM

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