Monday 24 February 2020

दुर्घटना पर्यटन: भाग-1

पत्नी के उलाहनों से तंग आ गए थे कन्हैयालाल. उन की पत्नी अपने प्रिय हीरो परेशान खान की फिल्म देखने की रोज जिद करती थी. आखिरकार, कन्हैयालाल ने शनिवार की शाम को फिल्म दिखाने का निश्चय कर ही लिया. उन्होंने उसे समझाया तो बहुत कि दुकान जल्दी बंद कर के उन के चले आने या दो सुस्त और लापरवा सहायकों के भरोसे दुकान छोड़ आने की अपेक्षा 50 रुपए में उसी सप्ताह रिलीज हुई पिक्चर की पाइरेटेड सीडी से घरबैठे वीडियो देखना कहीं अधिक बुद्धिमानी का काम होगा, पर पत्नी नहीं मानी थी.

एक तो उसे न मालूम किस दुश्मन ने समझा दिया था कि पाइरेटेड सीडी खरीदना गलत काम है. दूसरे, वह पति के पीछे इसलिए पड़ गई थी कि वे यदि परेशान खान की तरह अपनी तेजी से गंजी हो रही खोपड़ी पर ग्राफ्ंिटग के महंगे तरीके को नहीं आजमाना चाहते तो कम से कम स्वयं अपनी आंखों से देख लें कि अपनी प्रत्यारोपित घनी काली जुल्फों के चलते गंजा होता जा रहा परेशान खान अपनी नई फिल्म में कितना सजीला जवान लगने लगा था. उसे पूरी आशा थी कि इस के बाद और कुछ नहीं तो कम से कम एक अच्छी सी विग खरीदने के लिए तो वे तैयार हो ही जाएंगे.

कन्हैयालाल जब एक बार निश्चय कर लें तो उसे अवश्य पूरा करते हैं, इसलिए उस शनिवार वे सचमुच रात को 8 बजे ही घर आ गए और फिर पत्नी को साथ ले कर 9 बजे उस मल्टीप्लैक्स के परिसर में पहुंच गए जहां परेशान खान के दीवानों का सागर लहरा रहा था.

उस भयंकर भीड़ को देख कर कन्हैयालाल को जहां इंटरनैट पर बुकिंग करा लेने की अपनी समझदारी पर गर्व हुआ वहीं दूसरी तरफ पत्नी को साथ लाने पर अफसोस. अगर वह साथ न होती तो वहां इकट्ठे सिरफिरों में से किसी को अपना 150 रुपए का टिकट आसानी से वे शतप्रतिशत मुनाफे पर सरका सकते थे. पर मजबूरी को समझते हुए उन्होंने गाड़ी को खचाखच भरी पार्किंग में बड़ी मुश्किल से जगह खोज कर पार्क किया और फिर पत्नी का हाथ बहुत रोमांटिक ढंग से अपने हाथों में ले कर पिक्चर हौल में घुस गए.

फिल्म कैसी रही, इस का कन्हैयालाल को अब ध्यान भी नहीं रह गया है क्योंकि उस के बाद जो कुछ हुआ उस ने उन के जीवन को एक बिलकुल नया और सुखद मोड़ दे दिया. दरअसल, हुआ यह कि फिल्म समाप्त होने पर जब कन्हैयालाल बाहर आए और कंधे से कंधा छीलने वाली भीड़ से गुजर कर अपनी कार तक पहुंचे तो एक विचित्र सी बात दिखी. कहां तो गाड़ी पार्क

करने के समय जगह ही नहीं मिल रही थी और अब यह आलम था कि उन की कार के आगेपीछे, दाएंबाएं चारों तरफ 25-30 मीटर तक कोई अन्य गाड़ी नहीं खड़ी थी और उन की छोटी सी कार नदी के बीच में एक नन्हे से द्वीप सी दिख रही थी. पहले कुतूहल फिर विस्मय और उस के बाद एक अज्ञात आशंका से उन का दिल घबरा उठा.

कार के पिछले हिस्से को देखने से कोई खास बात नहीं लगी पर जब पास पहुंचे तो कार की अगाड़ी को देख कर उन की पत्नी के मुख से एक लंबी चीख निकली और कन्हैयालाल के मुंह से निकली एक बड़ी लंबी सी गाली, फिर अपने इष्टदेव का लंबा सा आह्वान और फिर एक लंबी सी हाय.

कार पिछले बंपर से ले कर ड्राइवर के सामने विंडशील्ड तक तो सहीसलामत थी पर उस के आगे बोनट उखड़ा हुआ पड़ा था और बोनट, इंजन, सामने की ग्रिल वगैरह जल कर राख हो गए से लग रहे थे. बैटरी 2 टुकड़ों में थी, सामने के दोनों टायर जले हुए थे और आगे के दोनों दरवाजे हालांकि टूट कर अलग नहीं गिरे थे पर बुरी तरह झुलसे हुए थे. अगर लंबा विवरण न देना हो तो संक्षेप में इतना कहना पर्याप्त होगा कि कार श्मशानघाट पर खुले आसमान के नीचे जलती चिता पर अचानक बारिश हो जाने से आधी जली, आधी बुझी एक लाश सी लग रही थी.

कार की मालकिन, जिस ने विलंबित लय में चीख से अपना रुदन शुरू किया था, अब दहाड़ मार कर रो रही थी. कन्हैयालाल किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े थे. उन की प्रतिक्रिया हमेशा ही पत्नी से उल्टी होती थी. आज शुरुआत में तो उन्होंने भी पत्नी के साथ एक लंबी चीख भरी थी पर अब स्तब्ध खड़े थे.उन के मौन और मूर्तिवत मुद्रा को भंग किया एक आदमी ने जिस ने उन के कंधे पर सहानुभूतिपूर्वक हाथ रखा और बहुत मुलायम स्वर में कहा, ‘‘लो, आप आ गए साहब? हम पार्किंग वाले तो कब से इंतजार करकर के थक गए. हमारे मैनेजर साहब ने तो मौल में कई बार लाउडस्पीकर पर आप की गाड़ी का नंबर भी अनाउंस करवाया पर कोई आया ही नहीं. आप सिनेमा देख रहे होंगे.’’

कन्हैयालाल की इच्छा तो हुई कि उस का कौलर पकड़ कर और कंधे झ्ंिझोड़ कर पूछें कि पार्किंग में कार खड़ी करने पर भी उन की गाड़ी के साथ यह क्या हुआ और उसे ढेर सारी गालियां दे कर अपने मन की भड़ास निकाल लें, फिर धमकाना शुरू करें कि वे पार्किंग वालों से नई कार का मूल्य हरजाने में मांगेंगे. पर ऐसा करने में कई अड़चनें थीं. पहली तो यह कि वे इस व्यक्ति से डीलडौल में काफी हलके थे, दूसरी यह कि वास्तव में वे मारपिटाई और गालीगलौज करने वालों में नहीं थे.

यह दूसरी बात है कि इस समय उन का ये दोनों ही काम करने का जोरों से मन कर रहा था पर कई साल के विवाहित जीवन और खानदानी दुकानदारी के पेशे ने उन्हें इतना तो सिखा ही दिया था कि जीवन में बहुत जोर से गुस्सा आने पर भी चिल्लानेचीखने से कुछ हासिल नहीं होता है.

सब से बड़ी बात यह थी कि यह आदमी तो पार्किंग का कोई अदना सा कर्मचारी लग रहा था, कहनासुनना कुछ होगा भी तो पार्किंग के ठेकेदार या फिर मल्टीप्लैक्स वाले उस मौल के मालिक से. और वे यह समझने में पूरी तरह सक्षम थे कि डीलडौल में तो वे इस आदमी से पीछे और नीचे थे ही, हैसियत, धनशक्ति, रसूख और उच्च सरकारी अधिकारियों से संपर्क आदि में मौल के मालिक ही नहीं बल्कि पार्किंग के ठेकेदार तक से भी बहुत पीछे थे. इसलिए जब उन के एकसाथ पूछे गए सवालों के जवाब में पार्किंग के उस कर्मचारी ने उस दुर्घटना का विस्तार से विवरण देना शुरू किया तो उन के पास चुपचाप सुनने और बीचबीच में सिसकती हुई पत्नी को चुप कराने के अलावा कोई चारा न था. मन मार कर वे सुनते रहे.

आगे पढ़ें- कन्हैयालाल इधर अपनी कार पार्क कर के मौल में घुसे उधर उन की कार से…

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पत्नी के उलाहनों से तंग आ गए थे कन्हैयालाल. उन की पत्नी अपने प्रिय हीरो परेशान खान की फिल्म देखने की रोज जिद करती थी. आखिरकार, कन्हैयालाल ने शनिवार की शाम को फिल्म दिखाने का निश्चय कर ही लिया. उन्होंने उसे समझाया तो बहुत कि दुकान जल्दी बंद कर के उन के चले आने या दो सुस्त और लापरवा सहायकों के भरोसे दुकान छोड़ आने की अपेक्षा 50 रुपए में उसी सप्ताह रिलीज हुई पिक्चर की पाइरेटेड सीडी से घरबैठे वीडियो देखना कहीं अधिक बुद्धिमानी का काम होगा, पर पत्नी नहीं मानी थी.

एक तो उसे न मालूम किस दुश्मन ने समझा दिया था कि पाइरेटेड सीडी खरीदना गलत काम है. दूसरे, वह पति के पीछे इसलिए पड़ गई थी कि वे यदि परेशान खान की तरह अपनी तेजी से गंजी हो रही खोपड़ी पर ग्राफ्ंिटग के महंगे तरीके को नहीं आजमाना चाहते तो कम से कम स्वयं अपनी आंखों से देख लें कि अपनी प्रत्यारोपित घनी काली जुल्फों के चलते गंजा होता जा रहा परेशान खान अपनी नई फिल्म में कितना सजीला जवान लगने लगा था. उसे पूरी आशा थी कि इस के बाद और कुछ नहीं तो कम से कम एक अच्छी सी विग खरीदने के लिए तो वे तैयार हो ही जाएंगे.

कन्हैयालाल जब एक बार निश्चय कर लें तो उसे अवश्य पूरा करते हैं, इसलिए उस शनिवार वे सचमुच रात को 8 बजे ही घर आ गए और फिर पत्नी को साथ ले कर 9 बजे उस मल्टीप्लैक्स के परिसर में पहुंच गए जहां परेशान खान के दीवानों का सागर लहरा रहा था.

उस भयंकर भीड़ को देख कर कन्हैयालाल को जहां इंटरनैट पर बुकिंग करा लेने की अपनी समझदारी पर गर्व हुआ वहीं दूसरी तरफ पत्नी को साथ लाने पर अफसोस. अगर वह साथ न होती तो वहां इकट्ठे सिरफिरों में से किसी को अपना 150 रुपए का टिकट आसानी से वे शतप्रतिशत मुनाफे पर सरका सकते थे. पर मजबूरी को समझते हुए उन्होंने गाड़ी को खचाखच भरी पार्किंग में बड़ी मुश्किल से जगह खोज कर पार्क किया और फिर पत्नी का हाथ बहुत रोमांटिक ढंग से अपने हाथों में ले कर पिक्चर हौल में घुस गए.

फिल्म कैसी रही, इस का कन्हैयालाल को अब ध्यान भी नहीं रह गया है क्योंकि उस के बाद जो कुछ हुआ उस ने उन के जीवन को एक बिलकुल नया और सुखद मोड़ दे दिया. दरअसल, हुआ यह कि फिल्म समाप्त होने पर जब कन्हैयालाल बाहर आए और कंधे से कंधा छीलने वाली भीड़ से गुजर कर अपनी कार तक पहुंचे तो एक विचित्र सी बात दिखी. कहां तो गाड़ी पार्क

करने के समय जगह ही नहीं मिल रही थी और अब यह आलम था कि उन की कार के आगेपीछे, दाएंबाएं चारों तरफ 25-30 मीटर तक कोई अन्य गाड़ी नहीं खड़ी थी और उन की छोटी सी कार नदी के बीच में एक नन्हे से द्वीप सी दिख रही थी. पहले कुतूहल फिर विस्मय और उस के बाद एक अज्ञात आशंका से उन का दिल घबरा उठा.

कार के पिछले हिस्से को देखने से कोई खास बात नहीं लगी पर जब पास पहुंचे तो कार की अगाड़ी को देख कर उन की पत्नी के मुख से एक लंबी चीख निकली और कन्हैयालाल के मुंह से निकली एक बड़ी लंबी सी गाली, फिर अपने इष्टदेव का लंबा सा आह्वान और फिर एक लंबी सी हाय.

कार पिछले बंपर से ले कर ड्राइवर के सामने विंडशील्ड तक तो सहीसलामत थी पर उस के आगे बोनट उखड़ा हुआ पड़ा था और बोनट, इंजन, सामने की ग्रिल वगैरह जल कर राख हो गए से लग रहे थे. बैटरी 2 टुकड़ों में थी, सामने के दोनों टायर जले हुए थे और आगे के दोनों दरवाजे हालांकि टूट कर अलग नहीं गिरे थे पर बुरी तरह झुलसे हुए थे. अगर लंबा विवरण न देना हो तो संक्षेप में इतना कहना पर्याप्त होगा कि कार श्मशानघाट पर खुले आसमान के नीचे जलती चिता पर अचानक बारिश हो जाने से आधी जली, आधी बुझी एक लाश सी लग रही थी.

कार की मालकिन, जिस ने विलंबित लय में चीख से अपना रुदन शुरू किया था, अब दहाड़ मार कर रो रही थी. कन्हैयालाल किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े थे. उन की प्रतिक्रिया हमेशा ही पत्नी से उल्टी होती थी. आज शुरुआत में तो उन्होंने भी पत्नी के साथ एक लंबी चीख भरी थी पर अब स्तब्ध खड़े थे.उन के मौन और मूर्तिवत मुद्रा को भंग किया एक आदमी ने जिस ने उन के कंधे पर सहानुभूतिपूर्वक हाथ रखा और बहुत मुलायम स्वर में कहा, ‘‘लो, आप आ गए साहब? हम पार्किंग वाले तो कब से इंतजार करकर के थक गए. हमारे मैनेजर साहब ने तो मौल में कई बार लाउडस्पीकर पर आप की गाड़ी का नंबर भी अनाउंस करवाया पर कोई आया ही नहीं. आप सिनेमा देख रहे होंगे.’’

कन्हैयालाल की इच्छा तो हुई कि उस का कौलर पकड़ कर और कंधे झ्ंिझोड़ कर पूछें कि पार्किंग में कार खड़ी करने पर भी उन की गाड़ी के साथ यह क्या हुआ और उसे ढेर सारी गालियां दे कर अपने मन की भड़ास निकाल लें, फिर धमकाना शुरू करें कि वे पार्किंग वालों से नई कार का मूल्य हरजाने में मांगेंगे. पर ऐसा करने में कई अड़चनें थीं. पहली तो यह कि वे इस व्यक्ति से डीलडौल में काफी हलके थे, दूसरी यह कि वास्तव में वे मारपिटाई और गालीगलौज करने वालों में नहीं थे.

यह दूसरी बात है कि इस समय उन का ये दोनों ही काम करने का जोरों से मन कर रहा था पर कई साल के विवाहित जीवन और खानदानी दुकानदारी के पेशे ने उन्हें इतना तो सिखा ही दिया था कि जीवन में बहुत जोर से गुस्सा आने पर भी चिल्लानेचीखने से कुछ हासिल नहीं होता है.

सब से बड़ी बात यह थी कि यह आदमी तो पार्किंग का कोई अदना सा कर्मचारी लग रहा था, कहनासुनना कुछ होगा भी तो पार्किंग के ठेकेदार या फिर मल्टीप्लैक्स वाले उस मौल के मालिक से. और वे यह समझने में पूरी तरह सक्षम थे कि डीलडौल में तो वे इस आदमी से पीछे और नीचे थे ही, हैसियत, धनशक्ति, रसूख और उच्च सरकारी अधिकारियों से संपर्क आदि में मौल के मालिक ही नहीं बल्कि पार्किंग के ठेकेदार तक से भी बहुत पीछे थे. इसलिए जब उन के एकसाथ पूछे गए सवालों के जवाब में पार्किंग के उस कर्मचारी ने उस दुर्घटना का विस्तार से विवरण देना शुरू किया तो उन के पास चुपचाप सुनने और बीचबीच में सिसकती हुई पत्नी को चुप कराने के अलावा कोई चारा न था. मन मार कर वे सुनते रहे.

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February 25, 2020 at 09:50AM

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