Friday 28 February 2020

बड़े ताऊजी

बड़ेबुजुर्ग बैठे हों तो सिर पर एक आसमान जैसी अनुभूति होती है. ताऊजी हमारे लिए वही आसमान थे लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ जिस ने इस खुशफहमी को गलतफहमी में बदल दिया?
रिटायरमैंट के बाद अपने ही जन्मस्थान में जा कर बसने का मेरा अनमोल सपना था. जहां पैदा हुआ, जहां गलियों में खेला व बड़ा हुआ, वह जगह कितनी ही यादों को जिंदा रखे है. कक्षा 12 तक पढ़ने के बाद जो अपना शहर छोड़ा तो बस मुड़ कर देख ही नहीं पाया. नौकरी सारा भारत घुमाती रही और मैं घूमता रहा. जितनी दूर मैं अपने शहर से होता गया उतना ही वह मेरे मन के भीतर कहीं समाता गया. छुट्टियों में जब घर आते तब सब से मिलने जाते रहे. सभी आवभगत करते रहे, प्यार और अपनत्व से मिलते रहे. कितना प्यार है न मेरे शहर में. सब कितने प्यार से मिलते हैं, सुखदुख पूछते हैं. ‘कैसे हो?’ सब के होंठों पर यही प्रश्न होता है.
रिटायरमैंट में सालभर रह गया. बच्चों का ब्याह कर, उन के अपनेअपने स्थानों पर उन्हें भेज कर मैं ने गंभीरता से इस विषय पर विचार किया. लंबी छुट्टी ले कर अपने शहर, अपने रिश्तेदारों के साथ थोड़ाथोड़ा समय बिता कर यह सर्वेक्षण करना चाहा कि रहने के लिए कौन सी जगह उपयुक्त रहेगी, घर बनवाना पड़ेगा या बनाबनाया ही कहीं खरीद लेंगे.
मुझे याद है, पिछली बार जब मैं आया था तब विजय चाचा के साथ छोटे भाई की अनबन चल रही थी. मैं ने सुलह करवा कर अपना कर्तव्य निभा लिया था. छोटी बूआ और बड़ी बूआ भी ठंडा सा व्यवहार कर रही थीं. मगर मेरे साथ सब ने प्यार भरा व्यवहार ही किया था. अच्छा नहीं लगा था तब मुझे चाचाभतीजे का मनमुटाव.
इस बार भी कुछ ऐसा ही लगा तो पत्नी ने समझाया, ‘‘जहां चार बरतन होते हैं तो वे खड़कते ही हैं. मैं तो हर बार देखती हूं. जब भी घर आओ किसी न किसी से किसी न किसी का तनाव चल रहा होता है. 4 साल पहले भी विजय चाचा के परिवार से अबोला चल रहा था.’’
‘‘लेकिन हम तो उन से मिलने गए न. तुम चाची के लिए साड़ी लाई थीं.’’
‘‘तब छोटी का मुंह सूज गया था. मैं ने बताया तो था आप को. साफसाफ तो नहीं मगर इतना इशारा आप के भाई ने भी किया था कि जो उस का रिश्तेदार है वह चाचा से नहीं मिल सकता.’’
‘‘अच्छा? मतलब मेरा अपना व्यवहार, मेरी अपनी बुद्धि गई भाड़ में. जिसे छोटा पसंद नहीं करेगा उसे मुझे भी छोड़ना पड़ेगा.’’
‘‘और इस बार छोटे का परिवार विजय चाचा के साथ तो घीशक्कर जैसा है. लेकिन बड़ी बूआ के साथ नाराज चल रहा है.’’
‘‘वह क्यों?’’
‘‘आप खुद ही देखसुन लीजिए न. मैं अपने मुंह से कुछ कहना नहीं चाहती. कुछ कहा तो आप कहेंगे कि नमकमिर्च लगा कर सुना रही हूं.’’
पत्नी का तुनकना भी सही था. वास्तव में आंखें बंद कर के मैं किसी भी औरत की बात पर विश्वास नहीं करता, वह चाहे मेरी मां ही क्यों न हो. अकसर औरतें ही हर फसाद और कलहक्लेश का बीज रोपती हैं. 10 भाई सालों तक साथसाथ रहते हैं लेकिन 2 औरतें आई नहीं कि सब तितरबितर. मायके में बहनों का आपस में झगड़ा हो जाएगा तो जल्दी ही भूल कर माफ भी कर देंगी और समय पड़ने पर संगसंग हो लेंगी लेकिन ससुराल में भाइयों में अनबन हो जाए तो उस आग में सारी उम्र घी डालने का काम करेंगी. अपनी मां को भी मैं ने अकसर बात घुमाफिरा कर करते देखा है.
नौकरी के सिलसिले में लगभग
100-200 परिवारों की कहानी तो बड़ी नजदीक से देखीसुनी ही है मैं ने. हर घर में वही सब. वही अधिकार का रोना, वही औरत का अपने परिवार को ले कर सदा असुरक्षित रहना. ज्यादा झगड़ा सदा औरतें ही करती हैं.
मेरी पत्नी शुभा यह सब जानती है इसीलिए कभी कोई राय नहीं देती. मेरे यहां घर बना कर सदा के लिए रहने के लिए भी वह तैयार नहीं है. इसीलिए चाहती है लंबा समय यहां टिक कर जरा सी जांचपड़ताल तो करूं कि दूर के ढोल ही सुहावने हैं या वास्तव में यहां पे्रम की पवित्र नदी, जलधारा बहती है. कभीकभी कोई आया और उस से आप ने लाड़प्यार कर लिया, उस का मतलब यह तो नहीं कि लाड़प्यार करना ही उन का चरित्र है. 10-15 मिनट में किसी का मन भला कैसे टटोला जा सकता है. हमारे खानदान के एक ताऊजी हैं जिन से हमारा सामना सदा इस तरह होता रहा है मानो सिर पर उन की छत न होती तो हम अनाथ  ही होते. सारे काम छोड़छाड़ कर हम उन के चरणस्पर्श करने दौड़ते हैं. सब से बड़े हैं, इसलिए छोटीमोटी सलाह भी उन से की जाती है. उम्रदराज हैं इसलिए उन की जानपहचान का लाभ भी अकसर हमें मिलता है. राजनीति में भी उन का खासा दखल है जिस वजह से अकसर परिवार का कोई काम रुक जाता है तो भागेभागे उन्हीं के पास जाते हैं हम, ‘ताऊजी यह, ताऊजी वह.’
हमें अच्छाखासा सहारा लगता है उन का. बड़ेबुजुर्ग बैठे हों तो सिर पर एक आसमान जैसी अनुभूति होती है और वही आसमान हैं वे ताऊजी. हमारे खानदान में वही अब बड़े हैं. उन का नाम हम बड़ी इज्जत, बड़े सम्मान से लेते हैं. छोटा भाई इस बार कुछ ज्यादा ही परेशान लगा. मैं ताऊजी के लिए शाल लाया था उपहार में. शुभा से कहा कि वह शाम को तैयार रहे, उन के घर जाना है. छोटा भाई मुझे यों देखने लगा, मानो उस के कानों में गरम सीसा डाल दिया हो किसी ने. शायद इस बार उन से भी अनबन हो गई हो, क्योंकि हर बार किसी न किसी से उस का झगड़ा होता ही है.
‘‘आप का दिमाग तो ठीक है न भाई साहब. आप ताऊ के घर शाल ले कर जाएंगे? बेहतर है मुझे गोली मार कर मुझ पर इस का कफन डाल दीजिए.’’
स्तब्ध तो रहना ही था मुझे. यह क्या कह रहा है, छोटा. इस तरह क्यों?
‘‘बाहर रहते हैं न आप, आप नहीं जानते यहां घर पर क्याक्या होता है. मैं पागल नहीं हूं जो सब से लड़ता रहता हूं. मुकदमा चल रहा है विजय चाचा का और मेरा ताऊ के साथ. और दोनों बूआ उन का साथ दे रही हैं. सबकुछ है ताऊ के पास. 10 दुकानें हैं, बाजार में 4 कोठियां हैं, ट्रांसपोर्ट कंपनी है, शोरूम हैं. औलाद एक ही है. और कितना चाहिए इंसान को जीने के लिए?’’
‘‘तो? सच है लेकिन उन के पास जो है वह उन का अपना है. इस में हमें कोई जलन नहीं होनी चाहिए.’’
‘‘हमारा जो है उसे तो हमारे पास रहने दें. कोई सरकारी कागज है ताऊ के पास. उसी के बल पर उन्होंने हम पर और विजय चाचा पर मुकदमा ठोंक रखा है कि हम दोनों का घर हमारा नहीं है, उन का है. नीचे से ले कर ऊपर तक हर जगह तो ताऊ का ही दरबार है. हर वकील उन का दोस्त है और हर जज, हर कलैक्टर उन का यार. मैं कहां जाऊं रोने? बच्चा रोता हुआ बाप के पास आता है. मेरा तो गला मेरा बाप ही काट रहा है. ताऊ की भूख इतनी बढ़ चुकी है कि …’’
आसमान से नीचे गिरा मैं. मानो समूल अस्तित्व ही पारापारा हो कर छोटेछोटे दानों में इधरउधर बिखर गया. शाल हाथ से छूट गया. समय लग गया मुझे अपने कानों पर विश्वास करने में. क्या कभी मैं ऐसा कर पाऊंगा छोटे के बच्चों के साथ? करोड़ों का मानसम्मान अगर मुझे मेरे बच्चे दे रहे होंगे तो क्या मैं लाखों के लिए अपने ही बच्चों के मुंह का निवाला छीन पाऊंगा कभी? कितना चाहिए किसी को जीने के लिए, मैं तो आज तक यही समझ नहीं पाया. रोटी की भूख और 6 फुट जगह सोने को और मरणोपरांत खाक हो जाने के बाद तो वह भी नहीं. क्यों इतना संजोता है इंसान जबकि कल का पता ही नहीं. अपने छोटे भाई का दर्द मैं ही समझ नहीं पाया. मैं भी तो कम दोषी नहीं हूं न. मुझे उस की परेशानी जाननी तो चाहिए थी.
मन में एक छोटी सी उम्मीद जागी. शाल ले कर मैं और शुभा शाम ताऊजी के घर चले ही गए, जैसे सदा जाते थे इज्जत और मानसम्मान के साथ. स्तब्ध था मैं उन का व्यवहार देख कर.
‘‘भाई की वकालत करने आए हो तो मत करना. वह घर और विजय का घर मेरे पिता ने मेरे लिए खरीदा था.’’
‘‘आप के पिता ने आप के लिए क्या खरीदा था, क्या नहीं, उस का पता हम कैसे लगाएं. आप के पिता हमारे पिता के भी तो पिता ही थे न. किसी पिता ने अपनी किस औलाद को कुछ भी नहीं दिया और किस को इतना सब दे दिया, उस का पता कैसे चले?’’
‘‘तो जाओ, पता करो न. तहसील में जाओ… कागज निकलवाओ.’’
‘‘तहसीलदार से हम क्या पता करें, ताऊजी. वहां तो चपरासी से ले कर ऊपर तक हर इंसान आप का खरीदा हुआ है. आज तक तो हम हर समस्या में आप के पास आते रहे. अब जब आप ही समस्या बन गए तो कहां जाएंगे? आप बड़े हैं. मेरी भी उम्र  60 साल की होने को आई. इतने सालों से तो वह घर हमारा ही है, आज एकाएक वह आप का कैसे हो गया? और माफ कीजिएगा, ताऊजी, मैं आप के सामने जबान खोल रहा हूं. क्या हमारे पिताजी इतने नालायक थे जो दादाजी ने उन्हें कुछ न दे कर सब आप को ही दे दिया और विजय चाचा को भी कुछ नहीं दिया?’’
‘‘मेरे सामने जबान खोलना तुम्हें भी आ गया, अपने भाई की तरह.’’
‘‘मैं गूंगा हूं, यह आप से किस ने कह दिया, ताऊजी? इज्जत और सम्मान करना जानता हूं तो क्या बात करना नहीं आता होगा मुझे. ताऊजी, आप का एक ही बच्चा है और आप भी कोई अमृत का घूंट पी कर नहीं आए. यहां की अदालतों में आप की चलती है, मैं जानता हूं मगर प्रकृति की अपनी एक अदालत है, जहां हमारे साथ अन्याय नहीं होगा, इतना विश्वास है मुझे. आप क्यों अपने बच्चों के लिए बद्दुआओं की लंबीचौड़ी फेहरिस्त तैयार कर रहे हैं? हमारे सिर से यदि आप छत छीन लेंगे तो क्या हमारा मन आप का भला चाहेगा?’’
‘‘दिमाग मत चाटो मेरा. जाओ, तुम से जो बन पाए, कर लो.’’
‘‘हम कुछ नहीं कर सकते, आप जानते हैं, तभी तो मैं समझाने आया हूं, ताऊजी.’’
ताऊजी ने मेरा लाया शाल उठा कर दहलीज के पार फेंक दिया और उठ कर अंदर चले गए, मानो मेरी बात भी सुनना अब उन्हें पसंद नहीं. हम अवाक् खड़े रहे. पत्नी शुभा कभी मुझे देखती और कभी जाते हुए ताऊजी की पीठ को. अपमान का घूंट पी कर रह गए हम दोनों.
85 साल के वृद्ध की आंखों में पैसे और सत्ता के लिए इतनी भूख. फिल्मों में तो देखी थी, अपने ही घर में स्वार्थ का नंगा नाच मैं पहली बार देख रहा था. सोचने लगा, मुझे वापस घर आना ही नहीं चाहिए था. सावन के अंधे की तरह यह खुशफहमी तो रहती कि मेरे शहर में मेरे अपनों का आपस में बड़ा प्यार है.
उस रात बहुत रोया मैं. छोटे भाई और विजय चाचा की लड़ाई में मैं भावनात्मक रूप से तो उन के साथ हूं मगर उन की मदद नहीं कर सकता क्योंकि मैं अपने भारत देश का एक आम नागरिक हूं जिसे दो वक्त की रोटी कमाना ही आसान नहीं, वह गुंडागर्दी और बदमाशी से सामना कैसे करे. बस, इतना ही कह सकता हूं कि ताऊ जैसे इंसान को सद्बुद्धि प्राप्त हो और हम जैसों को सहने की ताकत, क्योंकि एक आम आदमी सहने के सिवा और कुछ नहीं कर सकता.

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बड़ेबुजुर्ग बैठे हों तो सिर पर एक आसमान जैसी अनुभूति होती है. ताऊजी हमारे लिए वही आसमान थे लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ जिस ने इस खुशफहमी को गलतफहमी में बदल दिया?
रिटायरमैंट के बाद अपने ही जन्मस्थान में जा कर बसने का मेरा अनमोल सपना था. जहां पैदा हुआ, जहां गलियों में खेला व बड़ा हुआ, वह जगह कितनी ही यादों को जिंदा रखे है. कक्षा 12 तक पढ़ने के बाद जो अपना शहर छोड़ा तो बस मुड़ कर देख ही नहीं पाया. नौकरी सारा भारत घुमाती रही और मैं घूमता रहा. जितनी दूर मैं अपने शहर से होता गया उतना ही वह मेरे मन के भीतर कहीं समाता गया. छुट्टियों में जब घर आते तब सब से मिलने जाते रहे. सभी आवभगत करते रहे, प्यार और अपनत्व से मिलते रहे. कितना प्यार है न मेरे शहर में. सब कितने प्यार से मिलते हैं, सुखदुख पूछते हैं. ‘कैसे हो?’ सब के होंठों पर यही प्रश्न होता है.
रिटायरमैंट में सालभर रह गया. बच्चों का ब्याह कर, उन के अपनेअपने स्थानों पर उन्हें भेज कर मैं ने गंभीरता से इस विषय पर विचार किया. लंबी छुट्टी ले कर अपने शहर, अपने रिश्तेदारों के साथ थोड़ाथोड़ा समय बिता कर यह सर्वेक्षण करना चाहा कि रहने के लिए कौन सी जगह उपयुक्त रहेगी, घर बनवाना पड़ेगा या बनाबनाया ही कहीं खरीद लेंगे.
मुझे याद है, पिछली बार जब मैं आया था तब विजय चाचा के साथ छोटे भाई की अनबन चल रही थी. मैं ने सुलह करवा कर अपना कर्तव्य निभा लिया था. छोटी बूआ और बड़ी बूआ भी ठंडा सा व्यवहार कर रही थीं. मगर मेरे साथ सब ने प्यार भरा व्यवहार ही किया था. अच्छा नहीं लगा था तब मुझे चाचाभतीजे का मनमुटाव.
इस बार भी कुछ ऐसा ही लगा तो पत्नी ने समझाया, ‘‘जहां चार बरतन होते हैं तो वे खड़कते ही हैं. मैं तो हर बार देखती हूं. जब भी घर आओ किसी न किसी से किसी न किसी का तनाव चल रहा होता है. 4 साल पहले भी विजय चाचा के परिवार से अबोला चल रहा था.’’
‘‘लेकिन हम तो उन से मिलने गए न. तुम चाची के लिए साड़ी लाई थीं.’’
‘‘तब छोटी का मुंह सूज गया था. मैं ने बताया तो था आप को. साफसाफ तो नहीं मगर इतना इशारा आप के भाई ने भी किया था कि जो उस का रिश्तेदार है वह चाचा से नहीं मिल सकता.’’
‘‘अच्छा? मतलब मेरा अपना व्यवहार, मेरी अपनी बुद्धि गई भाड़ में. जिसे छोटा पसंद नहीं करेगा उसे मुझे भी छोड़ना पड़ेगा.’’
‘‘और इस बार छोटे का परिवार विजय चाचा के साथ तो घीशक्कर जैसा है. लेकिन बड़ी बूआ के साथ नाराज चल रहा है.’’
‘‘वह क्यों?’’
‘‘आप खुद ही देखसुन लीजिए न. मैं अपने मुंह से कुछ कहना नहीं चाहती. कुछ कहा तो आप कहेंगे कि नमकमिर्च लगा कर सुना रही हूं.’’
पत्नी का तुनकना भी सही था. वास्तव में आंखें बंद कर के मैं किसी भी औरत की बात पर विश्वास नहीं करता, वह चाहे मेरी मां ही क्यों न हो. अकसर औरतें ही हर फसाद और कलहक्लेश का बीज रोपती हैं. 10 भाई सालों तक साथसाथ रहते हैं लेकिन 2 औरतें आई नहीं कि सब तितरबितर. मायके में बहनों का आपस में झगड़ा हो जाएगा तो जल्दी ही भूल कर माफ भी कर देंगी और समय पड़ने पर संगसंग हो लेंगी लेकिन ससुराल में भाइयों में अनबन हो जाए तो उस आग में सारी उम्र घी डालने का काम करेंगी. अपनी मां को भी मैं ने अकसर बात घुमाफिरा कर करते देखा है.
नौकरी के सिलसिले में लगभग
100-200 परिवारों की कहानी तो बड़ी नजदीक से देखीसुनी ही है मैं ने. हर घर में वही सब. वही अधिकार का रोना, वही औरत का अपने परिवार को ले कर सदा असुरक्षित रहना. ज्यादा झगड़ा सदा औरतें ही करती हैं.
मेरी पत्नी शुभा यह सब जानती है इसीलिए कभी कोई राय नहीं देती. मेरे यहां घर बना कर सदा के लिए रहने के लिए भी वह तैयार नहीं है. इसीलिए चाहती है लंबा समय यहां टिक कर जरा सी जांचपड़ताल तो करूं कि दूर के ढोल ही सुहावने हैं या वास्तव में यहां पे्रम की पवित्र नदी, जलधारा बहती है. कभीकभी कोई आया और उस से आप ने लाड़प्यार कर लिया, उस का मतलब यह तो नहीं कि लाड़प्यार करना ही उन का चरित्र है. 10-15 मिनट में किसी का मन भला कैसे टटोला जा सकता है. हमारे खानदान के एक ताऊजी हैं जिन से हमारा सामना सदा इस तरह होता रहा है मानो सिर पर उन की छत न होती तो हम अनाथ  ही होते. सारे काम छोड़छाड़ कर हम उन के चरणस्पर्श करने दौड़ते हैं. सब से बड़े हैं, इसलिए छोटीमोटी सलाह भी उन से की जाती है. उम्रदराज हैं इसलिए उन की जानपहचान का लाभ भी अकसर हमें मिलता है. राजनीति में भी उन का खासा दखल है जिस वजह से अकसर परिवार का कोई काम रुक जाता है तो भागेभागे उन्हीं के पास जाते हैं हम, ‘ताऊजी यह, ताऊजी वह.’
हमें अच्छाखासा सहारा लगता है उन का. बड़ेबुजुर्ग बैठे हों तो सिर पर एक आसमान जैसी अनुभूति होती है और वही आसमान हैं वे ताऊजी. हमारे खानदान में वही अब बड़े हैं. उन का नाम हम बड़ी इज्जत, बड़े सम्मान से लेते हैं. छोटा भाई इस बार कुछ ज्यादा ही परेशान लगा. मैं ताऊजी के लिए शाल लाया था उपहार में. शुभा से कहा कि वह शाम को तैयार रहे, उन के घर जाना है. छोटा भाई मुझे यों देखने लगा, मानो उस के कानों में गरम सीसा डाल दिया हो किसी ने. शायद इस बार उन से भी अनबन हो गई हो, क्योंकि हर बार किसी न किसी से उस का झगड़ा होता ही है.
‘‘आप का दिमाग तो ठीक है न भाई साहब. आप ताऊ के घर शाल ले कर जाएंगे? बेहतर है मुझे गोली मार कर मुझ पर इस का कफन डाल दीजिए.’’
स्तब्ध तो रहना ही था मुझे. यह क्या कह रहा है, छोटा. इस तरह क्यों?
‘‘बाहर रहते हैं न आप, आप नहीं जानते यहां घर पर क्याक्या होता है. मैं पागल नहीं हूं जो सब से लड़ता रहता हूं. मुकदमा चल रहा है विजय चाचा का और मेरा ताऊ के साथ. और दोनों बूआ उन का साथ दे रही हैं. सबकुछ है ताऊ के पास. 10 दुकानें हैं, बाजार में 4 कोठियां हैं, ट्रांसपोर्ट कंपनी है, शोरूम हैं. औलाद एक ही है. और कितना चाहिए इंसान को जीने के लिए?’’
‘‘तो? सच है लेकिन उन के पास जो है वह उन का अपना है. इस में हमें कोई जलन नहीं होनी चाहिए.’’
‘‘हमारा जो है उसे तो हमारे पास रहने दें. कोई सरकारी कागज है ताऊ के पास. उसी के बल पर उन्होंने हम पर और विजय चाचा पर मुकदमा ठोंक रखा है कि हम दोनों का घर हमारा नहीं है, उन का है. नीचे से ले कर ऊपर तक हर जगह तो ताऊ का ही दरबार है. हर वकील उन का दोस्त है और हर जज, हर कलैक्टर उन का यार. मैं कहां जाऊं रोने? बच्चा रोता हुआ बाप के पास आता है. मेरा तो गला मेरा बाप ही काट रहा है. ताऊ की भूख इतनी बढ़ चुकी है कि …’’
आसमान से नीचे गिरा मैं. मानो समूल अस्तित्व ही पारापारा हो कर छोटेछोटे दानों में इधरउधर बिखर गया. शाल हाथ से छूट गया. समय लग गया मुझे अपने कानों पर विश्वास करने में. क्या कभी मैं ऐसा कर पाऊंगा छोटे के बच्चों के साथ? करोड़ों का मानसम्मान अगर मुझे मेरे बच्चे दे रहे होंगे तो क्या मैं लाखों के लिए अपने ही बच्चों के मुंह का निवाला छीन पाऊंगा कभी? कितना चाहिए किसी को जीने के लिए, मैं तो आज तक यही समझ नहीं पाया. रोटी की भूख और 6 फुट जगह सोने को और मरणोपरांत खाक हो जाने के बाद तो वह भी नहीं. क्यों इतना संजोता है इंसान जबकि कल का पता ही नहीं. अपने छोटे भाई का दर्द मैं ही समझ नहीं पाया. मैं भी तो कम दोषी नहीं हूं न. मुझे उस की परेशानी जाननी तो चाहिए थी.
मन में एक छोटी सी उम्मीद जागी. शाल ले कर मैं और शुभा शाम ताऊजी के घर चले ही गए, जैसे सदा जाते थे इज्जत और मानसम्मान के साथ. स्तब्ध था मैं उन का व्यवहार देख कर.
‘‘भाई की वकालत करने आए हो तो मत करना. वह घर और विजय का घर मेरे पिता ने मेरे लिए खरीदा था.’’
‘‘आप के पिता ने आप के लिए क्या खरीदा था, क्या नहीं, उस का पता हम कैसे लगाएं. आप के पिता हमारे पिता के भी तो पिता ही थे न. किसी पिता ने अपनी किस औलाद को कुछ भी नहीं दिया और किस को इतना सब दे दिया, उस का पता कैसे चले?’’
‘‘तो जाओ, पता करो न. तहसील में जाओ… कागज निकलवाओ.’’
‘‘तहसीलदार से हम क्या पता करें, ताऊजी. वहां तो चपरासी से ले कर ऊपर तक हर इंसान आप का खरीदा हुआ है. आज तक तो हम हर समस्या में आप के पास आते रहे. अब जब आप ही समस्या बन गए तो कहां जाएंगे? आप बड़े हैं. मेरी भी उम्र  60 साल की होने को आई. इतने सालों से तो वह घर हमारा ही है, आज एकाएक वह आप का कैसे हो गया? और माफ कीजिएगा, ताऊजी, मैं आप के सामने जबान खोल रहा हूं. क्या हमारे पिताजी इतने नालायक थे जो दादाजी ने उन्हें कुछ न दे कर सब आप को ही दे दिया और विजय चाचा को भी कुछ नहीं दिया?’’
‘‘मेरे सामने जबान खोलना तुम्हें भी आ गया, अपने भाई की तरह.’’
‘‘मैं गूंगा हूं, यह आप से किस ने कह दिया, ताऊजी? इज्जत और सम्मान करना जानता हूं तो क्या बात करना नहीं आता होगा मुझे. ताऊजी, आप का एक ही बच्चा है और आप भी कोई अमृत का घूंट पी कर नहीं आए. यहां की अदालतों में आप की चलती है, मैं जानता हूं मगर प्रकृति की अपनी एक अदालत है, जहां हमारे साथ अन्याय नहीं होगा, इतना विश्वास है मुझे. आप क्यों अपने बच्चों के लिए बद्दुआओं की लंबीचौड़ी फेहरिस्त तैयार कर रहे हैं? हमारे सिर से यदि आप छत छीन लेंगे तो क्या हमारा मन आप का भला चाहेगा?’’
‘‘दिमाग मत चाटो मेरा. जाओ, तुम से जो बन पाए, कर लो.’’
‘‘हम कुछ नहीं कर सकते, आप जानते हैं, तभी तो मैं समझाने आया हूं, ताऊजी.’’
ताऊजी ने मेरा लाया शाल उठा कर दहलीज के पार फेंक दिया और उठ कर अंदर चले गए, मानो मेरी बात भी सुनना अब उन्हें पसंद नहीं. हम अवाक् खड़े रहे. पत्नी शुभा कभी मुझे देखती और कभी जाते हुए ताऊजी की पीठ को. अपमान का घूंट पी कर रह गए हम दोनों.
85 साल के वृद्ध की आंखों में पैसे और सत्ता के लिए इतनी भूख. फिल्मों में तो देखी थी, अपने ही घर में स्वार्थ का नंगा नाच मैं पहली बार देख रहा था. सोचने लगा, मुझे वापस घर आना ही नहीं चाहिए था. सावन के अंधे की तरह यह खुशफहमी तो रहती कि मेरे शहर में मेरे अपनों का आपस में बड़ा प्यार है.
उस रात बहुत रोया मैं. छोटे भाई और विजय चाचा की लड़ाई में मैं भावनात्मक रूप से तो उन के साथ हूं मगर उन की मदद नहीं कर सकता क्योंकि मैं अपने भारत देश का एक आम नागरिक हूं जिसे दो वक्त की रोटी कमाना ही आसान नहीं, वह गुंडागर्दी और बदमाशी से सामना कैसे करे. बस, इतना ही कह सकता हूं कि ताऊ जैसे इंसान को सद्बुद्धि प्राप्त हो और हम जैसों को सहने की ताकत, क्योंकि एक आम आदमी सहने के सिवा और कुछ नहीं कर सकता.

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February 29, 2020 at 10:00AM

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