Monday 28 February 2022

मन आंगन की चंपा- भाग 2: सुभद्रा स्वयं को असहाय क्यों मानती रही

Writer- यदु जोशी गढ़देशी

उस ने उम्मीद से ही मेरे पास भेजा है. न दूं तो अपनी ही नजर में गिर जाऊंगी. सुभद्रा थोड़ी पढ़ीलिखी थी. उस ने 2 लाख रुपए के चेक पर हस्ताक्षर कर के निर्मल को पकड़ा दिया. शाम तक वह खुशीखुशी लौट गया.

सबकुछ ठीक चल ही रहा था कि एक वह दिन गुसलखाने से बाहर निकलते समय फिसल गई. जांघ की हड्डी फ्रैक्चर हो गई. गनीमत थी कि गिरने की आवाज निचली मंजिल में किराएदार को सुनाई दे गई. इतवार था, किराएदार की छुट्टी थी. वह तेजी से ऊपरी मंज़िल में गया. दरवाजे खुले थे. उस ने आसपास के लोगों की मदद से सुभद्रा को अस्पताल पहुंचाया. कई दिन अस्पताल में गुजारने के बाद वह लौटी. घर में कैद हो गई थी वह. दर्द इस कदर कि उस का बाहर निकलना तो दूर, वौकर के सहारे घर के भीतर ही चल पाना कठिन होता. अनीता को भी अपना हाल बताया लेकिन कोई नहीं आया. एकदो दिन फोन पर हालचाल पूछे थे, बस.

एक दिन लीला आई दोपहर का खाना लिए. सुभद्रा बिस्तर से उठना चाहती थी लेकिन उस से उठा नहीं गया.

“लेटी रहो, ज्यादा हिलोडुलो मत. खाना ले कर आई हूं” लीला बोली.

“क्यों कष्ट किया. पड़ोसी दे जाते हैं, बहुत ध्यान रखते हैं मेरा.”

“याद है, आज तेरा जन्मदिन है. मीठा भी है, तुझे गुलाबजामुन पसंद हैं न?”

“तुझे कैसे पता?” वह आश्चर्यचकित हो कर बोली.

“तूने ही तो बताया था कि मैं वसंतपंचमी के दिन हुई थी.”

सुभद्रा हंसने लगी, “जन्मदिन किसे याद है और क्या करना है याद कर के.”

“क्यों? अपने लिए कुछ नहीं? लेकिन उस दिन मांबाप के लिए कितना बड़ा दिन रहा होगा!”

“हम्म…” और वह खयालों की दुनिया में चली गई.

लीला कुछ सोचते हुए बोल पड़ी, “सुभद्रा, तेरी ननद नहीं आई तुझे देखने?”

उस ने निराशा से गरदन हिलाई, “फोन किया था उसे. कम से कम अपने पति को ही भेज देती तो थोड़ी मदद मिलती. खैर, जो बीत गया सो बीत गया. इसी बहाने अपनेपराए का भेद मिल गया,” सुभद्रा ने दुखी हो कर लंबी सांस छोड़ी और चुप हो गई.

“छोड़ इन सब बातों को, चल, पहले तुझे खिला देती हूं.”

सुभद्रा तो भीतर ही भीतर विषाद से भर चुकी थी. लीला ने जो कहा, उस के कानों के पास से निकल गया.

“क्यों नहीं किसी जरूरतमंद लड़की को रख लेती अपने पास. उस का भी भला होता और तुझे भी दो रोटियां मिल जातीं. कौन जाने कब किसी तरह की जरूरत आन पड़े.”

ये भी पढ़ें- चार आंखों का खेल: क्या संध्या उस खेल से बच पाई?

“हां, बहुत बार सोचा इस बारे में,” वह भोजन शुरू करते हुए वह बोली, “एक लड़की है मेरे गांव में.”

“तो बुला क्यों नहीं लेती उसे?”

“ठीक ही कह रही है तू.”

“सोच मत, बुला ले जल्दी. कितनी उम्र की होगी?”

“होगी कोई 30-32 की, शादीशुदा. लड़की बहुत भोली व संस्कारी है. एक बेटा भी है 8 साल का. बेचारी का समय देखो, इतने पर भी उस का पति उसे छोड़ कर किसी दूसरी के साथ भाग गया.”

“ओह, बहुत बुरा हुआ उस के साथ. तू कहे तो मैं किसी को गांव भेज दूं?”

“ना रे, वही आ जाती है घर पर. जब से मेरा यह हाल हुआ है, कई बार आ चुकी है. कभी दूध तो कभी सब्जी दे जाती है. खाना भी पका कर खिला जाती है. गरीब है, लेकिन दिल की बहुत अमीर है.”

“तभी तो कहा है कि जिस की नाक है, उस के पास नथ नहीं है और जिस के पास नहीं है उस के पास नथ है.”

तभी एक सांवली सी युवती बच्चे के साथ दरवाजे के पास आ कर खड़ी हो गई.

“देख, जिसे सच्चे दिल से याद करो, वह मिल जाता है. यही है वह जिस की मैं बात कर रही थी. चंपा नाम है इस का,” फिर उस की तरफ देख कर सुभद्रा बोली, “आ बेटी, भीतर आ, बाहर क्यों खड़ी है?”

“बूआ, आज गाय ने दूध तो नहीं दिया लेकिन बथुआ का साग बना कर लाई हूं.”

“कोई बात नहीं. अभी मैं खा कर ही बैठी हूं.”

“शाम के लिए रोटी बना कर रख देती हूं,” अंदर आ कर चंपा ने कहा और फिर बेटे के सिर पर हाथ रख कर बोली, “चंदू, तू बाहर जा कर खेल.”

“अरे रहने दे उसे. इधर आ, तुझ से काम की बात करनी है.”

सुभद्रा ने इशारे से उसे अपने पास बुलाया और अपनी इच्छा उसे कह दी. फिर आशा से उस की ओर देख कर बोली, “अब बता, क्या कहती है?”

“आप मेरी बूआ जैसी है और मां जैसी भी. गांव में मेरा कौन है. चंदू के सहारे दिन काट रही हूं.”

“स्कूल में भरती करवा देंगे यहां, खुश रहेगा वह. उस की चिंता मत कर.”

“आप हैं तो मुझे किस बात की चिंता, बूआ.”

थोड़ी देर बाद लीला उठी, “अब मैं चलती हूं, फिर आऊंगी. तू इस से बातें कर. बहुत समझदार और प्यारी लड़की है.”

चंपा की गांव में इकलौती गाय थी, दूध कम ही देती थी. खेती के नाम पर एक छोटा टुकड़ा सब्जी उगाने के लिए, बस. और कुछ नहीं. रोजीरोटी के लिए दूसरों के खेतों में काम मिल जाता था उसे, यही आय का मुख्य साधन भी था. पेट भरने में उसे स्वर्गनर्क याद आ जाते. जवान थी, इसलिए थक कर भी चेहरे पर शिकन नहीं आती. आज उस की खुशी छिपाए नहीं छिप रही थी. कसबे में रहेगी तो चंदू की पढ़ाई भी हो जाएगी और पेट भी भरेगा. उस ने हां करने में देरी न की.

एक दिन वह जरूरत का सामान लिए बेटे सहित सुभद्रा के पास आ गई. एक बड़ा सा कमरा उसे मिल गया. गांव के मकान में ताला लटका सो लटका, उधर गाय भी विदा कर आई.

ये भी पढ़ें- अपने पैर कुल्हाड़ी- भाग 1: मोहिनी अपने पति से क्यों नाराज थी

कसबा में आ कर उस ने अपनी दिनचर्या बदल दी. सुभद्रा के कपड़े धोना. नहाने की व्यवस्था, बिस्तर लगाना, खानापीना, समय पर दवाई देना और रोज शरीर में तेलमालिश करना. यह काम गांव के जीवन से कहीं आसान था उस के लिए.

यहां असुरक्षा का भाव भी नहीं सालता था उसे. सुभद्रा उस के हाथ में जरूरत पड़ने पर पैसे धर देती. चंपा हिचकती तो कहती, “बेटी, जितना तू कर रही है उतना शायद सगी बेटी भी न करे. किस के लिए रखूं यह सब. बाजार जा कपड़े खरीद ले अपने और चंदू के लिए.”

उस का बेटा कसबे के स्कूल में जाने लगा था. वह यहां आ कर बहुत खुश था. हमउम्र बच्चों के साथ उस का मन रम गया. अब चंपा को उस की फीस व किताबों की चिंता नहीं थी. सुभद्रा छोटीबड़ी सभी बातों का ध्यान रखती. चंपा भी गांव से बेहत्तर जिंदगी जी रही थी यहां.

यही स्थिति सुभद्रा की भी थी. घर में रौनक आ गई. घीरेधीरे चंपा की सेवासुश्रुषा ने उसे उठनेबैठने लायक बना दिया. फिर तो सुभद्रा ने छोटेमोटे काम अपने हाथों  में ले लिए.

कुछ साल हंसीखुशी बीत गए. सुभद्रा को अब जीवन जीने का आधार मिल गया. सुभद्रा लाठी के सहारे फिर से दुकान में जाने लगी. कभी ग्राहक कम होते तो जल्दी ही घर आ जाती. खानेपीने की उसे फिक्र नहीं थी, चंपा चुटकियों में खाना बना कर परोस देती.

सुभद्रा को घर भरापूरा लगने लगा और चंपा को लगता कि वह अपने मायके में आ गई है. बेटे की शिक्षा और जीवनयापन दोनों भलीभांति चल निकले.

समय एक समान कभी नहीं रहता. उस में भी समुद्र की तरह उतारचढ़ाव आते रहते हैं. सुखदुख दोनों अलगअलग हैं.

कभी एक अपने पैर जमा देता है तो कभी दूसरा.

सुभद्रा 70 साल पार कर गई. पहले से भी अशक्त होती जा रही थी, सो, दुकान की तरफ जाना बंद हो गया. इस बीच कुछ हमउम्र सहेलियां भी दुनिया छोड़ गईं. इस से वह बहुत आहत हुई.

सुभद्रा बिस्तर पर बैठेबैठे किताबों के पन्ने पलटती, चंदू के साथ मन लगाती और कभी अपनी सहेलियों से फोन पर बातें कर समय बिताती. कभी मन किया तो स्वभाववश अनीता को भी फोन लगा कर उस की कुशलता पूछ लेती.

उस साल सर्दी का प्रकोप बढ़ गया था. रहरह कर बादल छा जाते थे. कभी बादल मूसलाधार बरस भी जाते. दिसंबर आतेआते सामने की पहाड़ियों पर बर्फ की सफेद चादर चढ़ने लगी थी. इस साल तकरीबन 7-8 वर्षों बाद ऐसी बर्फ़ देखने को मिली. रजाई से बाहर हाथपैर निकालते ही पैर सुन्न पड़ जाते. ऐसी कड़ाकेदार सर्दी में जरा सी लापरवाही बुजुर्गों के लिए बेहद कष्टकारी होटी है. सांस की तकलीफ बढ़ जाती, कफ़ से छातियां जकड़ जाती हैं.

सुभद्रा को भी कफ की शिकायत होने लगी थी. खांसी भी उठती. छाती में दर्द भी महसूस होता. महल्ले में कल ही स्वास के रोगी एक वृद्ध चल बसे थे. सुभद्रा को पता चला तो वह भी अंदर से डर गई.

चंपा भांप गई. वह दैनिक कार्यों से निबट कर सुभद्रा को अधिक समय देने लगी. “बूआ, इतना क्यों सोच रही हो. खानेपीने और दवाई में लापरवाही से ही खतरा बढ़ता है, आप तो ऐसा नहीं करतीं.”

“वह तो ठीक है पर मेरी 3 सहेलियां भी तो चली गईं इस साल,” सुभद्रा चिंतित स्वर में बोली.

“अरे बूआ, तुम भी न, सब का अपनाअपना समय होता है. आप के साथ मैं हूं न, कुछ नहीं होने दूंगी,” सुभद्रा की हथेलियों को सहलाते हुए चंपा ने कहा, “आप पीठ से तकिया लगा लो, मैं खाना परोसती हूं.”

“पहले  बच्चे को जिमा. अपने साथ उस पर भी ध्यान दिया कर.”

“चिंता न करो बूआ, साथसाथ परोसती हूं.”

The post मन आंगन की चंपा- भाग 2: सुभद्रा स्वयं को असहाय क्यों मानती रही appeared first on Sarita Magazine.



from कहानी – Sarita Magazine https://ift.tt/qZgdCkV

Writer- यदु जोशी गढ़देशी

उस ने उम्मीद से ही मेरे पास भेजा है. न दूं तो अपनी ही नजर में गिर जाऊंगी. सुभद्रा थोड़ी पढ़ीलिखी थी. उस ने 2 लाख रुपए के चेक पर हस्ताक्षर कर के निर्मल को पकड़ा दिया. शाम तक वह खुशीखुशी लौट गया.

सबकुछ ठीक चल ही रहा था कि एक वह दिन गुसलखाने से बाहर निकलते समय फिसल गई. जांघ की हड्डी फ्रैक्चर हो गई. गनीमत थी कि गिरने की आवाज निचली मंजिल में किराएदार को सुनाई दे गई. इतवार था, किराएदार की छुट्टी थी. वह तेजी से ऊपरी मंज़िल में गया. दरवाजे खुले थे. उस ने आसपास के लोगों की मदद से सुभद्रा को अस्पताल पहुंचाया. कई दिन अस्पताल में गुजारने के बाद वह लौटी. घर में कैद हो गई थी वह. दर्द इस कदर कि उस का बाहर निकलना तो दूर, वौकर के सहारे घर के भीतर ही चल पाना कठिन होता. अनीता को भी अपना हाल बताया लेकिन कोई नहीं आया. एकदो दिन फोन पर हालचाल पूछे थे, बस.

एक दिन लीला आई दोपहर का खाना लिए. सुभद्रा बिस्तर से उठना चाहती थी लेकिन उस से उठा नहीं गया.

“लेटी रहो, ज्यादा हिलोडुलो मत. खाना ले कर आई हूं” लीला बोली.

“क्यों कष्ट किया. पड़ोसी दे जाते हैं, बहुत ध्यान रखते हैं मेरा.”

“याद है, आज तेरा जन्मदिन है. मीठा भी है, तुझे गुलाबजामुन पसंद हैं न?”

“तुझे कैसे पता?” वह आश्चर्यचकित हो कर बोली.

“तूने ही तो बताया था कि मैं वसंतपंचमी के दिन हुई थी.”

सुभद्रा हंसने लगी, “जन्मदिन किसे याद है और क्या करना है याद कर के.”

“क्यों? अपने लिए कुछ नहीं? लेकिन उस दिन मांबाप के लिए कितना बड़ा दिन रहा होगा!”

“हम्म…” और वह खयालों की दुनिया में चली गई.

लीला कुछ सोचते हुए बोल पड़ी, “सुभद्रा, तेरी ननद नहीं आई तुझे देखने?”

उस ने निराशा से गरदन हिलाई, “फोन किया था उसे. कम से कम अपने पति को ही भेज देती तो थोड़ी मदद मिलती. खैर, जो बीत गया सो बीत गया. इसी बहाने अपनेपराए का भेद मिल गया,” सुभद्रा ने दुखी हो कर लंबी सांस छोड़ी और चुप हो गई.

“छोड़ इन सब बातों को, चल, पहले तुझे खिला देती हूं.”

सुभद्रा तो भीतर ही भीतर विषाद से भर चुकी थी. लीला ने जो कहा, उस के कानों के पास से निकल गया.

“क्यों नहीं किसी जरूरतमंद लड़की को रख लेती अपने पास. उस का भी भला होता और तुझे भी दो रोटियां मिल जातीं. कौन जाने कब किसी तरह की जरूरत आन पड़े.”

ये भी पढ़ें- चार आंखों का खेल: क्या संध्या उस खेल से बच पाई?

“हां, बहुत बार सोचा इस बारे में,” वह भोजन शुरू करते हुए वह बोली, “एक लड़की है मेरे गांव में.”

“तो बुला क्यों नहीं लेती उसे?”

“ठीक ही कह रही है तू.”

“सोच मत, बुला ले जल्दी. कितनी उम्र की होगी?”

“होगी कोई 30-32 की, शादीशुदा. लड़की बहुत भोली व संस्कारी है. एक बेटा भी है 8 साल का. बेचारी का समय देखो, इतने पर भी उस का पति उसे छोड़ कर किसी दूसरी के साथ भाग गया.”

“ओह, बहुत बुरा हुआ उस के साथ. तू कहे तो मैं किसी को गांव भेज दूं?”

“ना रे, वही आ जाती है घर पर. जब से मेरा यह हाल हुआ है, कई बार आ चुकी है. कभी दूध तो कभी सब्जी दे जाती है. खाना भी पका कर खिला जाती है. गरीब है, लेकिन दिल की बहुत अमीर है.”

“तभी तो कहा है कि जिस की नाक है, उस के पास नथ नहीं है और जिस के पास नहीं है उस के पास नथ है.”

तभी एक सांवली सी युवती बच्चे के साथ दरवाजे के पास आ कर खड़ी हो गई.

“देख, जिसे सच्चे दिल से याद करो, वह मिल जाता है. यही है वह जिस की मैं बात कर रही थी. चंपा नाम है इस का,” फिर उस की तरफ देख कर सुभद्रा बोली, “आ बेटी, भीतर आ, बाहर क्यों खड़ी है?”

“बूआ, आज गाय ने दूध तो नहीं दिया लेकिन बथुआ का साग बना कर लाई हूं.”

“कोई बात नहीं. अभी मैं खा कर ही बैठी हूं.”

“शाम के लिए रोटी बना कर रख देती हूं,” अंदर आ कर चंपा ने कहा और फिर बेटे के सिर पर हाथ रख कर बोली, “चंदू, तू बाहर जा कर खेल.”

“अरे रहने दे उसे. इधर आ, तुझ से काम की बात करनी है.”

सुभद्रा ने इशारे से उसे अपने पास बुलाया और अपनी इच्छा उसे कह दी. फिर आशा से उस की ओर देख कर बोली, “अब बता, क्या कहती है?”

“आप मेरी बूआ जैसी है और मां जैसी भी. गांव में मेरा कौन है. चंदू के सहारे दिन काट रही हूं.”

“स्कूल में भरती करवा देंगे यहां, खुश रहेगा वह. उस की चिंता मत कर.”

“आप हैं तो मुझे किस बात की चिंता, बूआ.”

थोड़ी देर बाद लीला उठी, “अब मैं चलती हूं, फिर आऊंगी. तू इस से बातें कर. बहुत समझदार और प्यारी लड़की है.”

चंपा की गांव में इकलौती गाय थी, दूध कम ही देती थी. खेती के नाम पर एक छोटा टुकड़ा सब्जी उगाने के लिए, बस. और कुछ नहीं. रोजीरोटी के लिए दूसरों के खेतों में काम मिल जाता था उसे, यही आय का मुख्य साधन भी था. पेट भरने में उसे स्वर्गनर्क याद आ जाते. जवान थी, इसलिए थक कर भी चेहरे पर शिकन नहीं आती. आज उस की खुशी छिपाए नहीं छिप रही थी. कसबे में रहेगी तो चंदू की पढ़ाई भी हो जाएगी और पेट भी भरेगा. उस ने हां करने में देरी न की.

एक दिन वह जरूरत का सामान लिए बेटे सहित सुभद्रा के पास आ गई. एक बड़ा सा कमरा उसे मिल गया. गांव के मकान में ताला लटका सो लटका, उधर गाय भी विदा कर आई.

ये भी पढ़ें- अपने पैर कुल्हाड़ी- भाग 1: मोहिनी अपने पति से क्यों नाराज थी

कसबा में आ कर उस ने अपनी दिनचर्या बदल दी. सुभद्रा के कपड़े धोना. नहाने की व्यवस्था, बिस्तर लगाना, खानापीना, समय पर दवाई देना और रोज शरीर में तेलमालिश करना. यह काम गांव के जीवन से कहीं आसान था उस के लिए.

यहां असुरक्षा का भाव भी नहीं सालता था उसे. सुभद्रा उस के हाथ में जरूरत पड़ने पर पैसे धर देती. चंपा हिचकती तो कहती, “बेटी, जितना तू कर रही है उतना शायद सगी बेटी भी न करे. किस के लिए रखूं यह सब. बाजार जा कपड़े खरीद ले अपने और चंदू के लिए.”

उस का बेटा कसबे के स्कूल में जाने लगा था. वह यहां आ कर बहुत खुश था. हमउम्र बच्चों के साथ उस का मन रम गया. अब चंपा को उस की फीस व किताबों की चिंता नहीं थी. सुभद्रा छोटीबड़ी सभी बातों का ध्यान रखती. चंपा भी गांव से बेहत्तर जिंदगी जी रही थी यहां.

यही स्थिति सुभद्रा की भी थी. घर में रौनक आ गई. घीरेधीरे चंपा की सेवासुश्रुषा ने उसे उठनेबैठने लायक बना दिया. फिर तो सुभद्रा ने छोटेमोटे काम अपने हाथों  में ले लिए.

कुछ साल हंसीखुशी बीत गए. सुभद्रा को अब जीवन जीने का आधार मिल गया. सुभद्रा लाठी के सहारे फिर से दुकान में जाने लगी. कभी ग्राहक कम होते तो जल्दी ही घर आ जाती. खानेपीने की उसे फिक्र नहीं थी, चंपा चुटकियों में खाना बना कर परोस देती.

सुभद्रा को घर भरापूरा लगने लगा और चंपा को लगता कि वह अपने मायके में आ गई है. बेटे की शिक्षा और जीवनयापन दोनों भलीभांति चल निकले.

समय एक समान कभी नहीं रहता. उस में भी समुद्र की तरह उतारचढ़ाव आते रहते हैं. सुखदुख दोनों अलगअलग हैं.

कभी एक अपने पैर जमा देता है तो कभी दूसरा.

सुभद्रा 70 साल पार कर गई. पहले से भी अशक्त होती जा रही थी, सो, दुकान की तरफ जाना बंद हो गया. इस बीच कुछ हमउम्र सहेलियां भी दुनिया छोड़ गईं. इस से वह बहुत आहत हुई.

सुभद्रा बिस्तर पर बैठेबैठे किताबों के पन्ने पलटती, चंदू के साथ मन लगाती और कभी अपनी सहेलियों से फोन पर बातें कर समय बिताती. कभी मन किया तो स्वभाववश अनीता को भी फोन लगा कर उस की कुशलता पूछ लेती.

उस साल सर्दी का प्रकोप बढ़ गया था. रहरह कर बादल छा जाते थे. कभी बादल मूसलाधार बरस भी जाते. दिसंबर आतेआते सामने की पहाड़ियों पर बर्फ की सफेद चादर चढ़ने लगी थी. इस साल तकरीबन 7-8 वर्षों बाद ऐसी बर्फ़ देखने को मिली. रजाई से बाहर हाथपैर निकालते ही पैर सुन्न पड़ जाते. ऐसी कड़ाकेदार सर्दी में जरा सी लापरवाही बुजुर्गों के लिए बेहद कष्टकारी होटी है. सांस की तकलीफ बढ़ जाती, कफ़ से छातियां जकड़ जाती हैं.

सुभद्रा को भी कफ की शिकायत होने लगी थी. खांसी भी उठती. छाती में दर्द भी महसूस होता. महल्ले में कल ही स्वास के रोगी एक वृद्ध चल बसे थे. सुभद्रा को पता चला तो वह भी अंदर से डर गई.

चंपा भांप गई. वह दैनिक कार्यों से निबट कर सुभद्रा को अधिक समय देने लगी. “बूआ, इतना क्यों सोच रही हो. खानेपीने और दवाई में लापरवाही से ही खतरा बढ़ता है, आप तो ऐसा नहीं करतीं.”

“वह तो ठीक है पर मेरी 3 सहेलियां भी तो चली गईं इस साल,” सुभद्रा चिंतित स्वर में बोली.

“अरे बूआ, तुम भी न, सब का अपनाअपना समय होता है. आप के साथ मैं हूं न, कुछ नहीं होने दूंगी,” सुभद्रा की हथेलियों को सहलाते हुए चंपा ने कहा, “आप पीठ से तकिया लगा लो, मैं खाना परोसती हूं.”

“पहले  बच्चे को जिमा. अपने साथ उस पर भी ध्यान दिया कर.”

“चिंता न करो बूआ, साथसाथ परोसती हूं.”

The post मन आंगन की चंपा- भाग 2: सुभद्रा स्वयं को असहाय क्यों मानती रही appeared first on Sarita Magazine.

March 01, 2022 at 09:00AM

No comments:

Post a Comment