Thursday 17 February 2022

प्यार नहीं पागलपन- भाग 1: लावण्य से मुलाकात के बाद अशोक के साथ क्या हुआ?

अति सुंदर होने और लावण्य होने में अंतर अशोक ने लावण्य को देख कर ही जाना था. ऐसा उस में कुछ भी नहीं था कि उसे देखते ही दिल धड़कने लगता. आंखें   झपकना भूल जातीं या फिर दिमाग सन्न हो जाता. फिर भी वह बगल से गुजरती और एक नजर उसे देख न लेने पर अफसोस जरूर होता. उस की लयबद्ध चाल किसी मधुर संगीत की तरह दिमाग पर छा जाती थी.

वह अपने मामामामी के साथ कवि सम्मेलन में आई थी. उस दिन मंच पर अशोक ने जो कविता पढ़ी थी, उसे खूब प्रशंसा मिली थी. लोगों ने खूब तालियां बजा कर वाहवाही की थी. कवि सम्मलेन खत्म हुआ तो वह अपने मामामामी के साथ

अन्य श्रोताओं की तरह अशोक को बधाई देने आई थी.

लावण्य के मामा सुधीर, जो नोएडा के जानेमाने उद्योगपति थे, अशोक के परिचित

थे. वह उन से पहले भी 2-3 बार मिल

चुका था.

‘‘क्या बात है अशोकजी, आज तो आप ने कमाल ही कर दिया. क्या अद्भुत रचना थी?’’ सुधीर ने बधाई देते हुए कहा, ‘‘वैसे तो आप की कविता हम लोगों को भी पसंद आई, लेकिन मेरी इस भांजी को सब से अधिक पसंद आई. आओ लावण्य…’’

थोड़ी दूरी पर खड़ी युवती को बुला कर सुधीर ने अशोक से परिचय कराया.

‘‘आप की कविता बहुत अच्छी लगी, खासकर आप का गाने का अंदाज,’’ लावण्य ने कहा.

लावण्य जो कह रही थी, उस में शायद अशोक को कोई रुचि नहीं थी. वह स्टेज के उजाले में लावण्य को एकटक देख रहा था. उस ने लाल चटक रंग की मिडी स्कर्ट पहन रखी थी. सफेद ड्राईक्लीन किया हुआ टौप, पतली कमर पर बंधी काली चमकती चमड़े की बैल्ट, वैसी ही काली जूती. स्कर्ट के नीचे के खुले पैरों को देख कर अंदर छिपे पैरों के आकार का अंदाजा लगाते हुए सीने पर काफी ढीले टौप पर नजरें पहुंचीं तो लड़की की सुंदरता में चारचांद लगाने वाले इसी हिस्से पर अशोक की नजरें टिकी रह गई थीं. गेहुंए रंग की लावण्य का चेहरा काफी आकर्षक था.

औपचारिक बातें खत्म हुईं तो अशोक ने कहा, ‘‘कल हमारा एक कवि सम्मेलन और है. उसे भी सुनने आ रहे हैं न?’’

‘‘ओह, क्यों नहीं,’’ सुधीर ने कहा, ‘‘शहर में आप जिस कवि सम्मेलन में होते हैं, उसे सुनने मैं अवश्य ही जाता हूं.’’

‘‘आप भी आ रही हैं न?’’ अशोक लावण्य से मुखातिब हुआ.

‘‘जी, पक्का नहीं है,’’ लावण्य होंठों ही होंठों में मुसकरा कर बोली.

‘‘आप जरूर आइए, आज का तो विषय पर आधारित कवि सम्मेलन था. कल विशुद्ध हास्य कवि सम्मेलन है. सिर्फ हंसना है,’’ अशोक ने कहा, ‘‘आप को बड़ा मजा आएगा. इस के अलावा कल मंच का संचालन भी मैं ही करूंगा.’’

ये भी पढ़ें- परिंदा: उस अजनबी से मिलने के बाद इशिता की जिंदगी में क्या हुआ

‘‘मैं पहले भी आप को सुन चुकी हूं पर बधाई देने पहली बार आई हूं.

‘‘यह सच है. शायद आज भी न आती, पर मामा ने कहा और मैं…’’

‘‘तो क्या आप बेमन से…?’’ अशोक ने सवाल किया.

‘‘नहीं, नहीं, ऐसी बात नहीं है. बिना जानपहचान के…’’

‘‘शायद आप को मालूम नहीं, हम अपने श्रोताओं की तालियों, उन की वाहवाही, बधाइयों पर ही जीते हैं. आज आप आई हैं, इस का मेरे ऊपर क्या असर होगा, यह आप नहीं जान पाएंगी?’’ अशोक गंभीर हो गया.

‘‘क्या असर होगा?’’

‘‘यह आप कल देखिएगा,’’ अशोक ने यह कहा, तो वहां खड़े सभी लोग हंस पड़े.

लावण्य धीरेधीरे कमर मटकाते हुए मंच से उतरने लगी. उस के नितंबों का हिलना, हवा के   झोंके की तरह अशोक को स्पर्श कर गया. उस के असर से अशोक मुक्त होता, उस के पहले ही उस की नजर उस के बालों में लगे गुलाब पर पड़ी. वह उस के छोटे से जूड़े में लगा गुलाब देखता ही रह गया.

उस दिन पहली ही नजर में उसी पल लावण्य आंखों के रास्ते अशोक के दिल में बस गई थी. इस का मतलब था, अशोक को लावण्य से प्यार हो गया था.

अगले दिन लावण्य अशोक का हास्य कवि सम्मेलन सुनने आई थी. वह आगे से 5वीं लाइन में बैठी थी. अशोक ने उसे मंच पर बैठेबैठे ही खोज लिया था. उस के बाद अशोक ने अपनी जिंदगी में शायद उतना अच्छा संचालन पहले नहीं किया था. लावण्य को हंसते देख अशोक का रोमरोम रोमांचक हो उठता था.

लावण्य उस दिन भी अशोक को बधाई देने आई थी. इस मुलाकात में अशोक ने उस का फोन नंबर और पता ले लिया था. उस के बाद शहर में जहां भी कवि सम्मेलन या सैमिनार या कोई फंक्शन होता, अशोक लावण्य को फोन कर के जरूर आने के लिए कहता. कभी वह अशोक के आमंत्रण पर आ जाती तो कभी कोई जरूरी काम बता कर आने से मना कर देती. लेकिन अशोक उस से बराबर संपर्क बनाए रहा. किसी न किसी बहाने वह लावण्य को मिलने के लिए बुला ही लेता था. 6-7 महीने में अशोक उस से 10-12 बार मिला. 2 बार अशोक उसे खाने पर भी ले गया.

अशोक अपनी आमदनी का काफी बड़ा हिस्सा लावण्य को इंप्रैस करने पर खर्च कर रहा था. इतनी मुलाकातों के बाद उसे लगने लगा था कि लावण्य उस में रुचि लेने लगी थी. अब तक वे ‘आप’ से ‘तुम’ पर आ गए थे.

ये भी पढ़ें- स्वयंवर: मीता ने आखिर पति के रूप में किस को चुना

लावण्य मेजर विवेक की बेटी थी. उस ने जब पहली बार उसे यह बताया था, तो उसे काफी आश्चर्य हुआ था. मेजर विवेक जाति से बनिया- एक सेना का अफसर, यह अशोक की कल्पना के बाहर की बात थी.

‘‘यह क्या कह रही हो लावण्य? तुम्हारे पिता मिस्टर विवेक जैन सेना में अफसर थे?’’

‘‘मिस्टर नहीं, मेजर… मेजर विवेक, तुम्हें इस में आश्चर्य क्यों हो रहा है?’’ लावण्य ने अशोक से पूछा.

लेकिन अशोक उस से यह नहीं कह सका कि एक बनिए का सेना में अधिकारी होना उस के लिए आश%

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अति सुंदर होने और लावण्य होने में अंतर अशोक ने लावण्य को देख कर ही जाना था. ऐसा उस में कुछ भी नहीं था कि उसे देखते ही दिल धड़कने लगता. आंखें   झपकना भूल जातीं या फिर दिमाग सन्न हो जाता. फिर भी वह बगल से गुजरती और एक नजर उसे देख न लेने पर अफसोस जरूर होता. उस की लयबद्ध चाल किसी मधुर संगीत की तरह दिमाग पर छा जाती थी.

वह अपने मामामामी के साथ कवि सम्मेलन में आई थी. उस दिन मंच पर अशोक ने जो कविता पढ़ी थी, उसे खूब प्रशंसा मिली थी. लोगों ने खूब तालियां बजा कर वाहवाही की थी. कवि सम्मलेन खत्म हुआ तो वह अपने मामामामी के साथ

अन्य श्रोताओं की तरह अशोक को बधाई देने आई थी.

लावण्य के मामा सुधीर, जो नोएडा के जानेमाने उद्योगपति थे, अशोक के परिचित

थे. वह उन से पहले भी 2-3 बार मिल

चुका था.

‘‘क्या बात है अशोकजी, आज तो आप ने कमाल ही कर दिया. क्या अद्भुत रचना थी?’’ सुधीर ने बधाई देते हुए कहा, ‘‘वैसे तो आप की कविता हम लोगों को भी पसंद आई, लेकिन मेरी इस भांजी को सब से अधिक पसंद आई. आओ लावण्य…’’

थोड़ी दूरी पर खड़ी युवती को बुला कर सुधीर ने अशोक से परिचय कराया.

‘‘आप की कविता बहुत अच्छी लगी, खासकर आप का गाने का अंदाज,’’ लावण्य ने कहा.

लावण्य जो कह रही थी, उस में शायद अशोक को कोई रुचि नहीं थी. वह स्टेज के उजाले में लावण्य को एकटक देख रहा था. उस ने लाल चटक रंग की मिडी स्कर्ट पहन रखी थी. सफेद ड्राईक्लीन किया हुआ टौप, पतली कमर पर बंधी काली चमकती चमड़े की बैल्ट, वैसी ही काली जूती. स्कर्ट के नीचे के खुले पैरों को देख कर अंदर छिपे पैरों के आकार का अंदाजा लगाते हुए सीने पर काफी ढीले टौप पर नजरें पहुंचीं तो लड़की की सुंदरता में चारचांद लगाने वाले इसी हिस्से पर अशोक की नजरें टिकी रह गई थीं. गेहुंए रंग की लावण्य का चेहरा काफी आकर्षक था.

औपचारिक बातें खत्म हुईं तो अशोक ने कहा, ‘‘कल हमारा एक कवि सम्मेलन और है. उसे भी सुनने आ रहे हैं न?’’

‘‘ओह, क्यों नहीं,’’ सुधीर ने कहा, ‘‘शहर में आप जिस कवि सम्मेलन में होते हैं, उसे सुनने मैं अवश्य ही जाता हूं.’’

‘‘आप भी आ रही हैं न?’’ अशोक लावण्य से मुखातिब हुआ.

‘‘जी, पक्का नहीं है,’’ लावण्य होंठों ही होंठों में मुसकरा कर बोली.

‘‘आप जरूर आइए, आज का तो विषय पर आधारित कवि सम्मेलन था. कल विशुद्ध हास्य कवि सम्मेलन है. सिर्फ हंसना है,’’ अशोक ने कहा, ‘‘आप को बड़ा मजा आएगा. इस के अलावा कल मंच का संचालन भी मैं ही करूंगा.’’

ये भी पढ़ें- परिंदा: उस अजनबी से मिलने के बाद इशिता की जिंदगी में क्या हुआ

‘‘मैं पहले भी आप को सुन चुकी हूं पर बधाई देने पहली बार आई हूं.

‘‘यह सच है. शायद आज भी न आती, पर मामा ने कहा और मैं…’’

‘‘तो क्या आप बेमन से…?’’ अशोक ने सवाल किया.

‘‘नहीं, नहीं, ऐसी बात नहीं है. बिना जानपहचान के…’’

‘‘शायद आप को मालूम नहीं, हम अपने श्रोताओं की तालियों, उन की वाहवाही, बधाइयों पर ही जीते हैं. आज आप आई हैं, इस का मेरे ऊपर क्या असर होगा, यह आप नहीं जान पाएंगी?’’ अशोक गंभीर हो गया.

‘‘क्या असर होगा?’’

‘‘यह आप कल देखिएगा,’’ अशोक ने यह कहा, तो वहां खड़े सभी लोग हंस पड़े.

लावण्य धीरेधीरे कमर मटकाते हुए मंच से उतरने लगी. उस के नितंबों का हिलना, हवा के   झोंके की तरह अशोक को स्पर्श कर गया. उस के असर से अशोक मुक्त होता, उस के पहले ही उस की नजर उस के बालों में लगे गुलाब पर पड़ी. वह उस के छोटे से जूड़े में लगा गुलाब देखता ही रह गया.

उस दिन पहली ही नजर में उसी पल लावण्य आंखों के रास्ते अशोक के दिल में बस गई थी. इस का मतलब था, अशोक को लावण्य से प्यार हो गया था.

अगले दिन लावण्य अशोक का हास्य कवि सम्मेलन सुनने आई थी. वह आगे से 5वीं लाइन में बैठी थी. अशोक ने उसे मंच पर बैठेबैठे ही खोज लिया था. उस के बाद अशोक ने अपनी जिंदगी में शायद उतना अच्छा संचालन पहले नहीं किया था. लावण्य को हंसते देख अशोक का रोमरोम रोमांचक हो उठता था.

लावण्य उस दिन भी अशोक को बधाई देने आई थी. इस मुलाकात में अशोक ने उस का फोन नंबर और पता ले लिया था. उस के बाद शहर में जहां भी कवि सम्मेलन या सैमिनार या कोई फंक्शन होता, अशोक लावण्य को फोन कर के जरूर आने के लिए कहता. कभी वह अशोक के आमंत्रण पर आ जाती तो कभी कोई जरूरी काम बता कर आने से मना कर देती. लेकिन अशोक उस से बराबर संपर्क बनाए रहा. किसी न किसी बहाने वह लावण्य को मिलने के लिए बुला ही लेता था. 6-7 महीने में अशोक उस से 10-12 बार मिला. 2 बार अशोक उसे खाने पर भी ले गया.

अशोक अपनी आमदनी का काफी बड़ा हिस्सा लावण्य को इंप्रैस करने पर खर्च कर रहा था. इतनी मुलाकातों के बाद उसे लगने लगा था कि लावण्य उस में रुचि लेने लगी थी. अब तक वे ‘आप’ से ‘तुम’ पर आ गए थे.

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लावण्य मेजर विवेक की बेटी थी. उस ने जब पहली बार उसे यह बताया था, तो उसे काफी आश्चर्य हुआ था. मेजर विवेक जाति से बनिया- एक सेना का अफसर, यह अशोक की कल्पना के बाहर की बात थी.

‘‘यह क्या कह रही हो लावण्य? तुम्हारे पिता मिस्टर विवेक जैन सेना में अफसर थे?’’

‘‘मिस्टर नहीं, मेजर… मेजर विवेक, तुम्हें इस में आश्चर्य क्यों हो रहा है?’’ लावण्य ने अशोक से पूछा.

लेकिन अशोक उस से यह नहीं कह सका कि एक बनिए का सेना में अधिकारी होना उस के लिए आश%

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February 18, 2022 at 10:02AM

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