Saturday 26 February 2022

आखिरी इच्छा: क्या थी पूनम की आखिरी इच्छा

Writer- धीरज राणा भायला

मैं अपने ही शहर में होने के बावजूद 1 माह बाद अपने घर में दाखिल हुआ था. पूरे 30 दिन मैं ने दीप्ति के साथ लिवइन में उस के छोटे से घर में बिताया था. इस 1 महीने मैं बेहद खुश रहा था जैसे मन की मुराद पूरी हो गई हो. दीप्ति औफिस में मेरी कुलीग थी. हालांकि उस की उम्र मुझ से 5 साल कम थी मगर वह इतनी खूबसूरत थी कि मैं उस से प्रेम करने लगा था और 1 हफ्ते के मुख्तसर से वक्त में हम ने साथ जीनेमरने की कसमें भी खा ली थीं. यह अलग बात है कि शादी होने से पहले ही लिवइन में एकदूसरे के साथ रहने का हमारा यह फैसला जिहादी था.

शादी में एकमात्र और गंभीर समस्या मेरी पहली पत्नी पूनम थी, जिस से मैं ने 10 साल पहले ठीक इसी तरह से प्रेमविवाह किया था और 1 साल बाद ही मुझे वह औरत इतनी बोर लगने लगी थी कि मैं ने उस की तरफ ध्यान देना ही छोड़ दिया था. अगले 9 सालों तक हमारे बीच रिश्ते कुछ ऐसे रहे जैसे किसी मजबूरी के तहत 2 यात्री किसी 1 ही सीट पर यात्रा करने को विवश हों.

आज घर लौटने के पीछे दीप्ति का आग्रह बड़ी वजह थी. उस ने कहा था कि लिवइन में रहने से अच्छा है कि मैं जा कर पत्नी से तलाक की बात करूं और जैसे भी हो उसे राजी करूं. मुझे विश्वास नहीं था कि तलाक की बात पर वह राजी होगी. आखिर हमारा 8 साल का बेटा वह सूत्र था जिस की वजह से वह मुझ से आज तक बंधी हुई थी और मुझे लगता था कि यह बंधन अब मजबूत होता जा रहा था. बावजूद इस के कि पत्नी का मेरे जीवन मे कोई महत्त्व शेष न था.

ये भी पढ़ें- एक बेटी ऐसी भी: जब मंजरी ने उठाया माता-पिता का फायदा

घर में दाखिल होते ही उस ने मुझे पानी का गिलास दिया और कुछ पलों बाद चाय बना कर ले लाई. चाय पीते हुए तलाक का जिक्र करना मुझे जल्दबाजी लगी इसलिए मैं ने रात होने तक इंतजार करने का फैसला किया.

वह मेरे आने से शायद बहुत खुश हुई थी. हालांकि उस की खुशी कभी चेहरे पर दिखाई नहीं देती थी. उस के काम से उस के खुश होने का एहसास करने की मुझे आदत सी हो गई थी.आज उस ने खाना मेरी पसंद का बनाया था. मैं सोफे पर बैठा मोबाइल पर गेम खेल रहा था जब उस ने बिन कहे खाना ला कर वहीं परोस दिया.

“तुम से कुछ जरूरी बात करनी थी, 2 मिनट पास बैठो,” वह खाना दे कर जाने लगी तो मैं ने कहा. वह बिना कुछ कहे बगल वाली कुरसी पर बैठ गई. यह दिखाने के लिए कि हालात सामान्य थे मैं इत्मिनान से खाना खाने लगा.

“पिछले 10 सालों से हमारे बीच कुछ भी अच्छा नहीं चल रहा है. हम एकदूसरे के साथ जबरन बंधे से हैं. मैं चाहता हूं कि हम तलाक ले कर एकदूसरे से आजाद हो जाएं. तुम्हारा क्या विचार है,” बहुत हिम्मत कर के एक सांस में मैं ने दिल की बात कह दी. फिर उस के हावभाव को जांचने के लिए उस के चेहरे की ओर देखा. ऐसा लगा जैसे वह किसी गंभीर बीमारी से जूझ रही हो.

चेहरे पर फीकी सी हंसी ला कर उस ने मेरी आंखों से आंखें मिलाईं तो उन आंखों में भी मुझे दूर तक एक सूनापन नजर आया, जिसे देख कर एक पल के लिए दिमाग सन्न रह गया. फिर अगले ही पल दीप्ति का खयाल आते ही जैसे सब भूल बैठा.

“आप की खुशी से बड़ी मेरे लिए कोई बात भला क्या हो सकती है? अगर इसी में आप की खुशी है तो यही सही,” कहते हुए उस का चेहरा उदास हो गया.

“तो फिर मैं वकील से बात कर लेता हूं ताकि वे जरूरी कागजात तैयार कर सकें. संभव है कि 20 दिनों में हम आजाद होंगे.”

“मगर मेरी एक छोटी सी शर्त है…”

“क्या चाहिए तुम्हें?” मुझे लगा कि जैसा मैं समझ रहा था उतनी आसानी से मामला हल न होगा.

“मुझे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए. मैं तो बस इतना चाहती हूं कि जब तक तलाक नहीं हो जाता हम उसी तरह साथ रहें जैसे शादी के पहले 20 दिनों में रहे थे. यह मेरी आखिरी इच्छा है.”

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“आखिरी इच्छा?”

“तलाक के बाद तो आप के लिए मैं मर ही जाऊंगी न,” उस ने कहा तो उस का खूबसरत चेहरा सिकुड़ सा गया. बहुत कुछ बदलीबदली सी.

मैं मन ही मन खुश हुआ कि मांगा भी तो क्या, बस 20 दिन. इतने दिनों को तो जेल की सजा समझ कर भी काट सकता था.

फोन कर के औफिस से मैं ने 10 दिनों की छुट्टी ली. फिर दीप्ति को भी फोन पर खुशखबरी सुनाने के साथ ही वकील से बात करने को कह दिया. अब मैं फिल्म के एक पात्र की तरह अभिनय करने के लिए तैयार था.

अभिनय को सशक्त और वास्तविक बनाने के लिए कभी रसोई में काम करती पत्नी को पीछे से बांहों में भर लेता, कभी उसे बांहों में उठा कर बैडरूम में ले आता. वह बरतन साफ कर रही होती तो मैं झाड़ू लगाने लग जाता. वह आटा गूंध रही होती तो सामने बैठ कर अपलक निहारता रहता.

इन सब क्रियाओं के बाद भी लगता कि उस के भीतर कुछ टूट रहा था.जैसे जीने की उमंग मर रही थी. 3 दिनों में ही मुझे एहसास होने लगा था कि अब खुशी और गम के उस के लिए वे मायने नहीं रह गए थे जो तब थे जब हम ने शादी की थी.

एक दिन सुबह वह उठने लगी तो पैरों पर खड़े होते ही ऐसे लड़खड़ाई कि बैड का किनारा हाथ में न आया होता तो गिर गई होती. हालांकि मैं उस के साथ सो भी रहा था मगर मात्र अभिनय के बतौर. वह लड़खड़ाई तो मेरा अभिनय भी जैसे लड़खड़ाया था.

“तुम ठीक हो पूनम?” हालचाल पूछने की बिलकुल नीयत न होने के बावजूद नितांत अपनेपन से दिल की आवाज निकली.

“हां, मैं बिलकुल ठीक हूं. बस, नींद पूरी तरह खुली नहीं थी इसलिए लड़खड़ा गई थी,” फिर कुछ याद करते हुए उस ने पूछा,”वकील से बात हो गई?”

“हां, फोन कर दिया था उसे.”

“आप वकील न ही करते. बेवजह पैसे खर्च होंगे आप के. अगर मैं वैसे ही छोड़ कर चली जाऊं तो?”

मैं जैसे सिहर उठा. जाने क्यों मुझे लगा कि उस के कहने का आशय वह नहीं था जो मैं समझ रहा था. उस ने 20 दिन साथ रहने की शर्त रखते हुए भी क्यों कहा था कि यह मेरी आखिरी इच्छा है?

उस रोज वह दिनभर काम में लगी रही और मैं उस की बातों को मन ही मन दिमाग मे तौलता रहा. दोपहर को उस ने खाना लगाया तो मैं ने साथ बैठ कर खाने का आग्रह किया. अब मेरी अभिनय कला जवाब दे रही थी. मैं ने एक निवाला अपने हाथ से उस के मुंह में रखा. हम ने ठीक शादी के पहले दिनों की तरह एकदूसरे को खाना खिलाया. खाना खत्म कर के वह बरतन ले जाने लगी तो मैं ने उसे रोक दिया,”राहुल को होस्टल से बुला लूं? 2-4 दिन साथ रह लेगा.”

“क्या जरूरत है? फोन पर बात तो हो ही जाती है.”

“डाक्टर के पास चलें?”

उस ने सूनी आंखों से मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे मैं ने उस की किसी दुखती रग को छेड़ दिया हो.

“नहीं, मैं तो बिलकुल ठीक हूं,” इतना कह कर वह चली गई. मैं भी उस के पीछे किचन में आ गया. उस ने बरतन सिंक में डाल दिए तो मैं ने उसे प्यार से बांहों में उठा लिया. इस हरकत को मैं रोज करता आ रहा था लेकिन वह अभिनय था. आज कुछ अपनेपन और प्यार से उठाया तो एहसास हुआ कि उस का वजन भी बहुत कम हो गया था. उसे बांहों में उठाए ला कर बैडरूम में बैड पर लिटा दिया. मैं ने आज 10 साल बाद उसे उसी तरह भरपूर प्यार किया जैसे शादी के पहले दिन किया था. मगर आज जैसे उस के लिए चीजें बेमानी थीं. सारे अरमान मर गए थे जैसे. अब 2 दिन शेष थे लेकिन मेरा मन कह रहा था कि उसे उस के हाल पर छोड़ कर बहुत बड़ा अन्याय कर रहा था मैं.

ये भी पढ़ें- कोई उचित रास्ता: क्या अपनी गृहस्थी संभाल पाई स्वार्थी रज्जी?

रोज की तरह शाम 3 बजे दीप्ति का फोन आया. उस ने खबर दी कि सब कागज तैयार हैं, बस एक बार पूनम को कोर्ट आ कर हस्ताक्षर करने होंगे.वार्तालाप के दौरान मैं बस हांहूं करता रहा क्योंकि दिमाग में तो कुछ और ही चल रहा था.

मेरा दिल गवाही दे रहा था कि पूनम की हालत को नजरअंदाज कर के मैं ने बहुत बड़ी गलती कर दी थी. इस बात को जितना सोचता बेचैनी बढ़ती जाती. हालत यह हो गई कि 1-1 पल बहुत भारी गुजरने लगा. कल हमारे करार का आखिरी दिन भी था लेकिन कल तक इंतजार करना असंभव लगा.

“किसी से बहुत जरूरी बात करनी है.लौट कर डाक्टर के पास चलेंगे, तब तक तैयार हो जाओ और हां, आज कोई बहाना नहीं चलेगा,” मैं ने कहा तो रोज की तरह उस ने प्रतिरोध नहीं किया, शायद इसलिए कि आज मेरे लहजे में उसे अपनेपन का एहसास हुआ था.

“कल तो हमारा करार खत्म हो ही रहा है. क्यों नया पेंच फंसा रहे हो?”

कोई जवाब दिए बिना मैं गाड़ी में सवार हुआ और दीप्ति के पास पहुंच गया.

“मैं पूनम को नहीं छोड़ सकता. उसे मेरी जरूरत है,” मैं ने दोटूक शब्दों में कहा तो वह जैसे तिलमिला उठी.

“पिछले 6 महीने से मुझे शादी के हसीन सपने दिखा कर और बिना शादी किए साथ रह कर अब कह रहे हो कि तलाक नहीं ले सकता… अपनी पत्नी से इतना ही प्यार था तो 2 साल से उस की खैरखबर क्यों न ली? मेरे सपनों…”

मैं अपराधी तो दीप्ति का भी था और जो अन्याय उस के साथ हुआ था उस के बदले मुझे कोसने और गालियां देने तक का उसे पूरा अधिकार था. वह दे भी रही थी और जाने कितनी देर तक देती. लेकिन मैं उस की बातों को सुनने के लिए वहां न रुका. पूनम की फिक्र जो सता रही थी. मैं वापस लौट चला.

गाड़ी ड्राइव करते हुए मेरी जिंदगी के बीते 10 साल चलचित्र की तरह दिमाग में घूम रहे थे. पूनम से मिलने का वह सुखद संयोग. जब एक दिन शहर में आई बाढ़ के चलते मुझे बिलकुल अनजान होने के बावजूद उन के घर पनाह लेनी पड़ी थी. मैं उस की सादगी और खूबसूरती पर फिदा हो गया था. फिर शादी के बाद का उस का वह सरल व्यवहार जो उस की खूबसूरती के साथसाथ मुझे दिखाई देना बंद हो गया था.

काश कि जिंदगी का कोई रिवाइंड बटन होता और मुझे उन कुछ सालों को दोबारा जीने का मौका मिलता जब मैं ने पूनम की तरफ से मुंह फेर लिया था. सब एहसास और कर्तव्यबोध लौट आए थे लेकिन अब देर हो चुकी थी.

लग रहा था कि पूनम को अकेला नहीं छोड़ना चाहिए था. आज तो सफर भी जैसे बहुत लंबा हो गया था. आखिरकार घर पहुंचा तो गाड़ी खङी कर के जल्दी से बाहर निकल कर लगभग दौड़ते हुए घर में घुसा.

वह किचन में नहीं थी. हालांकि खाना वह बना चुकी थी जोकि किचन के रैक पर रखा था. बाथरूम में भी नहीं. घर सुनसान था जैसे वह यहां हो ही नहीं. आगे बढ़ कर मैं ने बैडरूम में कदम रखा. वह बैड पर पड़ी थी. शांत और निश्चल. उस के करीब कुछ डाक्टरी रिपोर्ट ओर दवा की परची भी बिखरे हुए थे. पहली नजर में कोई भी देखता तो कहता कि थक कर सो रही है वह. मगर मैं जानता था कि पिछले 10 सालों में इस वक्त सोना उस का शगल बिलकुल नहीं था.

अज्ञात भावना के चलते मुझे अपनी टांगे कांपती प्रतीत हुईं. शरीर से किसी ने जैसे खून निचोड़ लिया हो.आगे बढ़ कर उस का हाथ थामा. बर्फ की तरह सर्द था और नब्ज गायब. वह मर चुकी थी. मैं उस की बगल में लेट कर फूटफूट कर रोने लगा. रोतेबिलखते स्वाभाविक रूप से वहां पड़ी डाक्टरी रिपोर्ट पर नजर पड़ी, जिस में साफ लिखा था कि वह एक अरसे से कैंसर से पीड़ित थी.

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Writer- धीरज राणा भायला

मैं अपने ही शहर में होने के बावजूद 1 माह बाद अपने घर में दाखिल हुआ था. पूरे 30 दिन मैं ने दीप्ति के साथ लिवइन में उस के छोटे से घर में बिताया था. इस 1 महीने मैं बेहद खुश रहा था जैसे मन की मुराद पूरी हो गई हो. दीप्ति औफिस में मेरी कुलीग थी. हालांकि उस की उम्र मुझ से 5 साल कम थी मगर वह इतनी खूबसूरत थी कि मैं उस से प्रेम करने लगा था और 1 हफ्ते के मुख्तसर से वक्त में हम ने साथ जीनेमरने की कसमें भी खा ली थीं. यह अलग बात है कि शादी होने से पहले ही लिवइन में एकदूसरे के साथ रहने का हमारा यह फैसला जिहादी था.

शादी में एकमात्र और गंभीर समस्या मेरी पहली पत्नी पूनम थी, जिस से मैं ने 10 साल पहले ठीक इसी तरह से प्रेमविवाह किया था और 1 साल बाद ही मुझे वह औरत इतनी बोर लगने लगी थी कि मैं ने उस की तरफ ध्यान देना ही छोड़ दिया था. अगले 9 सालों तक हमारे बीच रिश्ते कुछ ऐसे रहे जैसे किसी मजबूरी के तहत 2 यात्री किसी 1 ही सीट पर यात्रा करने को विवश हों.

आज घर लौटने के पीछे दीप्ति का आग्रह बड़ी वजह थी. उस ने कहा था कि लिवइन में रहने से अच्छा है कि मैं जा कर पत्नी से तलाक की बात करूं और जैसे भी हो उसे राजी करूं. मुझे विश्वास नहीं था कि तलाक की बात पर वह राजी होगी. आखिर हमारा 8 साल का बेटा वह सूत्र था जिस की वजह से वह मुझ से आज तक बंधी हुई थी और मुझे लगता था कि यह बंधन अब मजबूत होता जा रहा था. बावजूद इस के कि पत्नी का मेरे जीवन मे कोई महत्त्व शेष न था.

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घर में दाखिल होते ही उस ने मुझे पानी का गिलास दिया और कुछ पलों बाद चाय बना कर ले लाई. चाय पीते हुए तलाक का जिक्र करना मुझे जल्दबाजी लगी इसलिए मैं ने रात होने तक इंतजार करने का फैसला किया.

वह मेरे आने से शायद बहुत खुश हुई थी. हालांकि उस की खुशी कभी चेहरे पर दिखाई नहीं देती थी. उस के काम से उस के खुश होने का एहसास करने की मुझे आदत सी हो गई थी.आज उस ने खाना मेरी पसंद का बनाया था. मैं सोफे पर बैठा मोबाइल पर गेम खेल रहा था जब उस ने बिन कहे खाना ला कर वहीं परोस दिया.

“तुम से कुछ जरूरी बात करनी थी, 2 मिनट पास बैठो,” वह खाना दे कर जाने लगी तो मैं ने कहा. वह बिना कुछ कहे बगल वाली कुरसी पर बैठ गई. यह दिखाने के लिए कि हालात सामान्य थे मैं इत्मिनान से खाना खाने लगा.

“पिछले 10 सालों से हमारे बीच कुछ भी अच्छा नहीं चल रहा है. हम एकदूसरे के साथ जबरन बंधे से हैं. मैं चाहता हूं कि हम तलाक ले कर एकदूसरे से आजाद हो जाएं. तुम्हारा क्या विचार है,” बहुत हिम्मत कर के एक सांस में मैं ने दिल की बात कह दी. फिर उस के हावभाव को जांचने के लिए उस के चेहरे की ओर देखा. ऐसा लगा जैसे वह किसी गंभीर बीमारी से जूझ रही हो.

चेहरे पर फीकी सी हंसी ला कर उस ने मेरी आंखों से आंखें मिलाईं तो उन आंखों में भी मुझे दूर तक एक सूनापन नजर आया, जिसे देख कर एक पल के लिए दिमाग सन्न रह गया. फिर अगले ही पल दीप्ति का खयाल आते ही जैसे सब भूल बैठा.

“आप की खुशी से बड़ी मेरे लिए कोई बात भला क्या हो सकती है? अगर इसी में आप की खुशी है तो यही सही,” कहते हुए उस का चेहरा उदास हो गया.

“तो फिर मैं वकील से बात कर लेता हूं ताकि वे जरूरी कागजात तैयार कर सकें. संभव है कि 20 दिनों में हम आजाद होंगे.”

“मगर मेरी एक छोटी सी शर्त है…”

“क्या चाहिए तुम्हें?” मुझे लगा कि जैसा मैं समझ रहा था उतनी आसानी से मामला हल न होगा.

“मुझे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए. मैं तो बस इतना चाहती हूं कि जब तक तलाक नहीं हो जाता हम उसी तरह साथ रहें जैसे शादी के पहले 20 दिनों में रहे थे. यह मेरी आखिरी इच्छा है.”

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“आखिरी इच्छा?”

“तलाक के बाद तो आप के लिए मैं मर ही जाऊंगी न,” उस ने कहा तो उस का खूबसरत चेहरा सिकुड़ सा गया. बहुत कुछ बदलीबदली सी.

मैं मन ही मन खुश हुआ कि मांगा भी तो क्या, बस 20 दिन. इतने दिनों को तो जेल की सजा समझ कर भी काट सकता था.

फोन कर के औफिस से मैं ने 10 दिनों की छुट्टी ली. फिर दीप्ति को भी फोन पर खुशखबरी सुनाने के साथ ही वकील से बात करने को कह दिया. अब मैं फिल्म के एक पात्र की तरह अभिनय करने के लिए तैयार था.

अभिनय को सशक्त और वास्तविक बनाने के लिए कभी रसोई में काम करती पत्नी को पीछे से बांहों में भर लेता, कभी उसे बांहों में उठा कर बैडरूम में ले आता. वह बरतन साफ कर रही होती तो मैं झाड़ू लगाने लग जाता. वह आटा गूंध रही होती तो सामने बैठ कर अपलक निहारता रहता.

इन सब क्रियाओं के बाद भी लगता कि उस के भीतर कुछ टूट रहा था.जैसे जीने की उमंग मर रही थी. 3 दिनों में ही मुझे एहसास होने लगा था कि अब खुशी और गम के उस के लिए वे मायने नहीं रह गए थे जो तब थे जब हम ने शादी की थी.

एक दिन सुबह वह उठने लगी तो पैरों पर खड़े होते ही ऐसे लड़खड़ाई कि बैड का किनारा हाथ में न आया होता तो गिर गई होती. हालांकि मैं उस के साथ सो भी रहा था मगर मात्र अभिनय के बतौर. वह लड़खड़ाई तो मेरा अभिनय भी जैसे लड़खड़ाया था.

“तुम ठीक हो पूनम?” हालचाल पूछने की बिलकुल नीयत न होने के बावजूद नितांत अपनेपन से दिल की आवाज निकली.

“हां, मैं बिलकुल ठीक हूं. बस, नींद पूरी तरह खुली नहीं थी इसलिए लड़खड़ा गई थी,” फिर कुछ याद करते हुए उस ने पूछा,”वकील से बात हो गई?”

“हां, फोन कर दिया था उसे.”

“आप वकील न ही करते. बेवजह पैसे खर्च होंगे आप के. अगर मैं वैसे ही छोड़ कर चली जाऊं तो?”

मैं जैसे सिहर उठा. जाने क्यों मुझे लगा कि उस के कहने का आशय वह नहीं था जो मैं समझ रहा था. उस ने 20 दिन साथ रहने की शर्त रखते हुए भी क्यों कहा था कि यह मेरी आखिरी इच्छा है?

उस रोज वह दिनभर काम में लगी रही और मैं उस की बातों को मन ही मन दिमाग मे तौलता रहा. दोपहर को उस ने खाना लगाया तो मैं ने साथ बैठ कर खाने का आग्रह किया. अब मेरी अभिनय कला जवाब दे रही थी. मैं ने एक निवाला अपने हाथ से उस के मुंह में रखा. हम ने ठीक शादी के पहले दिनों की तरह एकदूसरे को खाना खिलाया. खाना खत्म कर के वह बरतन ले जाने लगी तो मैं ने उसे रोक दिया,”राहुल को होस्टल से बुला लूं? 2-4 दिन साथ रह लेगा.”

“क्या जरूरत है? फोन पर बात तो हो ही जाती है.”

“डाक्टर के पास चलें?”

उस ने सूनी आंखों से मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे मैं ने उस की किसी दुखती रग को छेड़ दिया हो.

“नहीं, मैं तो बिलकुल ठीक हूं,” इतना कह कर वह चली गई. मैं भी उस के पीछे किचन में आ गया. उस ने बरतन सिंक में डाल दिए तो मैं ने उसे प्यार से बांहों में उठा लिया. इस हरकत को मैं रोज करता आ रहा था लेकिन वह अभिनय था. आज कुछ अपनेपन और प्यार से उठाया तो एहसास हुआ कि उस का वजन भी बहुत कम हो गया था. उसे बांहों में उठाए ला कर बैडरूम में बैड पर लिटा दिया. मैं ने आज 10 साल बाद उसे उसी तरह भरपूर प्यार किया जैसे शादी के पहले दिन किया था. मगर आज जैसे उस के लिए चीजें बेमानी थीं. सारे अरमान मर गए थे जैसे. अब 2 दिन शेष थे लेकिन मेरा मन कह रहा था कि उसे उस के हाल पर छोड़ कर बहुत बड़ा अन्याय कर रहा था मैं.

ये भी पढ़ें- कोई उचित रास्ता: क्या अपनी गृहस्थी संभाल पाई स्वार्थी रज्जी?

रोज की तरह शाम 3 बजे दीप्ति का फोन आया. उस ने खबर दी कि सब कागज तैयार हैं, बस एक बार पूनम को कोर्ट आ कर हस्ताक्षर करने होंगे.वार्तालाप के दौरान मैं बस हांहूं करता रहा क्योंकि दिमाग में तो कुछ और ही चल रहा था.

मेरा दिल गवाही दे रहा था कि पूनम की हालत को नजरअंदाज कर के मैं ने बहुत बड़ी गलती कर दी थी. इस बात को जितना सोचता बेचैनी बढ़ती जाती. हालत यह हो गई कि 1-1 पल बहुत भारी गुजरने लगा. कल हमारे करार का आखिरी दिन भी था लेकिन कल तक इंतजार करना असंभव लगा.

“किसी से बहुत जरूरी बात करनी है.लौट कर डाक्टर के पास चलेंगे, तब तक तैयार हो जाओ और हां, आज कोई बहाना नहीं चलेगा,” मैं ने कहा तो रोज की तरह उस ने प्रतिरोध नहीं किया, शायद इसलिए कि आज मेरे लहजे में उसे अपनेपन का एहसास हुआ था.

“कल तो हमारा करार खत्म हो ही रहा है. क्यों नया पेंच फंसा रहे हो?”

कोई जवाब दिए बिना मैं गाड़ी में सवार हुआ और दीप्ति के पास पहुंच गया.

“मैं पूनम को नहीं छोड़ सकता. उसे मेरी जरूरत है,” मैं ने दोटूक शब्दों में कहा तो वह जैसे तिलमिला उठी.

“पिछले 6 महीने से मुझे शादी के हसीन सपने दिखा कर और बिना शादी किए साथ रह कर अब कह रहे हो कि तलाक नहीं ले सकता… अपनी पत्नी से इतना ही प्यार था तो 2 साल से उस की खैरखबर क्यों न ली? मेरे सपनों…”

मैं अपराधी तो दीप्ति का भी था और जो अन्याय उस के साथ हुआ था उस के बदले मुझे कोसने और गालियां देने तक का उसे पूरा अधिकार था. वह दे भी रही थी और जाने कितनी देर तक देती. लेकिन मैं उस की बातों को सुनने के लिए वहां न रुका. पूनम की फिक्र जो सता रही थी. मैं वापस लौट चला.

गाड़ी ड्राइव करते हुए मेरी जिंदगी के बीते 10 साल चलचित्र की तरह दिमाग में घूम रहे थे. पूनम से मिलने का वह सुखद संयोग. जब एक दिन शहर में आई बाढ़ के चलते मुझे बिलकुल अनजान होने के बावजूद उन के घर पनाह लेनी पड़ी थी. मैं उस की सादगी और खूबसूरती पर फिदा हो गया था. फिर शादी के बाद का उस का वह सरल व्यवहार जो उस की खूबसूरती के साथसाथ मुझे दिखाई देना बंद हो गया था.

काश कि जिंदगी का कोई रिवाइंड बटन होता और मुझे उन कुछ सालों को दोबारा जीने का मौका मिलता जब मैं ने पूनम की तरफ से मुंह फेर लिया था. सब एहसास और कर्तव्यबोध लौट आए थे लेकिन अब देर हो चुकी थी.

लग रहा था कि पूनम को अकेला नहीं छोड़ना चाहिए था. आज तो सफर भी जैसे बहुत लंबा हो गया था. आखिरकार घर पहुंचा तो गाड़ी खङी कर के जल्दी से बाहर निकल कर लगभग दौड़ते हुए घर में घुसा.

वह किचन में नहीं थी. हालांकि खाना वह बना चुकी थी जोकि किचन के रैक पर रखा था. बाथरूम में भी नहीं. घर सुनसान था जैसे वह यहां हो ही नहीं. आगे बढ़ कर मैं ने बैडरूम में कदम रखा. वह बैड पर पड़ी थी. शांत और निश्चल. उस के करीब कुछ डाक्टरी रिपोर्ट ओर दवा की परची भी बिखरे हुए थे. पहली नजर में कोई भी देखता तो कहता कि थक कर सो रही है वह. मगर मैं जानता था कि पिछले 10 सालों में इस वक्त सोना उस का शगल बिलकुल नहीं था.

अज्ञात भावना के चलते मुझे अपनी टांगे कांपती प्रतीत हुईं. शरीर से किसी ने जैसे खून निचोड़ लिया हो.आगे बढ़ कर उस का हाथ थामा. बर्फ की तरह सर्द था और नब्ज गायब. वह मर चुकी थी. मैं उस की बगल में लेट कर फूटफूट कर रोने लगा. रोतेबिलखते स्वाभाविक रूप से वहां पड़ी डाक्टरी रिपोर्ट पर नजर पड़ी, जिस में साफ लिखा था कि वह एक अरसे से कैंसर से पीड़ित थी.

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