Sunday 30 August 2020

मुखौटे-भाग 1: निखिल किसकी आवाज से मदहोश हो जाता था?

खुली खिड़की है भई मन, विचारों का आनाजाना लगा रहता है, कहती है जबां कुछ और तो करते हैं हम कुछ और कहते हैं बनाने वाले ने बड़ी लगन और श्रद्धा से हर व्यक्ति को गढ़ा, संवारा है. वह ऐसा मंझा हुआ कलाकार है कि उस ने किन्हीं 2 इंसानों को एक जैसा नहीं बनाया (बड़ी फुरसत है भई उस के पास). तन, मन, वचन, कर्म से हर कोई अपनेआप में निराला है, अनूठा है और मौलिक है. सतही तौर पर सबकुछ ठीकठीक है. पर जरा अंदर झांकें तो पता चलता है कि बात कुछ और है. गोलमाल है भई, सबकुछ गोलमाल है.

बचपन में मैं ने एक गाना सुना था. पूरे गाने का सार बस इतना ही है कि ‘नकली चेहरा सामने आए, असली सूरत छिपी रहे.’

कई तरह के लोगों से मिलतेमिलते, कई संदर्भों में मुझे यह गाना बारबार याद आ जाता है. आप ने अकसर छोटे बच्चों को मुखौटे पहने देखा होगा. फिल्मों में भी एक रिवाज सा था कि पार्टियों, गानों आदि में इन मुखौटों का प्रयोग होता था. दिखने में भले इन सब मुखौटों का आकार अलगअलग होता है पर ये सब अमूमन एक जैसे होते हैं. वही पदार्थ, वही बनावट, उपयोग का वही तरीका. सब से बड़ी बात है सब का मकसद एक-सामने वाले को मूर्ख बनाना या मूर्ख समझना, उदाहरण के लिए दर्शकों को पता होता है कि मुखौटे के पीछे रितिक हैं पर फिल्म निर्देशक यही दिखावा करते हैं कि कोई नहीं पहचान पाता कि वह कौन है.

इसी तरह आजकल हर व्यक्ति, चाहे वह किसी भी पद पर हो, किसी भी उम्र का हो, हर समय अपने चेहरे पर एक मुखौटा पहने रहता है. चौबीसों घंटे वही कृत्रिम चेहरा, कृत्रिम हावभाव, कृत्रिम भाषा, कृत्रिम मुसकराहट ओढ़े रहता है. धीरेधीरे वह अपनी पहचान तक भूल जाता है कि वास्तव में वह क्या है, वह क्या चाहता है.

जी चाहता है कि वैज्ञानिक कोई ऐसा उपकरण बनाएं जिस के उपयोग से इन की कृत्रिमता का यह मुखौटा अपनेआप पिघल कर नीचे गिर जाए और असली स्वाभाविक चेहरा सामने आए, चाहे वह कितना भी कुरूप या भयानक क्यों न हो क्योंकि लोग इस कृत्रिमता से उकता गए हैं.

‘‘अजी सुनो, सुनते हो?’’

अब वह ‘अजी’ या निखिल कान का कुछ कमजोर था या जानबूझ कर कानों में कौर्क लगा लेता था या नेहा की आवाज ही इतनी मधुर थी कि वह मदहोश हो जाता था और उस की तीसरीचौथी आवाज ही उस के कानों तक पहुंच पाती थी. यह सब या तो वह खुद जाने या उसे बनाने वाला जाने. इस बार भी तो वही होना था और वही हुआ भी.

‘‘कितनी बार बुलाया तुम्हें, सुनते ही नहीं हो. मुझे लगता है एक बार तुम्हें अपने कान किसी अच्छे डाक्टर को दिखा देने चाहिए.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ मेरे कानों को? ठीक ही तो हैं,’’ अखबार से नजर हटाते हुए निखिल ने पूछा.

नेहा ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि उस के स्वर की तल्खी और आंखों के रूखेपन को ताड़ कर उस ने अपनेआप को नियंत्रित किया और एक मीठी सी मुसकराहट फैल गई उस के चेहरे पर. किसी भी आंख वाले को तुरंत पता चल जाए कि यह दिल से निकली हुई नहीं बल्कि बनावटी मुसकराहट थी. जब सामने वाले से कोई मतलब होता है तब लोग इस मुसकराहट का प्रयोग करते हैं. मगर निखिल आंख भर कर उसे देखे तब न समझ पाए.

‘‘मैं इस साड़ी में कैसी लग रही हूं? जरा अच्छे से देख कर ईमानदारी से बताना क्योंकि यही साड़ी मैं कल किटी पार्टी में पहनने वाली हूं,’’ उस ने कैटवाक के अंदाज में चलते हुए बड़ी मधुर आवाज में पूछा.

‘तो मेमसाब अपनी किटी पार्टी की तैयारी कर रही हैं. यह बनावशृंगार मेरे लिए नहीं है,’ निखिल ने मन ही मन सोचा, ‘बिलकुल खड़ूस लग रही हो. लाल रंग भी कोई रंग होता है भला. बड़ा भयानक. लगता है अभीअभी किसी का खून कर के आई हो.’ ये शब्द उस के मुख से निकले नहीं. कह कर आफत कौन मोल ले.

‘‘बढि़या, बहुत सुंदर.’’

‘‘क्या? मैं या साड़ी?’’ बड़ी नजाकत से इठलाते हुए उस ने फिर पूछा.

‘साड़ी’ कहतेकहते एक बार फिर उस ने अपनी आवाज का गला दबा दिया.

‘‘अरे भई, इस साड़ी में तुम और क्या? यह साड़ी तुम पर बहुत फब रही है और तुम भी इस साड़ी में अच्छी लग रही हो. पड़ोस की सारी औरतें तुम्हें देख कर जल कर खाक हो जाएंगी.’’

नेहा को लगा कि वह उस की तारीफ ही कर रहा है. उस ने इठलाते हुए कहा, ‘‘हटो भी, तुम तो मुझे बनाने लगे हो.’’  पता नहीं कौन किसे बना रहा था.

नन्हे चिंटू ने केक काटा. तालियों की गड़गड़ाहट गूंज उठी. अतिथि एकएक कर आगे आते और चिंटू के हाथ में अपना तोहफा रख कर उसे प्यार करते, गालों को चूमते या ऐसे शब्द कहते जिन्हें सुन कर उस के मातापिता फूले न समाते. तोहफा देते हुए वे इतना अवश्य ध्यान रखते कि चिंटू के मातापिता उन्हें देख रहे हैं या नहीं.

‘‘पारुल, तुम्हारा बेटा बिलकुल तुम पर गया है. देखो न, उस की बड़ीबड़ी आंखें, माथे पर लहराती हुई काली घुंघराली लटें. इस के बड़े होने पर दुनिया की लड़कियों की आंखें इसी पर होंगी. इस से कहना जरा बच कर रहे,’’ जब मोहिनी ने कहा तो सब ठठा कर हंस पडे़.

चिंटू बड़ा हो कर अवश्य आप के जैसा फुटबाल प्लेयर बनेगा,’’ इधरउधर भागते हुए चिंटू को देख कर रमेश ने कहा.

‘‘हां, देखो न, कैसे हाथपांव चला रहा है, बिलकुल फुटबाल के खिलाड़ी की तरह,’’ खालिद ने उसे पकड़ने की कोशिश करते हुए कहा.

नरेश की बाछें खिल गईं. हिंदी सिनेमा के नायक की तरह वह खड़ाखड़ा रंगीन सपने देखने लगा.

खालिद, जो चिंटू को पकड़ने में लगा था, अपनी ही बात बदलते हुए बोला, ‘‘नहीं यार, इस के तो हीरो बनने के लक्षण हैं. इस की खूबसूरती और मीठी मुसकराहट यही कह रही है. बिलकुल भाभीजी पर गया है.’’

खालिद ने उधर से जाती हुई पारुल  को देख लिया था. उस के हाथों में केक के टुकड़ों से भरी प्लेट वाली ट्रे थी. पारुल ने रुक कर खालिद की प्लेट को भर दिया.

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खुली खिड़की है भई मन, विचारों का आनाजाना लगा रहता है, कहती है जबां कुछ और तो करते हैं हम कुछ और कहते हैं बनाने वाले ने बड़ी लगन और श्रद्धा से हर व्यक्ति को गढ़ा, संवारा है. वह ऐसा मंझा हुआ कलाकार है कि उस ने किन्हीं 2 इंसानों को एक जैसा नहीं बनाया (बड़ी फुरसत है भई उस के पास). तन, मन, वचन, कर्म से हर कोई अपनेआप में निराला है, अनूठा है और मौलिक है. सतही तौर पर सबकुछ ठीकठीक है. पर जरा अंदर झांकें तो पता चलता है कि बात कुछ और है. गोलमाल है भई, सबकुछ गोलमाल है.

बचपन में मैं ने एक गाना सुना था. पूरे गाने का सार बस इतना ही है कि ‘नकली चेहरा सामने आए, असली सूरत छिपी रहे.’

कई तरह के लोगों से मिलतेमिलते, कई संदर्भों में मुझे यह गाना बारबार याद आ जाता है. आप ने अकसर छोटे बच्चों को मुखौटे पहने देखा होगा. फिल्मों में भी एक रिवाज सा था कि पार्टियों, गानों आदि में इन मुखौटों का प्रयोग होता था. दिखने में भले इन सब मुखौटों का आकार अलगअलग होता है पर ये सब अमूमन एक जैसे होते हैं. वही पदार्थ, वही बनावट, उपयोग का वही तरीका. सब से बड़ी बात है सब का मकसद एक-सामने वाले को मूर्ख बनाना या मूर्ख समझना, उदाहरण के लिए दर्शकों को पता होता है कि मुखौटे के पीछे रितिक हैं पर फिल्म निर्देशक यही दिखावा करते हैं कि कोई नहीं पहचान पाता कि वह कौन है.

इसी तरह आजकल हर व्यक्ति, चाहे वह किसी भी पद पर हो, किसी भी उम्र का हो, हर समय अपने चेहरे पर एक मुखौटा पहने रहता है. चौबीसों घंटे वही कृत्रिम चेहरा, कृत्रिम हावभाव, कृत्रिम भाषा, कृत्रिम मुसकराहट ओढ़े रहता है. धीरेधीरे वह अपनी पहचान तक भूल जाता है कि वास्तव में वह क्या है, वह क्या चाहता है.

जी चाहता है कि वैज्ञानिक कोई ऐसा उपकरण बनाएं जिस के उपयोग से इन की कृत्रिमता का यह मुखौटा अपनेआप पिघल कर नीचे गिर जाए और असली स्वाभाविक चेहरा सामने आए, चाहे वह कितना भी कुरूप या भयानक क्यों न हो क्योंकि लोग इस कृत्रिमता से उकता गए हैं.

‘‘अजी सुनो, सुनते हो?’’

अब वह ‘अजी’ या निखिल कान का कुछ कमजोर था या जानबूझ कर कानों में कौर्क लगा लेता था या नेहा की आवाज ही इतनी मधुर थी कि वह मदहोश हो जाता था और उस की तीसरीचौथी आवाज ही उस के कानों तक पहुंच पाती थी. यह सब या तो वह खुद जाने या उसे बनाने वाला जाने. इस बार भी तो वही होना था और वही हुआ भी.

‘‘कितनी बार बुलाया तुम्हें, सुनते ही नहीं हो. मुझे लगता है एक बार तुम्हें अपने कान किसी अच्छे डाक्टर को दिखा देने चाहिए.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ मेरे कानों को? ठीक ही तो हैं,’’ अखबार से नजर हटाते हुए निखिल ने पूछा.

नेहा ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि उस के स्वर की तल्खी और आंखों के रूखेपन को ताड़ कर उस ने अपनेआप को नियंत्रित किया और एक मीठी सी मुसकराहट फैल गई उस के चेहरे पर. किसी भी आंख वाले को तुरंत पता चल जाए कि यह दिल से निकली हुई नहीं बल्कि बनावटी मुसकराहट थी. जब सामने वाले से कोई मतलब होता है तब लोग इस मुसकराहट का प्रयोग करते हैं. मगर निखिल आंख भर कर उसे देखे तब न समझ पाए.

‘‘मैं इस साड़ी में कैसी लग रही हूं? जरा अच्छे से देख कर ईमानदारी से बताना क्योंकि यही साड़ी मैं कल किटी पार्टी में पहनने वाली हूं,’’ उस ने कैटवाक के अंदाज में चलते हुए बड़ी मधुर आवाज में पूछा.

‘तो मेमसाब अपनी किटी पार्टी की तैयारी कर रही हैं. यह बनावशृंगार मेरे लिए नहीं है,’ निखिल ने मन ही मन सोचा, ‘बिलकुल खड़ूस लग रही हो. लाल रंग भी कोई रंग होता है भला. बड़ा भयानक. लगता है अभीअभी किसी का खून कर के आई हो.’ ये शब्द उस के मुख से निकले नहीं. कह कर आफत कौन मोल ले.

‘‘बढि़या, बहुत सुंदर.’’

‘‘क्या? मैं या साड़ी?’’ बड़ी नजाकत से इठलाते हुए उस ने फिर पूछा.

‘साड़ी’ कहतेकहते एक बार फिर उस ने अपनी आवाज का गला दबा दिया.

‘‘अरे भई, इस साड़ी में तुम और क्या? यह साड़ी तुम पर बहुत फब रही है और तुम भी इस साड़ी में अच्छी लग रही हो. पड़ोस की सारी औरतें तुम्हें देख कर जल कर खाक हो जाएंगी.’’

नेहा को लगा कि वह उस की तारीफ ही कर रहा है. उस ने इठलाते हुए कहा, ‘‘हटो भी, तुम तो मुझे बनाने लगे हो.’’  पता नहीं कौन किसे बना रहा था.

नन्हे चिंटू ने केक काटा. तालियों की गड़गड़ाहट गूंज उठी. अतिथि एकएक कर आगे आते और चिंटू के हाथ में अपना तोहफा रख कर उसे प्यार करते, गालों को चूमते या ऐसे शब्द कहते जिन्हें सुन कर उस के मातापिता फूले न समाते. तोहफा देते हुए वे इतना अवश्य ध्यान रखते कि चिंटू के मातापिता उन्हें देख रहे हैं या नहीं.

‘‘पारुल, तुम्हारा बेटा बिलकुल तुम पर गया है. देखो न, उस की बड़ीबड़ी आंखें, माथे पर लहराती हुई काली घुंघराली लटें. इस के बड़े होने पर दुनिया की लड़कियों की आंखें इसी पर होंगी. इस से कहना जरा बच कर रहे,’’ जब मोहिनी ने कहा तो सब ठठा कर हंस पडे़.

चिंटू बड़ा हो कर अवश्य आप के जैसा फुटबाल प्लेयर बनेगा,’’ इधरउधर भागते हुए चिंटू को देख कर रमेश ने कहा.

‘‘हां, देखो न, कैसे हाथपांव चला रहा है, बिलकुल फुटबाल के खिलाड़ी की तरह,’’ खालिद ने उसे पकड़ने की कोशिश करते हुए कहा.

नरेश की बाछें खिल गईं. हिंदी सिनेमा के नायक की तरह वह खड़ाखड़ा रंगीन सपने देखने लगा.

खालिद, जो चिंटू को पकड़ने में लगा था, अपनी ही बात बदलते हुए बोला, ‘‘नहीं यार, इस के तो हीरो बनने के लक्षण हैं. इस की खूबसूरती और मीठी मुसकराहट यही कह रही है. बिलकुल भाभीजी पर गया है.’’

खालिद ने उधर से जाती हुई पारुल  को देख लिया था. उस के हाथों में केक के टुकड़ों से भरी प्लेट वाली ट्रे थी. पारुल ने रुक कर खालिद की प्लेट को भर दिया.

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August 31, 2020 at 10:00AM

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