Sunday 30 August 2020

Short Story: नीर का नीड़

सुबह. नीले आकाश में उड़ रही चिडि़या. आजाद. लोहे का बड़ा वाला फाटक  बंद है. ताकि बच्चों के अभिभावक स्कूटरबाइक ले कर स्कूल के अंदर तक न चले आएं. दाहिने, पिंजड़े के दरवाजे की तरह एक छोटा सा पल्ला खुला है. बगल में खाकी वरदी में रामवृक्ष दरबान खड़ा है. सभी मैडम गंभीर मुद्रा में अपनाअपना सिर तान कर या झुका कर छोटे वाले गेट से अंदर दाखिल हो रही हैं. छोटे बच्चे तो उछलतेकूदते पिंजड़े के भीतर घुसे जा रहे हैं. मगर दरजा 6-7 के 2-4 बच्चों का सिर अंदर जाते समय दरवाजे के फ्रेम से टकरा गया, आउच, हिंदीकोश में एक नया अव्यय.

फिर भी वे खुश हो गए, ‘पंकज देख, मेरी हाइट कितनी हो गई है. तू तो ठिगना का ठिगना ही रह गया.’ स्कूल के सामने स्कूटर और बाइक की जमघट. दोएक रिकशा भी आ कर सवारी उतार कर चलते बन रहे हैं. कोई बच्चा पापा से पितृकर वसूल रहा है चिप्स खाने के लिए, तो किसी के पिताश्री जेब से कंघी निकाल कर बच्चे के बाल संवार रहे हैं.

प्रयाग ने अपनी बाइक एक किनारे खड़ी कर दी. बेटे को गोद में ले कर पिछली सीट से उसे नीचे उतारते, इस के पहले ही पुलकित बाइक से कूद गया.‘‘अरे रे रे बेटा, इतनी भी जल्दी क्या है, कहीं गिर गया तो? तेरी मम्मी मुझे ही डांटेगी,’’ प्रयाग कहते रह गए.

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अभी तो हफ्ताभर भी नहीं हुआ उस का एडमिशन हुए. पुलकित है तो चंचल. दिनभर घर में दादा और चाचा को दौड़ाता रहता है. पर स्कूल नाम केइस पिंजड़े के अंदर जाते ही वह एकदम शांत हो जाता है. यहां वह बिलकुल अकेला जो है. अभी दोस्तों से घुलमिल जो नहीं पाया.  प्रयाग ने सोचा, बेटे को स्वनिर्भर बनाना है. यह क्या कि रोज डैडी का हाथ थाम कर स्कूल के दरवाजे तक जाए. स्कूलबैग तो पुलकित की पीठ पर था ही. उन्होंने बाइक की हैंडिल से वाटर बौटल निकाल कर उस के हाथ में थमा दिया, ‘‘टाटा बेटा. मम्मी ने कहा था न कि आज से तुम अकेले ही स्कूल के अंदर चले जाओगे?’’

उन की ओर देख कर पुलकित हलका सा मुसकरा दिया, ‘‘बाय डैडी.’’

‘‘वह देखो, रामवृक्ष अंकल है, वह तुम्हें अंदर कर देगा. मेरा बहादुर बेटा, टाटा.’’

सीमा पर जाने वाले जवानों की तरह पुलकित आगे बढ़ता है. प्रयाग बाइक के पास ही खड़े हैं. एक बार सोचा कि मुंह दूसरी ओर कर लें. मगर फिर मन में स्नेह का उफान- आज इतना ही ठीक है. कल से दूसरी ओर ताका करेंगे. मेरे पुलकित को अपने पैरों पर खड़ा होना है. दुनिया बहुत जालिम है. उसे जीना है तो लड़ना होगा. जीवन का दूसरा नाम ही है संघर्ष. जीवन संघर्ष.

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‘‘आओ भैया,’’ दरवाजे पर खड़ा रामवृक्ष उसे हाथ पकड़ कर अंदर भेजने लगा, ‘‘आज अकेले आ गए? वाह, मेरे बहादुर बच्चे.’’

छोटे वाले गेट से अंदर जाते समय पुलकित ने एकबार पीछे मुड़ कर देखा, डैडी कहां हैं? ‘‘अरे चलो बेटा, और बच्चों को आने दो.’’ रामवृक्ष उसे हलका सा धकेल कर अंदर कर देता है.

‘क्या मैं भी चला जाऊं? पुलकित तो अंदर पहुंच ही गया,’ प्रयाग इसी ऊहापोह में बाइक के पास खड़ा था.

पुलकित अंदर जा कर बंद गेट के पास आ गया. चेहरे को लोहे की सीखचों से सटा कर वह देखने का प्रयास करने लगा. डैडी, डैडी कहां हैं? दिख नहीं रहे हैं? बस, एक बार टाटा कह देता. बस, एक बार… तब तक सामने एक रिकशा आ गया. उस पर से 2 मैडम उतर आईं. उधर पिं्रसिपल मैडम की कार आ गई. रामवृक्ष चिल्लाने लगा, ‘‘सारे बच्चों, अंदर हो जाओ. गेट खोलना है. यहां कोई खड़े मत रहना. वरना मैडम डांटेंगी.’’

अफरातफरी. बड़े बच्चे बीच में से कार गुजरने लायक जगह छोड़ कर एकतरफ हो गए. अंदर जाते हुए एक मैडम ने पुलकित का हाथ पकड़ लिया, ‘चलो, क्लास में चलो.’ ‘गुड…गुड मौर्निंग टीचर,’ किसी तरह बेचारा वह कह पाया. जातेजाते वह पीछे मुड़ कर देखने लगा, डैडी नहीं दिखेंगे? एक बार भी नहीं? चले गए? डैडी घर वापस चले गए?

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पुलकित को कुछ नहीं दिख रहा है. पानी के घर की खिड़कियां यानी पलकें बंद हैं. क्या दिखे? कैसे दिखे? मम्मी याद आ रही है. दादा, दादी, चाचू…चाचू ने कल मुझे साइकिल पर नहीं बिठाया था. भाग गया. कुट्टी, कुट्टी, कुट्टी… ‘‘तुम तो न्यू ऐडमिशन हो, कौन सा क्लास है तुम्हारा?’’ हाथ पकड़ने वाली मैडम पूछती हैं.

पुलकित उंगली से ऊपर की ओर दिखाता है.

‘‘जाओ, क्लास में बैग रख कर नीचे आ जाओ. अभी प्रेयर की घंटी बजेगी.’’

भारी कदमों से पुलकित सीढ़ी चढ़ता है. इतने में घंटी बजती है टनटनटन… आपाधापी, भागदौड़…उसे रौलकौल ग्राउंड में पहुंचना है.

फिर…

एक हवा चली. चलती गई. जिंदगी के कलैंडर के पन्ने उड़ते जा रहे हैं. पलटते जा रहे हैं. फरफरफर… जीवन की हवा के झोंकों ने आज पुलकित को नेताजी सुभाषचंद्र बोस इंटरनैशनल एयरपोर्ट के सामने ला कर खड़ा कर दिया है. पुलकित टैक्सी से अपना सामान उतार रहा है. प्रयाग और पुलकित की मां टैक्सी से उतर कर बगल में खड़े हैं. बेटा जरमनी जा रहा है. उसे जरमनी की डीएएडी स्कौलरशिप मिली है.

पुलकित वहां कालोन के मैक्स प्लैंक इंस्टिट्यूट से प्लैंट बायोटैक्नोलौजी में पीएचडी करने जा रहा है. 2-2 परीक्षाएं पास करना, स्काइप पर सीधे वहां के डा. केनेची से रूबरू हो कर इंटरव्यू देना, अपनी थीसिस के लिए प्रारूप तैयार करना, फिर दिल्ली जा कर मैक्स प्लैंक के बोर्ड के सामने इंटरव्यू देना, लोहे के चने चबाना और किसे कहते हैं? सारे हिंदुस्तान से केवल 15-16 लोगों का सिलैक्शन हो सका. उन में भी वह अकेला है जिसे पूरी पीएचडी वहां से करनी है. बाकी लोग तो एकाध साल के लिए ट्रेनिंग पर या सैंडविच कोर्स के लिए ही जा रहे हैं. अपनी यूनिवर्सिटी, अपने प्रदेश से वह अकेला ही है.

जब 15 दिनों की जरमन भाषा शिक्षा के लिए उसे दिल्ली जाना पड़ा तो उस ने मोबाइल पर मां से कहा था, ‘मां, मुझे तो अभी तक विश्वास ही नहीं हो रहा है कि सचमुच मेरा सिलैक्शन हो गया है.’ मां ने हंस कर समझाया, ‘बस बेटा, मन लगा कर काम करना. तुझे अपना प्रदेश अपने देश का नाम ऊंचा जो करना है, क्यों?’

‘हां, मां.’

फिर तो और ढेर सारी बातें. भारतसेवाश्रम यात्री निवास से मैक्समूलर भवन के लिए निकलने के पहले पुलकित मां से बात कर लेता. फिर बीच में ब्रेक में. अंत में रात में दिनभर की दास्तान…

मां हर रोज वही सवाल, ‘आज तू ने क्या खाया?’ बेटा नाराज हो जाता, ‘हर समय सिर्फ खाने की बात मत पूछा करो. मैं कोई बच्चा हूं क्या?’

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‘नहीं, अब तो तू मेरा डैडी बन गया है. मैं ही तेरी बेटी हूं.’

उधर से प्रयाग रूठे हुए बच्चे की तरह कहते, ‘मुझ से तो कोई बात ही नहीं करना चाहता. अब तो इन के लिए मम्मी ही सबकुछ है.’ ‘ले, अपने पापा से बात कर ले. वे रूठ गए हैं.’ पुलकित की मां प्रयाग को मोबाइल थमा देतीं.

‘क्या पापा, आप भी न…मैं तो आप से ही बात करना चाहता हूं. मम्मी तो बस वही दालभातसब्जी की ही बातें करेंगी.’

‘झूठा कहीं का. तेरी दीदी भी फोन करती है तो तेरी मां को. क्यों मैं घर में नहीं हूं? तू ने मुझे फिर मोबाइल खरीद के दिया ही क्यों? उस में भी तो वह फोन कर सकती है.’

ऐसी ही बातें, रूठना, मनाना, हंसना, रोना. जिंदगी का पलपल, क्षणक्षण, चुस्की लगाते हुए पी जाना…

प्रयाग को निहायत औपचारिक बातों से चिढ़ होती है. शादी के बाद शुरूशुरू में बेटी ने पूछा था, ‘डैडी, आप कैसे हैं?’

‘क्यों, मुझे क्या हुआ है?’ यह हाऊ आर यू वाला फौरमल सवाल उन्हें पसंद नहीं. देशदुनिया की ढेर सारी बातें हैं, वो नहीं पूछी जा सकतीं? क्रिकेट से ले कर उत्तराखंड में आए जल प्लावन, काजीरंगा की बाढ़ में फंसे गैंडे, राष्ट्रीय उद्यान में ट्रेन से कट कर हाथियों का मारा जाना, बस्तर में आदिवासियों के साथ छल, क्रांति के छद्म नकाब पहन कर ट्रेन की पटरी उड़ा कर सैकड़ों परिवारों का सर्वनाश करना, दादरी में बेगुनाह मुसलमान की हत्या, प्रयाग बच्चों से तरहतरह की बातें किया करते थेऔर आज भी वही सुनना चाहते हैं. वे पुलकित की मां से भुनभुनाते, ‘मैं क्या कोई बूढ़ा हो गया हूं कि मेरी तबीयत के बारे में पूछताछ की जाए?’

खैर, सभी खुश हैं कि इतने दिनों बाद बेटे की मेहनत रंग लाई. आज अगर पुलकित के दादाजी होते, तो कितना खुश होते. ईमेल में सिलैक्शन की बात पढ़ कर जब पुलकित ने दौड़ कर मां को सीने में जकड़ लिया था, तो सबकुछ सुन कर मारे खुशी के दादी अपनी आंखें पोंछने बैठ गईं. शाम को घर वापस आ कर जब चाचू ने सुना तो उछल पड़े, ‘जिओ, मेरे शेर. आखिर भतीजा किस का है? मैं ने कहा था न, डौंट वरी, देर है, अंधेर नहीं.’ फिर भी प्याला और होंठों के बीच फासला बहुत होता है. नाव किनारे लगतेलगते भी कई बार जाने किनकिन थपेड़ों से किनारे से दूर जाने लगी. पुलकित के पासपोर्ट और हैल्थ सर्टिफिकेट को ले कर मामला फंसने लगा. प्रयाग ने इंटर के बाद ही बेटे का पासपोर्ट बनवा दिया था. उस फोटो में पुलकित की मूछें थीं, और कंपीटिशन के लिए नाम लिखी हुई तख्ती वह छाती के सामने पकड़े हुए था. तो उस फोटो को देख कर जरमन एंबैसी के एक भारतीय औफिसर ने कहा था, ‘यह फोटो तो तुम से एकदम मेल नहीं खाती. अरे भाई, यह तो कैदी जैसा है.’ फोटो में टीशर्ट धारीदार जो थी.

जरमन अधिकारी ने भी कहा, ‘नया पासपोर्ट बना कर लाओ, हम 3 दिनों के अंदर तुम्हें वीजा दे देंगे.’

तो फिर भागदौड़…

उधर यूनिवर्सिटी हैल्थ सैंटर से डीएएडी के प्रारूप पर हैल्थ सर्टिफिकेट लेते समय डाक्टर ने पूछा था, ‘कभी जौंडिस वगैरा कुछ हुआ था?’

पुलकित ने सिर हिलाया, ‘बचपन में एक बार हुआ था.’

डाक्टर ने उस कौलम के आगे ‘नो’ के बजाय ‘यस’ लिख दिया. अब उस सत्यवादी हरिश्चंद्र के कारण वह सर्टिफिकेट जरमनी से ईमेल के जरिए लौटा दिया गया कि उसी डाक्टर से यह लिखवाओ कि ‘तुम्हें अब किसी इलाज की जरूरत नहीं है. तुम बिलकुल स्वस्थ हो.’लो, फिर से एडि़यां रगड़ो. उनींदी रात गुजारो. पापामम्मी दोनों उदास. अब आगे क्या होगा? खैर, भागदौड़ का यह हिस्सा भी खत्म हुआ.

तो, एक ट्रौली पर सामान रख कर पुलकित लगेज चैकिंग वाले काउंटर की ओर जा रहा है. जाने के पहले उस ने डैडी के पैर छुए. मां से देर तक लिपटा रहा. मां की आंखें, तो बस, पानी का बसेरा, पंछी है निगाहें. प्रयाग काफी देर तक उसे सीने से लगाए रहे. अब तो सालभर बाद ही बेटे से मिलना होगा. पुलकित ने उन को कई बार मना किया था, ‘डैडी, मेरी फ्लाइट रात ढाई बजे की है. मुझे 3-4 घंटे पहलेही चैक-इन करना पड़ेगा. आप लोग मेरे साथ दिल्ली के एयरपोर्ट तक जा कर क्या कीजिएगा? आप घर ही पर रहिए न.’

मगर उस की मम्मी ने कहा था, ‘नहीं, हमें तुझे सी औफ करने जाना है.’

दादी और चाचा ने भी वही बात दोहराई, ‘अरे वहां तक तो साथ रहने दे.’ एयरपोर्ट सिक्योरिटी औफिसर ने पुलकित का सामान एक कैरियर बैल्ट पर रख दिया. मैटल डिटैक्टर से हर चीज की चैकिंग होगी. शीशे के दरवाजे के अंदर जा कर उसे अपना सामान ले कर बोर्डिंग पास लेना है. फिर तो घंटों की प्रतीक्षा. जब तकफ्लाइट की घोषणा न हो जाए.

पुलकित हाथ हिलाते हुए शीशे के दरवाजे के अंदर दाखिल हो जाता है. प्रयाग अपनी पत्नी के साथ बाहर खड़े हैं. सामान की चैकिंग हो गई. फिर से ट्रौली पर उन्हें रख कर पुलकित आगे जा रहा है. इधर मुड़मुड़ कर देख रहा है. हाथ हिला रहा है. सामने से किसी फ्लाइट से उतरने वाले यात्रियों की भीड़ चली आ रही है. पुलकित इन की आंखों से ओझल हो गया. प्रयाग बस एक बार बेटे को देख लेने के लिए बाहर लाउंज पर दौड़ रहे हैं.

‘अरे, यह आप क्या कर रहे हैं?’’ पुलकित की मां उन्हें रोकना चाहती है.

कितने सारे लोग आ रहे हैं, जा रहे हैं. हाथों में भारीभरकम सूटकेस या पीठ पर टूरिस्ट बैग, यूरोपियन, जापानी, अफ्रीकी, हज से लौटने वाले या बुद्धिस्ट- और दूसरे शहरों के यात्री भी.

‘‘वो रहा पुलकित,’’ प्रयाग सामने देखे बिना चले जा रहे हैं. जैसे बचपन में स्कूलगेट के अंदर जाते समय नन्हा पुलकित बारबार पीछे मुड़ कर देखता था. कांच की दीवार के इस पार किसी पिंजड़े में बंद पंछी की तरह प्रयाग इधर से उधर दौड़ रहे हैं.

‘‘अरे रे रे, सर, जरा देख कर चलिए. अभी टक्कर हो जाती,’’ एयरपोर्ट का एक कर्मचारी कई ट्रौलियों को एकसाथ धकेलते हुए एक किनारे लगा रहा था. घरघर की तेज आवाज हो रही थी. प्रयाग उन्हीं से जा टकराए. उस आदमी ने संभाल लिया, वरना… पुलकित की मां दौड़ कर आ पहुंची, ‘‘अभी कुछ हो जाता तो? अब उसे कैसे देख पाइएगा?’’

प्रयाग ने किसी की कोई बात नहीं सुनी. शीशे की दीवार के पार उन की निगाहें पुलकित को बस एक बार और देख लेने को आतुर थीं. मगर वे पुलकित को देखते भी तो कैसे? निगाहें कैद हैं पानी के घर में. आंखों की यह कैसी बेवफाई?

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सुबह. नीले आकाश में उड़ रही चिडि़या. आजाद. लोहे का बड़ा वाला फाटक  बंद है. ताकि बच्चों के अभिभावक स्कूटरबाइक ले कर स्कूल के अंदर तक न चले आएं. दाहिने, पिंजड़े के दरवाजे की तरह एक छोटा सा पल्ला खुला है. बगल में खाकी वरदी में रामवृक्ष दरबान खड़ा है. सभी मैडम गंभीर मुद्रा में अपनाअपना सिर तान कर या झुका कर छोटे वाले गेट से अंदर दाखिल हो रही हैं. छोटे बच्चे तो उछलतेकूदते पिंजड़े के भीतर घुसे जा रहे हैं. मगर दरजा 6-7 के 2-4 बच्चों का सिर अंदर जाते समय दरवाजे के फ्रेम से टकरा गया, आउच, हिंदीकोश में एक नया अव्यय.

फिर भी वे खुश हो गए, ‘पंकज देख, मेरी हाइट कितनी हो गई है. तू तो ठिगना का ठिगना ही रह गया.’ स्कूल के सामने स्कूटर और बाइक की जमघट. दोएक रिकशा भी आ कर सवारी उतार कर चलते बन रहे हैं. कोई बच्चा पापा से पितृकर वसूल रहा है चिप्स खाने के लिए, तो किसी के पिताश्री जेब से कंघी निकाल कर बच्चे के बाल संवार रहे हैं.

प्रयाग ने अपनी बाइक एक किनारे खड़ी कर दी. बेटे को गोद में ले कर पिछली सीट से उसे नीचे उतारते, इस के पहले ही पुलकित बाइक से कूद गया.‘‘अरे रे रे बेटा, इतनी भी जल्दी क्या है, कहीं गिर गया तो? तेरी मम्मी मुझे ही डांटेगी,’’ प्रयाग कहते रह गए.

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अभी तो हफ्ताभर भी नहीं हुआ उस का एडमिशन हुए. पुलकित है तो चंचल. दिनभर घर में दादा और चाचा को दौड़ाता रहता है. पर स्कूल नाम केइस पिंजड़े के अंदर जाते ही वह एकदम शांत हो जाता है. यहां वह बिलकुल अकेला जो है. अभी दोस्तों से घुलमिल जो नहीं पाया.  प्रयाग ने सोचा, बेटे को स्वनिर्भर बनाना है. यह क्या कि रोज डैडी का हाथ थाम कर स्कूल के दरवाजे तक जाए. स्कूलबैग तो पुलकित की पीठ पर था ही. उन्होंने बाइक की हैंडिल से वाटर बौटल निकाल कर उस के हाथ में थमा दिया, ‘‘टाटा बेटा. मम्मी ने कहा था न कि आज से तुम अकेले ही स्कूल के अंदर चले जाओगे?’’

उन की ओर देख कर पुलकित हलका सा मुसकरा दिया, ‘‘बाय डैडी.’’

‘‘वह देखो, रामवृक्ष अंकल है, वह तुम्हें अंदर कर देगा. मेरा बहादुर बेटा, टाटा.’’

सीमा पर जाने वाले जवानों की तरह पुलकित आगे बढ़ता है. प्रयाग बाइक के पास ही खड़े हैं. एक बार सोचा कि मुंह दूसरी ओर कर लें. मगर फिर मन में स्नेह का उफान- आज इतना ही ठीक है. कल से दूसरी ओर ताका करेंगे. मेरे पुलकित को अपने पैरों पर खड़ा होना है. दुनिया बहुत जालिम है. उसे जीना है तो लड़ना होगा. जीवन का दूसरा नाम ही है संघर्ष. जीवन संघर्ष.

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‘‘आओ भैया,’’ दरवाजे पर खड़ा रामवृक्ष उसे हाथ पकड़ कर अंदर भेजने लगा, ‘‘आज अकेले आ गए? वाह, मेरे बहादुर बच्चे.’’

छोटे वाले गेट से अंदर जाते समय पुलकित ने एकबार पीछे मुड़ कर देखा, डैडी कहां हैं? ‘‘अरे चलो बेटा, और बच्चों को आने दो.’’ रामवृक्ष उसे हलका सा धकेल कर अंदर कर देता है.

‘क्या मैं भी चला जाऊं? पुलकित तो अंदर पहुंच ही गया,’ प्रयाग इसी ऊहापोह में बाइक के पास खड़ा था.

पुलकित अंदर जा कर बंद गेट के पास आ गया. चेहरे को लोहे की सीखचों से सटा कर वह देखने का प्रयास करने लगा. डैडी, डैडी कहां हैं? दिख नहीं रहे हैं? बस, एक बार टाटा कह देता. बस, एक बार… तब तक सामने एक रिकशा आ गया. उस पर से 2 मैडम उतर आईं. उधर पिं्रसिपल मैडम की कार आ गई. रामवृक्ष चिल्लाने लगा, ‘‘सारे बच्चों, अंदर हो जाओ. गेट खोलना है. यहां कोई खड़े मत रहना. वरना मैडम डांटेंगी.’’

अफरातफरी. बड़े बच्चे बीच में से कार गुजरने लायक जगह छोड़ कर एकतरफ हो गए. अंदर जाते हुए एक मैडम ने पुलकित का हाथ पकड़ लिया, ‘चलो, क्लास में चलो.’ ‘गुड…गुड मौर्निंग टीचर,’ किसी तरह बेचारा वह कह पाया. जातेजाते वह पीछे मुड़ कर देखने लगा, डैडी नहीं दिखेंगे? एक बार भी नहीं? चले गए? डैडी घर वापस चले गए?

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पुलकित को कुछ नहीं दिख रहा है. पानी के घर की खिड़कियां यानी पलकें बंद हैं. क्या दिखे? कैसे दिखे? मम्मी याद आ रही है. दादा, दादी, चाचू…चाचू ने कल मुझे साइकिल पर नहीं बिठाया था. भाग गया. कुट्टी, कुट्टी, कुट्टी… ‘‘तुम तो न्यू ऐडमिशन हो, कौन सा क्लास है तुम्हारा?’’ हाथ पकड़ने वाली मैडम पूछती हैं.

पुलकित उंगली से ऊपर की ओर दिखाता है.

‘‘जाओ, क्लास में बैग रख कर नीचे आ जाओ. अभी प्रेयर की घंटी बजेगी.’’

भारी कदमों से पुलकित सीढ़ी चढ़ता है. इतने में घंटी बजती है टनटनटन… आपाधापी, भागदौड़…उसे रौलकौल ग्राउंड में पहुंचना है.

फिर…

एक हवा चली. चलती गई. जिंदगी के कलैंडर के पन्ने उड़ते जा रहे हैं. पलटते जा रहे हैं. फरफरफर… जीवन की हवा के झोंकों ने आज पुलकित को नेताजी सुभाषचंद्र बोस इंटरनैशनल एयरपोर्ट के सामने ला कर खड़ा कर दिया है. पुलकित टैक्सी से अपना सामान उतार रहा है. प्रयाग और पुलकित की मां टैक्सी से उतर कर बगल में खड़े हैं. बेटा जरमनी जा रहा है. उसे जरमनी की डीएएडी स्कौलरशिप मिली है.

पुलकित वहां कालोन के मैक्स प्लैंक इंस्टिट्यूट से प्लैंट बायोटैक्नोलौजी में पीएचडी करने जा रहा है. 2-2 परीक्षाएं पास करना, स्काइप पर सीधे वहां के डा. केनेची से रूबरू हो कर इंटरव्यू देना, अपनी थीसिस के लिए प्रारूप तैयार करना, फिर दिल्ली जा कर मैक्स प्लैंक के बोर्ड के सामने इंटरव्यू देना, लोहे के चने चबाना और किसे कहते हैं? सारे हिंदुस्तान से केवल 15-16 लोगों का सिलैक्शन हो सका. उन में भी वह अकेला है जिसे पूरी पीएचडी वहां से करनी है. बाकी लोग तो एकाध साल के लिए ट्रेनिंग पर या सैंडविच कोर्स के लिए ही जा रहे हैं. अपनी यूनिवर्सिटी, अपने प्रदेश से वह अकेला ही है.

जब 15 दिनों की जरमन भाषा शिक्षा के लिए उसे दिल्ली जाना पड़ा तो उस ने मोबाइल पर मां से कहा था, ‘मां, मुझे तो अभी तक विश्वास ही नहीं हो रहा है कि सचमुच मेरा सिलैक्शन हो गया है.’ मां ने हंस कर समझाया, ‘बस बेटा, मन लगा कर काम करना. तुझे अपना प्रदेश अपने देश का नाम ऊंचा जो करना है, क्यों?’

‘हां, मां.’

फिर तो और ढेर सारी बातें. भारतसेवाश्रम यात्री निवास से मैक्समूलर भवन के लिए निकलने के पहले पुलकित मां से बात कर लेता. फिर बीच में ब्रेक में. अंत में रात में दिनभर की दास्तान…

मां हर रोज वही सवाल, ‘आज तू ने क्या खाया?’ बेटा नाराज हो जाता, ‘हर समय सिर्फ खाने की बात मत पूछा करो. मैं कोई बच्चा हूं क्या?’

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‘नहीं, अब तो तू मेरा डैडी बन गया है. मैं ही तेरी बेटी हूं.’

उधर से प्रयाग रूठे हुए बच्चे की तरह कहते, ‘मुझ से तो कोई बात ही नहीं करना चाहता. अब तो इन के लिए मम्मी ही सबकुछ है.’ ‘ले, अपने पापा से बात कर ले. वे रूठ गए हैं.’ पुलकित की मां प्रयाग को मोबाइल थमा देतीं.

‘क्या पापा, आप भी न…मैं तो आप से ही बात करना चाहता हूं. मम्मी तो बस वही दालभातसब्जी की ही बातें करेंगी.’

‘झूठा कहीं का. तेरी दीदी भी फोन करती है तो तेरी मां को. क्यों मैं घर में नहीं हूं? तू ने मुझे फिर मोबाइल खरीद के दिया ही क्यों? उस में भी तो वह फोन कर सकती है.’

ऐसी ही बातें, रूठना, मनाना, हंसना, रोना. जिंदगी का पलपल, क्षणक्षण, चुस्की लगाते हुए पी जाना…

प्रयाग को निहायत औपचारिक बातों से चिढ़ होती है. शादी के बाद शुरूशुरू में बेटी ने पूछा था, ‘डैडी, आप कैसे हैं?’

‘क्यों, मुझे क्या हुआ है?’ यह हाऊ आर यू वाला फौरमल सवाल उन्हें पसंद नहीं. देशदुनिया की ढेर सारी बातें हैं, वो नहीं पूछी जा सकतीं? क्रिकेट से ले कर उत्तराखंड में आए जल प्लावन, काजीरंगा की बाढ़ में फंसे गैंडे, राष्ट्रीय उद्यान में ट्रेन से कट कर हाथियों का मारा जाना, बस्तर में आदिवासियों के साथ छल, क्रांति के छद्म नकाब पहन कर ट्रेन की पटरी उड़ा कर सैकड़ों परिवारों का सर्वनाश करना, दादरी में बेगुनाह मुसलमान की हत्या, प्रयाग बच्चों से तरहतरह की बातें किया करते थेऔर आज भी वही सुनना चाहते हैं. वे पुलकित की मां से भुनभुनाते, ‘मैं क्या कोई बूढ़ा हो गया हूं कि मेरी तबीयत के बारे में पूछताछ की जाए?’

खैर, सभी खुश हैं कि इतने दिनों बाद बेटे की मेहनत रंग लाई. आज अगर पुलकित के दादाजी होते, तो कितना खुश होते. ईमेल में सिलैक्शन की बात पढ़ कर जब पुलकित ने दौड़ कर मां को सीने में जकड़ लिया था, तो सबकुछ सुन कर मारे खुशी के दादी अपनी आंखें पोंछने बैठ गईं. शाम को घर वापस आ कर जब चाचू ने सुना तो उछल पड़े, ‘जिओ, मेरे शेर. आखिर भतीजा किस का है? मैं ने कहा था न, डौंट वरी, देर है, अंधेर नहीं.’ फिर भी प्याला और होंठों के बीच फासला बहुत होता है. नाव किनारे लगतेलगते भी कई बार जाने किनकिन थपेड़ों से किनारे से दूर जाने लगी. पुलकित के पासपोर्ट और हैल्थ सर्टिफिकेट को ले कर मामला फंसने लगा. प्रयाग ने इंटर के बाद ही बेटे का पासपोर्ट बनवा दिया था. उस फोटो में पुलकित की मूछें थीं, और कंपीटिशन के लिए नाम लिखी हुई तख्ती वह छाती के सामने पकड़े हुए था. तो उस फोटो को देख कर जरमन एंबैसी के एक भारतीय औफिसर ने कहा था, ‘यह फोटो तो तुम से एकदम मेल नहीं खाती. अरे भाई, यह तो कैदी जैसा है.’ फोटो में टीशर्ट धारीदार जो थी.

जरमन अधिकारी ने भी कहा, ‘नया पासपोर्ट बना कर लाओ, हम 3 दिनों के अंदर तुम्हें वीजा दे देंगे.’

तो फिर भागदौड़…

उधर यूनिवर्सिटी हैल्थ सैंटर से डीएएडी के प्रारूप पर हैल्थ सर्टिफिकेट लेते समय डाक्टर ने पूछा था, ‘कभी जौंडिस वगैरा कुछ हुआ था?’

पुलकित ने सिर हिलाया, ‘बचपन में एक बार हुआ था.’

डाक्टर ने उस कौलम के आगे ‘नो’ के बजाय ‘यस’ लिख दिया. अब उस सत्यवादी हरिश्चंद्र के कारण वह सर्टिफिकेट जरमनी से ईमेल के जरिए लौटा दिया गया कि उसी डाक्टर से यह लिखवाओ कि ‘तुम्हें अब किसी इलाज की जरूरत नहीं है. तुम बिलकुल स्वस्थ हो.’लो, फिर से एडि़यां रगड़ो. उनींदी रात गुजारो. पापामम्मी दोनों उदास. अब आगे क्या होगा? खैर, भागदौड़ का यह हिस्सा भी खत्म हुआ.

तो, एक ट्रौली पर सामान रख कर पुलकित लगेज चैकिंग वाले काउंटर की ओर जा रहा है. जाने के पहले उस ने डैडी के पैर छुए. मां से देर तक लिपटा रहा. मां की आंखें, तो बस, पानी का बसेरा, पंछी है निगाहें. प्रयाग काफी देर तक उसे सीने से लगाए रहे. अब तो सालभर बाद ही बेटे से मिलना होगा. पुलकित ने उन को कई बार मना किया था, ‘डैडी, मेरी फ्लाइट रात ढाई बजे की है. मुझे 3-4 घंटे पहलेही चैक-इन करना पड़ेगा. आप लोग मेरे साथ दिल्ली के एयरपोर्ट तक जा कर क्या कीजिएगा? आप घर ही पर रहिए न.’

मगर उस की मम्मी ने कहा था, ‘नहीं, हमें तुझे सी औफ करने जाना है.’

दादी और चाचा ने भी वही बात दोहराई, ‘अरे वहां तक तो साथ रहने दे.’ एयरपोर्ट सिक्योरिटी औफिसर ने पुलकित का सामान एक कैरियर बैल्ट पर रख दिया. मैटल डिटैक्टर से हर चीज की चैकिंग होगी. शीशे के दरवाजे के अंदर जा कर उसे अपना सामान ले कर बोर्डिंग पास लेना है. फिर तो घंटों की प्रतीक्षा. जब तकफ्लाइट की घोषणा न हो जाए.

पुलकित हाथ हिलाते हुए शीशे के दरवाजे के अंदर दाखिल हो जाता है. प्रयाग अपनी पत्नी के साथ बाहर खड़े हैं. सामान की चैकिंग हो गई. फिर से ट्रौली पर उन्हें रख कर पुलकित आगे जा रहा है. इधर मुड़मुड़ कर देख रहा है. हाथ हिला रहा है. सामने से किसी फ्लाइट से उतरने वाले यात्रियों की भीड़ चली आ रही है. पुलकित इन की आंखों से ओझल हो गया. प्रयाग बस एक बार बेटे को देख लेने के लिए बाहर लाउंज पर दौड़ रहे हैं.

‘अरे, यह आप क्या कर रहे हैं?’’ पुलकित की मां उन्हें रोकना चाहती है.

कितने सारे लोग आ रहे हैं, जा रहे हैं. हाथों में भारीभरकम सूटकेस या पीठ पर टूरिस्ट बैग, यूरोपियन, जापानी, अफ्रीकी, हज से लौटने वाले या बुद्धिस्ट- और दूसरे शहरों के यात्री भी.

‘‘वो रहा पुलकित,’’ प्रयाग सामने देखे बिना चले जा रहे हैं. जैसे बचपन में स्कूलगेट के अंदर जाते समय नन्हा पुलकित बारबार पीछे मुड़ कर देखता था. कांच की दीवार के इस पार किसी पिंजड़े में बंद पंछी की तरह प्रयाग इधर से उधर दौड़ रहे हैं.

‘‘अरे रे रे, सर, जरा देख कर चलिए. अभी टक्कर हो जाती,’’ एयरपोर्ट का एक कर्मचारी कई ट्रौलियों को एकसाथ धकेलते हुए एक किनारे लगा रहा था. घरघर की तेज आवाज हो रही थी. प्रयाग उन्हीं से जा टकराए. उस आदमी ने संभाल लिया, वरना… पुलकित की मां दौड़ कर आ पहुंची, ‘‘अभी कुछ हो जाता तो? अब उसे कैसे देख पाइएगा?’’

प्रयाग ने किसी की कोई बात नहीं सुनी. शीशे की दीवार के पार उन की निगाहें पुलकित को बस एक बार और देख लेने को आतुर थीं. मगर वे पुलकित को देखते भी तो कैसे? निगाहें कैद हैं पानी के घर में. आंखों की यह कैसी बेवफाई?

The post Short Story: नीर का नीड़ appeared first on Sarita Magazine.

August 31, 2020 at 10:00AM

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