Thursday 27 August 2020

मरीचिका-भाग 1: मोहनजी को कब आभास हुआ कि उनका एक बेटा होना चाहिए था?

जाड़े की गुनगुनी और मखमली धूप खिड़की से सीधे कमरे में प्रवेश कर रही थी. मोहनजी खिड़की के पास खड़े धूप के साथसाथ गरम चाय की चुसकियां ले रहे थे.

तभी मां खांसती हुई कमरे में घुसीं. मोहनजी के मुसकराते और चिंतामुक्त चेहरे को देख वे बोलीं, ‘‘अरे, अब तो कुछ गंभीर हो जा. तुझे देख कर तो लगता ही नहीं कि आज तू चौथी बेटी का बाप बना है.’’

‘‘इस में गंभीर रहने की क्या बात है, मां? बाप बना हूं चौथी बार. कितनी खुशी की बात है,’’ मोहनजी मां की तरफ मुड़ कर बोले.

‘‘हां, पर बेटी का बाप, और वह भी चौथी बेटी का. इस बार तो पूरी उम्मीद थी कि पोता ही होगा. कौन से देवता के चरणों में माथा नहीं टेका. कौन सी मनौती नहीं मांगी. व्रत, दान, तीरथ, पूजापाठ, सब बेकार गया. न जाने देवीदेवता हम से क्यों नाराज हैं. हमारा खानदान न तो आगे बढ़ पाएगा और न ही मेरे लड़के को…’’ इस से पहले कि मां आगे कुछ और बोलतीं, मोहनजी का चेहरा गुस्से से तमतमा गया.

वे मां पर लगभग चीखते हुए बोले, ‘‘बस, मां, बस. कड़वा बोलने की सारी हदें पार कर दीं आप ने. फिर से वही पुराना राग. पोता, पोता, पोता. तुम्हारी इन्हीं ऊलजलूल अंधविश्वासी बातों की वजह से मैं किसी भी बेटी के पैदा होने पर खुशी नहीं मना पाता. घर का माहौल खराब कर देती हैं आप इन घटिया और ओछी बातों को बारबार सुना कर. ऐसी हरकतें करने लगती हैं आप कि मानो कोई पहाड़ टूट पड़ा हो आप पर. पोता चाहिए था आप को, नहीं हुआ. पोती हुई, बात खत्म.’’  मां पर इन सब बातों का कोई फर्क नहीं पड़ा. वे और भी ऊंचे स्वर में बोलीं, ‘‘अरे, तुझे क्या? बाहर आसपड़ोस की मेरी उम्र की सारी औरतें मुझे चार बातें सुनाती हैं. सभी के एक न एक पोता जरूर है. मेरा इकलौता बेटा बेसहारा ही रहेगा. बुढ़ापे में कोई दो रोटी देने वाला भी नहीं रहेगा.’’

‘‘बस, मां, बहुत हो गया. आज कितनी खुशी का दिन है. कम से कम आज के दिन तो मेरा दिमाग खराब मत करो. और जो औरतें तुम से अनापशनाप बातें करती हैं, उन से कहना अगर उन में हिम्मत है तो आ कर मेरे सामने ये बातें कहें. मैं उन्हें उन की औकात याद दिला दूंगा. बेटियां मेरी हैं, उन्हें क्या परेशानी है? तभी बड़ी बेटी भक्ति खुशी से झूमते हुए वहां आई और चहकते हुए बोली, ‘‘दादी, मैं ने अपनी सारी फ्रैंड्स को बता दिया है कि मेरी छोटी बहन हुई है. मैं फिर से दीदी बन गई हूं.’’

‘‘हांहां, एक और भवानी आ गई है. जाओ, जा कर अपनी छाती से लगा कर भेंट लो.’’

‘‘बच्चे से ठीक से बात किया करो, मां,’’ मोहनजी चाय का कप जमीन पर फेंकते हुए बोले और भक्ति का हाथ पकड़ बड़बड़ाते हुए रागिनी के पास पहुंचे. वह कुछ घंटों पहले पैदा हुई बेटी को ले कर रो रही थी.

‘‘यह क्या, यार, रागिनी? तुम भी ना. इतनी एजुकेटेड हो फिर भी बिलकुल पिछड़ी सोच वाली होती जा रही हो. मां के बारे में तो पता था तुम्हें कि अगर बेटी हुई तो वे ऐसा ही करेंगी. तुम्हें मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए था. चलो, पोंछो ये आंसू,’’ मोहनजी रागिनी का सिर सहलाते हुए बोले.

‘‘मैं जरा सी खुशी देने लायक भी नहीं रही. न मांजी को न आप को. एक बेटा तक न दे पाई आप को. मुझे माफ कर दीजिए.’’

‘‘कैसी बातें कर रही हो, रागिनी? मैं ने आज तक कभी तुम्हें ऐसा एहसास होने दिया कि मुझे बेटा ही चाहिए? मैं उन सब के मुंह पर ताला लगाऊंगा, जो हमें बेटियों के मांबाप होने का ताना कस रहे हैं. एक दिन ये सभी अपने कहे पर पछताएंगे. तुम देखना. मैं अपनी बेटियों को शिक्षा, संस्कार, व्यवहार में खूब काबिल बनाऊंगा. पड़ोसी, रिश्तेदार, जो तुम्हें बेटी होने पर ताने देते हैं, वे कल हमारी बेटियों के नाम की मिसालें देंगे.’’

‘‘सच कह रहे हैं आप?’’ रागिनी आंसू पोंछती हुई बोली.

‘‘हां, रागिनी.’’

‘‘अच्छा, इस का कोई नाम सोचा है आप ने?’’

‘‘हां, वह तो इस के पैदा होने के पहले ही सोच लिया था.’’

‘‘अच्छा, क्या नाम सोचा है आप ने?’’

‘‘रीति. अच्छा नाम है न? चारों बेटियों का नाम एकजैसा-भक्ति, दीप्ति, नीति और रीति. कहो, कैसा लगा?’’

‘‘बहुत अच्छा है,’’ कह कर रागिनी मोहनजी से लिपट गई.

समय तेजी से बीत रहा था. मोहनजी और रागिनी अपनी बच्चियों को लाड़प्यार से पाल रहे थे. चारों बहनों में हमेशा लड़ाई होती रहती कि मम्मीपापा को अपने पास कौन रखेगा. भक्ति कहती, ‘मैं बड़ी हूं, इस नाते मम्मीपापा की जिम्मेदारी मेरी होगी. बुढ़ापे में मैं उन का सहारा बनूंगी. तुम तीनों अपने काम से काम रखना. समझीं?’ इस पर दीप्ति, नीति और रीति तीनों एकसाथ बड़ी बहन पर चिल्ला उठतीं, ‘मम्मीपापा सिर्फ तुम्हारे ही हैं क्या?’ अकसर चारों बहनें इसी बात पर झगड़ा करती रहतीं. मोहनजी इस समस्या का समाधान निकालते हुए कहते, ‘झगड़ा मत किया करो. हम दोनों तुम चारों के ससुराल में 3-3 महीने रहेंगे. न किसी के यहां ज्यादा न किसी के यहां कम. अब ठीक है न?’ तब चारों बोलतीं, ‘हां, अब ठीक है.’

मोहनजी और रागिनी को चारों बेटियों को अपने लिए आपस में लड़ता देख अपार सुख मिलता. मोहनजी ने अपनी मां से पूछा, ‘‘क्यों मां? क्या तुम ने कभी कहीं बेटों को भी यों आपस में लड़ते देखा है? अगर वे लड़ते भी हैं तो सिर्फ अपने लिए, अपने मांबाप के लिए नहीं.’’

मां गहरी सांस लेती हुई बोलीं, ‘‘बेटा, देखा तो नहीं है पर ऊंट किस करवट बैठेगा, यह अभी पता नहीं. जिंदगी कब कहां किस मोड़ पर ले जाए, पता नहीं. बेटा, तुझे खुश देख कर तसल्ली हो रही है. मैं तो चाहूंगी कि जो इन बेटियों के मुंह से निकल रहा है, वही हो. मैं तो बस यही चाहती हूं कि मरने के बाद भी मैं तुम्हें खुश देख सकूं. पर याद रखना बेटा, घने अंधेरे में अपना साया भी साथ छोड़ देता है.’’

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जाड़े की गुनगुनी और मखमली धूप खिड़की से सीधे कमरे में प्रवेश कर रही थी. मोहनजी खिड़की के पास खड़े धूप के साथसाथ गरम चाय की चुसकियां ले रहे थे.

तभी मां खांसती हुई कमरे में घुसीं. मोहनजी के मुसकराते और चिंतामुक्त चेहरे को देख वे बोलीं, ‘‘अरे, अब तो कुछ गंभीर हो जा. तुझे देख कर तो लगता ही नहीं कि आज तू चौथी बेटी का बाप बना है.’’

‘‘इस में गंभीर रहने की क्या बात है, मां? बाप बना हूं चौथी बार. कितनी खुशी की बात है,’’ मोहनजी मां की तरफ मुड़ कर बोले.

‘‘हां, पर बेटी का बाप, और वह भी चौथी बेटी का. इस बार तो पूरी उम्मीद थी कि पोता ही होगा. कौन से देवता के चरणों में माथा नहीं टेका. कौन सी मनौती नहीं मांगी. व्रत, दान, तीरथ, पूजापाठ, सब बेकार गया. न जाने देवीदेवता हम से क्यों नाराज हैं. हमारा खानदान न तो आगे बढ़ पाएगा और न ही मेरे लड़के को…’’ इस से पहले कि मां आगे कुछ और बोलतीं, मोहनजी का चेहरा गुस्से से तमतमा गया.

वे मां पर लगभग चीखते हुए बोले, ‘‘बस, मां, बस. कड़वा बोलने की सारी हदें पार कर दीं आप ने. फिर से वही पुराना राग. पोता, पोता, पोता. तुम्हारी इन्हीं ऊलजलूल अंधविश्वासी बातों की वजह से मैं किसी भी बेटी के पैदा होने पर खुशी नहीं मना पाता. घर का माहौल खराब कर देती हैं आप इन घटिया और ओछी बातों को बारबार सुना कर. ऐसी हरकतें करने लगती हैं आप कि मानो कोई पहाड़ टूट पड़ा हो आप पर. पोता चाहिए था आप को, नहीं हुआ. पोती हुई, बात खत्म.’’  मां पर इन सब बातों का कोई फर्क नहीं पड़ा. वे और भी ऊंचे स्वर में बोलीं, ‘‘अरे, तुझे क्या? बाहर आसपड़ोस की मेरी उम्र की सारी औरतें मुझे चार बातें सुनाती हैं. सभी के एक न एक पोता जरूर है. मेरा इकलौता बेटा बेसहारा ही रहेगा. बुढ़ापे में कोई दो रोटी देने वाला भी नहीं रहेगा.’’

‘‘बस, मां, बहुत हो गया. आज कितनी खुशी का दिन है. कम से कम आज के दिन तो मेरा दिमाग खराब मत करो. और जो औरतें तुम से अनापशनाप बातें करती हैं, उन से कहना अगर उन में हिम्मत है तो आ कर मेरे सामने ये बातें कहें. मैं उन्हें उन की औकात याद दिला दूंगा. बेटियां मेरी हैं, उन्हें क्या परेशानी है? तभी बड़ी बेटी भक्ति खुशी से झूमते हुए वहां आई और चहकते हुए बोली, ‘‘दादी, मैं ने अपनी सारी फ्रैंड्स को बता दिया है कि मेरी छोटी बहन हुई है. मैं फिर से दीदी बन गई हूं.’’

‘‘हांहां, एक और भवानी आ गई है. जाओ, जा कर अपनी छाती से लगा कर भेंट लो.’’

‘‘बच्चे से ठीक से बात किया करो, मां,’’ मोहनजी चाय का कप जमीन पर फेंकते हुए बोले और भक्ति का हाथ पकड़ बड़बड़ाते हुए रागिनी के पास पहुंचे. वह कुछ घंटों पहले पैदा हुई बेटी को ले कर रो रही थी.

‘‘यह क्या, यार, रागिनी? तुम भी ना. इतनी एजुकेटेड हो फिर भी बिलकुल पिछड़ी सोच वाली होती जा रही हो. मां के बारे में तो पता था तुम्हें कि अगर बेटी हुई तो वे ऐसा ही करेंगी. तुम्हें मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए था. चलो, पोंछो ये आंसू,’’ मोहनजी रागिनी का सिर सहलाते हुए बोले.

‘‘मैं जरा सी खुशी देने लायक भी नहीं रही. न मांजी को न आप को. एक बेटा तक न दे पाई आप को. मुझे माफ कर दीजिए.’’

‘‘कैसी बातें कर रही हो, रागिनी? मैं ने आज तक कभी तुम्हें ऐसा एहसास होने दिया कि मुझे बेटा ही चाहिए? मैं उन सब के मुंह पर ताला लगाऊंगा, जो हमें बेटियों के मांबाप होने का ताना कस रहे हैं. एक दिन ये सभी अपने कहे पर पछताएंगे. तुम देखना. मैं अपनी बेटियों को शिक्षा, संस्कार, व्यवहार में खूब काबिल बनाऊंगा. पड़ोसी, रिश्तेदार, जो तुम्हें बेटी होने पर ताने देते हैं, वे कल हमारी बेटियों के नाम की मिसालें देंगे.’’

‘‘सच कह रहे हैं आप?’’ रागिनी आंसू पोंछती हुई बोली.

‘‘हां, रागिनी.’’

‘‘अच्छा, इस का कोई नाम सोचा है आप ने?’’

‘‘हां, वह तो इस के पैदा होने के पहले ही सोच लिया था.’’

‘‘अच्छा, क्या नाम सोचा है आप ने?’’

‘‘रीति. अच्छा नाम है न? चारों बेटियों का नाम एकजैसा-भक्ति, दीप्ति, नीति और रीति. कहो, कैसा लगा?’’

‘‘बहुत अच्छा है,’’ कह कर रागिनी मोहनजी से लिपट गई.

समय तेजी से बीत रहा था. मोहनजी और रागिनी अपनी बच्चियों को लाड़प्यार से पाल रहे थे. चारों बहनों में हमेशा लड़ाई होती रहती कि मम्मीपापा को अपने पास कौन रखेगा. भक्ति कहती, ‘मैं बड़ी हूं, इस नाते मम्मीपापा की जिम्मेदारी मेरी होगी. बुढ़ापे में मैं उन का सहारा बनूंगी. तुम तीनों अपने काम से काम रखना. समझीं?’ इस पर दीप्ति, नीति और रीति तीनों एकसाथ बड़ी बहन पर चिल्ला उठतीं, ‘मम्मीपापा सिर्फ तुम्हारे ही हैं क्या?’ अकसर चारों बहनें इसी बात पर झगड़ा करती रहतीं. मोहनजी इस समस्या का समाधान निकालते हुए कहते, ‘झगड़ा मत किया करो. हम दोनों तुम चारों के ससुराल में 3-3 महीने रहेंगे. न किसी के यहां ज्यादा न किसी के यहां कम. अब ठीक है न?’ तब चारों बोलतीं, ‘हां, अब ठीक है.’

मोहनजी और रागिनी को चारों बेटियों को अपने लिए आपस में लड़ता देख अपार सुख मिलता. मोहनजी ने अपनी मां से पूछा, ‘‘क्यों मां? क्या तुम ने कभी कहीं बेटों को भी यों आपस में लड़ते देखा है? अगर वे लड़ते भी हैं तो सिर्फ अपने लिए, अपने मांबाप के लिए नहीं.’’

मां गहरी सांस लेती हुई बोलीं, ‘‘बेटा, देखा तो नहीं है पर ऊंट किस करवट बैठेगा, यह अभी पता नहीं. जिंदगी कब कहां किस मोड़ पर ले जाए, पता नहीं. बेटा, तुझे खुश देख कर तसल्ली हो रही है. मैं तो चाहूंगी कि जो इन बेटियों के मुंह से निकल रहा है, वही हो. मैं तो बस यही चाहती हूं कि मरने के बाद भी मैं तुम्हें खुश देख सकूं. पर याद रखना बेटा, घने अंधेरे में अपना साया भी साथ छोड़ देता है.’’

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August 28, 2020 at 10:00AM

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