Sunday 19 December 2021

हथेली पर आत्मसम्मान: सोम को क्या समझाना चाहता था श्याम

‘‘सोम, तुम्हारी यह मित्र इतना मीठा क्यों बोलती है?’’

श्याम के प्रश्न पर मेरे हाथ गाड़ी के स्टीयरिंग पर तनिक सख्त से हो गए. श्याम बहुत कम बात करता है लेकिन जब भी बात करता है उस का भाव और उस का अर्थ इतना गहरा होता है कि मैं नकार नहीं पाता और कभी नकारना चाहूं भी तो जानता हूं कि देरसवेर श्याम के शब्दों का गहरा अर्थ मेरी समझ में आ ही जाएगा.

‘‘जरूरत से ज्यादा मीठा बोलने वाला इनसान मुझे मीठी छुरी जैसा लगता है, जो अंदर से हमारी जड़ें काटता है और सामने चाशनी बरसाता है,’’ श्याम ने अपनी बात पूरी की.

‘‘ऐसा क्यों लगा तुम्हें? मीठा बोलना अच्छी आदत है. बचपन से हमें सिखाया जाता है सदा मीठा बोलो.’’

‘‘मीठा बोलना सिखाया जाता है न, झूठ बोलना तो नहीं सिखाया जाता. यह लड़की तो मुझे सिर से ले कर पैर तक झूठ बोलती लगी. हर भाव को प्रदर्शन करने में मनुष्य एक सीमा रेखा खींचता है. जरूरत जितनी मिठास ही मीठी लगती है. जरूरत से ज्यादा मीठा किस लिए? तुम से कोई मतलब नहीं है क्या उसे? कुछ न कुछ स्वार्थ जरूर होगा वरना आज के जमाने में कोई इतना मीठा बोलता ही नहीं. किसी के पास किसी के बारे में सोचने तक का समय नहीं और वह तुम्हें अपने घर बुला कर खाना खिलाना चाहती है. कौनकौन हैं उस के घर में?’’

‘‘उस के मांबाप हैं, 1 छोटी बहन है, बस. पिता रिटायर हो चुके हैं. पिछले साल ही कोलकाता से तबादला हुआ है. साथसाथ काम करते हैं हम. अच्छी लड़की है शोभना. मीठा बोलना उस का ऐब कैसे हो गया, श्याम?’’

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श्याम ने ‘छोड़ो भी’ कुछ इस तरह कहा जिस के बाद मैं कुछ कहूं भी तो उस का कोई अर्थ ही नहीं रहा. घर पहुंच कर भी वह अनमना सा चिढ़ा सा रहा, मानो कहीं का गुस्सा कहीं निकाल रहा हो.

‘‘लगता है, कहीं का गुस्सा तुम कहीं निकाल रहे हो? क्या हो गया है तुम्हें? इतनी जल्दी किसी के बारे में राय बना लेना क्या इतना जरूरी है…थोड़ा तो समय दो उसे.’’

‘‘वह क्या लगती है मेरी जो मैं उसे समय दूं और फिर मैं होता कौन हूं उस के बारे में राय बनाने वाला. अरे, भाई, कोई जो चाहे सो करे…तुम्हारी मित्र है इसलिए समझा दिया. जरा आंख और कान खोल कर रखना. कहीं बेवकूफ मत बनते रहना मेरी तरह. आजकल दोस्ती और किसी की निष्ठा को डिस्पोजेबल सामान की तरह इस्तेमाल कर के डस्टबिन में फेंक देने वालों का जमाना है.’’

‘‘सभी लोग एक जैसे नहीं होते हैं, श्याम.’’

‘‘तुम से ज्यादा तजरबा है मुझे दुनिया का. 10 साल हो गए हैं मुझे धक्के खाते हुए. तुम तो अभीअभी घर छोड़ कर आए हो न इसलिए नहीं जानते, घर की छत्रछाया सिर्फ घर में ही होती है. घर वाले ही हैं जो कुछ नहीं कहते फिर भी प्यार से बात भी करते हैं और पूछते हैं कुछ और भी चाहिए तो ले लो. बाहर का इनसान प्यार से बात कर जाए, हो ही नहीं सकता. अपना प्यार जताए तो समझ में आता है क्योंकि वह अपना है…बाहर वाला प्यार क्यों जताए? किस लिए वह आप का दुखदर्द बांटे? सोम, आखिर क्या लगते हो तुम उस के?’’

‘‘तुम्हें क्या लगता है क्या सिर्फ वही चोट देता है, जो हमारा कुछ नहीं लगता? अपना चोट नहीं देता है क्या? अच्छा, एक बात समझाओ मुझे, पराया इनसान चोट पहुंचा जाए तो पीड़ा का एहसास ही क्यों हो. वह तो कुछ लगता ही नहीं है न. उस के व्यवहार को हम इस तरह लें ही क्यों कि हमें चोट जैसी तकलीफ हो.

‘‘तुम कल इस शहर में आए. ट्रेन से उतरे तब अकेले तो नहीं थे न. सैकड़ों लोग स्टेशन पर उतरे होंगे. मुझ से मिलने तो कोई नहीं आया और न आए मेरी बला से पर हां, यदि तुम बिना मिले चले जाते तो दुख होता मुझे. सिर्फ इसलिए कि तुम अपने हो…इस का यही मतलब है न कि चोट पराए नहीं अपने देते हैं. इसीलिए पराए इनसान को हम इनसान ही समझें तो बेहतर है. कभी किसी के इतना भी पास न चले जाओ सोम कि धागों में उलझनें पड़ जाएं. कभीकभी उलझ जाने पर धागों का सिरा….’’

‘‘कैसा धागा और कैसा सिरा. इनसानों में धागे होते हैं क्या? तुम में और मुझ में कौन सा धागा है, जरा समझाना…’’

‘‘धागा था तभी तो अपनी बेंगलुरु की फ्लाइट छोड़ उसे 2 दिन के लिए आगे बढ़ा कर तुम यहां दिल्ली मेरे आफिस में चले आए. मुझे तो पता भी नहीं था तुम आने वाले हो. कौन लाया था तुम्हें मेरे पास? कोई तो खिंचाव था न, वरना इतनी तकलीफ उठा कर तुम मेरे पास कभी नहीं आते. तुम्हें क्या मतलब और क्या लेनादेना था मुझ से. सिर्फ धागे ही थे जो तुम्हें यहां मेरे पास खींच लाए हैं.’’

मेरी सारी बातों पर और मेरे सवाल पर श्याम मुझे टकटकी लगा कर देखता रहा जिस के साथ मैं ने अपने जीवन के 4 साल बिताए थे. इंजीनियरिंग में हम साथसाथ थे. वह होस्टल में था और मैं पढ़ने के लिए घर से जाता था. 2 साल एम.बी.ए. में लगे और अब 2 साल से हम दोनों एक अच्छी कंपनी में काम कर रहे हैं. वह भावुक और संवेदनशील है.

कहना शुरू किया श्याम ने, ‘‘मेरी एक सहयोगी है. पति के साथ उस का झगड़ा चल रहा है. तलाक तक बात पहुंच चुकी है. बहुत परेशान रहती है. पति अमेरिका में है, लंबी कानूनी प्रक्रिया और लाखों दांवपेंच. मांबाप के साथ रहती थी. कुछ दिन हुए कार दुर्घटना में मांबाप दोनों ही गुजर गए. उस की बहन और बहनोई दोनों ने मातापिता का घर और कारोबार संभाल कर उसे बेदखल ही कर दिया. आज की तारीख में वह नितांत अकेली है. मातापिता, बहन और पति, सभी से नाता टूट चुका है. मुझ से वह हर तरह की बात कर लेती है. एक तरह से आज की तारीख में मैं ही उस का सब कुछ हूं. कह सकते हो सुरक्षा कवच की तरह उसे संभाल रखा है मैं ने. हर रिश्ते को स्वयं में समेट कर उस का मरहम बनता रहता हूं…दिनरात जबजब जरूरत पड़ती है मैं चला जाता हूं…’’

ये भी पढ़ें- असली चेहरा: अवंतिका से क्यों नफरत करने लगी थी उसकी दोस्त

मैं अपलक उस का चेहरा पढ़ता रहा. जानता हूं श्याम पूरी ईमानदारी से उस की सहायता करता रहा होगा. तन, मन और धन तीनों से हाथ धो चुका होगा तभी इतनी पीड़ा में है.

‘‘मैं जुड़ गया हूं उस के साथ और उस का जवाब है मैं शादी के लायक ही नहीं हूं. शादी के लिए तो परिपक्वता की जरूरत होती है और मैं परिपक्व नहीं हूं.’’

‘‘यह परिपक्व होना किसे कहते हैं जरा बताना मुझे. एक तलाकशुदा औरत को मासूम समझना नासमझी है या उस के सुखदुख समझना. परिपक्व होता अगर उस की सुनाई बातों में उस का भी दोष निकालता. जिस तरह उस का पति उसे लांछित करता रहा उसी तरह मैं भी करता. क्या तभी उसे लगता मैं परिपक्व हूं? तुम्हीं समझाओ, मैं कहां चूक गया?

‘‘सामने वाले पर विश्वास कर लेना ही क्या मेरा दोष है? मेरे जैसे ही उस के और दोस्त हैं जो उस की उसी तरह से सहायता करते हैं जैसे मैं करता हूं. हम अच्छे दोस्त हैं बस…उस का कहना है हम सभी दोस्त हैं वो दूसरे भी और मैं भी.

‘‘दोस्ती के नाम पर ही क्या मैं ने हजारों खर्च कर दिए? मेरी भावनाओं को उस ने समझा नहीं होगा, इतनी नादान होगी वह ऐसा तो नहीं होगा न…वह समझदार है और मैं नासमझ.’’

श्याम की सारी गोलमोल बातें और उस की तकलीफ मेरे सामने अब आईने की तरह साफ हो चुकी थीं. मैं ने उसे समझाया, ‘‘उस से मिलनाजुलना बंद कर दो, श्याम. दूर हो जाओ तुम उस से, यही इलाज है. रिश्तों की कद्र नहीं है उस लड़की में वरना वह तुम्हारा मन नहीं दुखाती.’’

लपक कर भीतर गया श्याम और अटैची से महंगी कश्मीरी शाल निकाल लाया. उस ने यह शाल मंगाई है. 10 हजार रुपए कीमत है इस की. और यह पहली बार नहीं हुआ.

‘‘क्या वह भी तुम्हें इतने महंगे उपहार देती है?’’

‘‘पागल हो गए हो क्या? वह लड़की है सोम, मैं उस से उपहार लेता अच्छा लगूंगा क्या?’’

‘‘तो किस की कीमत वसूलती है वह तुम से. क्या तुम्हारा रिश्ता पाकसाफ है?’’

चौंक गया श्याम. मेरा सवाल था ही ऐसा कठोर. आंखें भर आईं उस की. अपलक मेरा चेहरा देखता रहा. मैं श्याम को जानता हूं. चरित्रवान है. इस ने कभी कोई लक्ष्मण रेखा नहीं लांघी होगी और अगर लांघी नहीं तो कुछ तो है जो जायज नहीं है. इतने महंगे उपहार लेने का उस लड़की को भी क्या अधिकार है. हर रिश्ते की एक गरिमा होती है. दोस्ती की अलग सीमा रेखा है और प्यार की अलग. अगर प्यार नहीं करती, किसी रिश्ते में बंधना नहीं चाहती तो इस्तेमाल भी क्यों?

श्याम का हाथ पकड़ कर भींच लिया मैं ने.

‘‘मैं जानता हूं तुम कभी गलत नहीं हो सकते. अपने प्यार का निरादर मत होने दो. वह लड़की तुम्हें डिजर्व नहीं करती. प्रकृति ने तुम्हें वैसा नहीं बनाया जैसा उसे बनाया है. तुम जितने ईमानदार हो वह उतनी ईमानदार नहीं है. उस का तलाक क्यों हुआ होगा? तलाक होने में भी कौन जाने किस का दोष है? जो सब तुम ने सुनाया है उस से तो यही समझ में आता है कि वह लड़की बंध कर रहना ही नहीं चाहती और प्यार तो बंधन चाहता है न. जो सब का हो वह किसी एक का होना नहीं चाहता और प्यार बांधना चाहता है, प्यार में जो एक का है वह सब का नहीं हो सकता है.’’

‘‘मैं क्या करूं, सोम? ऐसा लगता है लगातार ठगा जा रहा हूं. सब लुटा कर भी खाली हाथ हूं.’’

‘‘लुटना छोड़ दो श्याम, आंखें मूंद कर उस रास्ते पर मत चलो जो गहरी खाई में उतरता है. शोभना के विषय में बात कर रहे थे न तुम, उस का मीठा बोलना तुम्हें पसंद नहीं आया था. उस का अपने घर बुलाना भी तुम्हें अच्छा नहीं लगा. उस के पीछे कारण पूछ रहे थे न तुम…कारण है न. हम दोनों शादी करने वाले हैं. तुम मेरे मित्र हो और उसी नाते वह तुम्हारा मानसम्मान करना चाहती है, बस.’’ अवाक् तो होना ही था श्याम को.

‘‘पिछले डेढ़ साल से हम साथसाथ काम कर रहे हैं. मेरे हर सुखदुख मेें वह मेरा साथ देती है. जितना मैं उस के लिए करता हूं उस से कहीं ज्यादा वह मेरे लिए करती है. उपहार के नाम पर मैं ने उसे कभी कुछ भी नहीं दिया क्योंकि उसे बिना किसी रिश्ते के कुछ भी लेना पसंद नहीं. जबरदस्ती कुछ ला कर दे दूं तो वह भी कुछ वैसा ही कर के सब बराबर कर देती है क्योंकि दोस्ती में लेनादेना बराबर हो तभी सम्मानजनक लगता है…’’

‘‘हैरान हूं मैं. वह लड़की किस अधिकार से तुम्हें इतना लूट रही है और रिश्ता भी बांधना नहीं चाहती. मत करो उस से इतना प्यार और अपना प्यार इतना सस्ता मत बनाओ कि कोई उसे अपमानित कर पैरों के नीचे रौंदता चला जाए. एक रेखा खींचो, श्याम.’’

आंखें नम हो गईं श्याम की.

‘‘तुम्हारी होने वाली भाभी है शोभना और उस के कुछ गुण हैं जिन की वजह से मैं उस की इज्जत भी करता हूं. मेरी मान्यता है जब तक तुम किसी की इज्जत नहीं करते तब तक तुम उस से प्यार नहीं कर सकते. इकतरफा प्यार से आखिर कब तक निभा सकता है कोई?’’

कड़वी सी मुसकान चली आई थी श्याम के होंठों पर जिस में उस की पीड़ा मुझे साफसाफ नजर आ रही थी. लगता है कि अब वह उस लड़की का सम्मान नहीं कर पाएगा क्योंकि उस ने हाथ का कीमती शाल एक तरफ सरका दिया था… हिकारत से, मानो उसी पर अपना गुस्सा निकालना चाहता हो.

मेरा हाथ स्नेह से थाम रखा था श्याम ने. उस के हाथ की पकड़ कभी सख्त होती थी और कभी नरम. उस के भीतर का महाभारत उसे किस दिशा में धकेलेगा मैं नहीं जानता फिर भी एक उम्मीद जाग रही थी मन में. इस बार जब वह वापस जाएगा तब काफी बदल चुका होगा. अपने प्यार का, अपनी भावनाओं का सम्मान करना सीख चुका होगा.

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‘‘सोम, तुम्हारी यह मित्र इतना मीठा क्यों बोलती है?’’

श्याम के प्रश्न पर मेरे हाथ गाड़ी के स्टीयरिंग पर तनिक सख्त से हो गए. श्याम बहुत कम बात करता है लेकिन जब भी बात करता है उस का भाव और उस का अर्थ इतना गहरा होता है कि मैं नकार नहीं पाता और कभी नकारना चाहूं भी तो जानता हूं कि देरसवेर श्याम के शब्दों का गहरा अर्थ मेरी समझ में आ ही जाएगा.

‘‘जरूरत से ज्यादा मीठा बोलने वाला इनसान मुझे मीठी छुरी जैसा लगता है, जो अंदर से हमारी जड़ें काटता है और सामने चाशनी बरसाता है,’’ श्याम ने अपनी बात पूरी की.

‘‘ऐसा क्यों लगा तुम्हें? मीठा बोलना अच्छी आदत है. बचपन से हमें सिखाया जाता है सदा मीठा बोलो.’’

‘‘मीठा बोलना सिखाया जाता है न, झूठ बोलना तो नहीं सिखाया जाता. यह लड़की तो मुझे सिर से ले कर पैर तक झूठ बोलती लगी. हर भाव को प्रदर्शन करने में मनुष्य एक सीमा रेखा खींचता है. जरूरत जितनी मिठास ही मीठी लगती है. जरूरत से ज्यादा मीठा किस लिए? तुम से कोई मतलब नहीं है क्या उसे? कुछ न कुछ स्वार्थ जरूर होगा वरना आज के जमाने में कोई इतना मीठा बोलता ही नहीं. किसी के पास किसी के बारे में सोचने तक का समय नहीं और वह तुम्हें अपने घर बुला कर खाना खिलाना चाहती है. कौनकौन हैं उस के घर में?’’

‘‘उस के मांबाप हैं, 1 छोटी बहन है, बस. पिता रिटायर हो चुके हैं. पिछले साल ही कोलकाता से तबादला हुआ है. साथसाथ काम करते हैं हम. अच्छी लड़की है शोभना. मीठा बोलना उस का ऐब कैसे हो गया, श्याम?’’

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श्याम ने ‘छोड़ो भी’ कुछ इस तरह कहा जिस के बाद मैं कुछ कहूं भी तो उस का कोई अर्थ ही नहीं रहा. घर पहुंच कर भी वह अनमना सा चिढ़ा सा रहा, मानो कहीं का गुस्सा कहीं निकाल रहा हो.

‘‘लगता है, कहीं का गुस्सा तुम कहीं निकाल रहे हो? क्या हो गया है तुम्हें? इतनी जल्दी किसी के बारे में राय बना लेना क्या इतना जरूरी है…थोड़ा तो समय दो उसे.’’

‘‘वह क्या लगती है मेरी जो मैं उसे समय दूं और फिर मैं होता कौन हूं उस के बारे में राय बनाने वाला. अरे, भाई, कोई जो चाहे सो करे…तुम्हारी मित्र है इसलिए समझा दिया. जरा आंख और कान खोल कर रखना. कहीं बेवकूफ मत बनते रहना मेरी तरह. आजकल दोस्ती और किसी की निष्ठा को डिस्पोजेबल सामान की तरह इस्तेमाल कर के डस्टबिन में फेंक देने वालों का जमाना है.’’

‘‘सभी लोग एक जैसे नहीं होते हैं, श्याम.’’

‘‘तुम से ज्यादा तजरबा है मुझे दुनिया का. 10 साल हो गए हैं मुझे धक्के खाते हुए. तुम तो अभीअभी घर छोड़ कर आए हो न इसलिए नहीं जानते, घर की छत्रछाया सिर्फ घर में ही होती है. घर वाले ही हैं जो कुछ नहीं कहते फिर भी प्यार से बात भी करते हैं और पूछते हैं कुछ और भी चाहिए तो ले लो. बाहर का इनसान प्यार से बात कर जाए, हो ही नहीं सकता. अपना प्यार जताए तो समझ में आता है क्योंकि वह अपना है…बाहर वाला प्यार क्यों जताए? किस लिए वह आप का दुखदर्द बांटे? सोम, आखिर क्या लगते हो तुम उस के?’’

‘‘तुम्हें क्या लगता है क्या सिर्फ वही चोट देता है, जो हमारा कुछ नहीं लगता? अपना चोट नहीं देता है क्या? अच्छा, एक बात समझाओ मुझे, पराया इनसान चोट पहुंचा जाए तो पीड़ा का एहसास ही क्यों हो. वह तो कुछ लगता ही नहीं है न. उस के व्यवहार को हम इस तरह लें ही क्यों कि हमें चोट जैसी तकलीफ हो.

‘‘तुम कल इस शहर में आए. ट्रेन से उतरे तब अकेले तो नहीं थे न. सैकड़ों लोग स्टेशन पर उतरे होंगे. मुझ से मिलने तो कोई नहीं आया और न आए मेरी बला से पर हां, यदि तुम बिना मिले चले जाते तो दुख होता मुझे. सिर्फ इसलिए कि तुम अपने हो…इस का यही मतलब है न कि चोट पराए नहीं अपने देते हैं. इसीलिए पराए इनसान को हम इनसान ही समझें तो बेहतर है. कभी किसी के इतना भी पास न चले जाओ सोम कि धागों में उलझनें पड़ जाएं. कभीकभी उलझ जाने पर धागों का सिरा….’’

‘‘कैसा धागा और कैसा सिरा. इनसानों में धागे होते हैं क्या? तुम में और मुझ में कौन सा धागा है, जरा समझाना…’’

‘‘धागा था तभी तो अपनी बेंगलुरु की फ्लाइट छोड़ उसे 2 दिन के लिए आगे बढ़ा कर तुम यहां दिल्ली मेरे आफिस में चले आए. मुझे तो पता भी नहीं था तुम आने वाले हो. कौन लाया था तुम्हें मेरे पास? कोई तो खिंचाव था न, वरना इतनी तकलीफ उठा कर तुम मेरे पास कभी नहीं आते. तुम्हें क्या मतलब और क्या लेनादेना था मुझ से. सिर्फ धागे ही थे जो तुम्हें यहां मेरे पास खींच लाए हैं.’’

मेरी सारी बातों पर और मेरे सवाल पर श्याम मुझे टकटकी लगा कर देखता रहा जिस के साथ मैं ने अपने जीवन के 4 साल बिताए थे. इंजीनियरिंग में हम साथसाथ थे. वह होस्टल में था और मैं पढ़ने के लिए घर से जाता था. 2 साल एम.बी.ए. में लगे और अब 2 साल से हम दोनों एक अच्छी कंपनी में काम कर रहे हैं. वह भावुक और संवेदनशील है.

कहना शुरू किया श्याम ने, ‘‘मेरी एक सहयोगी है. पति के साथ उस का झगड़ा चल रहा है. तलाक तक बात पहुंच चुकी है. बहुत परेशान रहती है. पति अमेरिका में है, लंबी कानूनी प्रक्रिया और लाखों दांवपेंच. मांबाप के साथ रहती थी. कुछ दिन हुए कार दुर्घटना में मांबाप दोनों ही गुजर गए. उस की बहन और बहनोई दोनों ने मातापिता का घर और कारोबार संभाल कर उसे बेदखल ही कर दिया. आज की तारीख में वह नितांत अकेली है. मातापिता, बहन और पति, सभी से नाता टूट चुका है. मुझ से वह हर तरह की बात कर लेती है. एक तरह से आज की तारीख में मैं ही उस का सब कुछ हूं. कह सकते हो सुरक्षा कवच की तरह उसे संभाल रखा है मैं ने. हर रिश्ते को स्वयं में समेट कर उस का मरहम बनता रहता हूं…दिनरात जबजब जरूरत पड़ती है मैं चला जाता हूं…’’

ये भी पढ़ें- असली चेहरा: अवंतिका से क्यों नफरत करने लगी थी उसकी दोस्त

मैं अपलक उस का चेहरा पढ़ता रहा. जानता हूं श्याम पूरी ईमानदारी से उस की सहायता करता रहा होगा. तन, मन और धन तीनों से हाथ धो चुका होगा तभी इतनी पीड़ा में है.

‘‘मैं जुड़ गया हूं उस के साथ और उस का जवाब है मैं शादी के लायक ही नहीं हूं. शादी के लिए तो परिपक्वता की जरूरत होती है और मैं परिपक्व नहीं हूं.’’

‘‘यह परिपक्व होना किसे कहते हैं जरा बताना मुझे. एक तलाकशुदा औरत को मासूम समझना नासमझी है या उस के सुखदुख समझना. परिपक्व होता अगर उस की सुनाई बातों में उस का भी दोष निकालता. जिस तरह उस का पति उसे लांछित करता रहा उसी तरह मैं भी करता. क्या तभी उसे लगता मैं परिपक्व हूं? तुम्हीं समझाओ, मैं कहां चूक गया?

‘‘सामने वाले पर विश्वास कर लेना ही क्या मेरा दोष है? मेरे जैसे ही उस के और दोस्त हैं जो उस की उसी तरह से सहायता करते हैं जैसे मैं करता हूं. हम अच्छे दोस्त हैं बस…उस का कहना है हम सभी दोस्त हैं वो दूसरे भी और मैं भी.

‘‘दोस्ती के नाम पर ही क्या मैं ने हजारों खर्च कर दिए? मेरी भावनाओं को उस ने समझा नहीं होगा, इतनी नादान होगी वह ऐसा तो नहीं होगा न…वह समझदार है और मैं नासमझ.’’

श्याम की सारी गोलमोल बातें और उस की तकलीफ मेरे सामने अब आईने की तरह साफ हो चुकी थीं. मैं ने उसे समझाया, ‘‘उस से मिलनाजुलना बंद कर दो, श्याम. दूर हो जाओ तुम उस से, यही इलाज है. रिश्तों की कद्र नहीं है उस लड़की में वरना वह तुम्हारा मन नहीं दुखाती.’’

लपक कर भीतर गया श्याम और अटैची से महंगी कश्मीरी शाल निकाल लाया. उस ने यह शाल मंगाई है. 10 हजार रुपए कीमत है इस की. और यह पहली बार नहीं हुआ.

‘‘क्या वह भी तुम्हें इतने महंगे उपहार देती है?’’

‘‘पागल हो गए हो क्या? वह लड़की है सोम, मैं उस से उपहार लेता अच्छा लगूंगा क्या?’’

‘‘तो किस की कीमत वसूलती है वह तुम से. क्या तुम्हारा रिश्ता पाकसाफ है?’’

चौंक गया श्याम. मेरा सवाल था ही ऐसा कठोर. आंखें भर आईं उस की. अपलक मेरा चेहरा देखता रहा. मैं श्याम को जानता हूं. चरित्रवान है. इस ने कभी कोई लक्ष्मण रेखा नहीं लांघी होगी और अगर लांघी नहीं तो कुछ तो है जो जायज नहीं है. इतने महंगे उपहार लेने का उस लड़की को भी क्या अधिकार है. हर रिश्ते की एक गरिमा होती है. दोस्ती की अलग सीमा रेखा है और प्यार की अलग. अगर प्यार नहीं करती, किसी रिश्ते में बंधना नहीं चाहती तो इस्तेमाल भी क्यों?

श्याम का हाथ पकड़ कर भींच लिया मैं ने.

‘‘मैं जानता हूं तुम कभी गलत नहीं हो सकते. अपने प्यार का निरादर मत होने दो. वह लड़की तुम्हें डिजर्व नहीं करती. प्रकृति ने तुम्हें वैसा नहीं बनाया जैसा उसे बनाया है. तुम जितने ईमानदार हो वह उतनी ईमानदार नहीं है. उस का तलाक क्यों हुआ होगा? तलाक होने में भी कौन जाने किस का दोष है? जो सब तुम ने सुनाया है उस से तो यही समझ में आता है कि वह लड़की बंध कर रहना ही नहीं चाहती और प्यार तो बंधन चाहता है न. जो सब का हो वह किसी एक का होना नहीं चाहता और प्यार बांधना चाहता है, प्यार में जो एक का है वह सब का नहीं हो सकता है.’’

‘‘मैं क्या करूं, सोम? ऐसा लगता है लगातार ठगा जा रहा हूं. सब लुटा कर भी खाली हाथ हूं.’’

‘‘लुटना छोड़ दो श्याम, आंखें मूंद कर उस रास्ते पर मत चलो जो गहरी खाई में उतरता है. शोभना के विषय में बात कर रहे थे न तुम, उस का मीठा बोलना तुम्हें पसंद नहीं आया था. उस का अपने घर बुलाना भी तुम्हें अच्छा नहीं लगा. उस के पीछे कारण पूछ रहे थे न तुम…कारण है न. हम दोनों शादी करने वाले हैं. तुम मेरे मित्र हो और उसी नाते वह तुम्हारा मानसम्मान करना चाहती है, बस.’’ अवाक् तो होना ही था श्याम को.

‘‘पिछले डेढ़ साल से हम साथसाथ काम कर रहे हैं. मेरे हर सुखदुख मेें वह मेरा साथ देती है. जितना मैं उस के लिए करता हूं उस से कहीं ज्यादा वह मेरे लिए करती है. उपहार के नाम पर मैं ने उसे कभी कुछ भी नहीं दिया क्योंकि उसे बिना किसी रिश्ते के कुछ भी लेना पसंद नहीं. जबरदस्ती कुछ ला कर दे दूं तो वह भी कुछ वैसा ही कर के सब बराबर कर देती है क्योंकि दोस्ती में लेनादेना बराबर हो तभी सम्मानजनक लगता है…’’

‘‘हैरान हूं मैं. वह लड़की किस अधिकार से तुम्हें इतना लूट रही है और रिश्ता भी बांधना नहीं चाहती. मत करो उस से इतना प्यार और अपना प्यार इतना सस्ता मत बनाओ कि कोई उसे अपमानित कर पैरों के नीचे रौंदता चला जाए. एक रेखा खींचो, श्याम.’’

आंखें नम हो गईं श्याम की.

‘‘तुम्हारी होने वाली भाभी है शोभना और उस के कुछ गुण हैं जिन की वजह से मैं उस की इज्जत भी करता हूं. मेरी मान्यता है जब तक तुम किसी की इज्जत नहीं करते तब तक तुम उस से प्यार नहीं कर सकते. इकतरफा प्यार से आखिर कब तक निभा सकता है कोई?’’

कड़वी सी मुसकान चली आई थी श्याम के होंठों पर जिस में उस की पीड़ा मुझे साफसाफ नजर आ रही थी. लगता है कि अब वह उस लड़की का सम्मान नहीं कर पाएगा क्योंकि उस ने हाथ का कीमती शाल एक तरफ सरका दिया था… हिकारत से, मानो उसी पर अपना गुस्सा निकालना चाहता हो.

मेरा हाथ स्नेह से थाम रखा था श्याम ने. उस के हाथ की पकड़ कभी सख्त होती थी और कभी नरम. उस के भीतर का महाभारत उसे किस दिशा में धकेलेगा मैं नहीं जानता फिर भी एक उम्मीद जाग रही थी मन में. इस बार जब वह वापस जाएगा तब काफी बदल चुका होगा. अपने प्यार का, अपनी भावनाओं का सम्मान करना सीख चुका होगा.

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December 20, 2021 at 10:00AM

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