Monday 20 December 2021

दर्द का रिश्ता : भाग 3

लेखिक डा. रंजना जायसवाल

“मां, अपने कमरें में ही रहेंगी, जानती हूं पापा का आना उन्हें अच्छा नहीं लगेगा. इसलिए उन के कमरे से थोड़ा दूर ही रखा है जिस से बहुत ज्यादा आमनासामना न हो.”जब रहना एक ही घर में है तो क्या दूर क्या पास…”

“समर, समझती हूं यह सब इतना आसान नहीं है पर मैं भी क्या कर सकती हूं. मैं ने तो शादी के पहले ही…” “एक ही बात कितनी बार कहोगी…” समर न जाने क्यों झुंझला सा गया, “मां को बताया है तुम ने?”

“हां, उन से इतना कहा है कि कल पापा के पास जा रही हूं.” “और उन को साथ लाने की बात?” “नहीं.” “वही तो मैं सोचूं, आज शाम को मां इतनी चुपचुप क्यों थीं. खाना भी ठीक से नहीं खा रही थीं.” “समर, मुझे लगता है कि उन्हें अंदाजा है. आज जब मैं पापा के लिए कमरा सही कर रही थी तो आसपास ही घूम रही थीं. एक अजीब सी बेचैनी थी उन के व्यवहार में.”

 

“कुछ कहा उन्होंने?” “कहा तो कुछ भी नहीं पर उन का मौन बहुत कुछ कह रहा था. समर, मैं समझती हूं इतना आसान नहीं है यह सब पर और कोई रास्ता नहीं…मेरे फैसले में तुम हो न मेरे साथ?” अपूर्वा ने समर की आंखों में अपने प्रश्न का जवाब ढूंढ़ने की कोशिश की…समर ने अपूर्वा के चेहरे पर लटक आई अलकों को अपनी उंगलियों से पीछे करते हुए कहा,”मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं.”

रात गहराती जा रही थी. दोनों की आंखों मे नींद नहीं थी. एक अजीब सी कशमकश दोनो के मनमस्तिष्क में घूम रही थी. आने वाले दिन न जाने कैसे होंगे, अपूर्वा साधनाजी के उठने से पहले ही मायके के लिए निकल गई. शादी के बाद ऐसा शायद उस ने पहली बार किया था. घर का कोई भी सदस्य साधनाजी से कहे बिना नहीं जाता था पर न जाने क्यों एक अनजान सा डर उस को जकड़े हुआ था.

अपूर्वा मृदुलाजी के जाने के बाद पहली बार घर आई थी. लौकडाउन की वजह से एक शहर से दूसरे शहर जाना इतना आसान नहीं था. कितने हाथपैर जोड़े थे उस ने… घर के दरवाजे पर लगा तुलसी का चौरा सूख गया था. शायद अपनी देखभाल करने वाली गृहस्वामिनी के जाने का वस आज तक मातम मना रहा था. उसी के बगल में पड़ा आज का ताजा अखबार हवा में फड़फड़ा रहा था.बरामदे की लाइट अभी तक जल रही थी. अपूर्वा ने कलाई में बंधी घड़ी पर नजर डाली,’9 नौ बजे गए हैं. पापा तो 6 बजे ही जग जाते हैं फिर मौर्निंग वाक…सब ठीक है न कहीं कुछ…’

उस ने घबरा कर घंटी की तरफ हाथ बढ़ाया. उस के दिल की धड़कनें बढ़ गईं, एक अनजाने डर से उस का चेहरा पीला पड़ गया, अपूर्वा ने एक बार फिर घंटी बजाई और अपने कान दरवाजे पर चिपका कर सुनने की कोशिश करने लगी. अंदर सन्नाटे को चीरती किसी के पैरों की आहट से अपूर्वा के चेहरे पर एक सुकून पसर गया. अपूर्वा का ड्राइवर सामान रखने लगा,”भाभी, अब कब आना है?”

“दिनेश भैया, मैं आप को फोन कर के बता दूंगी. साहब से जा कर पैसे ले लीजिएगा.””अच्छा भाभी, चलता हूं.”2 बार “अच्छा भाभी चलता हूं” कहने के बाद भी दिनेश वहीं खड़ा रहा. अपूर्वा समझ गई दिनेश कुछ लिए बिना खिसकने वाला नहीं. उस ने पर्स खोला और एक कड़क 100 का नोट पकड़ा दिया. दिनेश का चेहरा चमक उठा. अपूर्वा दरवाजे की तरफ मुड़ी, शायद किसी ने सिटकनी खोली थी, इंटरलौक 3 बार खटखट कर के खुल गया. सामने दूध का भगौना लिए अजयजी खड़े थे, शायद घंटी की आवाज सुन कर ही उन की नींद खुली थी.

“कितनी बार कहा है रामलाल थोड़ी देर से आया कर, बस अभीअभी नींद लगी ही थी.”‘कितने दुबले लग रहे थे पापा…’ अपूर्वा मन ही मन बुदबुदाई… 1 महीने में अजयजी के चेहरे की वे रौनक न जाने कहां गुम हो गई थी.अपूर्वा की आंखें छलछला आईं.”अरे अप्पू तू…सब ठीक है न यों अचानक कैसे? समर और भाभीजी सब ठीक हैं न…””सब दरवाजे पर ही पूछ लेंगे या अंदर भी आने देंगे पापा…”

मृदुलाजी तसवीरों में मुसकरा रही थीं, स्वागत करने वाले हाथ बाट जोहती वे दो जोड़ी आंखें दूसरी दुनिया में जा चुकी थीं. अजयजी और मृदुलाजी की तसवीर बैठक में आज भी मुसकरा रही थी, जैसे कहना चाहती हो हम तो हमेशा साथ थे और रहेंगे.

“तू अचानक कैसे आ गई अप्पू?””पापा, अपने घर आने के लिए क्या सोचना…”अजयजी ने भरसक मुसकराने का प्रयास किया, पर वे निश्छल हंसी कहीं गुम हो गई थी. घर में एक अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था, एक ऐसा सन्नाटा जो कभी भी टूटने वाला नहीं था. अपूर्वा हमेशा की तरह आंगन के झूले में आ कर बैठ गई.कितनी यादें जुड़ी थी इस झूले से, मां इसी झूले पर बैठ कर उस को खाना खिलाया करती थीं, पापा से रूठ कर वह यहीं तो लेट जाती थी और मां अपनी गोद में उस का सर रख कर उस को कहानियां भी यहीं सुनाया करती थीं.

मां के पास उस की बात हर परेशानी का हल था. कालेज में एक लड़के ने उस के ऊपर एक भद्दा सा फिकरा कस दिया था, इसी झूले पर बैठ कर तो मां ने कितने घंटों तक उसे दुनियादारी समझाई थी.समर के विषय में जब उस ने मां को बताया था तब भी तो वे यहीं बैठी थीं.उफ्फ…अपूर्वा ने एक गहरी सांस ली.किचन की खटरपटर से वे यादों की परिधि से बाहर आ गई. अजयजी ने पानी का गिलास उस की ओर बढ़ाया,”अपूर्वा, जल्दी से हाथमुंह धो ले, मैं तेरे लिए बढ़िया चाय बनाता हूं. तुम ने पहले नहीं बताया वरना मैं कमला को जल्दी बुला लेता वह तो दोपहर के खाने के समय ही आएगी.”

“और नाश्ता?””नाश्ता… नाश्ते का क्या है, कभी ओट्स, कभी कौर्नफ्लैक्स खा लेता हूं.””पर पापा आप को तो यह सब…”

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लेखिक डा. रंजना जायसवाल

“मां, अपने कमरें में ही रहेंगी, जानती हूं पापा का आना उन्हें अच्छा नहीं लगेगा. इसलिए उन के कमरे से थोड़ा दूर ही रखा है जिस से बहुत ज्यादा आमनासामना न हो.”जब रहना एक ही घर में है तो क्या दूर क्या पास…”

“समर, समझती हूं यह सब इतना आसान नहीं है पर मैं भी क्या कर सकती हूं. मैं ने तो शादी के पहले ही…” “एक ही बात कितनी बार कहोगी…” समर न जाने क्यों झुंझला सा गया, “मां को बताया है तुम ने?”

“हां, उन से इतना कहा है कि कल पापा के पास जा रही हूं.” “और उन को साथ लाने की बात?” “नहीं.” “वही तो मैं सोचूं, आज शाम को मां इतनी चुपचुप क्यों थीं. खाना भी ठीक से नहीं खा रही थीं.” “समर, मुझे लगता है कि उन्हें अंदाजा है. आज जब मैं पापा के लिए कमरा सही कर रही थी तो आसपास ही घूम रही थीं. एक अजीब सी बेचैनी थी उन के व्यवहार में.”

 

“कुछ कहा उन्होंने?” “कहा तो कुछ भी नहीं पर उन का मौन बहुत कुछ कह रहा था. समर, मैं समझती हूं इतना आसान नहीं है यह सब पर और कोई रास्ता नहीं…मेरे फैसले में तुम हो न मेरे साथ?” अपूर्वा ने समर की आंखों में अपने प्रश्न का जवाब ढूंढ़ने की कोशिश की…समर ने अपूर्वा के चेहरे पर लटक आई अलकों को अपनी उंगलियों से पीछे करते हुए कहा,”मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं.”

रात गहराती जा रही थी. दोनों की आंखों मे नींद नहीं थी. एक अजीब सी कशमकश दोनो के मनमस्तिष्क में घूम रही थी. आने वाले दिन न जाने कैसे होंगे, अपूर्वा साधनाजी के उठने से पहले ही मायके के लिए निकल गई. शादी के बाद ऐसा शायद उस ने पहली बार किया था. घर का कोई भी सदस्य साधनाजी से कहे बिना नहीं जाता था पर न जाने क्यों एक अनजान सा डर उस को जकड़े हुआ था.

अपूर्वा मृदुलाजी के जाने के बाद पहली बार घर आई थी. लौकडाउन की वजह से एक शहर से दूसरे शहर जाना इतना आसान नहीं था. कितने हाथपैर जोड़े थे उस ने… घर के दरवाजे पर लगा तुलसी का चौरा सूख गया था. शायद अपनी देखभाल करने वाली गृहस्वामिनी के जाने का वस आज तक मातम मना रहा था. उसी के बगल में पड़ा आज का ताजा अखबार हवा में फड़फड़ा रहा था.बरामदे की लाइट अभी तक जल रही थी. अपूर्वा ने कलाई में बंधी घड़ी पर नजर डाली,’9 नौ बजे गए हैं. पापा तो 6 बजे ही जग जाते हैं फिर मौर्निंग वाक…सब ठीक है न कहीं कुछ…’

उस ने घबरा कर घंटी की तरफ हाथ बढ़ाया. उस के दिल की धड़कनें बढ़ गईं, एक अनजाने डर से उस का चेहरा पीला पड़ गया, अपूर्वा ने एक बार फिर घंटी बजाई और अपने कान दरवाजे पर चिपका कर सुनने की कोशिश करने लगी. अंदर सन्नाटे को चीरती किसी के पैरों की आहट से अपूर्वा के चेहरे पर एक सुकून पसर गया. अपूर्वा का ड्राइवर सामान रखने लगा,”भाभी, अब कब आना है?”

“दिनेश भैया, मैं आप को फोन कर के बता दूंगी. साहब से जा कर पैसे ले लीजिएगा.””अच्छा भाभी, चलता हूं.”2 बार “अच्छा भाभी चलता हूं” कहने के बाद भी दिनेश वहीं खड़ा रहा. अपूर्वा समझ गई दिनेश कुछ लिए बिना खिसकने वाला नहीं. उस ने पर्स खोला और एक कड़क 100 का नोट पकड़ा दिया. दिनेश का चेहरा चमक उठा. अपूर्वा दरवाजे की तरफ मुड़ी, शायद किसी ने सिटकनी खोली थी, इंटरलौक 3 बार खटखट कर के खुल गया. सामने दूध का भगौना लिए अजयजी खड़े थे, शायद घंटी की आवाज सुन कर ही उन की नींद खुली थी.

“कितनी बार कहा है रामलाल थोड़ी देर से आया कर, बस अभीअभी नींद लगी ही थी.”‘कितने दुबले लग रहे थे पापा…’ अपूर्वा मन ही मन बुदबुदाई… 1 महीने में अजयजी के चेहरे की वे रौनक न जाने कहां गुम हो गई थी.अपूर्वा की आंखें छलछला आईं.”अरे अप्पू तू…सब ठीक है न यों अचानक कैसे? समर और भाभीजी सब ठीक हैं न…””सब दरवाजे पर ही पूछ लेंगे या अंदर भी आने देंगे पापा…”

मृदुलाजी तसवीरों में मुसकरा रही थीं, स्वागत करने वाले हाथ बाट जोहती वे दो जोड़ी आंखें दूसरी दुनिया में जा चुकी थीं. अजयजी और मृदुलाजी की तसवीर बैठक में आज भी मुसकरा रही थी, जैसे कहना चाहती हो हम तो हमेशा साथ थे और रहेंगे.

“तू अचानक कैसे आ गई अप्पू?””पापा, अपने घर आने के लिए क्या सोचना…”अजयजी ने भरसक मुसकराने का प्रयास किया, पर वे निश्छल हंसी कहीं गुम हो गई थी. घर में एक अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था, एक ऐसा सन्नाटा जो कभी भी टूटने वाला नहीं था. अपूर्वा हमेशा की तरह आंगन के झूले में आ कर बैठ गई.कितनी यादें जुड़ी थी इस झूले से, मां इसी झूले पर बैठ कर उस को खाना खिलाया करती थीं, पापा से रूठ कर वह यहीं तो लेट जाती थी और मां अपनी गोद में उस का सर रख कर उस को कहानियां भी यहीं सुनाया करती थीं.

मां के पास उस की बात हर परेशानी का हल था. कालेज में एक लड़के ने उस के ऊपर एक भद्दा सा फिकरा कस दिया था, इसी झूले पर बैठ कर तो मां ने कितने घंटों तक उसे दुनियादारी समझाई थी.समर के विषय में जब उस ने मां को बताया था तब भी तो वे यहीं बैठी थीं.उफ्फ…अपूर्वा ने एक गहरी सांस ली.किचन की खटरपटर से वे यादों की परिधि से बाहर आ गई. अजयजी ने पानी का गिलास उस की ओर बढ़ाया,”अपूर्वा, जल्दी से हाथमुंह धो ले, मैं तेरे लिए बढ़िया चाय बनाता हूं. तुम ने पहले नहीं बताया वरना मैं कमला को जल्दी बुला लेता वह तो दोपहर के खाने के समय ही आएगी.”

“और नाश्ता?””नाश्ता… नाश्ते का क्या है, कभी ओट्स, कभी कौर्नफ्लैक्स खा लेता हूं.””पर पापा आप को तो यह सब…”

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December 17, 2021 at 10:00AM

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