Monday 27 December 2021

कोरा कागज: भाग 5- आखिर कोरे कागज पर किस ने कब्जा किया

Writer- साहिना टंडन

बात खत्म करने की नीयत से रितेश उठा और बोला, “चल यार चलता हूं, होटल में कमरा लिया हुआ है. रात वही रुकूंगा. कल 12 बजे की फ्लाइट है वापसी की.”

“शर्म नाम की चीज नहीं है तुझ में, अपना घर होते हुए भी क्या कोई होटल में रुकता है. यहां रुक रहा है तू. अब इस के आगे कोई एक्सक्यूज नहीं देना. तू बैठ, मैं अभी आता हूं,” कह कर राजन अपने कमरे की ओर चला गया.

रातभर रितेश करवटें बदलता रहा. सवेरे सवा 5 बजे के करीब वह बाहर निकला तो देखा देविका लौन में पानी दे रही थी. रितेश उसी ओर चला गया.

“गुड मौर्निंग.”

“तुम यहां कैसे?”

“तुम से कुछ बात करनी है.”

“कुछ बात नहीं बची है करने के लिए. अब वक्त बदल चुका है.”

“नहीं देविका, जो वक्त हम जीना चाहते हैं, वो कभी नहीं बदलता. बदलते तो हम खुद हैं, क्योंकि खुद

को परिस्थितियों के अनुसार ढाल लेते हैं. आओ, मेरे साथ उधर बैठें, आज बहुत कुछ है तुम्हें बताने

के लिए.”

ना जाने किस भावना के वशीभूत हो कर देविका उस के पीछे चल दी.

कोने में रखी कुरसियों पर दोनों बैठ गए. रितेश ने बोलना शुरू किया. जिस दिन तुम्हें पहली बार

देखा था, उसी दिन से दिल से अपना मान लिया था तुम्हें, पर इजहार करने का न तो कोई मौका मिला और ना ही हिम्मत पड़ी. या यों कहूं कि चाह कर भी मना न कर सका.

“क्यों…?” देविका जैसे शून्य में देखती हुई बोली.

“शायद तुम्हें पता नहीं है कि मेरी बड़ी बहन अनु दी, जो सीमा बूआ के पास है, वो चलनेफिरने में असमर्थ है. उन के जन्म के समय मम्मी जैसे मौत के मुंह से बाहर आई थीं. कितने ही हफ्ते वे बिस्तर में ही रहीं, तभी से अनु दी बूआ के पास ही पलीबढ़ी है और मम्मी जब घर आई थीं, तब भी वे बेहद कमजोर थीं. उन्हे स्वयं देखभाल की सख्त जरूरत थी. ऐसे में अनु दी का ध्यान रखने में वे असक्षम थीं.”

ये भी पढ़ें- थैंक्यू अंजलि: क्यों अपनी सास के लिए फिक्रमंद हो गई अंजलि

देविका पूरे ध्यान से उस की बात सुन रही थी.

वह अकेली थी और अनु दी से उन का लगाव अब एक मां से ज्यादा हो चला था. ऐसे में हालात को देखते हुए बूआ ने अनु दी को अपने साथ ले जाना चाहा, तो मम्मीपापा मना ना कर सके.

वक्त के साथ भी मां कमजोरी से उबर नहीं पा रही थीं. उन के इलाज का खर्चा और अन्य खर्चों ने जैसे पापा को समय से पहले कमजोर कर दिया हो. धीरेधीरे मम्मी की तबीयत में सुधार हुआ, फिर मेरे जन्म

के कुछ वर्ष बाद मम्मीपापा पुराना शहर छोड़ कर यहां आ गए. यहां की जलवायु मम्मी को रास आ गई थी. सभी कुछ सुचारु रूप से चलने लगा. पापा की दुकान भी यहां जम गई थी कि उन्हीं दिनों पापा को पहला दिल का दौरा पड़ा. जान बच गई थी उन की, पर डाक्टरों के हिसाब से अब उन का दिल बेहद कमजोर हो चुका था. अपने कालेज के फौरन बाद मैं ने उन का सारा काम संभाल लिया था.

तभी तुम से मुलाकात हुई. जो थोड़ाबहुत भी तुम्हें जाना, वही बहुत था मेरे लिए. तुम्हारे लिए प्यार

बढ़ता ही जा रहा था. तब तो और भी भर गया, जब चाय नमकीन मिली,” रितेश उस की ओर देख कर धीमे से हंस पड़ा.

देविका की आंखों से जैसे आंसुओं की झड़ी बह निकली.

एक दिन बूआ का फोन आया कि अनु दी की तबीयत खराब हो गई है, उन्हे वहां अस्पताल में एडमिट करवाया गया था. मम्मी और मैं गए थे बूआ के घर, तब वहां जा कर पता लगा कि अनु दी की तबीयत संभल चुकी है और उन्हें डिस्चार्ज कर रहे हैं. तब बहुत मुश्किल से मैं तुम्हारी शादी वाली रात तक पहुंच सका था, सिर्फ राजन की वजह से.

“पर, पापा को जैसे आते वक्त के कुछ ऐसे एहसास हो चुके थे. एक दिन अनु दी को देखने की इच्छा के साथ ही उन्होंने प्राण त्याग दिए, फिर तो मम्मी का भी यहां रहना बहुत मुश्किल हो चला था.”

रितेश कुरसी से उठ खड़ा हुआ, कुछ कदम चला और फिर दोबारा बैठा. देविका दम साधे उसे ही देख रही

थी. एक गहरी सांस लेने के बाद रितेश ने दोबारा कहना शुरू किया, “फिर तो आगे जो हुआ तुम्हें पता ही है. अब मम्मी भी यहां रहना नहीं चाह रही थी, तो जल्दी हम यहां से चले गए. वहां पहुंचने पर देखा कि अनु दी काफी कमजोर लग रही थी, बहुत इलाज के बाद भी साल बीते ना बीते वह हम

सब को छोड़ कर चली गई.

देविका की जबान जैसे तालू से चिपक गई हो, “रितेश” बमुश्किल उस के मुंह से निकला.

इस अनहोनी घटना के बाद मैं ने एक छोटी सी कंपनी में नौकरी कर ली. अनुभव बढ़ता गया और अब बीते वर्ष से एक बड़ी कंपनी में मैनेजर के पद पर हूं. इस शहर में आने का मौका मिला तो भला तुम लोगों से मिले बिना कैसे रहता.

देविका अब भी नि:शब्द ही थी.

“देविका, अनजाने में ही सही, कभी तुम्हारा दिल दुखाया हो तो माफ कर देना मुझे. पर, सच तो यही

है कि सदा तुम्हें ही चाहा है. यहां अब और ज्यादा नहीं रुक पाऊंगा. फौरन ही निकल रहा हूं. मोबाइल अभी बंद ही रखूंगा. प्लीज, राजन को तुम संभाल लेना. अच्छा, चलता हूं.”

कुछ भी ना कह सकी देविका, बस उसे जाता हुआ देखती रही.

“क्यों होता है ऐसा, क्यों जो हम चाहते हैं वही हमें नहीं मिलता. काश, सब वैसा ही होता जैसा वह चाहती थी.”

प्लेन टेक औफ हो चुका था. कुछ देर बाद रितेश की नजर खिड़की से बाहर गई. जिस तरह सब धुंधला होता जा रहा था, हर शै जैसे छोटी होतेहोते आंखों से ओझल हो रही थी. काश, इनसानी जिंदगी भी वैसा ही होती. काश, अतीत को भूल कर ऊपर उठ जाना इतना ही आसान होता.

राजन उस के जाने की बात सुन कर कुछ व्यक्त ना कर सका. वह जानता था कि रितेश यहां ज्यादा ना रुक पाएगा. देविका से आमनासामना उसे सहेज ना होने देगा.

काश, राजन के जीवन से उस की सुहागरात निकल जाती. जब उस ने अर्धबेहोशी की अवस्था में देविका के मुंह से रितेश का नाम सुना था.

“मेरा खत कहां गया, रितेश तुम क्यों मुझे छोड़ कर चले गए, आई लव यू रितेश,” यह सुन कर राजन के कानों के पास जैसे कोई जोरदार धमाका हुआ हो.

उस के दिमाग में खत का पूरा नजारा घूम गया. खत में सिर्फ “R” लिखा था. ‘ओह’ तो वह खत

रितेश के लिए था और उस ने समझा कि उस के लिए है. काश, वह यह सच ना जान पाता.

यह एक ‘काश’ सदा के लिए उन तीनों की जिंदगियों में घर कर गया था, पर परिस्थितियों के चलते

जिस ने जो किया वही सही साबित हुआ.

यह सच है कि ‘काश’ ही जीवन का वह भाव है, जिस के जरीए सपने बुने भी जाते हैं और टूट भी जाते हैं, पर जीवन का दूसरा सब से बड़ा सच यह है कि हमें

ये भी पढ़ें- एक रिश्ता एहसास का

हकीकत के धरातल पर हंसतेमुसकराते हुए ही चलना होगा. पथरीले रास्तों में आने वाली कठिनाइयों

और चुनौतियों को महज वक्ती अवरोध समझ कर सामना करना होगा. यही जीवन की सचाई है.

जीवन तो एक ऐसे ‘कोरे कागज’ के समान है, जिस की प्रत्येक इबारत हम स्वयं लिखते हैं. स्वयं चुनाव करते हैं कि किस राह पर यह जीवन सफर तय करना है और कौन इस में हमसफर बनेगा.

मंजिल यकीनन हमारे अनुरूप ही आकार लेगी. बस, इसी विश्वास की जड़ें जमानी होंगी.

एयर होस्टेस ने रितेश के पास जा कर चाय के लिए पूछा.

“चीनी नहीं, एक चम्मच नमक,” रितेश ने हंसते हुए कहा.

“जी, क्या…?” सुन कर वह चौंक पड़ी और रितेश खुल कर हंस पड़ा.

इधर देविका अपूर्व की खास फरमाइश पर आलू का परांठा बनाने रसोई में चली गई और राजन तो

बारबार रितेश को फोन मिला रहा था.

“अरे, तुम देर से सो कर उठे हो. वह तो अभी फ्लाइट में होंगे. कुछ देर बाद फोन मिला लेना,” देविका

ने कहा.

“अब फोन क्या मिलाना, अगले हफ्ते हम भी चलते हैं ना. एक सरप्राइज लता आंटी को हम भी दे देते हैं और इस बार पक्का इस की शादी का जश्न मना कर ही लौटेंगे. क्यों ठीक है ना.”

राजन के इस सवाल का जवाब देविका ने एक निश्चल मुसकराहट के साथ ‘हां’ के इशारे में सिर हिला

कर दिया.

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Writer- साहिना टंडन

बात खत्म करने की नीयत से रितेश उठा और बोला, “चल यार चलता हूं, होटल में कमरा लिया हुआ है. रात वही रुकूंगा. कल 12 बजे की फ्लाइट है वापसी की.”

“शर्म नाम की चीज नहीं है तुझ में, अपना घर होते हुए भी क्या कोई होटल में रुकता है. यहां रुक रहा है तू. अब इस के आगे कोई एक्सक्यूज नहीं देना. तू बैठ, मैं अभी आता हूं,” कह कर राजन अपने कमरे की ओर चला गया.

रातभर रितेश करवटें बदलता रहा. सवेरे सवा 5 बजे के करीब वह बाहर निकला तो देखा देविका लौन में पानी दे रही थी. रितेश उसी ओर चला गया.

“गुड मौर्निंग.”

“तुम यहां कैसे?”

“तुम से कुछ बात करनी है.”

“कुछ बात नहीं बची है करने के लिए. अब वक्त बदल चुका है.”

“नहीं देविका, जो वक्त हम जीना चाहते हैं, वो कभी नहीं बदलता. बदलते तो हम खुद हैं, क्योंकि खुद

को परिस्थितियों के अनुसार ढाल लेते हैं. आओ, मेरे साथ उधर बैठें, आज बहुत कुछ है तुम्हें बताने

के लिए.”

ना जाने किस भावना के वशीभूत हो कर देविका उस के पीछे चल दी.

कोने में रखी कुरसियों पर दोनों बैठ गए. रितेश ने बोलना शुरू किया. जिस दिन तुम्हें पहली बार

देखा था, उसी दिन से दिल से अपना मान लिया था तुम्हें, पर इजहार करने का न तो कोई मौका मिला और ना ही हिम्मत पड़ी. या यों कहूं कि चाह कर भी मना न कर सका.

“क्यों…?” देविका जैसे शून्य में देखती हुई बोली.

“शायद तुम्हें पता नहीं है कि मेरी बड़ी बहन अनु दी, जो सीमा बूआ के पास है, वो चलनेफिरने में असमर्थ है. उन के जन्म के समय मम्मी जैसे मौत के मुंह से बाहर आई थीं. कितने ही हफ्ते वे बिस्तर में ही रहीं, तभी से अनु दी बूआ के पास ही पलीबढ़ी है और मम्मी जब घर आई थीं, तब भी वे बेहद कमजोर थीं. उन्हे स्वयं देखभाल की सख्त जरूरत थी. ऐसे में अनु दी का ध्यान रखने में वे असक्षम थीं.”

ये भी पढ़ें- थैंक्यू अंजलि: क्यों अपनी सास के लिए फिक्रमंद हो गई अंजलि

देविका पूरे ध्यान से उस की बात सुन रही थी.

वह अकेली थी और अनु दी से उन का लगाव अब एक मां से ज्यादा हो चला था. ऐसे में हालात को देखते हुए बूआ ने अनु दी को अपने साथ ले जाना चाहा, तो मम्मीपापा मना ना कर सके.

वक्त के साथ भी मां कमजोरी से उबर नहीं पा रही थीं. उन के इलाज का खर्चा और अन्य खर्चों ने जैसे पापा को समय से पहले कमजोर कर दिया हो. धीरेधीरे मम्मी की तबीयत में सुधार हुआ, फिर मेरे जन्म

के कुछ वर्ष बाद मम्मीपापा पुराना शहर छोड़ कर यहां आ गए. यहां की जलवायु मम्मी को रास आ गई थी. सभी कुछ सुचारु रूप से चलने लगा. पापा की दुकान भी यहां जम गई थी कि उन्हीं दिनों पापा को पहला दिल का दौरा पड़ा. जान बच गई थी उन की, पर डाक्टरों के हिसाब से अब उन का दिल बेहद कमजोर हो चुका था. अपने कालेज के फौरन बाद मैं ने उन का सारा काम संभाल लिया था.

तभी तुम से मुलाकात हुई. जो थोड़ाबहुत भी तुम्हें जाना, वही बहुत था मेरे लिए. तुम्हारे लिए प्यार

बढ़ता ही जा रहा था. तब तो और भी भर गया, जब चाय नमकीन मिली,” रितेश उस की ओर देख कर धीमे से हंस पड़ा.

देविका की आंखों से जैसे आंसुओं की झड़ी बह निकली.

एक दिन बूआ का फोन आया कि अनु दी की तबीयत खराब हो गई है, उन्हे वहां अस्पताल में एडमिट करवाया गया था. मम्मी और मैं गए थे बूआ के घर, तब वहां जा कर पता लगा कि अनु दी की तबीयत संभल चुकी है और उन्हें डिस्चार्ज कर रहे हैं. तब बहुत मुश्किल से मैं तुम्हारी शादी वाली रात तक पहुंच सका था, सिर्फ राजन की वजह से.

“पर, पापा को जैसे आते वक्त के कुछ ऐसे एहसास हो चुके थे. एक दिन अनु दी को देखने की इच्छा के साथ ही उन्होंने प्राण त्याग दिए, फिर तो मम्मी का भी यहां रहना बहुत मुश्किल हो चला था.”

रितेश कुरसी से उठ खड़ा हुआ, कुछ कदम चला और फिर दोबारा बैठा. देविका दम साधे उसे ही देख रही

थी. एक गहरी सांस लेने के बाद रितेश ने दोबारा कहना शुरू किया, “फिर तो आगे जो हुआ तुम्हें पता ही है. अब मम्मी भी यहां रहना नहीं चाह रही थी, तो जल्दी हम यहां से चले गए. वहां पहुंचने पर देखा कि अनु दी काफी कमजोर लग रही थी, बहुत इलाज के बाद भी साल बीते ना बीते वह हम

सब को छोड़ कर चली गई.

देविका की जबान जैसे तालू से चिपक गई हो, “रितेश” बमुश्किल उस के मुंह से निकला.

इस अनहोनी घटना के बाद मैं ने एक छोटी सी कंपनी में नौकरी कर ली. अनुभव बढ़ता गया और अब बीते वर्ष से एक बड़ी कंपनी में मैनेजर के पद पर हूं. इस शहर में आने का मौका मिला तो भला तुम लोगों से मिले बिना कैसे रहता.

देविका अब भी नि:शब्द ही थी.

“देविका, अनजाने में ही सही, कभी तुम्हारा दिल दुखाया हो तो माफ कर देना मुझे. पर, सच तो यही

है कि सदा तुम्हें ही चाहा है. यहां अब और ज्यादा नहीं रुक पाऊंगा. फौरन ही निकल रहा हूं. मोबाइल अभी बंद ही रखूंगा. प्लीज, राजन को तुम संभाल लेना. अच्छा, चलता हूं.”

कुछ भी ना कह सकी देविका, बस उसे जाता हुआ देखती रही.

“क्यों होता है ऐसा, क्यों जो हम चाहते हैं वही हमें नहीं मिलता. काश, सब वैसा ही होता जैसा वह चाहती थी.”

प्लेन टेक औफ हो चुका था. कुछ देर बाद रितेश की नजर खिड़की से बाहर गई. जिस तरह सब धुंधला होता जा रहा था, हर शै जैसे छोटी होतेहोते आंखों से ओझल हो रही थी. काश, इनसानी जिंदगी भी वैसा ही होती. काश, अतीत को भूल कर ऊपर उठ जाना इतना ही आसान होता.

राजन उस के जाने की बात सुन कर कुछ व्यक्त ना कर सका. वह जानता था कि रितेश यहां ज्यादा ना रुक पाएगा. देविका से आमनासामना उसे सहेज ना होने देगा.

काश, राजन के जीवन से उस की सुहागरात निकल जाती. जब उस ने अर्धबेहोशी की अवस्था में देविका के मुंह से रितेश का नाम सुना था.

“मेरा खत कहां गया, रितेश तुम क्यों मुझे छोड़ कर चले गए, आई लव यू रितेश,” यह सुन कर राजन के कानों के पास जैसे कोई जोरदार धमाका हुआ हो.

उस के दिमाग में खत का पूरा नजारा घूम गया. खत में सिर्फ “R” लिखा था. ‘ओह’ तो वह खत

रितेश के लिए था और उस ने समझा कि उस के लिए है. काश, वह यह सच ना जान पाता.

यह एक ‘काश’ सदा के लिए उन तीनों की जिंदगियों में घर कर गया था, पर परिस्थितियों के चलते

जिस ने जो किया वही सही साबित हुआ.

यह सच है कि ‘काश’ ही जीवन का वह भाव है, जिस के जरीए सपने बुने भी जाते हैं और टूट भी जाते हैं, पर जीवन का दूसरा सब से बड़ा सच यह है कि हमें

ये भी पढ़ें- एक रिश्ता एहसास का

हकीकत के धरातल पर हंसतेमुसकराते हुए ही चलना होगा. पथरीले रास्तों में आने वाली कठिनाइयों

और चुनौतियों को महज वक्ती अवरोध समझ कर सामना करना होगा. यही जीवन की सचाई है.

जीवन तो एक ऐसे ‘कोरे कागज’ के समान है, जिस की प्रत्येक इबारत हम स्वयं लिखते हैं. स्वयं चुनाव करते हैं कि किस राह पर यह जीवन सफर तय करना है और कौन इस में हमसफर बनेगा.

मंजिल यकीनन हमारे अनुरूप ही आकार लेगी. बस, इसी विश्वास की जड़ें जमानी होंगी.

एयर होस्टेस ने रितेश के पास जा कर चाय के लिए पूछा.

“चीनी नहीं, एक चम्मच नमक,” रितेश ने हंसते हुए कहा.

“जी, क्या…?” सुन कर वह चौंक पड़ी और रितेश खुल कर हंस पड़ा.

इधर देविका अपूर्व की खास फरमाइश पर आलू का परांठा बनाने रसोई में चली गई और राजन तो

बारबार रितेश को फोन मिला रहा था.

“अरे, तुम देर से सो कर उठे हो. वह तो अभी फ्लाइट में होंगे. कुछ देर बाद फोन मिला लेना,” देविका

ने कहा.

“अब फोन क्या मिलाना, अगले हफ्ते हम भी चलते हैं ना. एक सरप्राइज लता आंटी को हम भी दे देते हैं और इस बार पक्का इस की शादी का जश्न मना कर ही लौटेंगे. क्यों ठीक है ना.”

राजन के इस सवाल का जवाब देविका ने एक निश्चल मुसकराहट के साथ ‘हां’ के इशारे में सिर हिला

कर दिया.

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December 26, 2021 at 10:29AM

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