Sunday 12 December 2021

उल्टा पासा : भाग 1

लेखक-कुशलेंद्र श्रीवास्तव

कंजूस सेठ अपने कर्मचारियों को हमेशा कड़की का हवाला दे कर कम तनख्वाह देता पर लौकडाउन के चलते मुनीम की पत्नी सुमन ने ऐसा पासा फेंका कि सेठजी का सारा कांइयांपन रखा रह गया.

वैसे तो मुनीमजी हर दिन शाम को अपने घर लौटते समय सेठजी को दिनभर का सारा हिसाब सम?ा, रुपए उन्हें दे कर और साथ में तिजोरी की चाबी उन की गद्दी के पास रख कर आते थे पर आज वे ऐसा कर नहीं पाए थे.

एक तो जब मुनीमजी घर लौट रहे थे, तब सेठजी दुकान पर थे नहीं और दूसरे, आज वे भी वसूली के लिए गए हुए थे. वसूली करतेकरते उन्हें शाम हो गई थी. इस जल्दबाजी में वे न तो रुपए तिजोरी में रख पाए और न ही तिजोरी की चाबी सेठजी को दे पाए. रुपए काफी ज्यादा थे. इतने रुपए वे दुकान पर देखते तो रोज ही थे पर अपने घर में वे पहली बार देख रहे थे. उन का दिल जोरों से धड़क रहा था. उन्होंने सारे रुपए अपनी अलमारी में किताबों के नीचे रख दिए थे.

‘किसी को क्या मालूम कि इस टूटी हुई अलमारी में किताबों के नीचे रुपए होंगे,’ यह सोच कर मुनीमजी ने गहरी सांस ली. उन के सामने सेठजी का कांइयां चेहरा घूम गया.यदि सेठजी को मालूम होता कि उन के पास इतने सारे रुपए हैं तो वे उसे कभी भी अपनी दुकान से हिलने तक न देते.

सेठजी एक नंबर के कंजूस हैं. पैसा बचाने के चक्कर में वे अपने काम करने वाले मजदूरों तक से भी ?ाठ बोल जाते हैं. ‘देख भई, तू ने इस हफ्ते 4 दिन ही काम किया है तो उतने ही दिन के पैसे मिलेंगे.’

‘नहीं हुजूर, मैं ने तो 5 दिन काम किया है. आप ध्यान कीजिए. आप को याद आ जाएगा,’ मजदूर गिड़गिड़ाते हुए कहता, पर वे उस की ओर देखते तक नहीं थे.‘जब मैं ने कह दिया कि काम 4 दिन ही किया है तो किया है. कोई चिकल्लस नहीं चाहिए.’

ऐसा कहते हुए वे नोटों को गिनने में लगे रहते.‘नहीं माईबाप, आप को ध्यान नहीं आ रहा है, मैं ने 5 दिन काम किया है.’‘क्यों मुनीमजी, इस ने कितने दिन काम किया है, जरा बताओ?’मुनीमजी को सेठजी आंख से इशारा करते. मुनीमजी न चाहते हुए भी सेठजी की हां में हां मिलाते.मु?ो तो अब याद नहीं. पर, सेठजी कह रहे हैं तो 4 दिन ही काम किया होगा.’

मुनीमजी की नजरें सफेद ?ाठ बोलने के कारण नीचे ?ाक जातीं. वे चाह कर भी सेठजी से पंगा नहीं ले सकते थे. अच्छीभली नौकरी है. इस आमदनी से ही तो परिवार पल रहा है. यदि उस ने सेठजी की हां में हां न मिलाई तो वे उसे ही नौकरी से निकाल देंगे. पर सच कहो तो उन का जमीर ऐसे ?ाठ बोलने पर उन को ही शर्मिंदा कर देता था.

सेठजी के पास इतने रुपए हैं पर औलाद के नाम पर एक बिगड़ैल बेटा है, बस. फिर भी सेठजी की तृष्णा खत्म नहीं हो रही थी. वे एक मजदूर तक की मजदूरी के पैसे काट लेते हैं.यह सोच कर मुनीमजी का मन नफरत से भर जाता. पर, वे मजबूर थे.

मजदूर मुनीमजी की हां सुन कर चुप हो जाता. उसे सेठजी से ज्यादा भरोसा मुनीमजी पर था. जब मुनीमजी ने ही हां बोल दिया तो अब उस की रहीसही आस भी खत्म हो गई.‘सेठजी पिछले सप्ताह भी आप ने एक दिन की मजूरी ऐसे ही काट ली थी. अब आप रोज लिख लिया करें, ताकि हिसाब में गड़बड़ न हो.’

मजूदर को अपनी एक दिन की मजूरी काटे जाने की पीड़ा हो रही थी, जो उस के माथे पर उभर आई थी.मुनीमजी तिरछी निगाहों से उस मजदूर की ओर देखते, ‘मु?ो माफ करना भाई.’ उन के चेहरे पर भी दर्द उभर आता.

मजदूर मन ही मन कुछ बोलता सा बाहर निकल जाता और सेठजी कुटिल मुसकान लिए काम पर लग जाते.मुनीमजी सेठजी के यहां सालों से काम कर रहे हैं. मुनीमी का काम करते रहने के कारण ही उन का नाम ही मुनीम हो गया है.वैसे तो उन का नाम विजय है, पर उन का असली नाम थोड़ेबहुत लोगों को ही पता था. वे खुद अपना असली नाम भूल चुके थे. यदि उन्हें कोई विजय नाम से पुकार ले तो वे उस की ओर देखते तक नहीं.

मुनीमजी दिनभर सेठजी की दुकान पर बैठ कर काम करते रहते. वैसे तो उन का काम केवल हिसाबकिताब रखना होना चाहिए था, पर वे सेठजी का सारा काम करते.‘अरे दुकान के हिसाबकिताब में कितना टाइम लगता है. बाकी समय तुम क्या करोगे, सो दुकान के बाकी काम भी किया करो,’ सेठजी ने शुरू में ही मुनीमजी से बोल दिया था.

‘पर सेठजी, हिसाबकिताब का काम कितना महत्त्वपूर्ण होता है, आप नहीं जानते क्या. मैं दूसरे कामों में लग गया तो हिसाबकिताब में गड़बड़ भी हो सकती है,’ मुनीमजी ने सेठजी की ओर पासा फेंका.‘नहीं भाई, मु?ो हिसाबकिताब में कोई गड़बड़ नहीं चाहिए पर ऐसा सम?ा लो कि दुकान पर जो कुछ भी काम हो रहा है, वह तुम्हारे हिसाबकिताब का ही तो काम है. तुम्हें यह पता होना चाहिए कि कौन सा सामान बिक चुका है और उसे कितना मंगवाना है तो यह तुम्हारा ही काम हुआ न.’

‘इस के लिए तो मैनेजर रखा जाता है, सेठजी.’‘उस को भी तो पैसे देने पड़ेंगे. मैं सारे पैसे ऐसे ही कर्मचारियों पर लुटाता रहूंगा तो मु?ो बचेगा क्या?’ सेठजी के चेहरे पर नाराजगी के भाव उभर रहे थे.मुनीमजी खामोश हो गए. उन्हें खामोश देख सेठजी ने एक अंतिम बाण और छोड़ दिया, ‘अच्छा रहने दो, तुम से न हो पाएगा. मैं ऐसा मुनीम रख लेता हूं जो यह सारा काम भी कर सके.’एकाएक सेठजी के चेहरे से विनम्रता गायब हो गई. उन का चेहरा पथरीला दिखाई देने लगा. मुनीमजी को लगा कि उन की नौकरी खतरे में पड़ रही है. सो, वे मान गए. उन के पास और कोई चारा भी तो न था.

सेठजी के चेहरे पर कुटिल मुसकान खिल गई. मुनीमजी सेठ की चाल में फंस चुके थे. अब वे वेतन तो केवल मुनीमी का लेते थे, पर काम मुनीमी और मैनेजर दोनों का करते थे. उन्हें दुकान पर आते ही सारी दुकान का सामान चैक करना होता, फिर नए सामान का और्डर देना होता, कितने मजूदर काम कर रहे हैं, उस का भी हिसाबकिताब रखना होता.

सेठजी ने तो उन्हें अपने घर का भी काम सौंप दिया था. वे उन के बच्चे की कौपीकिताब से ले कर स्कूल की फीस तक का हिसाब रखते, उन की पत्नी की जरूरतों का भी ध्यान रखते. घर में क्याक्या सामान चाहिए, इस का ध्यान रखना भी उन की ही जिम्मेदारी में आ चुका था.

मुनीमजी का काम अब बढ़ चुका था. वे दिनभर चकरी बने रहते और शाम को दिनभर का हिसाब करते, खाताबही लिखते, सेठजी को रुपए गिनवा कर तिजोरी में रखते. इन रुपयों को दूसरे दिन बैंक में जमा करने का काम भी उन का ही रहता. वे बैंक की परची सेठजी को दिखाते, फिर उसे अपनी फाइल में रख देते.

सेठजी अपने रिश्तेदारों को भी नहीं छोड़ते थे, कहते, ‘अरे भैया, पैसों से कोई रिश्तेदारी नहीं. बगैर पैसों से रिश्ता रखना है तो रखो, वरना रामराम.’

उन्होंने मुनीमजी को भी हिदायत दे रखी थी, ‘देख भाई, मेरा कोई रिश्तेदार नहीं है. रिश्तेदार ही क्यों, मेरी बीवी भी यदि पैसे मांगे तो देना नहीं, वरना मैं तुम्हारे वेतन से पैसे काट लूंगा और हां, सुनो, मैं तो अपने रिश्तेदारों से मना करने से रहा तो तुम ही मेरी तरफ से मना कर दिया करो.

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लेखक-कुशलेंद्र श्रीवास्तव

कंजूस सेठ अपने कर्मचारियों को हमेशा कड़की का हवाला दे कर कम तनख्वाह देता पर लौकडाउन के चलते मुनीम की पत्नी सुमन ने ऐसा पासा फेंका कि सेठजी का सारा कांइयांपन रखा रह गया.

वैसे तो मुनीमजी हर दिन शाम को अपने घर लौटते समय सेठजी को दिनभर का सारा हिसाब सम?ा, रुपए उन्हें दे कर और साथ में तिजोरी की चाबी उन की गद्दी के पास रख कर आते थे पर आज वे ऐसा कर नहीं पाए थे.

एक तो जब मुनीमजी घर लौट रहे थे, तब सेठजी दुकान पर थे नहीं और दूसरे, आज वे भी वसूली के लिए गए हुए थे. वसूली करतेकरते उन्हें शाम हो गई थी. इस जल्दबाजी में वे न तो रुपए तिजोरी में रख पाए और न ही तिजोरी की चाबी सेठजी को दे पाए. रुपए काफी ज्यादा थे. इतने रुपए वे दुकान पर देखते तो रोज ही थे पर अपने घर में वे पहली बार देख रहे थे. उन का दिल जोरों से धड़क रहा था. उन्होंने सारे रुपए अपनी अलमारी में किताबों के नीचे रख दिए थे.

‘किसी को क्या मालूम कि इस टूटी हुई अलमारी में किताबों के नीचे रुपए होंगे,’ यह सोच कर मुनीमजी ने गहरी सांस ली. उन के सामने सेठजी का कांइयां चेहरा घूम गया.यदि सेठजी को मालूम होता कि उन के पास इतने सारे रुपए हैं तो वे उसे कभी भी अपनी दुकान से हिलने तक न देते.

सेठजी एक नंबर के कंजूस हैं. पैसा बचाने के चक्कर में वे अपने काम करने वाले मजदूरों तक से भी ?ाठ बोल जाते हैं. ‘देख भई, तू ने इस हफ्ते 4 दिन ही काम किया है तो उतने ही दिन के पैसे मिलेंगे.’

‘नहीं हुजूर, मैं ने तो 5 दिन काम किया है. आप ध्यान कीजिए. आप को याद आ जाएगा,’ मजदूर गिड़गिड़ाते हुए कहता, पर वे उस की ओर देखते तक नहीं थे.‘जब मैं ने कह दिया कि काम 4 दिन ही किया है तो किया है. कोई चिकल्लस नहीं चाहिए.’

ऐसा कहते हुए वे नोटों को गिनने में लगे रहते.‘नहीं माईबाप, आप को ध्यान नहीं आ रहा है, मैं ने 5 दिन काम किया है.’‘क्यों मुनीमजी, इस ने कितने दिन काम किया है, जरा बताओ?’मुनीमजी को सेठजी आंख से इशारा करते. मुनीमजी न चाहते हुए भी सेठजी की हां में हां मिलाते.मु?ो तो अब याद नहीं. पर, सेठजी कह रहे हैं तो 4 दिन ही काम किया होगा.’

मुनीमजी की नजरें सफेद ?ाठ बोलने के कारण नीचे ?ाक जातीं. वे चाह कर भी सेठजी से पंगा नहीं ले सकते थे. अच्छीभली नौकरी है. इस आमदनी से ही तो परिवार पल रहा है. यदि उस ने सेठजी की हां में हां न मिलाई तो वे उसे ही नौकरी से निकाल देंगे. पर सच कहो तो उन का जमीर ऐसे ?ाठ बोलने पर उन को ही शर्मिंदा कर देता था.

सेठजी के पास इतने रुपए हैं पर औलाद के नाम पर एक बिगड़ैल बेटा है, बस. फिर भी सेठजी की तृष्णा खत्म नहीं हो रही थी. वे एक मजदूर तक की मजदूरी के पैसे काट लेते हैं.यह सोच कर मुनीमजी का मन नफरत से भर जाता. पर, वे मजबूर थे.

मजदूर मुनीमजी की हां सुन कर चुप हो जाता. उसे सेठजी से ज्यादा भरोसा मुनीमजी पर था. जब मुनीमजी ने ही हां बोल दिया तो अब उस की रहीसही आस भी खत्म हो गई.‘सेठजी पिछले सप्ताह भी आप ने एक दिन की मजूरी ऐसे ही काट ली थी. अब आप रोज लिख लिया करें, ताकि हिसाब में गड़बड़ न हो.’

मजूदर को अपनी एक दिन की मजूरी काटे जाने की पीड़ा हो रही थी, जो उस के माथे पर उभर आई थी.मुनीमजी तिरछी निगाहों से उस मजदूर की ओर देखते, ‘मु?ो माफ करना भाई.’ उन के चेहरे पर भी दर्द उभर आता.

मजदूर मन ही मन कुछ बोलता सा बाहर निकल जाता और सेठजी कुटिल मुसकान लिए काम पर लग जाते.मुनीमजी सेठजी के यहां सालों से काम कर रहे हैं. मुनीमी का काम करते रहने के कारण ही उन का नाम ही मुनीम हो गया है.वैसे तो उन का नाम विजय है, पर उन का असली नाम थोड़ेबहुत लोगों को ही पता था. वे खुद अपना असली नाम भूल चुके थे. यदि उन्हें कोई विजय नाम से पुकार ले तो वे उस की ओर देखते तक नहीं.

मुनीमजी दिनभर सेठजी की दुकान पर बैठ कर काम करते रहते. वैसे तो उन का काम केवल हिसाबकिताब रखना होना चाहिए था, पर वे सेठजी का सारा काम करते.‘अरे दुकान के हिसाबकिताब में कितना टाइम लगता है. बाकी समय तुम क्या करोगे, सो दुकान के बाकी काम भी किया करो,’ सेठजी ने शुरू में ही मुनीमजी से बोल दिया था.

‘पर सेठजी, हिसाबकिताब का काम कितना महत्त्वपूर्ण होता है, आप नहीं जानते क्या. मैं दूसरे कामों में लग गया तो हिसाबकिताब में गड़बड़ भी हो सकती है,’ मुनीमजी ने सेठजी की ओर पासा फेंका.‘नहीं भाई, मु?ो हिसाबकिताब में कोई गड़बड़ नहीं चाहिए पर ऐसा सम?ा लो कि दुकान पर जो कुछ भी काम हो रहा है, वह तुम्हारे हिसाबकिताब का ही तो काम है. तुम्हें यह पता होना चाहिए कि कौन सा सामान बिक चुका है और उसे कितना मंगवाना है तो यह तुम्हारा ही काम हुआ न.’

‘इस के लिए तो मैनेजर रखा जाता है, सेठजी.’‘उस को भी तो पैसे देने पड़ेंगे. मैं सारे पैसे ऐसे ही कर्मचारियों पर लुटाता रहूंगा तो मु?ो बचेगा क्या?’ सेठजी के चेहरे पर नाराजगी के भाव उभर रहे थे.मुनीमजी खामोश हो गए. उन्हें खामोश देख सेठजी ने एक अंतिम बाण और छोड़ दिया, ‘अच्छा रहने दो, तुम से न हो पाएगा. मैं ऐसा मुनीम रख लेता हूं जो यह सारा काम भी कर सके.’एकाएक सेठजी के चेहरे से विनम्रता गायब हो गई. उन का चेहरा पथरीला दिखाई देने लगा. मुनीमजी को लगा कि उन की नौकरी खतरे में पड़ रही है. सो, वे मान गए. उन के पास और कोई चारा भी तो न था.

सेठजी के चेहरे पर कुटिल मुसकान खिल गई. मुनीमजी सेठ की चाल में फंस चुके थे. अब वे वेतन तो केवल मुनीमी का लेते थे, पर काम मुनीमी और मैनेजर दोनों का करते थे. उन्हें दुकान पर आते ही सारी दुकान का सामान चैक करना होता, फिर नए सामान का और्डर देना होता, कितने मजूदर काम कर रहे हैं, उस का भी हिसाबकिताब रखना होता.

सेठजी ने तो उन्हें अपने घर का भी काम सौंप दिया था. वे उन के बच्चे की कौपीकिताब से ले कर स्कूल की फीस तक का हिसाब रखते, उन की पत्नी की जरूरतों का भी ध्यान रखते. घर में क्याक्या सामान चाहिए, इस का ध्यान रखना भी उन की ही जिम्मेदारी में आ चुका था.

मुनीमजी का काम अब बढ़ चुका था. वे दिनभर चकरी बने रहते और शाम को दिनभर का हिसाब करते, खाताबही लिखते, सेठजी को रुपए गिनवा कर तिजोरी में रखते. इन रुपयों को दूसरे दिन बैंक में जमा करने का काम भी उन का ही रहता. वे बैंक की परची सेठजी को दिखाते, फिर उसे अपनी फाइल में रख देते.

सेठजी अपने रिश्तेदारों को भी नहीं छोड़ते थे, कहते, ‘अरे भैया, पैसों से कोई रिश्तेदारी नहीं. बगैर पैसों से रिश्ता रखना है तो रखो, वरना रामराम.’

उन्होंने मुनीमजी को भी हिदायत दे रखी थी, ‘देख भाई, मेरा कोई रिश्तेदार नहीं है. रिश्तेदार ही क्यों, मेरी बीवी भी यदि पैसे मांगे तो देना नहीं, वरना मैं तुम्हारे वेतन से पैसे काट लूंगा और हां, सुनो, मैं तो अपने रिश्तेदारों से मना करने से रहा तो तुम ही मेरी तरफ से मना कर दिया करो.

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December 13, 2021 at 09:00AM

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