Friday 10 December 2021

रक्ष : श्मशान घाट पर क्या हुआ था

लेखक- राम बजाज रक्ष

एक कपड़े को कस कर दबोचे सो रहा था. इसे देख राघव की आंखों में आंसू आ गए और एक क्षणभंगुर विचार उस के दिमाग में कौंध गया कि रक्ष क्या उस के पिता की गंजी पकड़ कर सो रहा है या उन का असीमित स्नेह रक्ष को पकड़े है. आखिर रक्ष का बाबूजी से रिश्ता कैसा था. बाबूजी का असली नाम नरेंद्र कुमार था. वे इलाहाबाद बैंक के बैंक प्रबंधक पद से रिटायर हुए थे. रिटायर होने से पहले वे गीता प्रैस रोड, गांधी नगर, गोरखपुर में बैंक के मुख्यालय में थे.

उन्हें ‘बाबूजी’ का उपनाम तब मिला जब वे अल्फांसो रोड पर बैंक में शुरूशुरू में टेलर (क्लर्क) थे. हालांकि उन के पास बीकौम प्रथम श्रेणी की डिग्री थी लेकिन उन्हें एक उपयुक्त नौकरी नहीं मिली और उन्हें टेलर की नौकरी के लिए सम?ाता करना पड़ा. वे अपने ग्राहकों, सहकर्मियों और अपने वरिष्ठों व मालिकों के साथ सम्मान व मुसकराहट के साथ व्यवहार करते थे. नौकरी से वे खुश थे. ग्राहक उन के अच्छे स्वभाव व हास्य के कारण उन्हें बाबूजी कहने लगे. बाबूजी को उन का प्यार पसंद आया और उन्हें इस उपनाम से कोई आपत्ति न थी और इस का आनंद लेना शुरू कर दिया क्योंकि इस में प्यार, स्नेह और आशीर्वाद सभी एकसाथ विलीन थे तो, नरेंद्र ‘बाबूजी’ बन गए.

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नरेंद्र चूंकि बहुत महत्त्वाकांक्षी और उज्ज्वल व्यक्ति थे, अपने कैरियर में चमकना चाहते थे, इसलिए जब वे काम कर रहे थे, रात्रि कक्षाएं लीं और प्रथम श्रेणी के साथ एमकौम पास किया. जल्द ही उन का परिवार बढ़ गया और उन्हें जुड़वां बेटों का आशीर्वाद मिला, जिन के नाम भार्गव और राघव थे. भार्गव राघव से लगभग 2 मिनट बड़ा था और दोनों के बीच जो बंधन था, वह असाधारण था- राघव हमेशा अपने भाई का सम्मान करता था और अपने भाई को बड़े भाई के रूप में संदर्भित करता था. आखिरकार, वे बड़े हुए. अच्छी तरह से शिक्षित हुए. शादी हुई और उन के परिवार में दोदो बच्चे थे,

एकएक लड़का और एकएक लड़की. परंतु, घर के दूसरे परिवारों से उन्हें दूर जाना पड़ा. भार्गव मुंबई के चेंबूर में स्थित परमाणु ऊर्जा आयोग में अकाउंटैंट था और राघव केरल में एक रिजोर्ट प्रबंधक. राघव ने होटल मैनजमैंट की डिग्री हासिल की थी. जब बाबूजी 60 वर्ष के हुए तो उन्हें सरकारी नियमों और विनियमों के अनुसार सेवानिवृत्त होना पड़ा. उन्होंने अपने पैतृक घर में सेवानिवृत्त होने का फैसला किया क्योंकि उन की जन्मजात इच्छा उस शहर में रहने की थी जहां उन का जन्म, पालनपोषण हुआ और जहां उन के मातापिता जीवनभर रहे. उन का निवास गोरखपुर के एक मध्यर्गीय क्षेत्र में था और यह बाबूजी की शैली में फिट बैठता था. उन्होंने 2 नौकरों, एक रसोइया और एक ड्राइवर व पुराने पड़ोसियों और परिचित दोस्तों की प्रेमभरी धूमधाम में बड़ी शांति और आराम पाया.

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ऐसा लगा कि वे संसार के साथ हैं और संन्यास में भी हैं. पूरे जीवनभर बाबूजी परिवार, दोस्तों, पड़ोसियों और रिश्तेदारों व जानवरों सहित सभी के प्रति बहुत दयालु थे. एक दिन बाबूजी पोर्च में अपनी सीट पर बैठे थे और एक छोटा सा कुत्ता उन के पास आया. बाबूजी ने उसे प्यार से थपथपाया और उन दोनों में तत्काल एक बंधन बन गया. बाबूजी ने उसे रोटी खिलाई और कुत्ते ने उसे बिजली की गति से खत्म कर दिया क्योंकि वह भूखा लग रहा था. भले ही वह आवारा कुत्ता था, वह वहीं रहता था. वह दिन में ज्यादातर समय बाबूजी के बरामदे में ही रहता था, चाहे बाबूजी अपनी दिनचर्या में व्यस्त रहें या जब वे बरामदे में भी रहें. वह सफेद धब्बे और छोटे बालों वाला एक सुंदर, भूरा कुत्ता था जो ऐसा लगता था जैसे वह पेशेवर मुंडा था. कुत्ता हर दिन दिखाई देता था. जब बाबूजी पोर्च पर होते थे तो दोनों को एकदूसरे का साथ भाता था.

कुत्ते ने कभी बाबूजी को परेशान नहीं किया, बल्कि उन के लिए सुरक्षात्मक था. वह हर उस व्यक्ति पर भूंकता था जो बाबूजी के पास जाता था जब तक कि बाबूजी यह न इशारा देते कि आगंतुक मित्र है, शत्रु नहीं. वह कुत्ता रोज ही सुबह पोर्च पर दिखाई देता और बाबूजी के साथ बैठता. फिर अंधेरा होने पर चुपचाप घर के साथ वाली गली में, यातायात से दूर, सो जाता. नौकरों और पड़ोसियों को उस के होने की आदत हो गई और वे लोग उसे बाबूजी का कुत्ता सम?ाने लगे. चूंकि बाबूजी और नौकर उसे सुबह व शाम को खाना खिलाते थे, वह खुश लग रहा था और आखिरकार एक सुंदर कुत्ते के रूप में बड़ा हुआ, जिस ने कभी किसी को परेशान न किया और बाबूजी को अच्छी संगति प्रदान की. वह बाबूजी के बाहर जाने पर उन के साथ जाता. वह बिना पट्टे के ही उन के साथ चलता था

और अपने आसपास के सभी लोगों के साथ दोस्ताना व्यवहार करता था. जो लोग उसे पहचानते थे, वे हमेशा उस कुत्ते की प्रशंसा करते थे. बाबूजी ने अपने कुत्ते का नाम ‘रक्ष’ (रक्षक से बना) रखा, क्योंकि एक बार उस ने बाबूजी के जीवन को गुंडों के एक ?ांड से बचाया था, जो उन के पैसे चोरी करने की कोशिश कर रहे थे. बाबूजी एक एटीएम बूथ से बहुत रुपयों की राशि के साथ बाहर निकल रहे थे कि अचानक 3 गुंडों ने उन्हें पकड़ लिया और उन से पैसे छीनने लगे. एटीएम बूथ में घुसने से पहले ही वे बाबूजी की घात में थे और धीरेधीरे उन का पीछा कर रहे थे. जैसे ही वे बाहर आए, उन्होंने उन पर हमला कर दिया और उन्हें पीटा व उन के पैसे ले कर भागे. बाबूजी की नाक, कुहनी, घुटने लहूलुहान हो गए. बूथ में मौजूद गार्ड खर्राटे ले रहा था, शोर सुन कर उस की नींद खुल गई.

वैसे भी, बूथ को जल्दी से बंद करने व ग्राहकों की सुरक्षा करने के लिए उसे प्रशिक्षित ही नहीं किया गया था. बाबूजी दयनीय पीड़ा में थे, उन को हौस्पिटल ले जाया गया. उन्हें 19 टांके लगवाने पड़े. वे पूरे एक सप्ताह तक निष्क्रिय रहे. उधर, रक्ष ने तीनों बदमाशों का पीछा कर उन्हें धर दबोचा और वे पैसे छोड़ कर अपनी जान बचाने की कोशिश करते रहे. कुत्ते ने उन पर तब तक हमला किया जब तक कि पुलिस ने तीनों गुंडों को कुत्ते से नहीं बचाया. बाद में उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया. कुत्ते के काटने के कारण उन्हें 14-14 इंजैक्शनों के साथ इलाज करवाना पड़ा. बाबूजी के पड़ोसियों सहित अन्य लोगों को बचाने के लिए रक्ष के बारे में और भी कहानियां हैं. इस घटना के बाद कुत्ता ‘रक्ष’ बन गया और बाबूजी जब उसे रक्ष कह कर संबोधित करते तो वह उन के पास आ जाता.

उस को पता लग गया था कि अब उस का नाम रक्ष है. अब जब भी बाबूजी खरीदारी करने जाते तो वे निश्ंिचत रहते क्योंकि रक्ष उन के साथ होता. रक्ष दुकान के बाहर बैठ कर बाबूजी के आने तक प्रतीक्षा करता था और उन के साथ घर जाता था जब तक कि बाबाजी सुरक्षित घर न पहुंच जाते. एक बार, पोर्च सीट से उठने के बाद बाबूजी ने देखा कि उन का रूमाल गायब था. उन्होंने इधरउधर खोजा, परंतु नहीं मिला. उन्होंने सोचा कि कहीं छोड़ दिया होगा और उस के बाद ज्यादा ध्यान नहीं दिया. दूसरी बार उन्होंने अपने जूते से एक मोजा खो दिया. फिर उसे भी तुच्छ सम?ा कर वे इस के बारे में भूल गए. उन्हें थोड़ी चिंता हुई कि शायद वे चीजों को भूलने लगे हैं- सोचा कि शायद वे बूढ़े हो रहे हैं. आखिर वे 65 साल की उम्र के आगे बढ़ चुके थे. जीवन सामान्यतया और शांति से चल रहा था. बाबूजी को अपनी पत्नी की बड़ी याद आती थी. लेकिन वे खुद को सांत्वना देते कि प्रकृति से कोई नहीं लड़ सकता. कोई कितनी भी कोशिश करे, होनी को नहीं टाल सकता और जीवन तो जीना ही है. बाबूजी के बच्चे कभीकभार उन से मिलने आते थे और हो सका तो वे अपने पोतेपोतियों की संगति का आनंद लेते थे.

उन के दोनों पुत्रों ने उन्हें उन के साथ रहने की पेशकश की. उन दोनों के बीच समय बांटे. उन्होंने इस प्रस्ताव पर लंबे समय तक गंभीर और गहन विचार कर फैसला किया कि वे अपने पुश्तैनी घर में अपने नौकरों के साथ ही रहेंगे. बच्चों की अपनी जिंदगी है. उन की पत्नियां भी नौकरीपेशे वाली थीं और उन के जीवन में वे हस्तक्षेप नहीं करना चाहते थे. उन्होंने सोचा कि वे खुश हैं. उन के लिए यह ही काफी सुकून देने वाला था कि उन के बेटों का प्रस्ताव गंभीर था और मन की शांति थी कि उन के पास विकल्प था कि वे उन के साथ रह सकते हैं अगर अपने दम पर जीने में असमर्थ हों तो. उन के पास मित्र, सुविधाएं, स्वतंत्रता, वांछनीय संगति और गतिविधियां थीं और सब से अच्छी बात यह थी कि कोई दायित्व न था. उन्होंने खुद को अपने जीवनसाथी की कंपनी के बिना रहने में सक्षम बनाया था,

भले ही वह हर समय उन के विचारों में थी. उन्होंने सोचा कि कभीकभी यादों को संजोने के लिए अंतराल भर देता है. बाबूजी ने यह भी महसूस किया कि रक्ष की संगति और वह मौन और समर्पित प्रेम, जो उस ने उन्हें कम अपेक्षा के साथ दिया था, उन के स्वार्थहीन जीवन के लिए पर्याप्त था. विरले ही, लेकिन निश्चितरूप से बाबूजी राजनीति और धर्म व अन्य मामलों के बारे में अपनी कुंठाओं को बाहर निकालते और रक्ष सौ प्रतिशत सहमत होता. जैसेजैसे प्रकृति ने अपनी भूमिका निभाना जारी रखा, बाबूजी बूढ़े हो गए और प्राकृतिक प्रक्रियाएं अपना काम करने लगीं. वे सही खाना खाते, व्यायाम करते और सकारात्मक सोचते, लेकिन प्रकृति को कोई नहीं हरा सकता. उन की वार्षिक चिकित्सा परीक्षा के बाद डाक्टर ने उन से कहा कि वे चौथे चरण के लिवर कैंसर से ग्रसित हैं. यह एक भयंकर, घातक व तेजी से बढ़ता कैंसर है. वे इस के कारण होने वाले दर्द को कम करने के लिए पूरी कोशिश करें और शरीर को ज्यादा विश्राम दें. यह कैंसर लाइलाज है और रोगी के पाचनतंत्र के साथसाथ मानसिक स्थिरता पर भी भारी पड़ता है. बाबूजी आश्चर्यचकित थे क्योंकि वे कभी भी जोखिमभरे कार्यों में लिप्त नहीं हुए. वे जीवनभर शाकाहारी रहे थे. उन्होंने कभी शराब नहीं पी, धूम्रपान नहीं किया. उन्होंने नियमितरूप से व्यायाम किया और जीवनभर एक सुरक्षित कार्यालय की नौकरी की. उसी दोपहर, बाबूजी रक्ष के साथ पोर्च पर बैठे थे, सुबह का आनंद ले रहे थे, लेकिन चिंतित थे. उसी समय धोबी नियमित तरीके से गंदे कपड़े मांगने के लिए दरवाजे पर आया कि वह धो सके और उन्हें वापस कर सके.

बाबूजी कपड़े बाहर छोड़ कर धोबी को भुगतान करने के लिए पैसे लेने चले गए. धोबी भी समय बचाने के लिए अगले घर से कपड़े लाने के लिए निकल गया. जब वह वापस आया तो बाबूजी ने उसे भुगतान दिया और उस से कपड़े गिनने के लिए कहा. बाबूजी ने धोबी को देने के लिए 20 कपड़े इकट्ठे किए थे और हमेशा की तरह, धोबी ने केवल 19 कपड़ों की गिनती की. बाबूजी ने उस से बारबार गिनने के लिए कहा और अपने सामने देखा पर केवल 19 कपड़े थे. बाबूजी यह सुनिश्चित करने के लिए अंदर गए कि कुछ भी गलती से गिरा तो नहीं था. लेकिन कुछ भी न मिला. उन को कपड़े के गायब होने की नहीं, बल्कि अपनी मानसिक क्षमता के बारे में चिंता हुई. लेकिन उन्होंने इसे नजरअंदाज कर दिया. धोबी को जाने दिया. जैसे ही वे वापस सीट पर बैठे, रक्ष दौड़ता हुआ आया और उन की बगल में बैठ गया. वह जीभ से हांफ रहा था, फुफकार रहा था. बाबूजी को आराम करने के बाद, उन्हें मानसिक उथलपुथल हुई और इस बारे में बहुत मानसिक स्ट्रैस हुआ कि क्या उन्हें अपनी बीमारी के बारे में अपने बेटों को सूचित करना चाहिए या उन्हें अभी थोड़े समय के बाद करना चाहिए या एक पत्र या ईमेल या कौल द्वारा ऐसा करना चाहिए.

उन्होंने फैसला किया कि उन्हें बुलाना सब से अच्छा है. राघव और भार्गव दोनों आए. वे बुरी खबर सुन कर चौंक गए. उन्हें इस तरह के आघात का कभी अनुभव नहीं था. वे रोना बंद नहीं कर पा रहे थे. उन दोनों ने डाक्टर और बाबूजी के मानसिक तनाव व मानसिक दर्द को कम करने के बारे में सलाह मांगी. डाक्टर ने बहुत मदद की और उन्हें सलाह दी कि वे उन्हें अपनी पसंद के अनुसार काम करने दें और उन के लिए कम से कम तनाव का माहौल बनाएं और उन के सामने बीमारी के बारे में ज्यादा बात न करें. कुछ हफ्ते बाद वे अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए अपनेअपने घर चले गए और उन्हें हर दिन फोन करने का वादा किया और उन से उन के साथ खुल कर बात करने व जितनी जल्दी हो सके उन्हें बुलाने का वादा किया अगर उन्हें उन की जरूरत है. सितंबर माह की एक सुहानी सुबह बाबूजी को सांस लेने में तकलीफ महसूस हुई और वे उठ नहीं पाए. उन्होंने अपने नौकर को बुलाया, जिस ने तुरंत एंबुलैंस को फोन किया और उन्हें अस्पताल पहुंचाया. लेकिन बाबूजी को एंबुलैंस के कर्मचारियों द्वारा उन्हें पुनर्जीवित करने के प्रयासों के बावजूद उन्होंने एंबुलैंस में ही दम तोड़ दिया.

उन्हें बड़ा घातक दिल का दौरा पड़ा था और वे डिफिब्रिलेशन द्वारा भी उन्हें पुनर्जीवित न कर सके. सभी उचित संस्कारों के बाद बेटे वापस आए और बाबूजी के दाह संस्कार की तैयारी की. बाबूजी ने अपनी पत्नी की तरह ही पालदारों द्वारा श्मशान घाट ले जाने की इच्छा व्यक्त की थी. श्मशान घाट उन के घर से करीब 3 मील की दूरी पर था. जब पाल वाले चल रहे थे, भार्गव ने देखा कि रक्ष भी अपनी जीभ बाहर लटकाए हुए, हांफते हुए उन का पीछा कर रहा था. भार्गव ने उसे बुलाया और वापस जाने का इशारा किया, लेकिन रक्ष ने उस की बात अनसुनी कर दी. उन्होंने अर्थी चलना जारी रखा और जब वे सभी श्मशान घाट पहुंचे व संस्कार के लिए तैयार हुए तो वह बैठे हुए – बहुत करीब लेकिन पर्याप्त जगह छोड़ कर, उदास चेहरे और फटी आंखों के साथ बाबूजी के अवशेषों के दहन को घूर रहा था. पूरे संस्कार के दौरान, भार्गव ने देखा कि भीड़ में बाकी सभी लोगों की तरह रक्ष की आंखों से आंसू की धारा बह रही थी. दहन की रस्म के बाद सभी लोग कारों से घर लौट आए, रक्ष 3 मील दौड़ कर बाबूजी के घर पहुंचा.

सभी थके हुए और उदास थे और अपने साधारण भोजन के बाद सभी रात को विश्राम के लिए चले गए. रक्ष भी दौड़भाग कर थक गया था और निश्चय ही दुख में था. सब बहुत जल्दी सो गए. भार्गव सो न सका और कुछ ताजी हवा लेने के लिए बाहर आया. तब उस ने देखा कि रक्ष अभी भी पोर्च पर था, शांति से सो रहा था. यह एक असामान्य घटना, क्योंकि रक्ष आमतौर पर सोने के लिए गली में चला जाता था, राघव को अजूबी लगी कि सोते समय रक्ष पर एक सफेद कपड़ा था. जब उस ने गौर से देखा तो ऐसा लग रहा था कि यह बाबूजी की सफेद गंजी है. रक्ष उसे कस कर दबोचे सो रहा था. इसे देख भार्गव की आंखों में आंसू आ गए और एक क्षणभंगुर विचार उस के दिमाग में कौंध गया- क्या रक्ष बाबूजी की गंजी पकड़ कर सो रहा है या बाबूजी का असीमित स्नेह रक्ष को पकड़े है?- उस दिन, बाद में, भार्गव और राघव घर के साथ वाली गली में गए और एक कोने में, उन्हें एक घोंघा छेद मिला, जहां रक्ष ने बाबूजी के रूमाल, उन के जुराब और अन्य सामान को साथ रखा था, जिसे रक्ष हमेशा बाबूजी की सुगंध लिए संजोता रहा था. उन्हें जलन हुई कि रक्ष के पास कुछ ऐसा है जो उन के पास नहीं हो सकता, लेकिन वे इस बात से संतुष्ट थे कि उन के पास उस की सुखद यादें हमेशा संजोने के लिए हैं.

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लेखक- राम बजाज रक्ष

एक कपड़े को कस कर दबोचे सो रहा था. इसे देख राघव की आंखों में आंसू आ गए और एक क्षणभंगुर विचार उस के दिमाग में कौंध गया कि रक्ष क्या उस के पिता की गंजी पकड़ कर सो रहा है या उन का असीमित स्नेह रक्ष को पकड़े है. आखिर रक्ष का बाबूजी से रिश्ता कैसा था. बाबूजी का असली नाम नरेंद्र कुमार था. वे इलाहाबाद बैंक के बैंक प्रबंधक पद से रिटायर हुए थे. रिटायर होने से पहले वे गीता प्रैस रोड, गांधी नगर, गोरखपुर में बैंक के मुख्यालय में थे.

उन्हें ‘बाबूजी’ का उपनाम तब मिला जब वे अल्फांसो रोड पर बैंक में शुरूशुरू में टेलर (क्लर्क) थे. हालांकि उन के पास बीकौम प्रथम श्रेणी की डिग्री थी लेकिन उन्हें एक उपयुक्त नौकरी नहीं मिली और उन्हें टेलर की नौकरी के लिए सम?ाता करना पड़ा. वे अपने ग्राहकों, सहकर्मियों और अपने वरिष्ठों व मालिकों के साथ सम्मान व मुसकराहट के साथ व्यवहार करते थे. नौकरी से वे खुश थे. ग्राहक उन के अच्छे स्वभाव व हास्य के कारण उन्हें बाबूजी कहने लगे. बाबूजी को उन का प्यार पसंद आया और उन्हें इस उपनाम से कोई आपत्ति न थी और इस का आनंद लेना शुरू कर दिया क्योंकि इस में प्यार, स्नेह और आशीर्वाद सभी एकसाथ विलीन थे तो, नरेंद्र ‘बाबूजी’ बन गए.

ये भी पढ़ें- क्यों का प्रश्न नहीं : भाग 1

नरेंद्र चूंकि बहुत महत्त्वाकांक्षी और उज्ज्वल व्यक्ति थे, अपने कैरियर में चमकना चाहते थे, इसलिए जब वे काम कर रहे थे, रात्रि कक्षाएं लीं और प्रथम श्रेणी के साथ एमकौम पास किया. जल्द ही उन का परिवार बढ़ गया और उन्हें जुड़वां बेटों का आशीर्वाद मिला, जिन के नाम भार्गव और राघव थे. भार्गव राघव से लगभग 2 मिनट बड़ा था और दोनों के बीच जो बंधन था, वह असाधारण था- राघव हमेशा अपने भाई का सम्मान करता था और अपने भाई को बड़े भाई के रूप में संदर्भित करता था. आखिरकार, वे बड़े हुए. अच्छी तरह से शिक्षित हुए. शादी हुई और उन के परिवार में दोदो बच्चे थे,

एकएक लड़का और एकएक लड़की. परंतु, घर के दूसरे परिवारों से उन्हें दूर जाना पड़ा. भार्गव मुंबई के चेंबूर में स्थित परमाणु ऊर्जा आयोग में अकाउंटैंट था और राघव केरल में एक रिजोर्ट प्रबंधक. राघव ने होटल मैनजमैंट की डिग्री हासिल की थी. जब बाबूजी 60 वर्ष के हुए तो उन्हें सरकारी नियमों और विनियमों के अनुसार सेवानिवृत्त होना पड़ा. उन्होंने अपने पैतृक घर में सेवानिवृत्त होने का फैसला किया क्योंकि उन की जन्मजात इच्छा उस शहर में रहने की थी जहां उन का जन्म, पालनपोषण हुआ और जहां उन के मातापिता जीवनभर रहे. उन का निवास गोरखपुर के एक मध्यर्गीय क्षेत्र में था और यह बाबूजी की शैली में फिट बैठता था. उन्होंने 2 नौकरों, एक रसोइया और एक ड्राइवर व पुराने पड़ोसियों और परिचित दोस्तों की प्रेमभरी धूमधाम में बड़ी शांति और आराम पाया.

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ऐसा लगा कि वे संसार के साथ हैं और संन्यास में भी हैं. पूरे जीवनभर बाबूजी परिवार, दोस्तों, पड़ोसियों और रिश्तेदारों व जानवरों सहित सभी के प्रति बहुत दयालु थे. एक दिन बाबूजी पोर्च में अपनी सीट पर बैठे थे और एक छोटा सा कुत्ता उन के पास आया. बाबूजी ने उसे प्यार से थपथपाया और उन दोनों में तत्काल एक बंधन बन गया. बाबूजी ने उसे रोटी खिलाई और कुत्ते ने उसे बिजली की गति से खत्म कर दिया क्योंकि वह भूखा लग रहा था. भले ही वह आवारा कुत्ता था, वह वहीं रहता था. वह दिन में ज्यादातर समय बाबूजी के बरामदे में ही रहता था, चाहे बाबूजी अपनी दिनचर्या में व्यस्त रहें या जब वे बरामदे में भी रहें. वह सफेद धब्बे और छोटे बालों वाला एक सुंदर, भूरा कुत्ता था जो ऐसा लगता था जैसे वह पेशेवर मुंडा था. कुत्ता हर दिन दिखाई देता था. जब बाबूजी पोर्च पर होते थे तो दोनों को एकदूसरे का साथ भाता था.

कुत्ते ने कभी बाबूजी को परेशान नहीं किया, बल्कि उन के लिए सुरक्षात्मक था. वह हर उस व्यक्ति पर भूंकता था जो बाबूजी के पास जाता था जब तक कि बाबूजी यह न इशारा देते कि आगंतुक मित्र है, शत्रु नहीं. वह कुत्ता रोज ही सुबह पोर्च पर दिखाई देता और बाबूजी के साथ बैठता. फिर अंधेरा होने पर चुपचाप घर के साथ वाली गली में, यातायात से दूर, सो जाता. नौकरों और पड़ोसियों को उस के होने की आदत हो गई और वे लोग उसे बाबूजी का कुत्ता सम?ाने लगे. चूंकि बाबूजी और नौकर उसे सुबह व शाम को खाना खिलाते थे, वह खुश लग रहा था और आखिरकार एक सुंदर कुत्ते के रूप में बड़ा हुआ, जिस ने कभी किसी को परेशान न किया और बाबूजी को अच्छी संगति प्रदान की. वह बाबूजी के बाहर जाने पर उन के साथ जाता. वह बिना पट्टे के ही उन के साथ चलता था

और अपने आसपास के सभी लोगों के साथ दोस्ताना व्यवहार करता था. जो लोग उसे पहचानते थे, वे हमेशा उस कुत्ते की प्रशंसा करते थे. बाबूजी ने अपने कुत्ते का नाम ‘रक्ष’ (रक्षक से बना) रखा, क्योंकि एक बार उस ने बाबूजी के जीवन को गुंडों के एक ?ांड से बचाया था, जो उन के पैसे चोरी करने की कोशिश कर रहे थे. बाबूजी एक एटीएम बूथ से बहुत रुपयों की राशि के साथ बाहर निकल रहे थे कि अचानक 3 गुंडों ने उन्हें पकड़ लिया और उन से पैसे छीनने लगे. एटीएम बूथ में घुसने से पहले ही वे बाबूजी की घात में थे और धीरेधीरे उन का पीछा कर रहे थे. जैसे ही वे बाहर आए, उन्होंने उन पर हमला कर दिया और उन्हें पीटा व उन के पैसे ले कर भागे. बाबूजी की नाक, कुहनी, घुटने लहूलुहान हो गए. बूथ में मौजूद गार्ड खर्राटे ले रहा था, शोर सुन कर उस की नींद खुल गई.

वैसे भी, बूथ को जल्दी से बंद करने व ग्राहकों की सुरक्षा करने के लिए उसे प्रशिक्षित ही नहीं किया गया था. बाबूजी दयनीय पीड़ा में थे, उन को हौस्पिटल ले जाया गया. उन्हें 19 टांके लगवाने पड़े. वे पूरे एक सप्ताह तक निष्क्रिय रहे. उधर, रक्ष ने तीनों बदमाशों का पीछा कर उन्हें धर दबोचा और वे पैसे छोड़ कर अपनी जान बचाने की कोशिश करते रहे. कुत्ते ने उन पर तब तक हमला किया जब तक कि पुलिस ने तीनों गुंडों को कुत्ते से नहीं बचाया. बाद में उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया. कुत्ते के काटने के कारण उन्हें 14-14 इंजैक्शनों के साथ इलाज करवाना पड़ा. बाबूजी के पड़ोसियों सहित अन्य लोगों को बचाने के लिए रक्ष के बारे में और भी कहानियां हैं. इस घटना के बाद कुत्ता ‘रक्ष’ बन गया और बाबूजी जब उसे रक्ष कह कर संबोधित करते तो वह उन के पास आ जाता.

उस को पता लग गया था कि अब उस का नाम रक्ष है. अब जब भी बाबूजी खरीदारी करने जाते तो वे निश्ंिचत रहते क्योंकि रक्ष उन के साथ होता. रक्ष दुकान के बाहर बैठ कर बाबूजी के आने तक प्रतीक्षा करता था और उन के साथ घर जाता था जब तक कि बाबाजी सुरक्षित घर न पहुंच जाते. एक बार, पोर्च सीट से उठने के बाद बाबूजी ने देखा कि उन का रूमाल गायब था. उन्होंने इधरउधर खोजा, परंतु नहीं मिला. उन्होंने सोचा कि कहीं छोड़ दिया होगा और उस के बाद ज्यादा ध्यान नहीं दिया. दूसरी बार उन्होंने अपने जूते से एक मोजा खो दिया. फिर उसे भी तुच्छ सम?ा कर वे इस के बारे में भूल गए. उन्हें थोड़ी चिंता हुई कि शायद वे चीजों को भूलने लगे हैं- सोचा कि शायद वे बूढ़े हो रहे हैं. आखिर वे 65 साल की उम्र के आगे बढ़ चुके थे. जीवन सामान्यतया और शांति से चल रहा था. बाबूजी को अपनी पत्नी की बड़ी याद आती थी. लेकिन वे खुद को सांत्वना देते कि प्रकृति से कोई नहीं लड़ सकता. कोई कितनी भी कोशिश करे, होनी को नहीं टाल सकता और जीवन तो जीना ही है. बाबूजी के बच्चे कभीकभार उन से मिलने आते थे और हो सका तो वे अपने पोतेपोतियों की संगति का आनंद लेते थे.

उन के दोनों पुत्रों ने उन्हें उन के साथ रहने की पेशकश की. उन दोनों के बीच समय बांटे. उन्होंने इस प्रस्ताव पर लंबे समय तक गंभीर और गहन विचार कर फैसला किया कि वे अपने पुश्तैनी घर में अपने नौकरों के साथ ही रहेंगे. बच्चों की अपनी जिंदगी है. उन की पत्नियां भी नौकरीपेशे वाली थीं और उन के जीवन में वे हस्तक्षेप नहीं करना चाहते थे. उन्होंने सोचा कि वे खुश हैं. उन के लिए यह ही काफी सुकून देने वाला था कि उन के बेटों का प्रस्ताव गंभीर था और मन की शांति थी कि उन के पास विकल्प था कि वे उन के साथ रह सकते हैं अगर अपने दम पर जीने में असमर्थ हों तो. उन के पास मित्र, सुविधाएं, स्वतंत्रता, वांछनीय संगति और गतिविधियां थीं और सब से अच्छी बात यह थी कि कोई दायित्व न था. उन्होंने खुद को अपने जीवनसाथी की कंपनी के बिना रहने में सक्षम बनाया था,

भले ही वह हर समय उन के विचारों में थी. उन्होंने सोचा कि कभीकभी यादों को संजोने के लिए अंतराल भर देता है. बाबूजी ने यह भी महसूस किया कि रक्ष की संगति और वह मौन और समर्पित प्रेम, जो उस ने उन्हें कम अपेक्षा के साथ दिया था, उन के स्वार्थहीन जीवन के लिए पर्याप्त था. विरले ही, लेकिन निश्चितरूप से बाबूजी राजनीति और धर्म व अन्य मामलों के बारे में अपनी कुंठाओं को बाहर निकालते और रक्ष सौ प्रतिशत सहमत होता. जैसेजैसे प्रकृति ने अपनी भूमिका निभाना जारी रखा, बाबूजी बूढ़े हो गए और प्राकृतिक प्रक्रियाएं अपना काम करने लगीं. वे सही खाना खाते, व्यायाम करते और सकारात्मक सोचते, लेकिन प्रकृति को कोई नहीं हरा सकता. उन की वार्षिक चिकित्सा परीक्षा के बाद डाक्टर ने उन से कहा कि वे चौथे चरण के लिवर कैंसर से ग्रसित हैं. यह एक भयंकर, घातक व तेजी से बढ़ता कैंसर है. वे इस के कारण होने वाले दर्द को कम करने के लिए पूरी कोशिश करें और शरीर को ज्यादा विश्राम दें. यह कैंसर लाइलाज है और रोगी के पाचनतंत्र के साथसाथ मानसिक स्थिरता पर भी भारी पड़ता है. बाबूजी आश्चर्यचकित थे क्योंकि वे कभी भी जोखिमभरे कार्यों में लिप्त नहीं हुए. वे जीवनभर शाकाहारी रहे थे. उन्होंने कभी शराब नहीं पी, धूम्रपान नहीं किया. उन्होंने नियमितरूप से व्यायाम किया और जीवनभर एक सुरक्षित कार्यालय की नौकरी की. उसी दोपहर, बाबूजी रक्ष के साथ पोर्च पर बैठे थे, सुबह का आनंद ले रहे थे, लेकिन चिंतित थे. उसी समय धोबी नियमित तरीके से गंदे कपड़े मांगने के लिए दरवाजे पर आया कि वह धो सके और उन्हें वापस कर सके.

बाबूजी कपड़े बाहर छोड़ कर धोबी को भुगतान करने के लिए पैसे लेने चले गए. धोबी भी समय बचाने के लिए अगले घर से कपड़े लाने के लिए निकल गया. जब वह वापस आया तो बाबूजी ने उसे भुगतान दिया और उस से कपड़े गिनने के लिए कहा. बाबूजी ने धोबी को देने के लिए 20 कपड़े इकट्ठे किए थे और हमेशा की तरह, धोबी ने केवल 19 कपड़ों की गिनती की. बाबूजी ने उस से बारबार गिनने के लिए कहा और अपने सामने देखा पर केवल 19 कपड़े थे. बाबूजी यह सुनिश्चित करने के लिए अंदर गए कि कुछ भी गलती से गिरा तो नहीं था. लेकिन कुछ भी न मिला. उन को कपड़े के गायब होने की नहीं, बल्कि अपनी मानसिक क्षमता के बारे में चिंता हुई. लेकिन उन्होंने इसे नजरअंदाज कर दिया. धोबी को जाने दिया. जैसे ही वे वापस सीट पर बैठे, रक्ष दौड़ता हुआ आया और उन की बगल में बैठ गया. वह जीभ से हांफ रहा था, फुफकार रहा था. बाबूजी को आराम करने के बाद, उन्हें मानसिक उथलपुथल हुई और इस बारे में बहुत मानसिक स्ट्रैस हुआ कि क्या उन्हें अपनी बीमारी के बारे में अपने बेटों को सूचित करना चाहिए या उन्हें अभी थोड़े समय के बाद करना चाहिए या एक पत्र या ईमेल या कौल द्वारा ऐसा करना चाहिए.

उन्होंने फैसला किया कि उन्हें बुलाना सब से अच्छा है. राघव और भार्गव दोनों आए. वे बुरी खबर सुन कर चौंक गए. उन्हें इस तरह के आघात का कभी अनुभव नहीं था. वे रोना बंद नहीं कर पा रहे थे. उन दोनों ने डाक्टर और बाबूजी के मानसिक तनाव व मानसिक दर्द को कम करने के बारे में सलाह मांगी. डाक्टर ने बहुत मदद की और उन्हें सलाह दी कि वे उन्हें अपनी पसंद के अनुसार काम करने दें और उन के लिए कम से कम तनाव का माहौल बनाएं और उन के सामने बीमारी के बारे में ज्यादा बात न करें. कुछ हफ्ते बाद वे अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए अपनेअपने घर चले गए और उन्हें हर दिन फोन करने का वादा किया और उन से उन के साथ खुल कर बात करने व जितनी जल्दी हो सके उन्हें बुलाने का वादा किया अगर उन्हें उन की जरूरत है. सितंबर माह की एक सुहानी सुबह बाबूजी को सांस लेने में तकलीफ महसूस हुई और वे उठ नहीं पाए. उन्होंने अपने नौकर को बुलाया, जिस ने तुरंत एंबुलैंस को फोन किया और उन्हें अस्पताल पहुंचाया. लेकिन बाबूजी को एंबुलैंस के कर्मचारियों द्वारा उन्हें पुनर्जीवित करने के प्रयासों के बावजूद उन्होंने एंबुलैंस में ही दम तोड़ दिया.

उन्हें बड़ा घातक दिल का दौरा पड़ा था और वे डिफिब्रिलेशन द्वारा भी उन्हें पुनर्जीवित न कर सके. सभी उचित संस्कारों के बाद बेटे वापस आए और बाबूजी के दाह संस्कार की तैयारी की. बाबूजी ने अपनी पत्नी की तरह ही पालदारों द्वारा श्मशान घाट ले जाने की इच्छा व्यक्त की थी. श्मशान घाट उन के घर से करीब 3 मील की दूरी पर था. जब पाल वाले चल रहे थे, भार्गव ने देखा कि रक्ष भी अपनी जीभ बाहर लटकाए हुए, हांफते हुए उन का पीछा कर रहा था. भार्गव ने उसे बुलाया और वापस जाने का इशारा किया, लेकिन रक्ष ने उस की बात अनसुनी कर दी. उन्होंने अर्थी चलना जारी रखा और जब वे सभी श्मशान घाट पहुंचे व संस्कार के लिए तैयार हुए तो वह बैठे हुए – बहुत करीब लेकिन पर्याप्त जगह छोड़ कर, उदास चेहरे और फटी आंखों के साथ बाबूजी के अवशेषों के दहन को घूर रहा था. पूरे संस्कार के दौरान, भार्गव ने देखा कि भीड़ में बाकी सभी लोगों की तरह रक्ष की आंखों से आंसू की धारा बह रही थी. दहन की रस्म के बाद सभी लोग कारों से घर लौट आए, रक्ष 3 मील दौड़ कर बाबूजी के घर पहुंचा.

सभी थके हुए और उदास थे और अपने साधारण भोजन के बाद सभी रात को विश्राम के लिए चले गए. रक्ष भी दौड़भाग कर थक गया था और निश्चय ही दुख में था. सब बहुत जल्दी सो गए. भार्गव सो न सका और कुछ ताजी हवा लेने के लिए बाहर आया. तब उस ने देखा कि रक्ष अभी भी पोर्च पर था, शांति से सो रहा था. यह एक असामान्य घटना, क्योंकि रक्ष आमतौर पर सोने के लिए गली में चला जाता था, राघव को अजूबी लगी कि सोते समय रक्ष पर एक सफेद कपड़ा था. जब उस ने गौर से देखा तो ऐसा लग रहा था कि यह बाबूजी की सफेद गंजी है. रक्ष उसे कस कर दबोचे सो रहा था. इसे देख भार्गव की आंखों में आंसू आ गए और एक क्षणभंगुर विचार उस के दिमाग में कौंध गया- क्या रक्ष बाबूजी की गंजी पकड़ कर सो रहा है या बाबूजी का असीमित स्नेह रक्ष को पकड़े है?- उस दिन, बाद में, भार्गव और राघव घर के साथ वाली गली में गए और एक कोने में, उन्हें एक घोंघा छेद मिला, जहां रक्ष ने बाबूजी के रूमाल, उन के जुराब और अन्य सामान को साथ रखा था, जिसे रक्ष हमेशा बाबूजी की सुगंध लिए संजोता रहा था. उन्हें जलन हुई कि रक्ष के पास कुछ ऐसा है जो उन के पास नहीं हो सकता, लेकिन वे इस बात से संतुष्ट थे कि उन के पास उस की सुखद यादें हमेशा संजोने के लिए हैं.

The post रक्ष : श्मशान घाट पर क्या हुआ था appeared first on Sarita Magazine.

December 11, 2021 at 10:00AM

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