Tuesday 21 December 2021

दर्द का रिश्ता : भाग 6

“रास्ते में कोई दिक्कत तो नहीं हुई.”समर ने सामान संभालते हुए कहा और जवाब का इंतजार किए बिना ही घर में घुस गया. पापा गाड़ी के पास ही खड़े थे, एक अजीब सा संकोच घर कर गया था. पहले की बात और थी पर अब… “चलिए न पापा आप यहां क्यों खड़े हैं…”

समर मुसकराते हुए घर से बाहर निकले, अपूर्वा ने राहत की सांस ली. घर में एक गहरा सन्नाटा पसरा हुआ था. चौके में कुछ खटरपटर हो रही थी. शायद खाना बनाने वाली आ गई थी. अपूर्वा साधनाजी को हर कमरे में ढूंढ़ आई थी पर पता नहीं वे कहां थीं. समर पापा के साथ बैठक में बैठे हुए थे.अपूर्वा ने जल्दी से हाथमुंह धुले और सब के लिए पानी लेने के लिए चौके में घुसी.

 

“मम्मी,आप यहां…सुनीता कहां है?आप हटिए मैं करती हूं.” “सुनीता राशन लेने गई है, तेरे पापा के लिए बिना चीनी वाली चाय अलग बना दी. ये पकौड़ियां ठंडी हो जाएंगी, तुम ले कर जाओ. मैं चाय ले कर आती हूं.” अपूर्वा आश्चर्य से मम्मीजी को देख रही थी. क्या मम्मीजी को बात समझ में आ गई थी? उन्हें पापा का यहां रहने पर कोई आपत्ति नहीं थी या फिर यस तूफान से पहले की शांति थी? बैठक में समर और पापा इधरउधर की बातें कर रहे थे. अपूर्वा नाश्ता लेकर पहुंची,”यह लीजिए गरमगरम पकौड़ी.”

 

पापा वैसे ही निर्विकार से बैठे हुए थे अचानक वे खड़े हो गए,”नमस्ते भाभी जी.” साधनाजी तब तक चाय ले कर आ गई थीं. सब लोग अपनी जगह से खड़े हो गए. साधनाजी ने गरदन हिला कर पापा का अभिवादन स्वीकार कर लिया. “मम्मी, बैठिए न आप भी चाय पीजिए.”

 

“तुम्हें तो पता है अपूर्वा मेरा घूमने का समय हो गया है.” सब चुप हो गए. अजयजी ने फलों की टोकरी साधनाजी के हाथों में थमा दी. कितना मना किया था अपूर्वा ने पर उन्होंने गाड़ी रुकवा कर फल खरीद ही लिए. “अप्पू, बेटी के दरवाजे पर खाली हाथ जाऊं यस शोभा नहीं देता. तेरी मां होती तो क्याक्या बांध देती. एक तो वैसे भी कोरोना के चक्कर में मिठाइयों की दुकानें बंद हैं. कम से कम फल तो ले चलूं.”

अपूर्वा पापा को देख रही थी. कितना फर्क आ गया था पापा में…पापा अचानक से मां की तरह लगने लगे थे. पहले उस की विदाई का लिफाफा और अब यह सब…कमरे में गहरा सन्नाटा पसर गया. अजयजी अपने नए ठिकाने में सिमट गई थे. मां की फोटो जो घर पर दीवार पर टिकी थी, कमरे के मेज पर दीवार से टिका दी गई. उन का सामान कमरे के एक कमरे में 2 दिनों तक वैसे ही पड़ा रहा. अपूर्वा ने ही सामान निकाल कर अलमारी में जमाया था.अपूर्वा घर को समेटने में लगी थी. 1 हफ्ते से औफिस से छुट्टी भी ले रखी थी. ऊपर से साधनाजी का शीत युद्ध वैसे ही चल रहा था. मुंह से तो कुछ नहीं कहतीं पर उन का ठंडा व्यवहार सबकुछ कह देता.

शुरूशुरू में तो अजयजी ने भी शामिल होने की कोशिश की पर साधनाजी किसी न किसी काम के बहाने उठ जाती. वे सब समझ रहे थे पर…जब तक वर्क फ्रौम होम था तब तक स्थिति सही भी थी. अपूर्वा प्रयास करती कि मम्मीजी को कोई काम न करना पड़े.

अजयजी को सुबह की चाय के साथ अखबार पढ़ने की आदत थी. साधनाजी को अखबार पढ़ने का कोई विशेष शौक नहीं था. सच तो यह था कि कभी घरगृहस्थी से फुरसत ही नहीं मिली इसलिए अखबार की ओर ध्यान भी नहीं गया. पर जब से अजयजी आए थे वे गेट पर ही अखबार वाले का इंतजार करने लगतीं और अखबार अपने कमरे में ले कर चली जातीं. अखबार पढ़े बिना  अजयजी का सवेरा नहीं होता था. उन्हें बेचैन देख कर अपूर्वा छटपटा जाती. समर से भी वह कुछ कह नहीं पाती. कई बार सोचा कि एक और अखबार लगवा लूं पर अगर किसी ने पूछ लिया तो क्या जवाब देगी वह…

धीरेधीरे लौकडाउन में छूट मिलने लगी थी. अपूर्वा को औफिस भी जाना होता था. पापा की दवा, जूस इन सब का वह इंतजाम कर के जाती पर खाना… सुनीता से उस ने पहले ही कह रखा था कि जिस दिन न आना हो तो पहले से बता दे वरना…ऐसा नहीं था कि साधनाजी खाना नहीं बनाती थीं पर एक अनजाने भय से वे हमेशा ग्रसित रहती थीं. कहीं कल साधनाजी इसी बात को बखेड़ा न बना दें.

आज औफिस में कुछ ज्यादा ही काम था, समर घर से ही औफिस संभाल रहा था. अजयजी के कमरे में बड़ा सन्नाटा पसरा हुआ था. साधनाजी 2 बार कमरे के बाहर चक्कर भी मार आई थीं. इतनी देर तक तो अजयजी कभी नहीं सोते थे फिर आज…आज क्या हुआ? वे समर के कमरे की ओर बढ़ गईं, “समर, चाय पिएगा?”

“अपने लिए बना रही हो मां तो पिला दो…अपनी स्पैशल वाली बनाना.” साधनाजी के चेहरे पर एक मुसकराहट आ गई, दरवाजे के पास जातेजाते वह वही रुक गई. कैसे पूंछूं? पता नहीं क्या सोचेगा?”समर, तेरे ससुर ठीक है न…सुबह से देखा नहीं उन्हें, इस वक्त तक तो गमलों के साथ कुछ न कुछ करते ही रहते हैं. सब ठीक है न…” “मुझे पता नहीं मां, आज मेरी एक बहुत जरूरी मीटिंग है मैं उसी की तैयारी में व्यस्त हूं. ठीक ही होंगे?”

समर साधनाजी को उन के चिंतन के साथ छोड़ कर काम में व्यस्त हो गया. साधनाजी चौके की तरफ बढ़ गईं.चाय का पतीला उठाया पर मन तो अजय की तरफ ही लगा था,’जब चाय बना रही हूं तो एक बार पूछ ही लेती हूं…एक बार पूछ लूंगी तो कौन सा घट जाऊंगी,’ साधनाजी अजयजी के कमरे की तरफ बढ़ गईं. कमरे के अंदर अभी भी सन्नाटा था. साधनाजी ने दरवाजे को खटखटाया उधर से कोई आवाज नहीं आई, उन्होंने दूसरी बार दरवाजे को जोर से खटखटाया…

 

“आ जाओ अप्पू…” अपूर्वा को इसी नाम से तो पुकारते थे वे. साधनाजी अजीब कशमकश में पड़ी थीं, अंदर जाऊं या न जाऊं. अजयजी पता नहीं क्या सोचें पर अब तो जाना ही पड़ेगा,”मैं हूं भाईसाहब…अंदर आ जाऊं?” “जी…” साधनाजी ने दरवाजे को हलके से धक्का दे कर खोल दिया. अजयजी  बिस्तर पर ही लेटे हुए थे. साधनाजी की आवाज को सुन कर उन्होंने उठने का उपक्रम किया. “अरे क्या हुआ आप लेटे क्यों हैं… तबीयत ठीक है न?”

“हां ठीक है बस कल रात से थोड़ा सा पेट में दर्द है. 2 बार पतले दस्त भी हुए.”अजयजी के चेहरे पर दर्द की लकीरें उभर आईं, आंखें उनींदी हो रही थीं.शायद दर्द के कारण वे पूरी रात सोए नहीं थे. साधनाजी के माथे पर बल पड़ गया,”अपूर्वा ने भी कुछ नहीं बताया.. .””नहींनहीं उस की कोई गलती नहीं… उसे तो पता भी नहीं. आप ने दरवाजा खटखटाया तो मैं ने सोचा अपूर्वा ही है.””कोई दवा ली…?”

“जी दवा…”अजयजी के गले में शब्द अटक से गए. जब तक मृदुला थी तो वह कहीं भी जाने से पहले एक छोटा सा फर्स्ट एड बौक्स जरूर रख लेती थी पर अब…”कोई बात नहीं आप मुंहहाथ धो लीजिए…मैं अभी आती हूं.”अजयजी बड़े पेशोपेश में थे. इतने दिनों में पहली बार साधनाजी से उन की इतनी बात हुई थी. वे गुसलखाने में घुस गए.

“भाईसाहब, यह गरम पानी के साथ निगल लीजिए, आराम मिलेगा. समर के पापा को भी जब कभी दिक्कत होती तो मैं यही देती थी. 2-3 बार ले लेंगे तो सही हो जाएगा.””जी…”साधनाजी दवा और पानी रख कर चली गईं. अजयजी ने चुपचाप दवा ले ली और अपने बिस्तर पर लेट गए. कितने दिनों बाद उन्होंने किसी से बात की थी. ऐसा नहीं था कि समर और अपूर्वा उन्हें समय नहीं देते थे पर इंसान का एक स्वभाव होता है जहां से उम्मीद न हो वह वहां से ही उम्मीद करता है. अजयजी को न जाने क्यों बहुत पहले पढ़ी एक पत्रिका की कुछ पंक्तियां याद आ गईं,’घरों में दरवाजों से ज्यादा खिड़कियां होनी चाहिए क्योंकि दरवाजे हमेशा घुटन का एहसास कराते हैं पर खिड़कियां… खिड़कियों से आती शीतल बयार मन के कोनेकोने को सुवासित और सुगंधित कर देती है. खिड़कियों पर खड़ा आदमी उम्मीद का इंतजार करता है…’ तभी बरतनों की आवाज से उप की तंद्रा टूट गई.

“भाईसाहब, यह आप की चाय है. थोड़ी ही दी है और यह मूंग की दाल का चिल्ला, हलका रहेगा पेट तो आराम मिलेगा.”अजयजी संकोच से दोहरे हुए जा रहे थे.”आप…आप क्यों परेशान हो रही हैं.मैं ठीक हो जाऊंगा.””परेशानी कैसे…अपूर्वा मूंग की दाल पीस गई थी कि नाश्ते में पकौड़ी बनेगी, मैं ने सोचा आप के लिए चिल्ला बना दूं. पेट भी भर जाएगा और आराम भी रहेगा.

 

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“रास्ते में कोई दिक्कत तो नहीं हुई.”समर ने सामान संभालते हुए कहा और जवाब का इंतजार किए बिना ही घर में घुस गया. पापा गाड़ी के पास ही खड़े थे, एक अजीब सा संकोच घर कर गया था. पहले की बात और थी पर अब… “चलिए न पापा आप यहां क्यों खड़े हैं…”

समर मुसकराते हुए घर से बाहर निकले, अपूर्वा ने राहत की सांस ली. घर में एक गहरा सन्नाटा पसरा हुआ था. चौके में कुछ खटरपटर हो रही थी. शायद खाना बनाने वाली आ गई थी. अपूर्वा साधनाजी को हर कमरे में ढूंढ़ आई थी पर पता नहीं वे कहां थीं. समर पापा के साथ बैठक में बैठे हुए थे.अपूर्वा ने जल्दी से हाथमुंह धुले और सब के लिए पानी लेने के लिए चौके में घुसी.

 

“मम्मी,आप यहां…सुनीता कहां है?आप हटिए मैं करती हूं.” “सुनीता राशन लेने गई है, तेरे पापा के लिए बिना चीनी वाली चाय अलग बना दी. ये पकौड़ियां ठंडी हो जाएंगी, तुम ले कर जाओ. मैं चाय ले कर आती हूं.” अपूर्वा आश्चर्य से मम्मीजी को देख रही थी. क्या मम्मीजी को बात समझ में आ गई थी? उन्हें पापा का यहां रहने पर कोई आपत्ति नहीं थी या फिर यस तूफान से पहले की शांति थी? बैठक में समर और पापा इधरउधर की बातें कर रहे थे. अपूर्वा नाश्ता लेकर पहुंची,”यह लीजिए गरमगरम पकौड़ी.”

 

पापा वैसे ही निर्विकार से बैठे हुए थे अचानक वे खड़े हो गए,”नमस्ते भाभी जी.” साधनाजी तब तक चाय ले कर आ गई थीं. सब लोग अपनी जगह से खड़े हो गए. साधनाजी ने गरदन हिला कर पापा का अभिवादन स्वीकार कर लिया. “मम्मी, बैठिए न आप भी चाय पीजिए.”

 

“तुम्हें तो पता है अपूर्वा मेरा घूमने का समय हो गया है.” सब चुप हो गए. अजयजी ने फलों की टोकरी साधनाजी के हाथों में थमा दी. कितना मना किया था अपूर्वा ने पर उन्होंने गाड़ी रुकवा कर फल खरीद ही लिए. “अप्पू, बेटी के दरवाजे पर खाली हाथ जाऊं यस शोभा नहीं देता. तेरी मां होती तो क्याक्या बांध देती. एक तो वैसे भी कोरोना के चक्कर में मिठाइयों की दुकानें बंद हैं. कम से कम फल तो ले चलूं.”

अपूर्वा पापा को देख रही थी. कितना फर्क आ गया था पापा में…पापा अचानक से मां की तरह लगने लगे थे. पहले उस की विदाई का लिफाफा और अब यह सब…कमरे में गहरा सन्नाटा पसर गया. अजयजी अपने नए ठिकाने में सिमट गई थे. मां की फोटो जो घर पर दीवार पर टिकी थी, कमरे के मेज पर दीवार से टिका दी गई. उन का सामान कमरे के एक कमरे में 2 दिनों तक वैसे ही पड़ा रहा. अपूर्वा ने ही सामान निकाल कर अलमारी में जमाया था.अपूर्वा घर को समेटने में लगी थी. 1 हफ्ते से औफिस से छुट्टी भी ले रखी थी. ऊपर से साधनाजी का शीत युद्ध वैसे ही चल रहा था. मुंह से तो कुछ नहीं कहतीं पर उन का ठंडा व्यवहार सबकुछ कह देता.

शुरूशुरू में तो अजयजी ने भी शामिल होने की कोशिश की पर साधनाजी किसी न किसी काम के बहाने उठ जाती. वे सब समझ रहे थे पर…जब तक वर्क फ्रौम होम था तब तक स्थिति सही भी थी. अपूर्वा प्रयास करती कि मम्मीजी को कोई काम न करना पड़े.

अजयजी को सुबह की चाय के साथ अखबार पढ़ने की आदत थी. साधनाजी को अखबार पढ़ने का कोई विशेष शौक नहीं था. सच तो यह था कि कभी घरगृहस्थी से फुरसत ही नहीं मिली इसलिए अखबार की ओर ध्यान भी नहीं गया. पर जब से अजयजी आए थे वे गेट पर ही अखबार वाले का इंतजार करने लगतीं और अखबार अपने कमरे में ले कर चली जातीं. अखबार पढ़े बिना  अजयजी का सवेरा नहीं होता था. उन्हें बेचैन देख कर अपूर्वा छटपटा जाती. समर से भी वह कुछ कह नहीं पाती. कई बार सोचा कि एक और अखबार लगवा लूं पर अगर किसी ने पूछ लिया तो क्या जवाब देगी वह…

धीरेधीरे लौकडाउन में छूट मिलने लगी थी. अपूर्वा को औफिस भी जाना होता था. पापा की दवा, जूस इन सब का वह इंतजाम कर के जाती पर खाना… सुनीता से उस ने पहले ही कह रखा था कि जिस दिन न आना हो तो पहले से बता दे वरना…ऐसा नहीं था कि साधनाजी खाना नहीं बनाती थीं पर एक अनजाने भय से वे हमेशा ग्रसित रहती थीं. कहीं कल साधनाजी इसी बात को बखेड़ा न बना दें.

आज औफिस में कुछ ज्यादा ही काम था, समर घर से ही औफिस संभाल रहा था. अजयजी के कमरे में बड़ा सन्नाटा पसरा हुआ था. साधनाजी 2 बार कमरे के बाहर चक्कर भी मार आई थीं. इतनी देर तक तो अजयजी कभी नहीं सोते थे फिर आज…आज क्या हुआ? वे समर के कमरे की ओर बढ़ गईं, “समर, चाय पिएगा?”

“अपने लिए बना रही हो मां तो पिला दो…अपनी स्पैशल वाली बनाना.” साधनाजी के चेहरे पर एक मुसकराहट आ गई, दरवाजे के पास जातेजाते वह वही रुक गई. कैसे पूंछूं? पता नहीं क्या सोचेगा?”समर, तेरे ससुर ठीक है न…सुबह से देखा नहीं उन्हें, इस वक्त तक तो गमलों के साथ कुछ न कुछ करते ही रहते हैं. सब ठीक है न…” “मुझे पता नहीं मां, आज मेरी एक बहुत जरूरी मीटिंग है मैं उसी की तैयारी में व्यस्त हूं. ठीक ही होंगे?”

समर साधनाजी को उन के चिंतन के साथ छोड़ कर काम में व्यस्त हो गया. साधनाजी चौके की तरफ बढ़ गईं.चाय का पतीला उठाया पर मन तो अजय की तरफ ही लगा था,’जब चाय बना रही हूं तो एक बार पूछ ही लेती हूं…एक बार पूछ लूंगी तो कौन सा घट जाऊंगी,’ साधनाजी अजयजी के कमरे की तरफ बढ़ गईं. कमरे के अंदर अभी भी सन्नाटा था. साधनाजी ने दरवाजे को खटखटाया उधर से कोई आवाज नहीं आई, उन्होंने दूसरी बार दरवाजे को जोर से खटखटाया…

 

“आ जाओ अप्पू…” अपूर्वा को इसी नाम से तो पुकारते थे वे. साधनाजी अजीब कशमकश में पड़ी थीं, अंदर जाऊं या न जाऊं. अजयजी पता नहीं क्या सोचें पर अब तो जाना ही पड़ेगा,”मैं हूं भाईसाहब…अंदर आ जाऊं?” “जी…” साधनाजी ने दरवाजे को हलके से धक्का दे कर खोल दिया. अजयजी  बिस्तर पर ही लेटे हुए थे. साधनाजी की आवाज को सुन कर उन्होंने उठने का उपक्रम किया. “अरे क्या हुआ आप लेटे क्यों हैं… तबीयत ठीक है न?”

“हां ठीक है बस कल रात से थोड़ा सा पेट में दर्द है. 2 बार पतले दस्त भी हुए.”अजयजी के चेहरे पर दर्द की लकीरें उभर आईं, आंखें उनींदी हो रही थीं.शायद दर्द के कारण वे पूरी रात सोए नहीं थे. साधनाजी के माथे पर बल पड़ गया,”अपूर्वा ने भी कुछ नहीं बताया.. .””नहींनहीं उस की कोई गलती नहीं… उसे तो पता भी नहीं. आप ने दरवाजा खटखटाया तो मैं ने सोचा अपूर्वा ही है.””कोई दवा ली…?”

“जी दवा…”अजयजी के गले में शब्द अटक से गए. जब तक मृदुला थी तो वह कहीं भी जाने से पहले एक छोटा सा फर्स्ट एड बौक्स जरूर रख लेती थी पर अब…”कोई बात नहीं आप मुंहहाथ धो लीजिए…मैं अभी आती हूं.”अजयजी बड़े पेशोपेश में थे. इतने दिनों में पहली बार साधनाजी से उन की इतनी बात हुई थी. वे गुसलखाने में घुस गए.

“भाईसाहब, यह गरम पानी के साथ निगल लीजिए, आराम मिलेगा. समर के पापा को भी जब कभी दिक्कत होती तो मैं यही देती थी. 2-3 बार ले लेंगे तो सही हो जाएगा.””जी…”साधनाजी दवा और पानी रख कर चली गईं. अजयजी ने चुपचाप दवा ले ली और अपने बिस्तर पर लेट गए. कितने दिनों बाद उन्होंने किसी से बात की थी. ऐसा नहीं था कि समर और अपूर्वा उन्हें समय नहीं देते थे पर इंसान का एक स्वभाव होता है जहां से उम्मीद न हो वह वहां से ही उम्मीद करता है. अजयजी को न जाने क्यों बहुत पहले पढ़ी एक पत्रिका की कुछ पंक्तियां याद आ गईं,’घरों में दरवाजों से ज्यादा खिड़कियां होनी चाहिए क्योंकि दरवाजे हमेशा घुटन का एहसास कराते हैं पर खिड़कियां… खिड़कियों से आती शीतल बयार मन के कोनेकोने को सुवासित और सुगंधित कर देती है. खिड़कियों पर खड़ा आदमी उम्मीद का इंतजार करता है…’ तभी बरतनों की आवाज से उप की तंद्रा टूट गई.

“भाईसाहब, यह आप की चाय है. थोड़ी ही दी है और यह मूंग की दाल का चिल्ला, हलका रहेगा पेट तो आराम मिलेगा.”अजयजी संकोच से दोहरे हुए जा रहे थे.”आप…आप क्यों परेशान हो रही हैं.मैं ठीक हो जाऊंगा.””परेशानी कैसे…अपूर्वा मूंग की दाल पीस गई थी कि नाश्ते में पकौड़ी बनेगी, मैं ने सोचा आप के लिए चिल्ला बना दूं. पेट भी भर जाएगा और आराम भी रहेगा.

 

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December 18, 2021 at 10:00AM

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