लेखिका: पुष्पा अग्रवाल
फिर आगे बोला, ‘‘यदि आप की तबीयत ठीक न हो तो इतना लंबा सफर मत करना, मैं इन्हें सकुशल उदयपुर पहुंचा दूंगा.’’
‘‘शुक्रिया बेटा, लो अपने अंकल से बात करो,’’ मेरा मन हलका हो गया था.
‘‘बेटा, हम परसों तक पहुंचने की कोशिश करेंगे. तुम्हें तकलीफ तो दे रहे हैं, पर सलीम भाई से बात नहीं हुई. वे कहां हैं?’’ इन्होंने संशय के साथ पूछा.
‘‘अंकल, वह कोच्चि में ही हैं. आजकल उन की भी तबीयत ठीक नहीं है. अच्छा मैं फोन रखता हूं.’’
‘‘चलो, मन को तसल्ली हो गई कि परदेस में भी कोई तो अपना मिला. यह कहते हुए मैं लेट गई. जल्दी से जल्दी टैक्सी से पहुंचने में भी हमें समय लग गया. अशरफ ने हमें अस्पताल और रूम नंबर बता दिया था, सो हम सीधे कोच्चि के अस्पताल में पहुंच गए.
वाकई अशरफ वहां के एक बड़े अस्पताल में सब जांच करवा रहा था, आरुषि के 2-3 फ्रैक्चर हो गए थे, उस के प्लास्टर बंध गया था.
राजीव के दिमाग में तो कोई चोट नहीं आई थी. पर बैकबोन में लगने से वह हिलडुल नहीं पा रहा था. चक्कर भी पूरे बंद नहीं हुए थे. एक पांव की एड़ी में भी ज्यादा चोट लग गई थी.
डाक्टर ने 10 दिन कोच्चि में ही रहने की सलाह दी. ऐसी हालत में इतनी दूर का सफर ठीक नहीं है, सीमा ठीक थी और वही सब को संभाल रही थी.
पोते आयुष को हम अपने साथ अस्पताल से बाहर ले आए और अशरफ से होटल में ठहरने की बात की.
‘‘अंकल, आप क्यों शर्मिंदा कर रहे हैं. घर चलिए, अब्बाजान आप का इंतजार कर रहे हैं.’’
हमारी हिचक देख कर वह बोला, ‘‘अंकल, आप चिंता न करें. आप के धर्म को देख कर मैं ने इंतजाम कर दिया है.’’
‘‘अरे, नहीं बेटा, दोस्ती में धर्म नहीं देखा जाता है,’’ ये शर्मिंदगी महसूस कर रहे थे.
अशरफ हमें सलीम भाई के कमरे में ले गया. सलीम भाई ने एक हाथ उठा कर अस्फुट शब्दों में बोल कर हमारा स्वागत किया. उन की आंखें बहुत कुछ कह रही थीं. हमारे मुंह से बोल नहीं निकल रहा था. इन्होंने सलीम भाई का हाथ पकड़ कर हौले से दबा दिया. 10 मिनट तक हम बैठे रहे, सलीम भाई उसी टूटेफूटे शब्दों में हम से बात करने की कोशिश कर रहे थे. अशरफ ही उन की बात समझ रहा था.
खाना खाने के बाद अशरफ ने बताया, ‘‘अब्बाजान जब भी उदयपुर से आते थे आप की बहुत तारीफ करते थे. हमेशा कहते थे, ‘‘मुझे जिंदगी में इस से बढि़या आदमी नहीं मिला और चाचीजान के खाने की इतनी तारीफ करते थे कि पूछो मत.’’
उस के चेहरे पर उदासी आ गई. एक मिनट खामोश रह कर बात आगे बढ़ाई, ‘‘आप के यहां से आने के चौथे दिन बाद ही अम्मीजान की तबीयत ज्यादा खराब हो गई थी. बे्रस्ट में ब्लड आ जाने से एकदम चिंता हो गई थी. कैल्लूर के डाक्टर ने तो सीधा मुंबई जाने की सलाह दी.
‘‘जांच होने पर पता चला कि उन्हें बे्रस्ट कैंसर है और वह भी सेकंडरी स्टेज पर. बस, सारा घर अम्मीजान की सेवा में और पूरा दिन अस्पताल, डाक्टरों के चक्कर लगाने में बीत जाता था.
‘‘इलाज करवातेकरवाते भी कैंसर उन के दिमाग में पहुंच गया. अब्बाजान तो अम्मीजान से बेइंतहा मोहब्बत करते थे. अम्मी 2 साल जिंदा रहीं पर अब्बाजान ने उन्हें कभी अकेला नहीं छोड़ा. मैं उस समय सिर्फ 20 साल का था.
‘‘ऐसी हालत में व्यापार बिलकुल चौपट हो गया. फैक्टरी बेचनी पड़ी. अम्मीजान घर से क्या गईं, लक्ष्मी भी हमारे घर का रास्ता भटक गई.
‘‘अकसर अब्बाजान आप का जिक्र करते थे और कहते थे, ‘एक बार मुझे उदयपुर जाना है और उन का हिसाब करना है, वे क्या सोचते होंगे कि दोस्ती के नाम पर एक मुसलमान धोखा दे गया.’?’’
हमारी आंखें नम हो रही थीं, इन्होंने एकदम से अशरफ को गले लगा लिया और बात बदलते हुए पूछा, ‘‘सलीम भाई की यह हालत कैसे हो गई?’’
अशरफ गुमसुम सा छत की ओर ताकने लगा, मन की वेदना छिपाते हुए आगे बोला, ‘‘अंकल, जब मुसीबत आती है, तो इनसान को चारों ओर से घेर लेती है. अभी 2 साल पहले अब्बाजान ने फिर से व्यापार में अच्छी तरह मन लगाना शुरू किया था. हमारा कैल्लूर छूट गया था. हम कोच्चि में ही रहने लगे. मैं भी अब उन के संग काम करना सीख रहा था.
‘‘पहले वाला मार्बल का काम बिलकुल ठप्प पड़ गया था. कर्जदारों का बोझ बढ़ गया था. व्यापार की हालत खराब हुई तो लेनदार आ कर दरवाजे पर खड़े हो गए. पर देने वालों ने तो पल्ला ही झाड़ लिया. आजकल मोबाइल नंबर होते हैं, बस, नंबर देखते ही लाइन काट देते थे.
ये भी पढ़ें- मन्नो बड़ी हो गई है
‘‘जैसेतैसे थोड़ी हालत ठीक हुई तो अब्बाजान को लकवे ने आ दबोचा. चल- फिर नहीं पाते और जबान भी साफ नहीं हुई, इसलिए एक बार फिर व्यापार का वजन मेरे कंधों पर आ गया.’’
यों कहतेकहते अशरफ फूटफूट कर रो पड़ा. मेरी भी रुलाई फूट रही थी. मुझे आत्मग्लानि भी महसूस हो रही थी. कितनी संकीर्णता से मैं ने एकतरफा फैसला कर के किसी को मुजरिम करार दे दिया था.
राजीव की सारी जांच की रिपोर्टें आने के बाद कोई बीमारी नहीं निकली थी. हम सब ने राहत की सांस ली. मन की दुविधा निकल गई थी. हमें देख कर आज भी सलीम भाई के चेहरे पर वही चिरपरिचित मुसकान आ जाती थी.
10 दिन रह कर हमारे उदयपुर लौटने का समय आ गया था. अशरफ के कई बार मना करने के बावजूद इन्होंने सारा पेमेंट चुकाते हुए कहा, ‘‘बेटा, मैं तुम्हारे पिता के समान हूं. एक बाप अपने बेटे पर कर्तव्यों का बोझ डालता है पर खर्चे का नहीं. अभी तो मैं खर्च कर सकता हूं.’’
अशरफ इन के पांवों में झुक गया. इन्होंने उसे गले लगाते हुए कहा, ‘‘बेटा, तुम ने जिस तरह से अपने पिताजी की शिक्षा ग्रहण की है और कर्तव्य की कसौटी निभाई है वह बेमिसाल है.’’
फिर एक बार सलीम भाई के गले मिले. दोनों की आंखें झिलमिला रही थीं.
चलते समय अशरफ ने झुक कर आदाब किया. इन्होंने आशीर्वाद देते हुए कहा, ‘‘बेटा, आज से अपने इस चाचा को पराया मत समझना. तुम्हारे एक नहीं 2 घर हैं. हमारे बीच एक अनमोल रिश्ता है, जो सब रिश्तों से ऊपर है.’’
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लेखिका: पुष्पा अग्रवाल
फिर आगे बोला, ‘‘यदि आप की तबीयत ठीक न हो तो इतना लंबा सफर मत करना, मैं इन्हें सकुशल उदयपुर पहुंचा दूंगा.’’
‘‘शुक्रिया बेटा, लो अपने अंकल से बात करो,’’ मेरा मन हलका हो गया था.
‘‘बेटा, हम परसों तक पहुंचने की कोशिश करेंगे. तुम्हें तकलीफ तो दे रहे हैं, पर सलीम भाई से बात नहीं हुई. वे कहां हैं?’’ इन्होंने संशय के साथ पूछा.
‘‘अंकल, वह कोच्चि में ही हैं. आजकल उन की भी तबीयत ठीक नहीं है. अच्छा मैं फोन रखता हूं.’’
‘‘चलो, मन को तसल्ली हो गई कि परदेस में भी कोई तो अपना मिला. यह कहते हुए मैं लेट गई. जल्दी से जल्दी टैक्सी से पहुंचने में भी हमें समय लग गया. अशरफ ने हमें अस्पताल और रूम नंबर बता दिया था, सो हम सीधे कोच्चि के अस्पताल में पहुंच गए.
वाकई अशरफ वहां के एक बड़े अस्पताल में सब जांच करवा रहा था, आरुषि के 2-3 फ्रैक्चर हो गए थे, उस के प्लास्टर बंध गया था.
राजीव के दिमाग में तो कोई चोट नहीं आई थी. पर बैकबोन में लगने से वह हिलडुल नहीं पा रहा था. चक्कर भी पूरे बंद नहीं हुए थे. एक पांव की एड़ी में भी ज्यादा चोट लग गई थी.
डाक्टर ने 10 दिन कोच्चि में ही रहने की सलाह दी. ऐसी हालत में इतनी दूर का सफर ठीक नहीं है, सीमा ठीक थी और वही सब को संभाल रही थी.
पोते आयुष को हम अपने साथ अस्पताल से बाहर ले आए और अशरफ से होटल में ठहरने की बात की.
‘‘अंकल, आप क्यों शर्मिंदा कर रहे हैं. घर चलिए, अब्बाजान आप का इंतजार कर रहे हैं.’’
हमारी हिचक देख कर वह बोला, ‘‘अंकल, आप चिंता न करें. आप के धर्म को देख कर मैं ने इंतजाम कर दिया है.’’
‘‘अरे, नहीं बेटा, दोस्ती में धर्म नहीं देखा जाता है,’’ ये शर्मिंदगी महसूस कर रहे थे.
अशरफ हमें सलीम भाई के कमरे में ले गया. सलीम भाई ने एक हाथ उठा कर अस्फुट शब्दों में बोल कर हमारा स्वागत किया. उन की आंखें बहुत कुछ कह रही थीं. हमारे मुंह से बोल नहीं निकल रहा था. इन्होंने सलीम भाई का हाथ पकड़ कर हौले से दबा दिया. 10 मिनट तक हम बैठे रहे, सलीम भाई उसी टूटेफूटे शब्दों में हम से बात करने की कोशिश कर रहे थे. अशरफ ही उन की बात समझ रहा था.
खाना खाने के बाद अशरफ ने बताया, ‘‘अब्बाजान जब भी उदयपुर से आते थे आप की बहुत तारीफ करते थे. हमेशा कहते थे, ‘‘मुझे जिंदगी में इस से बढि़या आदमी नहीं मिला और चाचीजान के खाने की इतनी तारीफ करते थे कि पूछो मत.’’
उस के चेहरे पर उदासी आ गई. एक मिनट खामोश रह कर बात आगे बढ़ाई, ‘‘आप के यहां से आने के चौथे दिन बाद ही अम्मीजान की तबीयत ज्यादा खराब हो गई थी. बे्रस्ट में ब्लड आ जाने से एकदम चिंता हो गई थी. कैल्लूर के डाक्टर ने तो सीधा मुंबई जाने की सलाह दी.
‘‘जांच होने पर पता चला कि उन्हें बे्रस्ट कैंसर है और वह भी सेकंडरी स्टेज पर. बस, सारा घर अम्मीजान की सेवा में और पूरा दिन अस्पताल, डाक्टरों के चक्कर लगाने में बीत जाता था.
‘‘इलाज करवातेकरवाते भी कैंसर उन के दिमाग में पहुंच गया. अब्बाजान तो अम्मीजान से बेइंतहा मोहब्बत करते थे. अम्मी 2 साल जिंदा रहीं पर अब्बाजान ने उन्हें कभी अकेला नहीं छोड़ा. मैं उस समय सिर्फ 20 साल का था.
‘‘ऐसी हालत में व्यापार बिलकुल चौपट हो गया. फैक्टरी बेचनी पड़ी. अम्मीजान घर से क्या गईं, लक्ष्मी भी हमारे घर का रास्ता भटक गई.
‘‘अकसर अब्बाजान आप का जिक्र करते थे और कहते थे, ‘एक बार मुझे उदयपुर जाना है और उन का हिसाब करना है, वे क्या सोचते होंगे कि दोस्ती के नाम पर एक मुसलमान धोखा दे गया.’?’’
हमारी आंखें नम हो रही थीं, इन्होंने एकदम से अशरफ को गले लगा लिया और बात बदलते हुए पूछा, ‘‘सलीम भाई की यह हालत कैसे हो गई?’’
अशरफ गुमसुम सा छत की ओर ताकने लगा, मन की वेदना छिपाते हुए आगे बोला, ‘‘अंकल, जब मुसीबत आती है, तो इनसान को चारों ओर से घेर लेती है. अभी 2 साल पहले अब्बाजान ने फिर से व्यापार में अच्छी तरह मन लगाना शुरू किया था. हमारा कैल्लूर छूट गया था. हम कोच्चि में ही रहने लगे. मैं भी अब उन के संग काम करना सीख रहा था.
‘‘पहले वाला मार्बल का काम बिलकुल ठप्प पड़ गया था. कर्जदारों का बोझ बढ़ गया था. व्यापार की हालत खराब हुई तो लेनदार आ कर दरवाजे पर खड़े हो गए. पर देने वालों ने तो पल्ला ही झाड़ लिया. आजकल मोबाइल नंबर होते हैं, बस, नंबर देखते ही लाइन काट देते थे.
ये भी पढ़ें- मन्नो बड़ी हो गई है
‘‘जैसेतैसे थोड़ी हालत ठीक हुई तो अब्बाजान को लकवे ने आ दबोचा. चल- फिर नहीं पाते और जबान भी साफ नहीं हुई, इसलिए एक बार फिर व्यापार का वजन मेरे कंधों पर आ गया.’’
यों कहतेकहते अशरफ फूटफूट कर रो पड़ा. मेरी भी रुलाई फूट रही थी. मुझे आत्मग्लानि भी महसूस हो रही थी. कितनी संकीर्णता से मैं ने एकतरफा फैसला कर के किसी को मुजरिम करार दे दिया था.
राजीव की सारी जांच की रिपोर्टें आने के बाद कोई बीमारी नहीं निकली थी. हम सब ने राहत की सांस ली. मन की दुविधा निकल गई थी. हमें देख कर आज भी सलीम भाई के चेहरे पर वही चिरपरिचित मुसकान आ जाती थी.
10 दिन रह कर हमारे उदयपुर लौटने का समय आ गया था. अशरफ के कई बार मना करने के बावजूद इन्होंने सारा पेमेंट चुकाते हुए कहा, ‘‘बेटा, मैं तुम्हारे पिता के समान हूं. एक बाप अपने बेटे पर कर्तव्यों का बोझ डालता है पर खर्चे का नहीं. अभी तो मैं खर्च कर सकता हूं.’’
अशरफ इन के पांवों में झुक गया. इन्होंने उसे गले लगाते हुए कहा, ‘‘बेटा, तुम ने जिस तरह से अपने पिताजी की शिक्षा ग्रहण की है और कर्तव्य की कसौटी निभाई है वह बेमिसाल है.’’
फिर एक बार सलीम भाई के गले मिले. दोनों की आंखें झिलमिला रही थीं.
चलते समय अशरफ ने झुक कर आदाब किया. इन्होंने आशीर्वाद देते हुए कहा, ‘‘बेटा, आज से अपने इस चाचा को पराया मत समझना. तुम्हारे एक नहीं 2 घर हैं. हमारे बीच एक अनमोल रिश्ता है, जो सब रिश्तों से ऊपर है.’’
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December 31, 2021 at 10:17AM
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