Tuesday 14 June 2022

सख्त निर्णय: सुधा ने अपने बेटों के साथ क्या किया?

दादा बनवारी लाल बरनवाल भी जब कोरोनाग्रस्त हुए, तो घर में जैसे सब की नींद खुली. सुधा अपने दोनों बेटों को बहुत पहले से चेतावनी दे रही थी कि घर की हालत ठीक नहीं चल रही, व्यवसाय चौपट हो गया है और उन्हें काहिली से फुरसत नहीं. यही हाल रहा, तो और बुरे दिन देखने को मिलेंगे. साराकुछ कर्ज में डूबा हुआ है, यह बैंकवालों और महाजनों के तगादों से समझ आ रहा था. मगर उन के कानों पर जू तक न रेंग रही थी.

विगत दिनों ही घर के मुखिया रामनाथ बरनवाल कोरोना से लड़तेलड़ते चल बसे थे. उन पर लाखों रुपए खर्च करने के बाद भी वे बच न पाए. शहर के प्रसिद्ध पारस अस्पताल में उन का इलाज चला था. यह वह समय था  जब औक्सीजन से ले कर दुर्लभ दवाओं तक की मारामारी थी. वह सब किसी प्रकार सिर्फ पैसों के बल पर ही तो उपलब्ध हुआ था. जब वहां भी स्थिति नहीं संभली,  तो उन्हें एयर एम्बुलैंस द्वारा बेंगलुरु के प्रतिष्ठित अस्पताल में भी भिजवाया गया था.

पैसे की किल्लत को सुधा तभी समझ पाई जब एकाउंटैंट सुधीर ने बताया कि बैंकों के खाते खाली हैं. तब उस ने तुरंत अपने आभूषण निकाल उन्हें बैंक में जमा करा कर 10 लाख रुपए लोन ले उन के इलाज में खर्च किया था. उस के लिए पति का जीवन महत्त्वपूर्ण था. वहां से वे ठीक हो कर आए ही तो थे कि ब्लैक फंगस नामक रोग ने जकड़ लिया. इस के इलाज के लिए भी  पानी की तरह पैसा बहाया गया. मगर वे बच नहीं पाए.

एक साल से कामधाम, बिजनैस-व्यापार सबकुछ बंद ही तो था. शहर के एक मशहूँर मार्केट में उन की दुकान ‘ द साड़ी शौप’ में कभी 28 स्टाफ काम करते थे और एक समय ऐसा था कि वहां कभी किसी को फुरसत न मिलती थी. मगर लौकडाउन के चक्कर में साराकुछ चौपट होता चला गया. तिस पर रामनाथ बरनवाल की जिद कि दुकान बंद हो या चले, स्टाफ को पूरा वेतन दिया ही जाना चाहिए. सभी को समय से नियमित वेतन दिया जाता रहा था. दादाजी ने दबे स्वरों में इस का विरोध किया था, मगर वे कहां मानने वाले थे. और यही कारण था कि घर तो घर, बैंक से भी सारी नकदी निकल चुकी थी. एक उम्मीद थी कि त्योहारों और लगन के बाद स्थिति संभल जाएगी. मगर दूसरी बार का लौकडाउन रहीसही कसर पूरी कर कंगाल कर गया था.

और ऐसी विषम परिस्थिति में वे कोरोना से ऐसे ग्रस्त हुए कि बाकी बचीखुची संपत्ति भी उन के इलाज में खर्च हो गई.

सुधा की मुसीबतों का अंत नहीं था. दादाजी ने इलाज के लिए अलग से बैंक से और महाजनों से भी पैसों का इंतजाम किया था. मगर पिताजी बच नहीं पाए थे. उलटे, भारीभरकम देनदारी छोड़ गए थे.

घर के दोनों बेटों को जैसे इस से कोई मतलब न था कि घर का खर्च चल कैसे रहा है. उन्होंने कभी पैतृक व्यवसाय में रुचि नहीं ली. बड़े बेटे राजेश का अपना एक साहित्यिक संसार था जिस में वह अपनी कविताओं के माध्यम से रचताबसता था. साहित्य सेतु नामक एक संस्था का वह संस्थापक सदस्य था और उसी बहाने वह अपनी रूमानी कविताओं में उलझा, डूबा रहता था. उस की अपनी एक मित्रमंडली थी जो उस के लिए अपने परिवार से बढ़ कर थी. इतना कि अपनी पत्नी और 2 छोटे बच्चों का भी ख़याल नहीं रखता था.

छोटे बेटे राकेश का अपना नाटकों का संसार था. अभिनय और नाटकों के प्रति गहरी रुचि ने उसे भी अपने पैतृक व्यावसायिक कार्यों से दूर कर दिया था. उस की संस्था ‘रसरंग’   पटना के अलावा अन्य शहरों में भी नाटकों के प्रदर्शन के लिए जानी जाती थी. और उस के लिए भी अपने परिवार की अपेक्षा अपना एनजीओ और कलाकार-परिवार ही सबकुछ था. उस की पत्नी  ने तो अब उसे कुछ कहनासुनना ही छोड़ दिया था और अपने नन्हें बेटे के साथ मगन रहती थी.

पिता और दादा जी ने अपने स्तर पर भरपूर प्रयास तो किया ही कि वे दोनों अपनी विशाल पैतृक व्यवसाय में थोड़ी रुचि लें, मगर उन दोनों में जैसे कारोबारी रक्त थे ही नहीं. और इसलिए वे दोनों इस दायित्व से भागे रहते थे. उन लोगों की बदौलत उन की शहर में मशहूर कपड़े की दुकान चल तो रही थी मगर वे चिंतित रहते थे कि उन के बाद क्या होगा. और इस समय यही विकट परिस्थिति आ गई थी. पिता के गुजरने के बाद जब पानी सिर से गुजरने लगा, तो सुधा ने अपने उन दोनों बेटों को चेतावनी भी दी कि सारा बिजनैस ठप पड़ा है. और आगे भी लौकडाउन खुलने के आसार नहीं  हैं. ऐसे में वे कुछ तो देखें. मगर जब शुरू से ही वे कुछ नहीं देखे, तो अब क्या देखते. अभी हाल ही में पिता का श्राद्धकर्म भी नहींनहीं करते धूमधाम से किया गया, तो उस के भोजभात और दानदक्षिणा में लाखों खर्च हो गए थे. और यह सब दादाजी के क्रैडिट पर संपन्न हुआ था.

मगर इस के बाद ही दादाजी भी कोरोनाग्रस्त हो गए थे. दुकान और गोदाम को गिरवी रख कर उन्होंने बैंक और महाजनों से कर्ज लिया था. व्यवसाय तो वैसे भी लेनदेन और क्रैडिट पर ही चलता है. चिंतित सुधा को वे बुला कर सारी वस्तुस्थिति से अवगत करा बोले- ‘अब मैं यह भार और नहीं उठा सकता, सुधा. वैसे भी, 82 साल का वृद्ध हूं. रामनाथ के जाने के बाद मैं टूट चुका हूं. तुम्हारे बेटों को शुरू से समझाते आया. मगर उन्होंने कभी रुचि नहीं ली कि साड़ी शौप के इस विशाल व्यापार को देखेंसमझें. अब आगे का तुम ही देख सको, तो देखना.’

‘ऐसा न कहिए,’ वह फूट पड़ी, ‘मैं क्या देख सकती हूं, मेरा तो सारा समय इस विशाल आलीशान घर को ही देखनेसंभालने में चला  गया. बाहर का काम मैं क्या जानूं. आप को कुछ नहीं होगा. मैं आप का अच्छे डाक्टर से इलाज कराऊंगी.’

‘इस का कोई फायदा नहीं होगा. एक तो इस समय सारे डाक्टर्स खुद परेशान हैं, व्यस्त हैं. अपने स्तर पर तो वे बेहतर ही काम करते हैं. मगर मुझे इस का एहसास हो रहा है कि अब मैं ज्यादा दिन चल नहीं सकता. वैसे भी, रामनाथ के जाने के बाद मेरे जीने की इच्छा भी नहीं है. तुम वकील अजयेंद्र को बुला कर सबकुछ समझ लेना.’

‘नहीं, ऐसा मत कहिए. मैं अकेले झेल नहीं पाऊंगी,’ वह एकदम से घबरा कर बोली, ‘मैं अभी बेटों को बुलाती हूं, शायद अब वे कुछ समझें.’

उस ने तुरंत अपने बेटों को आवाज दी. सभी उन के कमरे में भागेभागे आए. मगर तब तक देर हो चुकी थी. पक्षी पिंजरा छोड़ अनंत आकाश में उड़ चला था.

सुधा को होश नहीं था. वह समझ नहीं पाती थी कि वह करे तो क्या करे.

उस के सामने उस का अतीत साकार होने लगा था. श्वसुर बनवारी लाल कोई 40 साल पहले एक छोटे से गांव से इस शहर में आऐ थे. वे कपड़ों की गठरी बांधे गलीमहल्लों में फेरी लगा कर कपड़े बेचा करते थे. बाद में स्थिति सुधरी तो एक दुकान को किराए पर ले लिया. रामनाथ बरनवाल से तकरीबन 30 साल पूर्व जब उस की शादी हुई थी, तो वे एक गंदी गली के एक छोटे से 2 कमरों के किराए के घर में रहते थे.

विवाह के बाद ही अचानक व्यवसाय में तेजी आई, तो एक भव्य मार्केट में भाड़े पर दुकान ले ली. कमाई बढ़ी, तो रहनसहन का स्तर भी बढ़ा. फिर इस पौश कालोनी में 800 गज  जमीन ले यह आलीशान मकान बना, तो उसे परम संतोष का एहसास हुआ था.  कितने उतारचढ़ावों को वह देख चुकी है. काश, उस के बेटे इस व्यवसाय को समय रहते संभाल पाते.

दादाजी की अंत्येष्टि के बाद वह थोड़ी स्थिर हुई. आगे का काम कैसे चले, यही सोच रही थी. मगर उस का दिमाग काम नहीं कर रहा था. अचानक उसे वकील अजयेंद्र की याद आई. उस ने उन्हें तुरंत बुलवा भेजा. साथ ही, अकाउंटैंट सुधीर और उस के सहयोगी को भी बुला लिया. इसी बीच दोनों बेटों को भी उस ने अपने पास आने को कह खुद को मानसिक स्तर पर तैयार करने में लग गई कि उसे करना क्या  है.

दोनों बेटों के चेहरे से साफ झलक रहा था कि वे परिस्थितियों की गंभीरता का आकलन कर रहे हैं. अकाउंटैंट सुधीर अपने सहयोगी कंप्यूटर औपरेटर अजीत के साथ फाइलों का गट्ठर थामे हाजिर हो चुका था. अजयेंद्रजी फाइलों पर सरसरी निगाह से अवलोकन कर सुधीर से पूछ बैठे- “लेनदारी तो कहीं है नहीं. तो देनदारी की ही बात की जाए.”

“विगत वर्ष से ही इस घर की स्थिति डांवांडोल चल रही थी,” सुधीर बोला, “कोई 10 करोड़ रुपए के कर्ज पहले से ही बैंक के थे. बाद में  रमानाथजी ने अपनी दुकान के लिए एक करोड़ रुपए के कपड़े क्रैडिट पर और मंगवा लिए थे कि त्योहारों के मौसम में अनुकूल स्थिति हो जाएगी. मगर उस समय भी लौकडाउन खुला नहीं और सारा माल गोदाम में पड़ा रह गया. खर्च तो कम हुए नहीं. उलटे, स्टाफ को भी वेतन का नियमित भुगतान चलता  रहा. और इस प्रकार डेढ़ करोड़ रुपए का कर्ज और बढ़ा है.”

“बेटे, तुम बताओ, तुम इस परिस्थिति में क्या कर सकते हो?” सुधा ने अपने बेटों की ओर देखते हुए उन की तरफ सवाल उछाल दिया, “मैं सारा कर्ज खत्म करना चाहूंगी. मुझे अपने घर की कुर्की, जब्ती, नीलामी कर बदनामी नहीं करवानी.”

“कुल कितने का कर्ज बकाया है?” राजेश ने सहज भाव से कहा. तो, सुधीर ने तुरंत जवाब दिया- “यही कोई 20 करोड़ रुपया का बकाया है.”

“अरे बाप रे, इतनी बड़ी रकम!” राकेश चिहुंक कर बोला- “कहां से आएगी इतनी बड़ी रकम?”

“देखो मां, हमारी दुकान चलाने में न पहले रुचि थी और न अब है,” राजेश तटस्थ भाव से बोल रहा था- “उस दुकान और गोदाम को बेच कर यह कर्ज चुकाया जा सकता है.”

“और कोई रास्ता भी नहीं बचा है,” अजयेंद्रजी बोले, “सुधीरजी शायद इस का भी लेखाजोखा कर रखे होंगे. वही बेहतर बता सकते हैं.”

“काफी खराब लग रहा है यह स्थिति देख कर,” सुधीर सकुचाते हुए बोले, “एक वे दिन देखे थे हम ने कि इस घर में रुपयों की बरसात होती थी. और मुझे उस का हिसाबकिताब रखते रात के ग्यारह-बारह बज जाते थे. और एक आज का दिन है कि मुझ से इस प्रौपर्टी के बेचने के लिए हिसाब लगाने को कहा जा रहा है.”

“तो हमें ही अच्छा लग रहा है क्या,” राकेश आगे बढ़ कर बोला, “हम इसे संभाल नहीं सकते. तिस पर इतनी बड़ी देनदारी है, तो कोई क्या करे.”

“अब आप लोग दबाव दे रहे हैं, तो बताना ही पड़ेगा मुझे. तो सुन लीजिए, वह सब बेचने के बाद लगभग 15 करोड़ रुपए ही आएंगे. बाकी के 5 करोड़ रुपए कहां से आएंगे, यह विचार कर लीजिए.”

“फिलहाल इतना तो व्यवस्था कर लीजिए,” राजेश उठता हुआ बोला, “आगे की आगे देखी जाएगी.”

राकेश भी अपने बड़े भाई का अनुसरण करते वहां से चला गया था.

सुधा  वकील अजयेंद्र और अकाउंटैंट सुधीर का मुंह देखते हुए स्तब्ध बैठी रह गई. उस का माथा तनाव और दर्द से फटा जा रहा था. तो, ये बेटे हैं, जिन्हें अपनी पैतृक संपत्ति से जरा भी मोह नहीं. अपने भविष्य का भी ख़याल नहीं आया इन्हें कि कल क्या होगा!

“800 गज में बने इस मकान की कीमत क्या होगी,” वह सुधीर जी से मुखातिब थी, “इस पौश एरिया के इस आलीशान मकान के  अच्छे दाम तो मिलने ही चाहिए.”

“यह आप क्या कह रही हैं,” अजयेंद्र जी अवाक् हो बोल पड़े, “फिर आप कहां रहेंगी? आप के बेटे कहां जाएंगे?”

“बीसेक साल पहले गंगा किनारे एक अपार्टमैंट बन रहा था, तो मैं ने वहां वन बीएचके का एक फ्लैट खरीद लिया था कि कभीकभी वहां जा कर गंगादर्शन का आनंद लूंगी. अभी वह भाड़े पर है. उसे खली करा कर मैं उसी में जा कर रहने लगूंगी. और बेटों का क्या है, वे अभी युवा हैं, कुछ न कुछ इंतजाम कर ही लेंगे. यह भी हो सकता है कि वे अपनी ससुराल में ही रह-बस जाएं. मगर मुझे क्या, मैं ने तो गरीबी देखी है, अभाव झेला है. मुझे कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला.”

“फिर भी भाभीजी, इस मकान को कितने शौक से बनवाया आप लोगों ने, इस का गवाह मैं खुद हूं,” अजयेंद्र जी बोले, “आप को इस घर को छोड़ते कैसा लगेगा?”

“मुझे मालूम है, बहुत खराब लगेगा. इस घर में तीसेक साल पहले मैं बहू बन कर आई और यहीं की हो कर रह गई. इस घर से मेरी अनेक यादें जुड़ी हैं. मेरे दोनों बेटों का जन्म भी यहीं हुआ,” सुधा उदास  होती हुई बोली, “मगर जब हमारे पितासमान श्वसुर और पति ही नहीं रहे, तो मतलब रह क्या जाता है. मेरी पहली प्राथमिकता तो यही है कि उन के नाम कोई देनदारी न रहे, उन पर कोई कलंक न लगे.”

“मगर इस पैतृक संपत्ति पर उन का भी हक  है.”

“मैं कहां कह रही हूं कि नहीं है भाईसाहब,” वह तैश में आ कर बोली, “मैं पहले उन्हीं से कहूंगी कि वे चाहें तो इसे मिल कर या अलगअलग हिस्सों के रूप में  ही खरीद लें, ताकि सभी कर्जों और देनदारियों को खत्म किया जा सके. उन के इनकार करने के बाद ही इस का कोई अन्य ग्राहक तलाशेंगे.”

“वे कहां से व्यवस्था कर पाएंगे, मैडम?”

“क्यों, उन के खाते में थोड़ेबहुत पैसे अवश्य होंगे. अपनी गाड़ी बेचेंगे, और क्या… उन की बीवियों के पास लाखों के आभूषण हैं. वे अपने एनजीओ अथवा ससुराल वालों से भी सहयोग ले सकते हैं. अपने क्रैडिट पर बैंक से लोन ले सकते हैं. करना चाहें, तो बहुतकुछ कर सकते हैं.”

“जब पहले कुछ नहीं किया तो अब क्या कर लेंगे,” अजयेंद्र जी बोले, “मगर सवाल यह भी तो है कि आप अकेले वहां कैसे रहेंगी?”

“और कोई रास्ता भी तो नहीं है,” वह उदास स्वर में बोलते और उठते हुए बोली, “और क्या… इन बेटों से पहले ही कोई उम्मीद नहीं थी और अब तो इन से कुछ कहना ही बेकार है. अब वे जानें और उन का काम जाने. मुझे जो निर्णय लेना था, ले लिया. इस से ज्यादा मैं कुछ कर नहीं सकती.”

The post सख्त निर्णय: सुधा ने अपने बेटों के साथ क्या किया? appeared first on Sarita Magazine.



from कहानी – Sarita Magazine https://ift.tt/WkZuYf4

दादा बनवारी लाल बरनवाल भी जब कोरोनाग्रस्त हुए, तो घर में जैसे सब की नींद खुली. सुधा अपने दोनों बेटों को बहुत पहले से चेतावनी दे रही थी कि घर की हालत ठीक नहीं चल रही, व्यवसाय चौपट हो गया है और उन्हें काहिली से फुरसत नहीं. यही हाल रहा, तो और बुरे दिन देखने को मिलेंगे. साराकुछ कर्ज में डूबा हुआ है, यह बैंकवालों और महाजनों के तगादों से समझ आ रहा था. मगर उन के कानों पर जू तक न रेंग रही थी.

विगत दिनों ही घर के मुखिया रामनाथ बरनवाल कोरोना से लड़तेलड़ते चल बसे थे. उन पर लाखों रुपए खर्च करने के बाद भी वे बच न पाए. शहर के प्रसिद्ध पारस अस्पताल में उन का इलाज चला था. यह वह समय था  जब औक्सीजन से ले कर दुर्लभ दवाओं तक की मारामारी थी. वह सब किसी प्रकार सिर्फ पैसों के बल पर ही तो उपलब्ध हुआ था. जब वहां भी स्थिति नहीं संभली,  तो उन्हें एयर एम्बुलैंस द्वारा बेंगलुरु के प्रतिष्ठित अस्पताल में भी भिजवाया गया था.

पैसे की किल्लत को सुधा तभी समझ पाई जब एकाउंटैंट सुधीर ने बताया कि बैंकों के खाते खाली हैं. तब उस ने तुरंत अपने आभूषण निकाल उन्हें बैंक में जमा करा कर 10 लाख रुपए लोन ले उन के इलाज में खर्च किया था. उस के लिए पति का जीवन महत्त्वपूर्ण था. वहां से वे ठीक हो कर आए ही तो थे कि ब्लैक फंगस नामक रोग ने जकड़ लिया. इस के इलाज के लिए भी  पानी की तरह पैसा बहाया गया. मगर वे बच नहीं पाए.

एक साल से कामधाम, बिजनैस-व्यापार सबकुछ बंद ही तो था. शहर के एक मशहूँर मार्केट में उन की दुकान ‘ द साड़ी शौप’ में कभी 28 स्टाफ काम करते थे और एक समय ऐसा था कि वहां कभी किसी को फुरसत न मिलती थी. मगर लौकडाउन के चक्कर में साराकुछ चौपट होता चला गया. तिस पर रामनाथ बरनवाल की जिद कि दुकान बंद हो या चले, स्टाफ को पूरा वेतन दिया ही जाना चाहिए. सभी को समय से नियमित वेतन दिया जाता रहा था. दादाजी ने दबे स्वरों में इस का विरोध किया था, मगर वे कहां मानने वाले थे. और यही कारण था कि घर तो घर, बैंक से भी सारी नकदी निकल चुकी थी. एक उम्मीद थी कि त्योहारों और लगन के बाद स्थिति संभल जाएगी. मगर दूसरी बार का लौकडाउन रहीसही कसर पूरी कर कंगाल कर गया था.

और ऐसी विषम परिस्थिति में वे कोरोना से ऐसे ग्रस्त हुए कि बाकी बचीखुची संपत्ति भी उन के इलाज में खर्च हो गई.

सुधा की मुसीबतों का अंत नहीं था. दादाजी ने इलाज के लिए अलग से बैंक से और महाजनों से भी पैसों का इंतजाम किया था. मगर पिताजी बच नहीं पाए थे. उलटे, भारीभरकम देनदारी छोड़ गए थे.

घर के दोनों बेटों को जैसे इस से कोई मतलब न था कि घर का खर्च चल कैसे रहा है. उन्होंने कभी पैतृक व्यवसाय में रुचि नहीं ली. बड़े बेटे राजेश का अपना एक साहित्यिक संसार था जिस में वह अपनी कविताओं के माध्यम से रचताबसता था. साहित्य सेतु नामक एक संस्था का वह संस्थापक सदस्य था और उसी बहाने वह अपनी रूमानी कविताओं में उलझा, डूबा रहता था. उस की अपनी एक मित्रमंडली थी जो उस के लिए अपने परिवार से बढ़ कर थी. इतना कि अपनी पत्नी और 2 छोटे बच्चों का भी ख़याल नहीं रखता था.

छोटे बेटे राकेश का अपना नाटकों का संसार था. अभिनय और नाटकों के प्रति गहरी रुचि ने उसे भी अपने पैतृक व्यावसायिक कार्यों से दूर कर दिया था. उस की संस्था ‘रसरंग’   पटना के अलावा अन्य शहरों में भी नाटकों के प्रदर्शन के लिए जानी जाती थी. और उस के लिए भी अपने परिवार की अपेक्षा अपना एनजीओ और कलाकार-परिवार ही सबकुछ था. उस की पत्नी  ने तो अब उसे कुछ कहनासुनना ही छोड़ दिया था और अपने नन्हें बेटे के साथ मगन रहती थी.

पिता और दादा जी ने अपने स्तर पर भरपूर प्रयास तो किया ही कि वे दोनों अपनी विशाल पैतृक व्यवसाय में थोड़ी रुचि लें, मगर उन दोनों में जैसे कारोबारी रक्त थे ही नहीं. और इसलिए वे दोनों इस दायित्व से भागे रहते थे. उन लोगों की बदौलत उन की शहर में मशहूर कपड़े की दुकान चल तो रही थी मगर वे चिंतित रहते थे कि उन के बाद क्या होगा. और इस समय यही विकट परिस्थिति आ गई थी. पिता के गुजरने के बाद जब पानी सिर से गुजरने लगा, तो सुधा ने अपने उन दोनों बेटों को चेतावनी भी दी कि सारा बिजनैस ठप पड़ा है. और आगे भी लौकडाउन खुलने के आसार नहीं  हैं. ऐसे में वे कुछ तो देखें. मगर जब शुरू से ही वे कुछ नहीं देखे, तो अब क्या देखते. अभी हाल ही में पिता का श्राद्धकर्म भी नहींनहीं करते धूमधाम से किया गया, तो उस के भोजभात और दानदक्षिणा में लाखों खर्च हो गए थे. और यह सब दादाजी के क्रैडिट पर संपन्न हुआ था.

मगर इस के बाद ही दादाजी भी कोरोनाग्रस्त हो गए थे. दुकान और गोदाम को गिरवी रख कर उन्होंने बैंक और महाजनों से कर्ज लिया था. व्यवसाय तो वैसे भी लेनदेन और क्रैडिट पर ही चलता है. चिंतित सुधा को वे बुला कर सारी वस्तुस्थिति से अवगत करा बोले- ‘अब मैं यह भार और नहीं उठा सकता, सुधा. वैसे भी, 82 साल का वृद्ध हूं. रामनाथ के जाने के बाद मैं टूट चुका हूं. तुम्हारे बेटों को शुरू से समझाते आया. मगर उन्होंने कभी रुचि नहीं ली कि साड़ी शौप के इस विशाल व्यापार को देखेंसमझें. अब आगे का तुम ही देख सको, तो देखना.’

‘ऐसा न कहिए,’ वह फूट पड़ी, ‘मैं क्या देख सकती हूं, मेरा तो सारा समय इस विशाल आलीशान घर को ही देखनेसंभालने में चला  गया. बाहर का काम मैं क्या जानूं. आप को कुछ नहीं होगा. मैं आप का अच्छे डाक्टर से इलाज कराऊंगी.’

‘इस का कोई फायदा नहीं होगा. एक तो इस समय सारे डाक्टर्स खुद परेशान हैं, व्यस्त हैं. अपने स्तर पर तो वे बेहतर ही काम करते हैं. मगर मुझे इस का एहसास हो रहा है कि अब मैं ज्यादा दिन चल नहीं सकता. वैसे भी, रामनाथ के जाने के बाद मेरे जीने की इच्छा भी नहीं है. तुम वकील अजयेंद्र को बुला कर सबकुछ समझ लेना.’

‘नहीं, ऐसा मत कहिए. मैं अकेले झेल नहीं पाऊंगी,’ वह एकदम से घबरा कर बोली, ‘मैं अभी बेटों को बुलाती हूं, शायद अब वे कुछ समझें.’

उस ने तुरंत अपने बेटों को आवाज दी. सभी उन के कमरे में भागेभागे आए. मगर तब तक देर हो चुकी थी. पक्षी पिंजरा छोड़ अनंत आकाश में उड़ चला था.

सुधा को होश नहीं था. वह समझ नहीं पाती थी कि वह करे तो क्या करे.

उस के सामने उस का अतीत साकार होने लगा था. श्वसुर बनवारी लाल कोई 40 साल पहले एक छोटे से गांव से इस शहर में आऐ थे. वे कपड़ों की गठरी बांधे गलीमहल्लों में फेरी लगा कर कपड़े बेचा करते थे. बाद में स्थिति सुधरी तो एक दुकान को किराए पर ले लिया. रामनाथ बरनवाल से तकरीबन 30 साल पूर्व जब उस की शादी हुई थी, तो वे एक गंदी गली के एक छोटे से 2 कमरों के किराए के घर में रहते थे.

विवाह के बाद ही अचानक व्यवसाय में तेजी आई, तो एक भव्य मार्केट में भाड़े पर दुकान ले ली. कमाई बढ़ी, तो रहनसहन का स्तर भी बढ़ा. फिर इस पौश कालोनी में 800 गज  जमीन ले यह आलीशान मकान बना, तो उसे परम संतोष का एहसास हुआ था.  कितने उतारचढ़ावों को वह देख चुकी है. काश, उस के बेटे इस व्यवसाय को समय रहते संभाल पाते.

दादाजी की अंत्येष्टि के बाद वह थोड़ी स्थिर हुई. आगे का काम कैसे चले, यही सोच रही थी. मगर उस का दिमाग काम नहीं कर रहा था. अचानक उसे वकील अजयेंद्र की याद आई. उस ने उन्हें तुरंत बुलवा भेजा. साथ ही, अकाउंटैंट सुधीर और उस के सहयोगी को भी बुला लिया. इसी बीच दोनों बेटों को भी उस ने अपने पास आने को कह खुद को मानसिक स्तर पर तैयार करने में लग गई कि उसे करना क्या  है.

दोनों बेटों के चेहरे से साफ झलक रहा था कि वे परिस्थितियों की गंभीरता का आकलन कर रहे हैं. अकाउंटैंट सुधीर अपने सहयोगी कंप्यूटर औपरेटर अजीत के साथ फाइलों का गट्ठर थामे हाजिर हो चुका था. अजयेंद्रजी फाइलों पर सरसरी निगाह से अवलोकन कर सुधीर से पूछ बैठे- “लेनदारी तो कहीं है नहीं. तो देनदारी की ही बात की जाए.”

“विगत वर्ष से ही इस घर की स्थिति डांवांडोल चल रही थी,” सुधीर बोला, “कोई 10 करोड़ रुपए के कर्ज पहले से ही बैंक के थे. बाद में  रमानाथजी ने अपनी दुकान के लिए एक करोड़ रुपए के कपड़े क्रैडिट पर और मंगवा लिए थे कि त्योहारों के मौसम में अनुकूल स्थिति हो जाएगी. मगर उस समय भी लौकडाउन खुला नहीं और सारा माल गोदाम में पड़ा रह गया. खर्च तो कम हुए नहीं. उलटे, स्टाफ को भी वेतन का नियमित भुगतान चलता  रहा. और इस प्रकार डेढ़ करोड़ रुपए का कर्ज और बढ़ा है.”

“बेटे, तुम बताओ, तुम इस परिस्थिति में क्या कर सकते हो?” सुधा ने अपने बेटों की ओर देखते हुए उन की तरफ सवाल उछाल दिया, “मैं सारा कर्ज खत्म करना चाहूंगी. मुझे अपने घर की कुर्की, जब्ती, नीलामी कर बदनामी नहीं करवानी.”

“कुल कितने का कर्ज बकाया है?” राजेश ने सहज भाव से कहा. तो, सुधीर ने तुरंत जवाब दिया- “यही कोई 20 करोड़ रुपया का बकाया है.”

“अरे बाप रे, इतनी बड़ी रकम!” राकेश चिहुंक कर बोला- “कहां से आएगी इतनी बड़ी रकम?”

“देखो मां, हमारी दुकान चलाने में न पहले रुचि थी और न अब है,” राजेश तटस्थ भाव से बोल रहा था- “उस दुकान और गोदाम को बेच कर यह कर्ज चुकाया जा सकता है.”

“और कोई रास्ता भी नहीं बचा है,” अजयेंद्रजी बोले, “सुधीरजी शायद इस का भी लेखाजोखा कर रखे होंगे. वही बेहतर बता सकते हैं.”

“काफी खराब लग रहा है यह स्थिति देख कर,” सुधीर सकुचाते हुए बोले, “एक वे दिन देखे थे हम ने कि इस घर में रुपयों की बरसात होती थी. और मुझे उस का हिसाबकिताब रखते रात के ग्यारह-बारह बज जाते थे. और एक आज का दिन है कि मुझ से इस प्रौपर्टी के बेचने के लिए हिसाब लगाने को कहा जा रहा है.”

“तो हमें ही अच्छा लग रहा है क्या,” राकेश आगे बढ़ कर बोला, “हम इसे संभाल नहीं सकते. तिस पर इतनी बड़ी देनदारी है, तो कोई क्या करे.”

“अब आप लोग दबाव दे रहे हैं, तो बताना ही पड़ेगा मुझे. तो सुन लीजिए, वह सब बेचने के बाद लगभग 15 करोड़ रुपए ही आएंगे. बाकी के 5 करोड़ रुपए कहां से आएंगे, यह विचार कर लीजिए.”

“फिलहाल इतना तो व्यवस्था कर लीजिए,” राजेश उठता हुआ बोला, “आगे की आगे देखी जाएगी.”

राकेश भी अपने बड़े भाई का अनुसरण करते वहां से चला गया था.

सुधा  वकील अजयेंद्र और अकाउंटैंट सुधीर का मुंह देखते हुए स्तब्ध बैठी रह गई. उस का माथा तनाव और दर्द से फटा जा रहा था. तो, ये बेटे हैं, जिन्हें अपनी पैतृक संपत्ति से जरा भी मोह नहीं. अपने भविष्य का भी ख़याल नहीं आया इन्हें कि कल क्या होगा!

“800 गज में बने इस मकान की कीमत क्या होगी,” वह सुधीर जी से मुखातिब थी, “इस पौश एरिया के इस आलीशान मकान के  अच्छे दाम तो मिलने ही चाहिए.”

“यह आप क्या कह रही हैं,” अजयेंद्र जी अवाक् हो बोल पड़े, “फिर आप कहां रहेंगी? आप के बेटे कहां जाएंगे?”

“बीसेक साल पहले गंगा किनारे एक अपार्टमैंट बन रहा था, तो मैं ने वहां वन बीएचके का एक फ्लैट खरीद लिया था कि कभीकभी वहां जा कर गंगादर्शन का आनंद लूंगी. अभी वह भाड़े पर है. उसे खली करा कर मैं उसी में जा कर रहने लगूंगी. और बेटों का क्या है, वे अभी युवा हैं, कुछ न कुछ इंतजाम कर ही लेंगे. यह भी हो सकता है कि वे अपनी ससुराल में ही रह-बस जाएं. मगर मुझे क्या, मैं ने तो गरीबी देखी है, अभाव झेला है. मुझे कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला.”

“फिर भी भाभीजी, इस मकान को कितने शौक से बनवाया आप लोगों ने, इस का गवाह मैं खुद हूं,” अजयेंद्र जी बोले, “आप को इस घर को छोड़ते कैसा लगेगा?”

“मुझे मालूम है, बहुत खराब लगेगा. इस घर में तीसेक साल पहले मैं बहू बन कर आई और यहीं की हो कर रह गई. इस घर से मेरी अनेक यादें जुड़ी हैं. मेरे दोनों बेटों का जन्म भी यहीं हुआ,” सुधा उदास  होती हुई बोली, “मगर जब हमारे पितासमान श्वसुर और पति ही नहीं रहे, तो मतलब रह क्या जाता है. मेरी पहली प्राथमिकता तो यही है कि उन के नाम कोई देनदारी न रहे, उन पर कोई कलंक न लगे.”

“मगर इस पैतृक संपत्ति पर उन का भी हक  है.”

“मैं कहां कह रही हूं कि नहीं है भाईसाहब,” वह तैश में आ कर बोली, “मैं पहले उन्हीं से कहूंगी कि वे चाहें तो इसे मिल कर या अलगअलग हिस्सों के रूप में  ही खरीद लें, ताकि सभी कर्जों और देनदारियों को खत्म किया जा सके. उन के इनकार करने के बाद ही इस का कोई अन्य ग्राहक तलाशेंगे.”

“वे कहां से व्यवस्था कर पाएंगे, मैडम?”

“क्यों, उन के खाते में थोड़ेबहुत पैसे अवश्य होंगे. अपनी गाड़ी बेचेंगे, और क्या… उन की बीवियों के पास लाखों के आभूषण हैं. वे अपने एनजीओ अथवा ससुराल वालों से भी सहयोग ले सकते हैं. अपने क्रैडिट पर बैंक से लोन ले सकते हैं. करना चाहें, तो बहुतकुछ कर सकते हैं.”

“जब पहले कुछ नहीं किया तो अब क्या कर लेंगे,” अजयेंद्र जी बोले, “मगर सवाल यह भी तो है कि आप अकेले वहां कैसे रहेंगी?”

“और कोई रास्ता भी तो नहीं है,” वह उदास स्वर में बोलते और उठते हुए बोली, “और क्या… इन बेटों से पहले ही कोई उम्मीद नहीं थी और अब तो इन से कुछ कहना ही बेकार है. अब वे जानें और उन का काम जाने. मुझे जो निर्णय लेना था, ले लिया. इस से ज्यादा मैं कुछ कर नहीं सकती.”

The post सख्त निर्णय: सुधा ने अपने बेटों के साथ क्या किया? appeared first on Sarita Magazine.

June 15, 2022 at 09:00AM

No comments:

Post a Comment