Sunday 5 June 2022

चौथापन- भाग 1: बाबूजी का असली रूप क्या था?

वह एक कोने में कुरसी पर बैठे कोई किताब पढ़ रहे थे. अचानक उन्होंने ऊब कर किताब एक ओर  रख दी. आंखों  से चश्मा उतार कर मेज पर रख दिया. रूमाल से आंखें साफ कीं और निरुद्देश्य खिड़की  से बाहर की चहलपहल देखने लगे.

‘‘दादाजी, यह कामिक्स पढ़ कर सुनाइए जरा,’’ उन की 10 वर्ष की नातिन अंजू रंगबिरंगी पुस्तकें लिए कमरे में पहुंच गई.

‘‘लाओ, देखें,’’ उन्होंने बड़े चाव से  पुस्तकें ले लीं.

वह पुस्तकों के चित्र तो देख पा रहे थे, किंतु चश्मा लगाने के बाद भी उन पुस्तकों को पढ़ पाना उन्हें बड़ा कठिन लग रहा था. फिर नाम भी क्या थे पुस्तकों के, ‘आग का दरिया’, ‘अंतरिक्ष का शैतान’.

‘‘छि: छि:… ये क्या हैं? अच्छी पुस्तकें पढ़ा करो, बेटे.’’

‘‘अच्छी कौन सी, दादाजी?’’

‘‘जिस पुस्तक से कोई अच्छी बात सीखने को मिले. बच्चों के लिए तो आजकल बहुत सी पत्रपत्रिकाएं  निकलती हैं.’’

‘‘आप नहीं जानते, दादाजी, ये थ्री डायमेंशनल कामिक्स हैं. इन को पढ़ने के लिए अलग से चश्मा मिलता है. यह देखिए.’’

‘‘अरे, यह कोई चश्मा है? लाल पन्नी लगी है इस में तो. इस से आंखें खराब हो जाएंगी. फेंको इसे.’’

‘‘आप को कुछ नहीं मालूम, दादाजी,’’ अंजू ने उपेक्षा से कहा और पुस्तकें ले कर तेजी से बाहर चली गई.

वह अकुलाए से अपनी जगह पर बैठे रह गए और सोचते रहे. शायद वह वर्तमान से कट चुके हैं. उन का जमाना लद चुका था. उन के सिद्धांत, आदर्श ओैर विचार अब अप्रासंगिक हो चुके थे.

अभी कुछ ही दिन पहले की तो बात थी. उन के बेटे मुन्ना  ने भी यही कहा था. हुआ यों था कि उस दिन वह कारखाने में मौजूद थे. नौकर ने एक ग्राहक को बिल दिया तो उन्हें वह बहुत ज्यादा लगा. वह एक प्रकार से ग्राहक को लूटने जैसा ही  था. उन्होंने नौकर को डांट दिया और जोर दे कर उस से बिल में परिवर्तन करने को कहा.

उसी दिन मुन्ना रात को घर आने के बाद  उन पर बहुत बिगड़ा था, ‘बाबूजी, आप तो बैठेबिठाए नुकसान करवा देते हैं. क्या जरूरत थी आप को  कारखाने में जा कर कीमत कम करवाने की?’

‘मैं ने तो उचित दाम ही लगाए थे, बेटा. वह नौकर बहुत ज्यादा  बिल बना रहा था.’

‘आप बिलकुल नहीं समझते, बाबूजी. इतना बड़ा कारखाना चलाना आज के जमाने में कितना मुश्किल काम है. अब कामगारों को वेतन कितना बढ़ा कर देना पड़ता है, जानते हैं आप? नई मशीन की किश्त हर माह देनी पड़ती है सो अलग. फिर आयकर भी इसी महीने में भरना है.’

उन की दृष्टि में ग्राहकों से मनमाना पैसा वसूल करने का यह कोई उचित तर्क नहीं था, लेकिन वह चुप ही रह गए.

एक बार वह बीमार पड़ गए थे. 2-3 महीने तक कारखाने नहीं जा सके. बस, तभी अचानक मुन्ना ने उन की गद्दी हथिया ली. फिर मुन्ना यह सिद्ध करने की कोशिश करने लगा कि वह व्यापार में उन से अधिक कुशल है.

जहां उन्हें ग्राहक से 4 पैसे वसूल करने में कठिनाई होती थी वहां मुन्ना बड़ी आसानी से 6 पैसे वसूल कर लेता था. उस ने बैंकों से ऋण ले कर अल्प समय में ही नई मशीनें मंगवा ली थीं. किस आदमी से कैसे काम लिया जा सकता है, इस काम में मुन्ना खुद को उन से कहीं अधिक दक्ष होने का दावा करता था.

जब वह स्वस्थ हो कर कारखाने पहुंचे तो उन्होंने देखा कि कारखाने का शासन सूत्र मुन्ना अपने हाथों में दृढ़ता से थामे हुए है. एक बार हाथों में शासन सूत्र  आने के बाद कोई भी उसे सरलता से वापस नहीं करना चाहता.

अब मुन्ना कारखाने के तमाम कार्य अपनी मरजी से करता था. उन की ठीक सलाह भी उसे अपने मामलों में दखलंदाजी लगती थी. मुन्ना अकसर उन्हें एहसास दिलाता था, ‘बाबूजी, डाक्टर ने आप को पूरी तरह आराम करने के लिए कहा है. आप घर पर रह कर ही आराम किया करें. कारखाने का सारा कारोबार मैं संभाल लूंगा. आप बेकार उधर की चिंता किया करते हैं.’

जब उन की पत्नी इंदू जिंदा थी तो उस का भी यही विचार था. वह प्राय: कहा करती थी, ‘आज नहीं तो कल, मुन्ना को ही तो संभालना है कारखाना. वह व्यापार को बढ़ा ही रहा है, घटा तो नहीं रहा? वैसे भी अब लड़का बड़ा हो गया है. बाप का जूता उस के पैर में आने लगा है. उन्हें खुद आगे हो कर मुन्ना को कारोबार सौंप देना चाहिए. शास्त्रों के अनुसार आदमी को चौथेपन में सांसारिक झंझटों से संन्यास ले लेना चाहिए.’

और इस तरह बीमारी के दौरान अकस्मात ही उन की इच्छा के विरुद्ध कारखाने से उन का निष्कासन हो गया था.

उन्होंने एक नजर नाश्ते की प्लेट पर डाली. आज फिर घर का नौकर बड़ी उपेक्षा से उन के सामने सिर्फ मक्खन लगे स्लाइस रख गया था. उन के अंदर ही अंदर कुछ घुटने सा लगा था, ‘यह भी कोई नाश्ता है? बाजार से डबलरोटी मंगवाई और चुपड़ दिया उस पर जरा सा मक्खन.’

जब इंदू थी तब उन के लिए बीसियों तरह के तो लड्डू ही बनते थे घर में. मूंग के, मगज के, रवे के वगैरहवगैरह. मठरी, सेव और कई तरह के नमकीन भी परोसे जाते थे उन के आगे. पकवानों का तो कोई हिसाब ही नहीं था और अब मात्र मक्खन लगे डबलरोटी के टुकड़े.

वह खीज उठे और उठ कर सीधे अंदर गए, ‘‘बरसात में डबलरोटी क्यों मंगवाती हो, बहू? घर में ही कुछ मीठा या नमकीन बना लिया करो. कल जो डबलरोटी आई थी उस में फफूंद लगी हुई थी.’’

‘‘डाक्टर ने उन्हें अधिक घीतेल खाने की मनाही कर दी है. अगर आप को डबलरोटी पसंद नहीं है तो आप के लिए दूसरा इंतजाम हो जाएगा,’’ बहू ने रूखेपन से जवाब दिया.

दूसरे दिन उन के लिए जो नाश्ता लगाया गया वह होटल से मंगवाया गया था. एक प्लेट में बेसन का लड्डू तथा थोड़ा सा चिड़वा था. बरसात के कारण चिड़वा बिलकुल हलवा बन गया था. लड्डू बेशक स्वादिष्ठ था, परंतु उस में वनस्पति घी इतनी अधिक मात्रा में था कि खाने के बाद उन्हें बहुत देर तक खट्टी डकारें आती रही थीं.

वह अपने हालात से परेशान हो कर कई बार सोचते थे कि त्रिवेणी उन के पास रहती तो बड़ा सुविधाजनक होता. वह उन के खानेपीने का कितना खयाल करती थी. भैयाभैया कहते उस की जबान नहीं थकती थी.

सच  पूछो तो अपनी पत्नी इंदू की मौत का आघात वह उसी के सहारे सहन कर गए थे. त्रिवेणी के रहते उन्हें कभी एकाकीपन का एहसास नहीं सालता था.

सब से बड़ी बात यह थी कि तब मुन्ना के उपेक्षित रूखेपन, बहू की अपमानजनक तेजमिजाजी और नाती- नातिनों की बदतमीजियों की ओर उन का ध्यान ही नहीं जाता था. वह तो त्रिवेणी को भेजना ही नहीं चाहते थे, लेकिन बहू ने मुन्ना के ऐसे कान भरे कि उस का घर में रहना असंभव कर दिया.

एक दिन वह शाम की सैर को पार्क की दिशा में जा रहे थे कि मुन्ना ने कार उन के सामने रोक दी, ‘‘आइए, बाबूजी, मैं छोड़ दूं आप को पार्क तक.’’

वह कहना चाहते थे, ‘भाई, पार्क है ही कितनी दूर? मैं घूमने ही तो निकला हूं. खुद चला जाऊंगा,’ पर चाह कर भी कुछ न बोल सके और चुपचाप कार में बैठ गए.

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वह एक कोने में कुरसी पर बैठे कोई किताब पढ़ रहे थे. अचानक उन्होंने ऊब कर किताब एक ओर  रख दी. आंखों  से चश्मा उतार कर मेज पर रख दिया. रूमाल से आंखें साफ कीं और निरुद्देश्य खिड़की  से बाहर की चहलपहल देखने लगे.

‘‘दादाजी, यह कामिक्स पढ़ कर सुनाइए जरा,’’ उन की 10 वर्ष की नातिन अंजू रंगबिरंगी पुस्तकें लिए कमरे में पहुंच गई.

‘‘लाओ, देखें,’’ उन्होंने बड़े चाव से  पुस्तकें ले लीं.

वह पुस्तकों के चित्र तो देख पा रहे थे, किंतु चश्मा लगाने के बाद भी उन पुस्तकों को पढ़ पाना उन्हें बड़ा कठिन लग रहा था. फिर नाम भी क्या थे पुस्तकों के, ‘आग का दरिया’, ‘अंतरिक्ष का शैतान’.

‘‘छि: छि:… ये क्या हैं? अच्छी पुस्तकें पढ़ा करो, बेटे.’’

‘‘अच्छी कौन सी, दादाजी?’’

‘‘जिस पुस्तक से कोई अच्छी बात सीखने को मिले. बच्चों के लिए तो आजकल बहुत सी पत्रपत्रिकाएं  निकलती हैं.’’

‘‘आप नहीं जानते, दादाजी, ये थ्री डायमेंशनल कामिक्स हैं. इन को पढ़ने के लिए अलग से चश्मा मिलता है. यह देखिए.’’

‘‘अरे, यह कोई चश्मा है? लाल पन्नी लगी है इस में तो. इस से आंखें खराब हो जाएंगी. फेंको इसे.’’

‘‘आप को कुछ नहीं मालूम, दादाजी,’’ अंजू ने उपेक्षा से कहा और पुस्तकें ले कर तेजी से बाहर चली गई.

वह अकुलाए से अपनी जगह पर बैठे रह गए और सोचते रहे. शायद वह वर्तमान से कट चुके हैं. उन का जमाना लद चुका था. उन के सिद्धांत, आदर्श ओैर विचार अब अप्रासंगिक हो चुके थे.

अभी कुछ ही दिन पहले की तो बात थी. उन के बेटे मुन्ना  ने भी यही कहा था. हुआ यों था कि उस दिन वह कारखाने में मौजूद थे. नौकर ने एक ग्राहक को बिल दिया तो उन्हें वह बहुत ज्यादा लगा. वह एक प्रकार से ग्राहक को लूटने जैसा ही  था. उन्होंने नौकर को डांट दिया और जोर दे कर उस से बिल में परिवर्तन करने को कहा.

उसी दिन मुन्ना रात को घर आने के बाद  उन पर बहुत बिगड़ा था, ‘बाबूजी, आप तो बैठेबिठाए नुकसान करवा देते हैं. क्या जरूरत थी आप को  कारखाने में जा कर कीमत कम करवाने की?’

‘मैं ने तो उचित दाम ही लगाए थे, बेटा. वह नौकर बहुत ज्यादा  बिल बना रहा था.’

‘आप बिलकुल नहीं समझते, बाबूजी. इतना बड़ा कारखाना चलाना आज के जमाने में कितना मुश्किल काम है. अब कामगारों को वेतन कितना बढ़ा कर देना पड़ता है, जानते हैं आप? नई मशीन की किश्त हर माह देनी पड़ती है सो अलग. फिर आयकर भी इसी महीने में भरना है.’

उन की दृष्टि में ग्राहकों से मनमाना पैसा वसूल करने का यह कोई उचित तर्क नहीं था, लेकिन वह चुप ही रह गए.

एक बार वह बीमार पड़ गए थे. 2-3 महीने तक कारखाने नहीं जा सके. बस, तभी अचानक मुन्ना ने उन की गद्दी हथिया ली. फिर मुन्ना यह सिद्ध करने की कोशिश करने लगा कि वह व्यापार में उन से अधिक कुशल है.

जहां उन्हें ग्राहक से 4 पैसे वसूल करने में कठिनाई होती थी वहां मुन्ना बड़ी आसानी से 6 पैसे वसूल कर लेता था. उस ने बैंकों से ऋण ले कर अल्प समय में ही नई मशीनें मंगवा ली थीं. किस आदमी से कैसे काम लिया जा सकता है, इस काम में मुन्ना खुद को उन से कहीं अधिक दक्ष होने का दावा करता था.

जब वह स्वस्थ हो कर कारखाने पहुंचे तो उन्होंने देखा कि कारखाने का शासन सूत्र मुन्ना अपने हाथों में दृढ़ता से थामे हुए है. एक बार हाथों में शासन सूत्र  आने के बाद कोई भी उसे सरलता से वापस नहीं करना चाहता.

अब मुन्ना कारखाने के तमाम कार्य अपनी मरजी से करता था. उन की ठीक सलाह भी उसे अपने मामलों में दखलंदाजी लगती थी. मुन्ना अकसर उन्हें एहसास दिलाता था, ‘बाबूजी, डाक्टर ने आप को पूरी तरह आराम करने के लिए कहा है. आप घर पर रह कर ही आराम किया करें. कारखाने का सारा कारोबार मैं संभाल लूंगा. आप बेकार उधर की चिंता किया करते हैं.’

जब उन की पत्नी इंदू जिंदा थी तो उस का भी यही विचार था. वह प्राय: कहा करती थी, ‘आज नहीं तो कल, मुन्ना को ही तो संभालना है कारखाना. वह व्यापार को बढ़ा ही रहा है, घटा तो नहीं रहा? वैसे भी अब लड़का बड़ा हो गया है. बाप का जूता उस के पैर में आने लगा है. उन्हें खुद आगे हो कर मुन्ना को कारोबार सौंप देना चाहिए. शास्त्रों के अनुसार आदमी को चौथेपन में सांसारिक झंझटों से संन्यास ले लेना चाहिए.’

और इस तरह बीमारी के दौरान अकस्मात ही उन की इच्छा के विरुद्ध कारखाने से उन का निष्कासन हो गया था.

उन्होंने एक नजर नाश्ते की प्लेट पर डाली. आज फिर घर का नौकर बड़ी उपेक्षा से उन के सामने सिर्फ मक्खन लगे स्लाइस रख गया था. उन के अंदर ही अंदर कुछ घुटने सा लगा था, ‘यह भी कोई नाश्ता है? बाजार से डबलरोटी मंगवाई और चुपड़ दिया उस पर जरा सा मक्खन.’

जब इंदू थी तब उन के लिए बीसियों तरह के तो लड्डू ही बनते थे घर में. मूंग के, मगज के, रवे के वगैरहवगैरह. मठरी, सेव और कई तरह के नमकीन भी परोसे जाते थे उन के आगे. पकवानों का तो कोई हिसाब ही नहीं था और अब मात्र मक्खन लगे डबलरोटी के टुकड़े.

वह खीज उठे और उठ कर सीधे अंदर गए, ‘‘बरसात में डबलरोटी क्यों मंगवाती हो, बहू? घर में ही कुछ मीठा या नमकीन बना लिया करो. कल जो डबलरोटी आई थी उस में फफूंद लगी हुई थी.’’

‘‘डाक्टर ने उन्हें अधिक घीतेल खाने की मनाही कर दी है. अगर आप को डबलरोटी पसंद नहीं है तो आप के लिए दूसरा इंतजाम हो जाएगा,’’ बहू ने रूखेपन से जवाब दिया.

दूसरे दिन उन के लिए जो नाश्ता लगाया गया वह होटल से मंगवाया गया था. एक प्लेट में बेसन का लड्डू तथा थोड़ा सा चिड़वा था. बरसात के कारण चिड़वा बिलकुल हलवा बन गया था. लड्डू बेशक स्वादिष्ठ था, परंतु उस में वनस्पति घी इतनी अधिक मात्रा में था कि खाने के बाद उन्हें बहुत देर तक खट्टी डकारें आती रही थीं.

वह अपने हालात से परेशान हो कर कई बार सोचते थे कि त्रिवेणी उन के पास रहती तो बड़ा सुविधाजनक होता. वह उन के खानेपीने का कितना खयाल करती थी. भैयाभैया कहते उस की जबान नहीं थकती थी.

सच  पूछो तो अपनी पत्नी इंदू की मौत का आघात वह उसी के सहारे सहन कर गए थे. त्रिवेणी के रहते उन्हें कभी एकाकीपन का एहसास नहीं सालता था.

सब से बड़ी बात यह थी कि तब मुन्ना के उपेक्षित रूखेपन, बहू की अपमानजनक तेजमिजाजी और नाती- नातिनों की बदतमीजियों की ओर उन का ध्यान ही नहीं जाता था. वह तो त्रिवेणी को भेजना ही नहीं चाहते थे, लेकिन बहू ने मुन्ना के ऐसे कान भरे कि उस का घर में रहना असंभव कर दिया.

एक दिन वह शाम की सैर को पार्क की दिशा में जा रहे थे कि मुन्ना ने कार उन के सामने रोक दी, ‘‘आइए, बाबूजी, मैं छोड़ दूं आप को पार्क तक.’’

वह कहना चाहते थे, ‘भाई, पार्क है ही कितनी दूर? मैं घूमने ही तो निकला हूं. खुद चला जाऊंगा,’ पर चाह कर भी कुछ न बोल सके और चुपचाप कार में बैठ गए.

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June 06, 2022 at 10:00AM

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