Writer- डा. लोकेंद्रसिंह कोट
छांव हमेशा चुनौती देती है
उस धूप की उष्णता को,
राहत देती है अरमानों को,
लेकिन परतंत्र होती है
किसी वस्तु, व्यक्ति की,
उजाले की.
परतंत्रता पुष्ट करती है
हमारे अहं को,
और अहं परतंत्र कर लेता है
हमारे मन को,
इस के बाद छांव भी धूप ही लगती है.
छांव का अपना साम्राज्य है, तो धूप का भी. किस का कितना बड़ा राजपाट है, यह व्यक्तिव्यक्ति पर निर्भर करता है. यह इसलिए भी क्योंकि कई बार छांव होने पर भी छांव दिखाई नहीं देती, उलटे, उन्हें धूप ही लगती है. इसलिए धूप-छांव व्यक्ति सापेक्ष है.
घर में अभी तक 2 पीढ़ियां रह रही थीं कि परसों ही यह परिवार 3 पीढ़ियों में बदल गया. घर में नए मेहमान का आगमन हुआ. तीसरी पीढ़ी की शुरुआत. ढोलधमाके, बधाई, मिठाई, खुशियां, खीलबताशे, मानमनुहार, उपहार का आदानप्रदान सबकुछ उसी शक्ल में जो इस दौर में होता है. ढोलधमाके के स्थान पर डीजे, खीलबताशे के स्थान पर केक, बधाइयों की जगह फिल्मों के गीत, सैल्फी खींचते ढेरों हाथ, पंडितजी चार मंत्र पढ़ कर कोने में दक्षिणा प्राप्ति के लिए इंतजाररत, घर के बुजुर्ग हो रहे कोलाहल से थोड़ी दूर अपने हमउम्रों की महफिल में, जो जवान हैं पुरुष हैं वे इस इंतजार में हैं कि कब उन की बोतलें खुलें, महिलाएं सदैव की तरह हैरानपरेशान, मेहमानों के बच्चों को तो जैसे मौका ही आज लगा है, बड़े बच्चे आमतौर की तरह मोबाइलों में उलझेसुलझे से, घर की 2 अदद कामवालियां उफनती नदी जैसी और जो नवागत है, सलोना है जिसे पता नहीं है कि वह कहां, किधर, क्यों है. उल्लास का दिन खत्म. चल पड़ी फिर जिंदगी ढर्रे पर.
बलवंत सिंह इस परिवार के मुखिया हैं और इस नगर की एक कालोनी में सपरिवार निवास करते हैं. उन के वयोवृद्ध पिता जगजीवन सिंह साथ रहते हैं. बलवंत के 2 पुत्र और 2 पुत्रियां हैं. पुत्रियां बड़ी हैं और ब्याह कर अपनेअपने घरों इटारसी व गंजबासौदा में रहतीं हैं. दोनों पुत्र नौकरी करते हैं, बड़े वाला विवाहित हो कर क्लर्क है श्रम विभाग में और छोटे वाला अविवाहित है तथा बैंक में मैनेजर है. बलवंत की पत्नी अनुराधा कुछ जल्दबाज किस्म की हैं. उन के ऊपर हमेशा जल्दबाजी सवार रहती है. वे बेहद जहीन और ‘परफैक्शनिष्ट’ हैं. हर काम में उन्हें पूर्णता चाहिए. इस के विपरीत बलवंत संवेदनशील तो हैं लेकिन हैं बेतरतीब. कहीं भी, कुछ भी चलेगा वाला अंदाज.
बलवंत दिखने में तो बड़ीबड़ी मूछों के साथ रोबदार लगते हैं लेकिन हैं बड़े रंगीनमिजाज के. महिलाएं उन की कमजोरी हैं. कहीं भी किसी महिला से रूबरू हुए कि मोम की तरह पिघल गए. वृद्ध महिलाएं इस श्रेणी में नहीं हैं. वे उन के लिए पुरुषसमान ही हैं. अनुराधा उन के मिजाज से परिचित हैं और ऐसे मामलों में सचेत रहती हैं. वे सचेत न होतीं तो आज यह घर, घर न होता क्योंकि बलवंत तो किसी न किसी पर लुटा चुके होते.
अनुराधा याद करती है वह दिन जब छह फुट का पतली मूंछे रखने वाला छरहरा सा नौजवान उन्हें शिद्दत से देखता था. कालेज के दिन थे. बलवंत अपनी बेलबौटम (लंबी मोरी वाली पैंट) सिर के बाल कानों को ढके हुए, राजेश खन्ना स्टाइल में कालेज जाते थे और अनुराधा भी थोड़ीथोड़ी साधना जैसी लगती थी. वह भी सजनेसंवरने की शौकीन लेकिन उस समय भी उस में वही जल्दबाजी विद्यमान थी. बड़ा फिल्मी था समय उन दोनों के लिए. बलवंत का यह चौथा प्रेमप्रसंग था, इस से अनभिज्ञ थी अनुराधा. ईस्टमैन कलर का यह प्रेम उस समय बहुत ही चर्चित था क्योंकि अनुराधा सक्सेना और बलवंत जगजीवन सिंह के मध्य था. कालेज तो कालेज, उस कसबे के गलीमहल्लों में गूंज थी इस प्रेमप्रसंग की. उस समय ‘साथसाथ’ फिल्म रिलीज हुई थी और दोनों की यह साथ में देखी गई पहली फिल्म थी. अकसर बलंवत अनुराधा को देख कर गाते थे, ‘तुम को देखा तो ख़याल आया, जिंदगी धूप, तुम घना साया…’ और सुन कर अनुराधा शरमा जाती. प्रेम चरम सीमा पर पहुंचा, ब्याह की बारी आई तो दोनों परिवारों में ठन गई. ठेठ कायस्थ और ठेठ ठाकुर और समय भी वह जब प्रेमविवाह एक अजूबा ही रहता था कसबे में. खूब तनातनी हुई, बात नहीं बनी तो अपने बलवंत जी उठा लाए अनुराधा को उन के घर से. दोतीन जीप, हथियार, बंदूकें, दोस्त और बलवंत का प्रेम. पूरे कसबे क्या, राज्यभर में इस कांड की गूंज पहुंच गई.
गजब का प्रेम और उस से बड़ा उस का नाम. छोटा सा कसबा इस प्रेमलीला से दूरदूर तक प्रसिद्ध हो गया. उन दिनों कसबों में तो प्रेम अजूबा ही था जैसे स्थानीय कहावत है “गेल्या गामें ऊंट आयो” (पागलों के गांव में ऊंट). बलवंत और अनुराधा ने 2 कमरे, एक किचन वाला मकान नयापुरा में प्रथम तल पर किराए पर ले लिया. द्वितीय तल नहीं था इस में, केवल छ्त थी. इधर बलवंत और अनुराधा को शासकीय प्राइमरी स्कूल में शिक्षक की नौकरी मिल गई. दोनों का अपनेअपने घरों से अबोला था. शामत तो उस नयापुरा वाले मकान और महल्ले की थी. कुछ नहीं तो उन के आसपास के मकानों में मेहमानों की संख्या सुबहशाम बढ़ गई. यह देखने लोग आते थे कि कौन हैं जिन्होंने प्रेमविवाह किया है. विशेषकर महिलाएं… “दिखने में तो खास नहीं है…. लव मैरिज…” तो कोई कहती, “क्या जमाना आ गया है, लड़कियां पढ़ाओ तो ये दिन देखने पड़ते हैं…” इस लवमैरिज का हाल यह था कि कई घरों से कालेज जाती लड़कियों के कालेज तक बंद हो गए, कईयों के स्कूल बंद हो गए. कईयों के तो ब्याह भी तय हो गए. यह वह समय था जब सिनेमा में हीरोहीरोईन के गले लगते दोचार सीन या हेलन का कोई नृत्य होता तो ‘गंदी’ फिल्म की उपाधि मिल जाती थी. मकान मालिक और महल्ले के लोग उन्हे ऐसे देखते थे मानो वे मंगल ग्रह से आए हों. दोनों छत पर एकदूसरे का हाथ पकड़ कर घूमते तो सैकडों लोगों पर छुरियां चल जातीं. महिलाएं तो बाज न आती, “…देखो तो बेशरम को…” फिर अनुराधा सलवार सूट पहनती तो कई लोगों के गले नहीं उतरती थी वह. कुल मिला कर कसबे के चटखारे थे दोनों प्रेमी युगल. किसी का भी शायद ही खाना पचता हो इन की बात किए बिना.
इधर लोगों की पाचन क्षमता से अनजान अनुराधा और बलवंत विवाह की खुमारी में ही रहते थे. मिलन जितना संघर्षपूर्ण हो, मिलन का मजा उतने गुना बढ़ जाता है. उन के साथ ऐसा ही था. उन की अपनी दुनिया जिस में जिंदगी धूप, तुम घना साया था. सुधबुध खोए हुए वे पहले आठदस माह साए की तरह थे जहां थी रूमानियत, आकर्षण और वह सबकुछ जो होता है. एकदूसरे का ख़याल, जज्बातों का हमप्याला, छोटीछोटी बातों की परवा, जो खुद को पसंद नहीं है पर दूसरे को पसंद है तो अपनाना, खाना, नखरे, एकदूसरे से हंसीमजाक…. यही दौर था जहां खुशियां थीं, ढेर सारी जगजीत सिंह की ग़ज़लें थी तो यशुदास के कर्णप्रिय गाने जो दोनों के पसंदीदा थे.
समाज और लोग ‘लव मैरिज’ पर ऐसे नज़र गड़ा कर रखते थे जैसे कोई बहुत अहम काम हो. उस दिन उन के यहां मूकेश का कोई ‘सैड’ गाना क्या बजा, मकानमालिक हालचाल पूछने तक आ गए. “क्यों भाईसाहब, मैडम ने दिल तोड़ दिया क्या जो ऐसे गाने सुन रहे हो?” बलवंत पहले तो अचकचा गया, फिर संभलते हुए बोला, “नहीं साहब, गाने हैं, सभी तरह के होते हैं और अच्छे लगते हैं. इस में जरूरी नहीं कि सब आप पर लागू हों.” यह सुन कर मकानमालिक थोड़ा सिटपिटाया और हेहे करता निकल गया. कालेज के समय से ही बलवंत के पास लैम्ब्रेटा स्कूटर था. तब कसबे में मात्र 4 ही स्कूटर थे, 5वा बलवंत के पास था. अधिकांश साईकिलें हुआ करती थीं. स्कूल के लिए दोनों साथ निकलते और जैसे ही अनुराधा, बलवंत की कमर में हाथ लपेटती, महल्ले की औरतों की कनखियां तैयार हो जाटीएन, अच्छे से उन्हें ताड़तीं और बुदबुदाते हुए जुमले फेंकतीं, “ढाकन छोरियों को बिगाड़ेगी…” कोई कहती, “बेशरम, बड़ेबूढ़े का कोई कायदा नहीं है…” लेकिन जैसे ही बलवंत स्कूटर रोक कर किसी से पूछता, “ओ काकी, काका साहब कहां है, उन को कुछ काम था?” तो महल्ले की काकी भुनभुनाना छोड़ कर लपक कर उन के लैम्ब्रेटा के पास जाती, “नहीं बना सा…आप के काका तो बाहर गए हैं, कल तक लौटेंगे” शहद टपकाती बोली बोलते काकी बहुत उत्सुकता के साथ कह जाती. बोलतेबोलते बलवंत के साथ बैठी अनुराधा को टेढ़ी निगाह से निहारती. अपनेआप को भी साथ में ठीक करती जाती. “ठीक है काकी, आएं तो बोलिएगा मैं आया था.” काकी दूर तक उन्हें जाते हुए देखती रहती.
काकी के लिए अनोखा दिन था और वह इसे अपने महिला मंडल में बांटने के लिए तत्पर थी. खासकर यह बात कि लव मैरिज वाली अपने पति को उस के नाम से बुलाती है, बल्लू. उन सब के लिए यह सब से बड़ा पाप था. अगले दोतीन दिन महल्ले की महिलाओं के खूब मजे में गुजरे जैसे खट्टामीठा स्वाद वाली पानीपताशे खा लिए हों.
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Writer- डा. लोकेंद्रसिंह कोट
छांव हमेशा चुनौती देती है
उस धूप की उष्णता को,
राहत देती है अरमानों को,
लेकिन परतंत्र होती है
किसी वस्तु, व्यक्ति की,
उजाले की.
परतंत्रता पुष्ट करती है
हमारे अहं को,
और अहं परतंत्र कर लेता है
हमारे मन को,
इस के बाद छांव भी धूप ही लगती है.
छांव का अपना साम्राज्य है, तो धूप का भी. किस का कितना बड़ा राजपाट है, यह व्यक्तिव्यक्ति पर निर्भर करता है. यह इसलिए भी क्योंकि कई बार छांव होने पर भी छांव दिखाई नहीं देती, उलटे, उन्हें धूप ही लगती है. इसलिए धूप-छांव व्यक्ति सापेक्ष है.
घर में अभी तक 2 पीढ़ियां रह रही थीं कि परसों ही यह परिवार 3 पीढ़ियों में बदल गया. घर में नए मेहमान का आगमन हुआ. तीसरी पीढ़ी की शुरुआत. ढोलधमाके, बधाई, मिठाई, खुशियां, खीलबताशे, मानमनुहार, उपहार का आदानप्रदान सबकुछ उसी शक्ल में जो इस दौर में होता है. ढोलधमाके के स्थान पर डीजे, खीलबताशे के स्थान पर केक, बधाइयों की जगह फिल्मों के गीत, सैल्फी खींचते ढेरों हाथ, पंडितजी चार मंत्र पढ़ कर कोने में दक्षिणा प्राप्ति के लिए इंतजाररत, घर के बुजुर्ग हो रहे कोलाहल से थोड़ी दूर अपने हमउम्रों की महफिल में, जो जवान हैं पुरुष हैं वे इस इंतजार में हैं कि कब उन की बोतलें खुलें, महिलाएं सदैव की तरह हैरानपरेशान, मेहमानों के बच्चों को तो जैसे मौका ही आज लगा है, बड़े बच्चे आमतौर की तरह मोबाइलों में उलझेसुलझे से, घर की 2 अदद कामवालियां उफनती नदी जैसी और जो नवागत है, सलोना है जिसे पता नहीं है कि वह कहां, किधर, क्यों है. उल्लास का दिन खत्म. चल पड़ी फिर जिंदगी ढर्रे पर.
बलवंत सिंह इस परिवार के मुखिया हैं और इस नगर की एक कालोनी में सपरिवार निवास करते हैं. उन के वयोवृद्ध पिता जगजीवन सिंह साथ रहते हैं. बलवंत के 2 पुत्र और 2 पुत्रियां हैं. पुत्रियां बड़ी हैं और ब्याह कर अपनेअपने घरों इटारसी व गंजबासौदा में रहतीं हैं. दोनों पुत्र नौकरी करते हैं, बड़े वाला विवाहित हो कर क्लर्क है श्रम विभाग में और छोटे वाला अविवाहित है तथा बैंक में मैनेजर है. बलवंत की पत्नी अनुराधा कुछ जल्दबाज किस्म की हैं. उन के ऊपर हमेशा जल्दबाजी सवार रहती है. वे बेहद जहीन और ‘परफैक्शनिष्ट’ हैं. हर काम में उन्हें पूर्णता चाहिए. इस के विपरीत बलवंत संवेदनशील तो हैं लेकिन हैं बेतरतीब. कहीं भी, कुछ भी चलेगा वाला अंदाज.
बलवंत दिखने में तो बड़ीबड़ी मूछों के साथ रोबदार लगते हैं लेकिन हैं बड़े रंगीनमिजाज के. महिलाएं उन की कमजोरी हैं. कहीं भी किसी महिला से रूबरू हुए कि मोम की तरह पिघल गए. वृद्ध महिलाएं इस श्रेणी में नहीं हैं. वे उन के लिए पुरुषसमान ही हैं. अनुराधा उन के मिजाज से परिचित हैं और ऐसे मामलों में सचेत रहती हैं. वे सचेत न होतीं तो आज यह घर, घर न होता क्योंकि बलवंत तो किसी न किसी पर लुटा चुके होते.
अनुराधा याद करती है वह दिन जब छह फुट का पतली मूंछे रखने वाला छरहरा सा नौजवान उन्हें शिद्दत से देखता था. कालेज के दिन थे. बलवंत अपनी बेलबौटम (लंबी मोरी वाली पैंट) सिर के बाल कानों को ढके हुए, राजेश खन्ना स्टाइल में कालेज जाते थे और अनुराधा भी थोड़ीथोड़ी साधना जैसी लगती थी. वह भी सजनेसंवरने की शौकीन लेकिन उस समय भी उस में वही जल्दबाजी विद्यमान थी. बड़ा फिल्मी था समय उन दोनों के लिए. बलवंत का यह चौथा प्रेमप्रसंग था, इस से अनभिज्ञ थी अनुराधा. ईस्टमैन कलर का यह प्रेम उस समय बहुत ही चर्चित था क्योंकि अनुराधा सक्सेना और बलवंत जगजीवन सिंह के मध्य था. कालेज तो कालेज, उस कसबे के गलीमहल्लों में गूंज थी इस प्रेमप्रसंग की. उस समय ‘साथसाथ’ फिल्म रिलीज हुई थी और दोनों की यह साथ में देखी गई पहली फिल्म थी. अकसर बलंवत अनुराधा को देख कर गाते थे, ‘तुम को देखा तो ख़याल आया, जिंदगी धूप, तुम घना साया…’ और सुन कर अनुराधा शरमा जाती. प्रेम चरम सीमा पर पहुंचा, ब्याह की बारी आई तो दोनों परिवारों में ठन गई. ठेठ कायस्थ और ठेठ ठाकुर और समय भी वह जब प्रेमविवाह एक अजूबा ही रहता था कसबे में. खूब तनातनी हुई, बात नहीं बनी तो अपने बलवंत जी उठा लाए अनुराधा को उन के घर से. दोतीन जीप, हथियार, बंदूकें, दोस्त और बलवंत का प्रेम. पूरे कसबे क्या, राज्यभर में इस कांड की गूंज पहुंच गई.
गजब का प्रेम और उस से बड़ा उस का नाम. छोटा सा कसबा इस प्रेमलीला से दूरदूर तक प्रसिद्ध हो गया. उन दिनों कसबों में तो प्रेम अजूबा ही था जैसे स्थानीय कहावत है “गेल्या गामें ऊंट आयो” (पागलों के गांव में ऊंट). बलवंत और अनुराधा ने 2 कमरे, एक किचन वाला मकान नयापुरा में प्रथम तल पर किराए पर ले लिया. द्वितीय तल नहीं था इस में, केवल छ्त थी. इधर बलवंत और अनुराधा को शासकीय प्राइमरी स्कूल में शिक्षक की नौकरी मिल गई. दोनों का अपनेअपने घरों से अबोला था. शामत तो उस नयापुरा वाले मकान और महल्ले की थी. कुछ नहीं तो उन के आसपास के मकानों में मेहमानों की संख्या सुबहशाम बढ़ गई. यह देखने लोग आते थे कि कौन हैं जिन्होंने प्रेमविवाह किया है. विशेषकर महिलाएं… “दिखने में तो खास नहीं है…. लव मैरिज…” तो कोई कहती, “क्या जमाना आ गया है, लड़कियां पढ़ाओ तो ये दिन देखने पड़ते हैं…” इस लवमैरिज का हाल यह था कि कई घरों से कालेज जाती लड़कियों के कालेज तक बंद हो गए, कईयों के स्कूल बंद हो गए. कईयों के तो ब्याह भी तय हो गए. यह वह समय था जब सिनेमा में हीरोहीरोईन के गले लगते दोचार सीन या हेलन का कोई नृत्य होता तो ‘गंदी’ फिल्म की उपाधि मिल जाती थी. मकान मालिक और महल्ले के लोग उन्हे ऐसे देखते थे मानो वे मंगल ग्रह से आए हों. दोनों छत पर एकदूसरे का हाथ पकड़ कर घूमते तो सैकडों लोगों पर छुरियां चल जातीं. महिलाएं तो बाज न आती, “…देखो तो बेशरम को…” फिर अनुराधा सलवार सूट पहनती तो कई लोगों के गले नहीं उतरती थी वह. कुल मिला कर कसबे के चटखारे थे दोनों प्रेमी युगल. किसी का भी शायद ही खाना पचता हो इन की बात किए बिना.
इधर लोगों की पाचन क्षमता से अनजान अनुराधा और बलवंत विवाह की खुमारी में ही रहते थे. मिलन जितना संघर्षपूर्ण हो, मिलन का मजा उतने गुना बढ़ जाता है. उन के साथ ऐसा ही था. उन की अपनी दुनिया जिस में जिंदगी धूप, तुम घना साया था. सुधबुध खोए हुए वे पहले आठदस माह साए की तरह थे जहां थी रूमानियत, आकर्षण और वह सबकुछ जो होता है. एकदूसरे का ख़याल, जज्बातों का हमप्याला, छोटीछोटी बातों की परवा, जो खुद को पसंद नहीं है पर दूसरे को पसंद है तो अपनाना, खाना, नखरे, एकदूसरे से हंसीमजाक…. यही दौर था जहां खुशियां थीं, ढेर सारी जगजीत सिंह की ग़ज़लें थी तो यशुदास के कर्णप्रिय गाने जो दोनों के पसंदीदा थे.
समाज और लोग ‘लव मैरिज’ पर ऐसे नज़र गड़ा कर रखते थे जैसे कोई बहुत अहम काम हो. उस दिन उन के यहां मूकेश का कोई ‘सैड’ गाना क्या बजा, मकानमालिक हालचाल पूछने तक आ गए. “क्यों भाईसाहब, मैडम ने दिल तोड़ दिया क्या जो ऐसे गाने सुन रहे हो?” बलवंत पहले तो अचकचा गया, फिर संभलते हुए बोला, “नहीं साहब, गाने हैं, सभी तरह के होते हैं और अच्छे लगते हैं. इस में जरूरी नहीं कि सब आप पर लागू हों.” यह सुन कर मकानमालिक थोड़ा सिटपिटाया और हेहे करता निकल गया. कालेज के समय से ही बलवंत के पास लैम्ब्रेटा स्कूटर था. तब कसबे में मात्र 4 ही स्कूटर थे, 5वा बलवंत के पास था. अधिकांश साईकिलें हुआ करती थीं. स्कूल के लिए दोनों साथ निकलते और जैसे ही अनुराधा, बलवंत की कमर में हाथ लपेटती, महल्ले की औरतों की कनखियां तैयार हो जाटीएन, अच्छे से उन्हें ताड़तीं और बुदबुदाते हुए जुमले फेंकतीं, “ढाकन छोरियों को बिगाड़ेगी…” कोई कहती, “बेशरम, बड़ेबूढ़े का कोई कायदा नहीं है…” लेकिन जैसे ही बलवंत स्कूटर रोक कर किसी से पूछता, “ओ काकी, काका साहब कहां है, उन को कुछ काम था?” तो महल्ले की काकी भुनभुनाना छोड़ कर लपक कर उन के लैम्ब्रेटा के पास जाती, “नहीं बना सा…आप के काका तो बाहर गए हैं, कल तक लौटेंगे” शहद टपकाती बोली बोलते काकी बहुत उत्सुकता के साथ कह जाती. बोलतेबोलते बलवंत के साथ बैठी अनुराधा को टेढ़ी निगाह से निहारती. अपनेआप को भी साथ में ठीक करती जाती. “ठीक है काकी, आएं तो बोलिएगा मैं आया था.” काकी दूर तक उन्हें जाते हुए देखती रहती.
काकी के लिए अनोखा दिन था और वह इसे अपने महिला मंडल में बांटने के लिए तत्पर थी. खासकर यह बात कि लव मैरिज वाली अपने पति को उस के नाम से बुलाती है, बल्लू. उन सब के लिए यह सब से बड़ा पाप था. अगले दोतीन दिन महल्ले की महिलाओं के खूब मजे में गुजरे जैसे खट्टामीठा स्वाद वाली पानीपताशे खा लिए हों.
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April 07, 2022 at 09:25AM
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