Thursday 7 April 2022

बिन चेहरे की औरतें: भाग 1

Writer- श्वेता अग्रवाल

मैं औफिस के लिए तैयार हो चुकी थी. घर से निकलने ही वाली थी कि संपादकजी का फोन आ गया.

‘‘गुडमौर्निंग सर.’’

‘‘मौर्निंग, क्या कर रही हो?’’

उन्होंने पूछा.

‘‘औफिस के लिए निकल रही थी.’’

‘‘औफिस रहने दो, अभी एक

काम करो…’’

‘‘जी?’’

‘‘मेघा, तुम सुकुमार बनर्जी को जानती हो न?’’

‘‘वह फेमस आर्टिस्ट?’’

‘‘यस, वही,’’ संपादकजी ने बताया, ‘‘वे आज शहर में हैं. मैं ने तुम्हें उन का नंबर मैसेज किया है. उन्हें फोन करो. अगर अपौइंटमैंट मिल जाए तो उन का इंटरव्यू करते हुए औफिस आना.’’

‘‘ओके सर.’’

‘‘बैस्ट औफ लक,’’ उन्होंने कहा और फोन डिस्कनैक्ट कर दिया.

मैं ने व्हाट्सऐप पर संपादकजी के मैसेज में सुकुमार का नंबर देख कर उन्हें फोन  लगा दिया. मेरी आशा के विपरीत उन्होंने मु?ो तुरंत ही होटल सिद्धार्थ बुला लिया, क्योंकि वे दोपहर को अपने एक मित्र के यहां लंच पर आमंत्रित थे.

तकरीबन 50 वर्षीय सुकुमार बनर्जी एक आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे. वे न सिर्फ उम्र से

10 साल कम दिखाई देते थे, बल्कि अपनी ऊर्जा व कर्मठता के मामले में नौजवानों को मात देने में सक्षम थे.

अविवाहित सुकुमार पेशे से आर्टिस्ट थे. कला जगत में उन का काफी नाम था. हाल ही में उन्हें इंडो-जरमन विजुअल आर्ट सैंटर की ओर से ‘जोश’ (ज्वैल्स औफ सोसाइटी एंड ह्यूमैनिटी) सम्मान से नवाजा गया था. उन के चित्रों की एक बड़ी विचित्र सी खासीयत अकसर लोगों का ध्यान खींचती थी. वह यह कि वे अपनी पेंटिंग्स में महिला किरदारों के चेहरे चित्रित नहीं किया करते थे. बाकी हर चीज में पूरी डिटेल्स होती थी. सिर्फ महिला पात्र के चेहरे को वे आउटलाइन बना कर छोड़ देते थे. लोग उन की इस शैली को ले कर तरहतरह की अटकलें लगाते थे. जब भी उन से इस बारे में पूछा जाता, वे टाल जाते थे. शायद उन्हें अपने इर्दगिर्द रहस्यमयता का वातावरण बनाए रखने में मजा आता था. कुछ ही देर बाद मैं होटल सिद्धार्थ की लौबी में उन के सामने बैठ उन का इंटरव्यू कर रही थी.

‘‘प्यार हम सभी के जीवन में किसी खूबसूरत सपने की तरह प्रवेश करता है. लेकिन वे लोग समय के बलवान होते हैं जिन के लिए यह हकीकत का रूप ले कर अकेलेपन के पत?ाड़ में किसी बहार की तरह जज्बातों के जंगल को हराभरा बनाए रखता है. मेरे जीवन में तो 30 वर्षों पहले एक ऐसा पत?ाड़ आया जिसे कोई बहार अब तक हराभरा नहीं कर पाई है,’’ कहतेकहते उन्होंने दाएं हाथ से अपना चश्मा उतार, बाएं हाथ में पकड़े छोटे से रूमाल से अपनी आंखें पोंछी और वापस चश्मा आंखों पर लगा लिया.

उन की यह हालत देख मैं थोड़ा असहज हो गई. इस से पहले मैं ने कला व उन के जीवन से संबंधित बहुत सारे सवाल उन से पूछ डाले थे और सभी का जवाब उन्होंने बड़ी परिपक्वता व गंभीरता के साथ दिया था. लेकिन जैसे ही मैं ने उन के अविवाहित रहने की वजह और प्रेम से संबंधित उन के खयाल जानने के लिए सवाल किया तो उन की हालत ऐसी हो गई थी जैसे किसी ने उन की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो.

‘‘आप पानी लेंगे या वेटर को कौफी लाने के लिए बोल दूं?’’ मैं ने उन की ओर देखते हुए पूछा.

‘‘जी, कुछ नहीं.’’ वे संयत होते हुए बोले, ‘‘माफ कीजिए, मैं थोड़ा इमोशनल किस्म का इंसान हूं.’’

‘‘जी, कोई बात नहीं,’’ मैं उन्हें सांत्वना देते हुए बोली, ‘‘वी कैन अवौइड दिस क्वैश्चन, इफ यू आर फीलिंग अनकंफर्टेबल विद इट?’’

‘‘नो, नो, इट्स ओके,’’ वे सीधे हो कर बैठ गए, ‘‘सच कहूं तो मु?ो अच्छा ही लगेगा किसी के साथ अपनी फीलिंग शेयर कर के. कम से कम उस घुटन से तो आजादी मिलेगी जिसे मैं

31 सालों से अपने भीतर समेटे हुए हूं.’’

‘‘जी, जैसा आप ठीक सम?ों,’’ मैं ने धीरे से कहा.

‘‘लेकिन इस से पहले कुछ वादा करना होगा आप को मु?ा से…’’ वे मेरी ओर ?ाके और मेरा हाथ अपने दोनों हाथों में थाम लिया, ‘‘वह यह कि आप मु?ो बीच में कहीं भी टोकेंगी नहीं और दूसरा यह कि आप इंटरव्यू में सिर्फ उतनी ही जानकारी शामिल करेंगी, जितनी जरूरी है.’’

‘‘जी, मैं पूरा खयाल रखूंगी कि आप को शिकायत का मौका न मिले,’’ मैं ने उन्हें आश्वस्त किया और वे मेरा हाथ छोड़ कर फिर से सीधे हो कर बैठ गए.

मैं ने अपने फोन को फिर से फ्लाइट मोड में डाल दिया और उस का वौयस रिकौर्डर औन कर उन की ओर देखा.

‘‘जयंती नाम था उस का,’’ उन्होंने कहना शुरू किया, ‘‘यह संयोग ही था जो हम एकदूसरे के संपर्क में आए थे. यों ही एक दिन फोन की घंटी बजी थी और मैं ने फोन उठा लिया था. ‘हैलो?’ मैं ने पूछा.

‘‘‘जी, क्या मैं सुकू से बात कर सकती हूं?’ उधर से एक लड़की की आवाज आई.

‘‘‘हां, मैं बोल रहा हूं. आप कौन?’ मैं ने असमंजस से पूछा.

‘‘‘सुकू, मैं जया बोल रही हूं.

कैसे हो?’ वह तो ऐसे

पूछ रही थी, जैसे जाने मेरी कितनी पुरानी परिचित हो.

‘‘‘कौन जया?’ मैं ने उल?ानभरे स्वर में पूछा. मैं इस नाम के किसी व्यक्ति को नहीं जानता था.

‘‘‘क्यों मजाक कर रहे हो?’ उस

ने कहा.

‘‘‘देखिए, मजाक मैं नहीं, आप कर रही हैं,’ मैं ने कड़े स्वर में कहा, ‘मैं आप को नहीं जानता.’

‘‘‘सुकुमार कहां है?’ वह भी कुछ उल?ान सी महसूस करने लगी थी.

‘‘‘कहा न, बोल रहा हूं,’ मैं और शुष्क हो गया था.

‘‘‘इज इट नौट टू फोर सिक्स नाइन थ्री फोर?’ उस ने परेशान हो कर पूछा.

‘‘‘यस, नंबर इज करैक्ट, लेकिन आखिर में आप ने शायद फोर की जगह वन प्रैस कर दिया,’ मैं रिलैक्स होने लगा, सोचा कि उस से जल्दी में गलत बटन दब गया होगा.

‘‘‘कमाल है, नंबर गलत, बंदा गलत, पर नाम वही,’ वह धीरे से बोली, फिर ‘सौरी’ कह कर फोन डिस्कनैक्ट कर दिया.

‘‘अगले दिन फिर रिंग बजी.

‘‘‘यस?’ मैं ने फोन उठा कर कहा.

‘‘‘सुकुमारजी, मैं जयंती बोल रही हूं और मु?ो उम्मीद है कि आज आप यह नहीं पूछेंगे कि कौन जयंती,’ वह मजाकिया स्वर में बोली.

‘‘‘ठीक है, नहीं पूछूंगा. लेकिन यह तो पूछ ही सकता हूं कि फोन कैसे किया,’ मैं ने नौर्मल टोन में पूछा.

‘‘‘सौरी बोलने के लिए, और…’

‘‘‘और किसलिए? क्योंकि सौरी तो आप ने कल ही बोल दिया था,’ मैं अपनी उत्सुकता को दबा नहीं पा रहा था, ‘‘‘दूसरी वजह क्या है?’

‘‘वह चुप रही. मैं ने फिर से अपना सवाल दोहराया कि उस ने फोन क्यों किया था.

‘‘‘इस उम्मीद में कि शायद रौंग नंबर पर एक राइट पर्सन से दोस्ती हो जाए,’ उस ने मधुर स्वर में जवाब दिया.

‘‘और फिर हम दोस्त बन गए. हर 2-3 दिनों के अंतर से हमारी फोन पर बातें होतीं. धीरेधीरे हम एकदूसरे से खुलने लगे और अपनी बातें, हौबीज, फीलिंग्स वगैरह शेयर करने लगे. उसे भी मेरी तरह आर्ट, मूवीज, म्यूजिक, डांस वगैरह में दिलचस्पी थी. हम देरदेर तक इन टौपिक्स पर बातें करते रहते. कई बार हमारी बात बीच में ही खत्म हो जाती तो मु?ो बहुत चिढ़ होती थी. यह 1990 की बात है. तब तक भारत में मोबाइल नहीं आया था और सारा संवाद या तो मिल कर या फिर बीएसएनएल के लैंडलाइन फोन के जरिए ही संभव था.

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Writer- श्वेता अग्रवाल

मैं औफिस के लिए तैयार हो चुकी थी. घर से निकलने ही वाली थी कि संपादकजी का फोन आ गया.

‘‘गुडमौर्निंग सर.’’

‘‘मौर्निंग, क्या कर रही हो?’’

उन्होंने पूछा.

‘‘औफिस के लिए निकल रही थी.’’

‘‘औफिस रहने दो, अभी एक

काम करो…’’

‘‘जी?’’

‘‘मेघा, तुम सुकुमार बनर्जी को जानती हो न?’’

‘‘वह फेमस आर्टिस्ट?’’

‘‘यस, वही,’’ संपादकजी ने बताया, ‘‘वे आज शहर में हैं. मैं ने तुम्हें उन का नंबर मैसेज किया है. उन्हें फोन करो. अगर अपौइंटमैंट मिल जाए तो उन का इंटरव्यू करते हुए औफिस आना.’’

‘‘ओके सर.’’

‘‘बैस्ट औफ लक,’’ उन्होंने कहा और फोन डिस्कनैक्ट कर दिया.

मैं ने व्हाट्सऐप पर संपादकजी के मैसेज में सुकुमार का नंबर देख कर उन्हें फोन  लगा दिया. मेरी आशा के विपरीत उन्होंने मु?ो तुरंत ही होटल सिद्धार्थ बुला लिया, क्योंकि वे दोपहर को अपने एक मित्र के यहां लंच पर आमंत्रित थे.

तकरीबन 50 वर्षीय सुकुमार बनर्जी एक आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे. वे न सिर्फ उम्र से

10 साल कम दिखाई देते थे, बल्कि अपनी ऊर्जा व कर्मठता के मामले में नौजवानों को मात देने में सक्षम थे.

अविवाहित सुकुमार पेशे से आर्टिस्ट थे. कला जगत में उन का काफी नाम था. हाल ही में उन्हें इंडो-जरमन विजुअल आर्ट सैंटर की ओर से ‘जोश’ (ज्वैल्स औफ सोसाइटी एंड ह्यूमैनिटी) सम्मान से नवाजा गया था. उन के चित्रों की एक बड़ी विचित्र सी खासीयत अकसर लोगों का ध्यान खींचती थी. वह यह कि वे अपनी पेंटिंग्स में महिला किरदारों के चेहरे चित्रित नहीं किया करते थे. बाकी हर चीज में पूरी डिटेल्स होती थी. सिर्फ महिला पात्र के चेहरे को वे आउटलाइन बना कर छोड़ देते थे. लोग उन की इस शैली को ले कर तरहतरह की अटकलें लगाते थे. जब भी उन से इस बारे में पूछा जाता, वे टाल जाते थे. शायद उन्हें अपने इर्दगिर्द रहस्यमयता का वातावरण बनाए रखने में मजा आता था. कुछ ही देर बाद मैं होटल सिद्धार्थ की लौबी में उन के सामने बैठ उन का इंटरव्यू कर रही थी.

‘‘प्यार हम सभी के जीवन में किसी खूबसूरत सपने की तरह प्रवेश करता है. लेकिन वे लोग समय के बलवान होते हैं जिन के लिए यह हकीकत का रूप ले कर अकेलेपन के पत?ाड़ में किसी बहार की तरह जज्बातों के जंगल को हराभरा बनाए रखता है. मेरे जीवन में तो 30 वर्षों पहले एक ऐसा पत?ाड़ आया जिसे कोई बहार अब तक हराभरा नहीं कर पाई है,’’ कहतेकहते उन्होंने दाएं हाथ से अपना चश्मा उतार, बाएं हाथ में पकड़े छोटे से रूमाल से अपनी आंखें पोंछी और वापस चश्मा आंखों पर लगा लिया.

उन की यह हालत देख मैं थोड़ा असहज हो गई. इस से पहले मैं ने कला व उन के जीवन से संबंधित बहुत सारे सवाल उन से पूछ डाले थे और सभी का जवाब उन्होंने बड़ी परिपक्वता व गंभीरता के साथ दिया था. लेकिन जैसे ही मैं ने उन के अविवाहित रहने की वजह और प्रेम से संबंधित उन के खयाल जानने के लिए सवाल किया तो उन की हालत ऐसी हो गई थी जैसे किसी ने उन की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो.

‘‘आप पानी लेंगे या वेटर को कौफी लाने के लिए बोल दूं?’’ मैं ने उन की ओर देखते हुए पूछा.

‘‘जी, कुछ नहीं.’’ वे संयत होते हुए बोले, ‘‘माफ कीजिए, मैं थोड़ा इमोशनल किस्म का इंसान हूं.’’

‘‘जी, कोई बात नहीं,’’ मैं उन्हें सांत्वना देते हुए बोली, ‘‘वी कैन अवौइड दिस क्वैश्चन, इफ यू आर फीलिंग अनकंफर्टेबल विद इट?’’

‘‘नो, नो, इट्स ओके,’’ वे सीधे हो कर बैठ गए, ‘‘सच कहूं तो मु?ो अच्छा ही लगेगा किसी के साथ अपनी फीलिंग शेयर कर के. कम से कम उस घुटन से तो आजादी मिलेगी जिसे मैं

31 सालों से अपने भीतर समेटे हुए हूं.’’

‘‘जी, जैसा आप ठीक सम?ों,’’ मैं ने धीरे से कहा.

‘‘लेकिन इस से पहले कुछ वादा करना होगा आप को मु?ा से…’’ वे मेरी ओर ?ाके और मेरा हाथ अपने दोनों हाथों में थाम लिया, ‘‘वह यह कि आप मु?ो बीच में कहीं भी टोकेंगी नहीं और दूसरा यह कि आप इंटरव्यू में सिर्फ उतनी ही जानकारी शामिल करेंगी, जितनी जरूरी है.’’

‘‘जी, मैं पूरा खयाल रखूंगी कि आप को शिकायत का मौका न मिले,’’ मैं ने उन्हें आश्वस्त किया और वे मेरा हाथ छोड़ कर फिर से सीधे हो कर बैठ गए.

मैं ने अपने फोन को फिर से फ्लाइट मोड में डाल दिया और उस का वौयस रिकौर्डर औन कर उन की ओर देखा.

‘‘जयंती नाम था उस का,’’ उन्होंने कहना शुरू किया, ‘‘यह संयोग ही था जो हम एकदूसरे के संपर्क में आए थे. यों ही एक दिन फोन की घंटी बजी थी और मैं ने फोन उठा लिया था. ‘हैलो?’ मैं ने पूछा.

‘‘‘जी, क्या मैं सुकू से बात कर सकती हूं?’ उधर से एक लड़की की आवाज आई.

‘‘‘हां, मैं बोल रहा हूं. आप कौन?’ मैं ने असमंजस से पूछा.

‘‘‘सुकू, मैं जया बोल रही हूं.

कैसे हो?’ वह तो ऐसे

पूछ रही थी, जैसे जाने मेरी कितनी पुरानी परिचित हो.

‘‘‘कौन जया?’ मैं ने उल?ानभरे स्वर में पूछा. मैं इस नाम के किसी व्यक्ति को नहीं जानता था.

‘‘‘क्यों मजाक कर रहे हो?’ उस

ने कहा.

‘‘‘देखिए, मजाक मैं नहीं, आप कर रही हैं,’ मैं ने कड़े स्वर में कहा, ‘मैं आप को नहीं जानता.’

‘‘‘सुकुमार कहां है?’ वह भी कुछ उल?ान सी महसूस करने लगी थी.

‘‘‘कहा न, बोल रहा हूं,’ मैं और शुष्क हो गया था.

‘‘‘इज इट नौट टू फोर सिक्स नाइन थ्री फोर?’ उस ने परेशान हो कर पूछा.

‘‘‘यस, नंबर इज करैक्ट, लेकिन आखिर में आप ने शायद फोर की जगह वन प्रैस कर दिया,’ मैं रिलैक्स होने लगा, सोचा कि उस से जल्दी में गलत बटन दब गया होगा.

‘‘‘कमाल है, नंबर गलत, बंदा गलत, पर नाम वही,’ वह धीरे से बोली, फिर ‘सौरी’ कह कर फोन डिस्कनैक्ट कर दिया.

‘‘अगले दिन फिर रिंग बजी.

‘‘‘यस?’ मैं ने फोन उठा कर कहा.

‘‘‘सुकुमारजी, मैं जयंती बोल रही हूं और मु?ो उम्मीद है कि आज आप यह नहीं पूछेंगे कि कौन जयंती,’ वह मजाकिया स्वर में बोली.

‘‘‘ठीक है, नहीं पूछूंगा. लेकिन यह तो पूछ ही सकता हूं कि फोन कैसे किया,’ मैं ने नौर्मल टोन में पूछा.

‘‘‘सौरी बोलने के लिए, और…’

‘‘‘और किसलिए? क्योंकि सौरी तो आप ने कल ही बोल दिया था,’ मैं अपनी उत्सुकता को दबा नहीं पा रहा था, ‘‘‘दूसरी वजह क्या है?’

‘‘वह चुप रही. मैं ने फिर से अपना सवाल दोहराया कि उस ने फोन क्यों किया था.

‘‘‘इस उम्मीद में कि शायद रौंग नंबर पर एक राइट पर्सन से दोस्ती हो जाए,’ उस ने मधुर स्वर में जवाब दिया.

‘‘और फिर हम दोस्त बन गए. हर 2-3 दिनों के अंतर से हमारी फोन पर बातें होतीं. धीरेधीरे हम एकदूसरे से खुलने लगे और अपनी बातें, हौबीज, फीलिंग्स वगैरह शेयर करने लगे. उसे भी मेरी तरह आर्ट, मूवीज, म्यूजिक, डांस वगैरह में दिलचस्पी थी. हम देरदेर तक इन टौपिक्स पर बातें करते रहते. कई बार हमारी बात बीच में ही खत्म हो जाती तो मु?ो बहुत चिढ़ होती थी. यह 1990 की बात है. तब तक भारत में मोबाइल नहीं आया था और सारा संवाद या तो मिल कर या फिर बीएसएनएल के लैंडलाइन फोन के जरिए ही संभव था.

The post बिन चेहरे की औरतें: भाग 1 appeared first on Sarita Magazine.

April 08, 2022 at 10:03AM

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