Monday 11 April 2022

तेरी मेरी कहानी: कैसे बदल गई रिश्तों की परिभाषा

नींद कोसों दूर थी. कुछ देर बिस्तर पर करवटें बदलने के बाद वह उठ खड़ा हुआ और अपने कमरे के आगे की छोटी सी बालकनी में जा खड़ा हुआ. पूरा चांद साफ आसमान में चुपड़ी रोटी की तरह दमक रहा था… कुछ फूला सा कुछ चकत्तों वाला, लेकिन बेहद खूबसूरत, दूरदूर तक चांदनी छिटकाता… धुले हुए से आसमान में तारे बिखरे हुए थे, बहुत चमकीले, हवा के संग झिलमिलाते. मंद बयार उस के कपोलों को सहला गई थी, आज हवा की उस छुअन में एक मादकता थी जो उसे कई बरस पीछे धकेल गई थी.

तब वह युवा था, बहुत से सपने लिए हुए… जिंदगी को दिशा न मिली थी पर मन में उत्साह था. आज जिंदा तो था पर जी कहां रहा था… एक आह के साथ वह वहां पड़ी कुरसी पर बैठ गया. सिगरेट बहुत दिन से छोड़ दी थी पर आज बेहद तलब महसूस हो रही थी, कमरे में गया और माचिस व सिगरेट की डिबिया उठा लाया, लौटते हुए दोनों बच्चों और पत्नी पर नजर पड़ी. वे अपनी स्वप्नों की दुनिया में गुम थे. अब वे ही उस की दुनिया थे पर आज जाने क्यों दिल हूक रहा था यह सोच कर कि उस की दुनिया कितनी अलग हो सकती थी…

ऐसी ही दूरदूर तक फैली चांदनी वाली रात तो थी, वह उन दिनों हारमोनियम सीखता था. सभी स्वर सधे हुए न थे पर कर्णप्रिय बजा लेता था. जाने चांदनी ने कुछ जादू किया था या फिर दबी हुई कामना ने पंख फैलाए थे. न जाने क्या सोच कर उस ने हारमोनियम उठाया था और बजाने लगा था… ‘एक प्यार का नगमा है, मौजों की रवानी है, जिंदगी और कुछ भी नहीं तेरी मेरी कहानी है…’ गीत का दर्द सुरों में पिघल कर दूर तक फैलता रहा था… रात गहरा चुकी थी, चांदनी को चुनौती देती कोई बिजली कहीं नहीं टिमटिमा रही थी पर शब्द जहां भेजे थे वहां पहुंच गए थे.

उस ने क्यों मान लिया था कि गीत उस के लिए बजाया गया था. चार शब्द कानों में बस गए थे… तेरी मेरी कहानी है और तब से दुनिया उस के लिए अपनी और उस की कहानी हो गई थी. वे बचपन में साथ खेले थे, वह लड़का था हमेशा जीतता पर वह कभी अपनी हार न मानती. वह हंसता हुआ कहता, ‘‘कल देखेंगे…’’ तो वह भी, ‘‘हांहां, कल देखेंगे,’’ कह कर भाग जाती. उसे यकीन था एक दिन वह जीतेगी. लड़की थी लेकिन बड़ेबड़े सपने देखती थी. वह उन दिनों की कुछ फिल्मों की नायिका की तरह बनना चाहती थी जो सबला व आत्मनिर्भर थी, एक ऐसी स्त्री जिस पर उस के आसपास की दुनिया टिकी हो.

कसबे के उस महल्ले में ज्यादातर घर एकमंजिले थे. बड़ेबड़े आंगन, एक ओर लाइन से कुछ कमरे, एक कोने में रसोई व भंडार जिस का प्रयोग सामान रखने के लिए अधिक होता था और खाना रसोई के बाहर अंगीठी रख कर पकाया जाता था, वहीं पतलीपतली दरियां बिछा कर खाना खाया जाता था. कोई मेहमान आता तो आंगन में चारपाई के आगे मेज रख दी जाती, गरमगरम रोटियां सिंकतीं और सीधे थाली में पहुंचतीं.

आंगन के बाहर वाले कोने की ओर 2 छोटे दरवाजे थे, शौच व गुसलखाने के. लगभग सभी घरों का ढांचा एकसा था. उस महल्ले में बस एक एकलौता घर तीनमंजिला था उस का. तीसरी मंजिल पर एक ही कमरा था, जिसे उस की पढ़ाई के लिए सब से उपयुक्त माना गया. आनेजाने वालों के शोर से परे वहां एकांत था. मामा के निर्देश थे कि मन लगा कर पढ़ाई की जाए. उस के और पढ़ाई के बीच कुछ न आए. मामा पुलिस में थे. ड्यूटी के कारण हफ्तों घर न आते थे. मामी और उन के 2 बच्चे उन के साथ रहते थे. घर में कुल मिला कर वह, उस की मां, उस के दादाजी, जिन्हें वह बाबा पुकारता था और मामी व उन के बच्चे रहते थे. वह समझ न पाता था कि मामा ने उस की विधवा मां को अकेले न रहने दे कर उसे सहारा दिया या अपना घोंसला न होने के कारण कोयल का चरित्र अपनाया. खैर जो भी कारण रहा हो, मामा उसे बहुत प्यार करते थे. घर में पित्रात्मक सत्ता प्रदान करते थे पर मामी ऐसी न थीं. मामा न होते तो मां से खूब झगड़तीं, शायद उन के मन में कुछ ग्रंथियां थीं. तीनमंजिला घर के भूतल पर वे रहते थे, बाहर बैठक थी और उस के साथ में एक गलियारा आंगन में ला छोड़ता था जहां एक ओर रसोई, सामने एक कमरा और कमरे के भीतर एक और कमरा था. बैठक में बाबाजी रहते थे, अंदर के कमरों में वे सब. पहली और दूसरी मंजिल के कुल 4 कमरों में कभी 3 किराएदार रहते तो कभी 4. उन कमरों का किराया उस के परिवार के लिए पर्याप्त था.

जब से उसे ऊपर वाला कमरा मिला था वह वहीं पर पढ़ाई करने लगा था. कमरे के बाहर छोटी सी 4 ईंटों की मुंडेर वाले छज्जे पर छोटी मेजकुरसी लगा कर वह पढ़ता… जानता था उसे कोई देख रहा है, पर वह किताब से नजरें न हटाता. बहुत होशियार न था पर पढ़ाई तो पूरी करनी ही थी. वह भटक भी नहीं सकता था, मां को दुख नहीं देना चाहता था. मामा प्रेरणा देते थे पर पिता की कमी को कब कोई पूरा कर पाया है? उस का मन पढ़ने में बहुत न था, उसे डाक्टर इंजीनियर न बनना था. कोई बड़े ख्वाब भी न थे, मामा जैसी नौकरी न करनी थी जिस में महीने के 25 दिन शहर से बाहर काटने पड़ें और बाकी के 5 दिन आप के घर वाले छठे दिन का इंतजार करें. उसे पिता सी पुरोहिताई भी नहीं करनी थी. एक समय इंटर पास बड़े माने रखता था. पर अब ऐसा न था. उस पर घर के गुजारे का बोझ न था पर जिंदगी बिताने को कुछ करना जरूरी था… भविष्य के विषय में संशय ही संशय था.

वह बारबार चबूतरे तक चक्कर लगा आती. चबूतरे से छज्जा साफ दिखाई पड़ता था, लेकिन उसे शाम को 8 से 9 बजे तक का बिजली की कटौती वाला समय पसंद था, क्योंकि मिट्टी के तेल के लैंप की आभा में पढ़ने वाले का चेहरा चमक उठता था. वह स्वयं अनदेखा रह कर उसे देख पाती. अब वे बच्चे न रहे थे, किशोरवय को बड़ी निगरानी में रखा जाता था, कोई बंदिश तो न थी, लेकिन पहले की उन्मुक्तता समाप्त हो गई थी. तब वह 10वीं में थी और वह 12वीं में था. वह अकसर सोचती, ‘काश, दोनों एक ही कक्षा में होते तो वह पढ़ाई और किताबों के आदानप्रदान के बहाने ही एकदूसरे से बात कर पाते. यदाकदा मां के काम से ताईजी के पास जाने में सामना हो जाता, पर बात न हो पाती,’ शायद मन के भीतर जो था, वह सामान्य बातचीत करने से भी रोकता था. संस्कारों में बंधे वे 2 युवामन कभी खुल न पाए. उस दिन भी नहीं जब अम्मां ने उसे गला बुनने की सलाई लेने भेजा था लेकिन ताईजी घर पर नहीं थीं और वह बैठक में अकेला था. वह चाह कर भी कह नहीं पाया कि दो पल रुको और वह मन होते भी रुक नहीं पाई. शायद वह तब भी सोच रहा था, ‘कल देखेंगे.’

दादाजी के गुजर जाने के बाद बहुत दिन तक बैठक खाली रही, फिर मां के कहने पर उस ने उसे अपना कमरा बना लिया. दादाजी के कमरे में आते ही उसे लगा वह बड़ा हो गया है. दोस्त पहले ही बहुत न थे, जो थे वे भी धीरेधीरे छूटते गए. मन बहलाव को कुछ तो चाहिए सो उस ने तीसरी मंजिल के कमरे में कबूतरों के दड़बे रख दिए थे. सुबहशाम वह कबूतरों को दानापानी देने ऊपर चढ़ता, कबूतरों को पंख पसारने के लिए ऊपर छोड़ता… और जब उन्हें वापस बुलाने को पुकारता आ आ आ… तो उसे लगता वह पुकार उस के लिए है. वह किसी न किसी बहाने छत पर चढ़ती, कभी कपड़े सुखाने, कभी छत पर सूख रहे कपड़े इकट्ठे करने तो कभी छोटे भाईबहनों को खेल खिलाने.

वह जिस अंगरेजी स्कूल में पढ़ती थी वह कक्षा 12वीं से आगे न था. वह शुरू से अंगरेजी स्कूल में पढ़ी थी. सरकारी स्कूल में जाने का स्वभाव न था… मौसी दिल्ली रहती थीं, उसे वहीं भेज दिया गया. वह भारी मन से चली थी, जाने से पहले की रात चांद पूरा खिला था, उस के कान हारमोनियम की आवाज को तरसते रहे… काश, एक बार वह सुन पाती पर उस रात कहीं कोई संगीत न था.

रात आंखों में कटी और सुबह तैयार हो गई. मां मौसी के घर छोड़ने गई थी. वह पिता की बात गांठ बांध कर साथ ले गई थी. मन लगा कर पढ़ना और कुछ बन कर लौटना.

वह पढ़ती रही, बढ़ती रही, यह संकल्प लिए कि कुछ बन कर ही लौटेगी. आज 10 बरस बाद लौटी. पिता बहुत खुश, मां बारबार आंख के कोने पोंछतीं, उसे देखती निहाल हो रही हैं. लड़की पढ़लिख कर सरकारी अफसर बन गई, आला अधिकारी. मौका लगते ही वह छत पर जा पहुंची. सब बदल गया था… कहीं कोई न था. महल्ले के ज्यादातर घर दोमंजिले हो गए थे, दूर कुछ तीनचार मंजिले घर भी दिखाई दे रहे थे.

शाम को बाहर चबूतरे पर निकली ही थी कि देखा एक छोटा बालक तीनमंजिले घर की देहरी पार कर बाहर निकल आया था, घुटनों के बल चलते उस बालक को उठाने का लोभ वह संवरण न कर पाई, ‘कहीं यह?’

वह उसे पहुंचाने के बहाने घर के भीतर ले गई थी. तेल चुपड़े बालों की कसी चोटी, सिर पर पल्ला, गोरी, सपाट चेहरे वाली एक महिला सामने आई और अपने मुन्ना को उस की बांहों में झूलते देख सकपका गई.

एक अजब सा क्षण, जब आमनेसामने दोनों के प्रश्न चेहरे पर गढ़े होते हैं किंतु शब्द खो जाते हैं… और एक मसीहा की तरह ताईजी आ गई थीं… ‘अरे, बिट्टो तुम, अभी तो शन्नो की अम्मां से सुना कि तुम आई हो… कितने बरस बाहर रहीं, आंखें तरस गईं तुम्हें देखने को… बहुत बड़ा कलेजा है तुम्हारी मां का जो इत्ती दूर छोड़े रही… बहू, रजनी जीजी के पैर छू कर आशीर्वाद लो, जानो कौन हैं ये?’ हां अम्मां, मैं समझ गई थी.

वह अचानक जिज्जी और बूआ बन गई.

तभी वह आया था, सामने के बाल उड़ चुके थे, सुना था किसी दुकान पर सहायक लगा था… खबरें तो कभीकभार मिलती रही थीं, उस के ब्याह की खबर भी मिली थी पर खबर मिलने और प्रत्यक्ष देखने में बड़ा अंतर होता है. इस सच से अब रूबरू हुई. 2 बच्चों का पिता 30-32 वर्ष का वह आदमी उस की कल्पना के पुरुष से बिलकुल अलग था.

पल भर के लिए वह वहां नहीं थी, मानो 10 सदी से लगने वाले 10 बरसों में उसे खोजने का प्रयास कर रही थी, देखना चाह रही थी कि उस के चेहरे की लकीरें इतना कैसे गहरा गईं.

उस ने नाम से संबोधित करते हुए कहा था… ‘‘रजनी, बैठो. खाना खा कर जाना…’’ उफ्फ, वह औपचारिकता भरी आवाज उस का कलेजा चीर गई थी. कसी चोटी वाली एक आत्मीयता भरी नजर भर तुरंत रसोई में चली गई थी, वह समझ नहीं पाई कि वह भोजन लगाने का निमंत्रण था या उस के लिए प्रस्थान करने का संकेत. वह क्षमा याचना सी करती, मां के इंतजार का बहाना कर ताईजी को प्रणाम कर लौट आई थी.

एक गहरी निश्वास के साथ उस के मुंह से निकला… ‘अब कल न होगी.’

वह समझ गया था कि कहीं कुछ चटका है, भीतर या बाहर, यह अंदाजा नहीं कर पा रहा था.

The post तेरी मेरी कहानी: कैसे बदल गई रिश्तों की परिभाषा appeared first on Sarita Magazine.



from कहानी – Sarita Magazine https://ift.tt/plybDUZ

नींद कोसों दूर थी. कुछ देर बिस्तर पर करवटें बदलने के बाद वह उठ खड़ा हुआ और अपने कमरे के आगे की छोटी सी बालकनी में जा खड़ा हुआ. पूरा चांद साफ आसमान में चुपड़ी रोटी की तरह दमक रहा था… कुछ फूला सा कुछ चकत्तों वाला, लेकिन बेहद खूबसूरत, दूरदूर तक चांदनी छिटकाता… धुले हुए से आसमान में तारे बिखरे हुए थे, बहुत चमकीले, हवा के संग झिलमिलाते. मंद बयार उस के कपोलों को सहला गई थी, आज हवा की उस छुअन में एक मादकता थी जो उसे कई बरस पीछे धकेल गई थी.

तब वह युवा था, बहुत से सपने लिए हुए… जिंदगी को दिशा न मिली थी पर मन में उत्साह था. आज जिंदा तो था पर जी कहां रहा था… एक आह के साथ वह वहां पड़ी कुरसी पर बैठ गया. सिगरेट बहुत दिन से छोड़ दी थी पर आज बेहद तलब महसूस हो रही थी, कमरे में गया और माचिस व सिगरेट की डिबिया उठा लाया, लौटते हुए दोनों बच्चों और पत्नी पर नजर पड़ी. वे अपनी स्वप्नों की दुनिया में गुम थे. अब वे ही उस की दुनिया थे पर आज जाने क्यों दिल हूक रहा था यह सोच कर कि उस की दुनिया कितनी अलग हो सकती थी…

ऐसी ही दूरदूर तक फैली चांदनी वाली रात तो थी, वह उन दिनों हारमोनियम सीखता था. सभी स्वर सधे हुए न थे पर कर्णप्रिय बजा लेता था. जाने चांदनी ने कुछ जादू किया था या फिर दबी हुई कामना ने पंख फैलाए थे. न जाने क्या सोच कर उस ने हारमोनियम उठाया था और बजाने लगा था… ‘एक प्यार का नगमा है, मौजों की रवानी है, जिंदगी और कुछ भी नहीं तेरी मेरी कहानी है…’ गीत का दर्द सुरों में पिघल कर दूर तक फैलता रहा था… रात गहरा चुकी थी, चांदनी को चुनौती देती कोई बिजली कहीं नहीं टिमटिमा रही थी पर शब्द जहां भेजे थे वहां पहुंच गए थे.

उस ने क्यों मान लिया था कि गीत उस के लिए बजाया गया था. चार शब्द कानों में बस गए थे… तेरी मेरी कहानी है और तब से दुनिया उस के लिए अपनी और उस की कहानी हो गई थी. वे बचपन में साथ खेले थे, वह लड़का था हमेशा जीतता पर वह कभी अपनी हार न मानती. वह हंसता हुआ कहता, ‘‘कल देखेंगे…’’ तो वह भी, ‘‘हांहां, कल देखेंगे,’’ कह कर भाग जाती. उसे यकीन था एक दिन वह जीतेगी. लड़की थी लेकिन बड़ेबड़े सपने देखती थी. वह उन दिनों की कुछ फिल्मों की नायिका की तरह बनना चाहती थी जो सबला व आत्मनिर्भर थी, एक ऐसी स्त्री जिस पर उस के आसपास की दुनिया टिकी हो.

कसबे के उस महल्ले में ज्यादातर घर एकमंजिले थे. बड़ेबड़े आंगन, एक ओर लाइन से कुछ कमरे, एक कोने में रसोई व भंडार जिस का प्रयोग सामान रखने के लिए अधिक होता था और खाना रसोई के बाहर अंगीठी रख कर पकाया जाता था, वहीं पतलीपतली दरियां बिछा कर खाना खाया जाता था. कोई मेहमान आता तो आंगन में चारपाई के आगे मेज रख दी जाती, गरमगरम रोटियां सिंकतीं और सीधे थाली में पहुंचतीं.

आंगन के बाहर वाले कोने की ओर 2 छोटे दरवाजे थे, शौच व गुसलखाने के. लगभग सभी घरों का ढांचा एकसा था. उस महल्ले में बस एक एकलौता घर तीनमंजिला था उस का. तीसरी मंजिल पर एक ही कमरा था, जिसे उस की पढ़ाई के लिए सब से उपयुक्त माना गया. आनेजाने वालों के शोर से परे वहां एकांत था. मामा के निर्देश थे कि मन लगा कर पढ़ाई की जाए. उस के और पढ़ाई के बीच कुछ न आए. मामा पुलिस में थे. ड्यूटी के कारण हफ्तों घर न आते थे. मामी और उन के 2 बच्चे उन के साथ रहते थे. घर में कुल मिला कर वह, उस की मां, उस के दादाजी, जिन्हें वह बाबा पुकारता था और मामी व उन के बच्चे रहते थे. वह समझ न पाता था कि मामा ने उस की विधवा मां को अकेले न रहने दे कर उसे सहारा दिया या अपना घोंसला न होने के कारण कोयल का चरित्र अपनाया. खैर जो भी कारण रहा हो, मामा उसे बहुत प्यार करते थे. घर में पित्रात्मक सत्ता प्रदान करते थे पर मामी ऐसी न थीं. मामा न होते तो मां से खूब झगड़तीं, शायद उन के मन में कुछ ग्रंथियां थीं. तीनमंजिला घर के भूतल पर वे रहते थे, बाहर बैठक थी और उस के साथ में एक गलियारा आंगन में ला छोड़ता था जहां एक ओर रसोई, सामने एक कमरा और कमरे के भीतर एक और कमरा था. बैठक में बाबाजी रहते थे, अंदर के कमरों में वे सब. पहली और दूसरी मंजिल के कुल 4 कमरों में कभी 3 किराएदार रहते तो कभी 4. उन कमरों का किराया उस के परिवार के लिए पर्याप्त था.

जब से उसे ऊपर वाला कमरा मिला था वह वहीं पर पढ़ाई करने लगा था. कमरे के बाहर छोटी सी 4 ईंटों की मुंडेर वाले छज्जे पर छोटी मेजकुरसी लगा कर वह पढ़ता… जानता था उसे कोई देख रहा है, पर वह किताब से नजरें न हटाता. बहुत होशियार न था पर पढ़ाई तो पूरी करनी ही थी. वह भटक भी नहीं सकता था, मां को दुख नहीं देना चाहता था. मामा प्रेरणा देते थे पर पिता की कमी को कब कोई पूरा कर पाया है? उस का मन पढ़ने में बहुत न था, उसे डाक्टर इंजीनियर न बनना था. कोई बड़े ख्वाब भी न थे, मामा जैसी नौकरी न करनी थी जिस में महीने के 25 दिन शहर से बाहर काटने पड़ें और बाकी के 5 दिन आप के घर वाले छठे दिन का इंतजार करें. उसे पिता सी पुरोहिताई भी नहीं करनी थी. एक समय इंटर पास बड़े माने रखता था. पर अब ऐसा न था. उस पर घर के गुजारे का बोझ न था पर जिंदगी बिताने को कुछ करना जरूरी था… भविष्य के विषय में संशय ही संशय था.

वह बारबार चबूतरे तक चक्कर लगा आती. चबूतरे से छज्जा साफ दिखाई पड़ता था, लेकिन उसे शाम को 8 से 9 बजे तक का बिजली की कटौती वाला समय पसंद था, क्योंकि मिट्टी के तेल के लैंप की आभा में पढ़ने वाले का चेहरा चमक उठता था. वह स्वयं अनदेखा रह कर उसे देख पाती. अब वे बच्चे न रहे थे, किशोरवय को बड़ी निगरानी में रखा जाता था, कोई बंदिश तो न थी, लेकिन पहले की उन्मुक्तता समाप्त हो गई थी. तब वह 10वीं में थी और वह 12वीं में था. वह अकसर सोचती, ‘काश, दोनों एक ही कक्षा में होते तो वह पढ़ाई और किताबों के आदानप्रदान के बहाने ही एकदूसरे से बात कर पाते. यदाकदा मां के काम से ताईजी के पास जाने में सामना हो जाता, पर बात न हो पाती,’ शायद मन के भीतर जो था, वह सामान्य बातचीत करने से भी रोकता था. संस्कारों में बंधे वे 2 युवामन कभी खुल न पाए. उस दिन भी नहीं जब अम्मां ने उसे गला बुनने की सलाई लेने भेजा था लेकिन ताईजी घर पर नहीं थीं और वह बैठक में अकेला था. वह चाह कर भी कह नहीं पाया कि दो पल रुको और वह मन होते भी रुक नहीं पाई. शायद वह तब भी सोच रहा था, ‘कल देखेंगे.’

दादाजी के गुजर जाने के बाद बहुत दिन तक बैठक खाली रही, फिर मां के कहने पर उस ने उसे अपना कमरा बना लिया. दादाजी के कमरे में आते ही उसे लगा वह बड़ा हो गया है. दोस्त पहले ही बहुत न थे, जो थे वे भी धीरेधीरे छूटते गए. मन बहलाव को कुछ तो चाहिए सो उस ने तीसरी मंजिल के कमरे में कबूतरों के दड़बे रख दिए थे. सुबहशाम वह कबूतरों को दानापानी देने ऊपर चढ़ता, कबूतरों को पंख पसारने के लिए ऊपर छोड़ता… और जब उन्हें वापस बुलाने को पुकारता आ आ आ… तो उसे लगता वह पुकार उस के लिए है. वह किसी न किसी बहाने छत पर चढ़ती, कभी कपड़े सुखाने, कभी छत पर सूख रहे कपड़े इकट्ठे करने तो कभी छोटे भाईबहनों को खेल खिलाने.

वह जिस अंगरेजी स्कूल में पढ़ती थी वह कक्षा 12वीं से आगे न था. वह शुरू से अंगरेजी स्कूल में पढ़ी थी. सरकारी स्कूल में जाने का स्वभाव न था… मौसी दिल्ली रहती थीं, उसे वहीं भेज दिया गया. वह भारी मन से चली थी, जाने से पहले की रात चांद पूरा खिला था, उस के कान हारमोनियम की आवाज को तरसते रहे… काश, एक बार वह सुन पाती पर उस रात कहीं कोई संगीत न था.

रात आंखों में कटी और सुबह तैयार हो गई. मां मौसी के घर छोड़ने गई थी. वह पिता की बात गांठ बांध कर साथ ले गई थी. मन लगा कर पढ़ना और कुछ बन कर लौटना.

वह पढ़ती रही, बढ़ती रही, यह संकल्प लिए कि कुछ बन कर ही लौटेगी. आज 10 बरस बाद लौटी. पिता बहुत खुश, मां बारबार आंख के कोने पोंछतीं, उसे देखती निहाल हो रही हैं. लड़की पढ़लिख कर सरकारी अफसर बन गई, आला अधिकारी. मौका लगते ही वह छत पर जा पहुंची. सब बदल गया था… कहीं कोई न था. महल्ले के ज्यादातर घर दोमंजिले हो गए थे, दूर कुछ तीनचार मंजिले घर भी दिखाई दे रहे थे.

शाम को बाहर चबूतरे पर निकली ही थी कि देखा एक छोटा बालक तीनमंजिले घर की देहरी पार कर बाहर निकल आया था, घुटनों के बल चलते उस बालक को उठाने का लोभ वह संवरण न कर पाई, ‘कहीं यह?’

वह उसे पहुंचाने के बहाने घर के भीतर ले गई थी. तेल चुपड़े बालों की कसी चोटी, सिर पर पल्ला, गोरी, सपाट चेहरे वाली एक महिला सामने आई और अपने मुन्ना को उस की बांहों में झूलते देख सकपका गई.

एक अजब सा क्षण, जब आमनेसामने दोनों के प्रश्न चेहरे पर गढ़े होते हैं किंतु शब्द खो जाते हैं… और एक मसीहा की तरह ताईजी आ गई थीं… ‘अरे, बिट्टो तुम, अभी तो शन्नो की अम्मां से सुना कि तुम आई हो… कितने बरस बाहर रहीं, आंखें तरस गईं तुम्हें देखने को… बहुत बड़ा कलेजा है तुम्हारी मां का जो इत्ती दूर छोड़े रही… बहू, रजनी जीजी के पैर छू कर आशीर्वाद लो, जानो कौन हैं ये?’ हां अम्मां, मैं समझ गई थी.

वह अचानक जिज्जी और बूआ बन गई.

तभी वह आया था, सामने के बाल उड़ चुके थे, सुना था किसी दुकान पर सहायक लगा था… खबरें तो कभीकभार मिलती रही थीं, उस के ब्याह की खबर भी मिली थी पर खबर मिलने और प्रत्यक्ष देखने में बड़ा अंतर होता है. इस सच से अब रूबरू हुई. 2 बच्चों का पिता 30-32 वर्ष का वह आदमी उस की कल्पना के पुरुष से बिलकुल अलग था.

पल भर के लिए वह वहां नहीं थी, मानो 10 सदी से लगने वाले 10 बरसों में उसे खोजने का प्रयास कर रही थी, देखना चाह रही थी कि उस के चेहरे की लकीरें इतना कैसे गहरा गईं.

उस ने नाम से संबोधित करते हुए कहा था… ‘‘रजनी, बैठो. खाना खा कर जाना…’’ उफ्फ, वह औपचारिकता भरी आवाज उस का कलेजा चीर गई थी. कसी चोटी वाली एक आत्मीयता भरी नजर भर तुरंत रसोई में चली गई थी, वह समझ नहीं पाई कि वह भोजन लगाने का निमंत्रण था या उस के लिए प्रस्थान करने का संकेत. वह क्षमा याचना सी करती, मां के इंतजार का बहाना कर ताईजी को प्रणाम कर लौट आई थी.

एक गहरी निश्वास के साथ उस के मुंह से निकला… ‘अब कल न होगी.’

वह समझ गया था कि कहीं कुछ चटका है, भीतर या बाहर, यह अंदाजा नहीं कर पा रहा था.

The post तेरी मेरी कहानी: कैसे बदल गई रिश्तों की परिभाषा appeared first on Sarita Magazine.

April 11, 2022 at 09:00AM

No comments:

Post a Comment