Friday 15 April 2022

वह राह जिस की कोई मंजिल नहीं: भाग 1

बस में झटका लगा, तो नंदू की आंखें खुल गईं. उस ने हाथ उठा कर कलाई में बंधी घड़ी देखी, “अरे, अभी तो 2 ही बजे हैं. बस तो दिल्ली सुबह साढ़े 7 बजे तक पहुंचेगी. अगर बस पंख लगा कर उड़ जाती, तो यह 5 घंटे का सफर 5 मिनट में कट जाता. तब कितना अच्छा होता.”

घर छोड़े आज पूरे 22 दिन हो गए हैं. पिछले एक सप्ताह से तो अश्वित से बात भी नहीं हुई है. पता नहीं क्या करता रहता है. न तो घर का ही फोन लग रहा है, न ही उस का मोबाइल.

निकलते समय बात हुई थी कि दिन में एक बार जरूर बात करेगा, पर यह लड़का… नंदू को थोड़ी चिंता हुई, अश्वित कहीं बीमार तो नहीं पड़ गया? पर बीमार होता तो फोन तो लगना चाहिए था. एकदम बेवकूफ लड़का है. नंदू को सहज ही गुस्सा आ गया. उस ने बस में नजर फेरी, हलकी रोशनी में बस की सवारियां गहरी नींद में सो रही थीं. उस ने खिड़की से बाहर की ओर देखा, दुनिया जैसे गहरे अंधकार में डूबी थी. वैसा ही अंधकार उस के जीवन में भी तो समाया हुआ था.

मां की मौत के बाद ही रंजनाजी से उस की मुलाकात हुई थी. रंजना उस समय अश्वित के जन्म के लिए इलाहाबाद अपने मायके आई हुई थीं. रंजना के मायके में नंदू की मामी काम करने आती थी.

मां की मौत के बाद नंदू के मामा उसे अपने घर ले आए थे. उस समय नंदू की उम्र 14-15 साल रही होगी.

रंजनाजी उसे बहुत अच्छी लगती थीं. जब कभी वह रंजना के पास बैठती, रो पड़ती. उस की मां को मरे हुए अभी 6-7 महीने ही हुए थे. मामी के साथ रहना उसे अच्छा नहीं लगता था. दूसरा कोई सगा रिश्तेदार था नहीं. सारे रास्ते बंद हो गए थे. ऐसे में रंजनाजी उस का सहारा बनीं.

बच्चा पैदा होने के बाद जब वह दिल्ली आने लगीं, तो अश्वित के साथ नंदू को भी ले आई थीं.

नंदू दिल्ली का नजारा देख कर दंग रह गई. चौड़ीचौड़ी सड़कें, ऊंचेऊंचे मकान, कतारों में बड़ीबड़ी दुकानें, तमाम मोटरगाड़ियां और रंजना का शहर में उतना बड़ा घर. 5 कमरे नीचे और 4 कमरे ऊपर. उस ने पूछा, ‘‘दीदी, आप यहां अकेली रहती हैं?’’

‘मैं अकेली नहीं, हम दोनों रहते हैं. मैं और तुम्हारे साहब.’’

‘‘सिर्फ 2 लोग. और इतना बड़ा घर…?’’

‘‘पर, अब तो हम 4 लोग हो गए हैं ना.’’

‘‘तो भी तो यह बहुत बड़ा घर है…’’

यह सुन कर रंजनाजी हंस पड़ीं. नंदू को यह घर और दिल्ली, दोनों बहुत अच्छे लगे. धीरेधीरे रंजना ने उसे घर के कामकाज और खाना बनाना सिखा दिया. फिर तो जल्दी ही नंदू ने घर का सारा कामकाज संभाल लिया.

प्रबोधजी उसे प्रेम से रखते थे. फुरसत पाते तो उसे थोड़ाबहुत पढ़ातेलिखाते भी. अश्वित तो पूरी तरह नंदू के सहारे हो गया था. नंदू को भी वह बहुत प्यार करता था. वह जरा भी रोता, नंदू सारे काम छोड़ कर उस के पास आ जाती.

नंदू ने एक बार फिर कलाई पर बंधी घड़ी देखी, ‘यह सूई आगे क्यों नहीं बढ़ रही है?’ उस ने पैर फैलाए. पैर अकड़ गए थे. पीछे सीट पर कोई बच्चा रोया, पर थोड़ी ही देर में शांत हो गया. शायद उस की मां ने थपकी दे कर उसे सुला दिया था.

अश्वित की भी तो ऐसी ही आदत थी. कोई थपकी देता, तभी वह सोता था. और थपकी देने के लिए अकसर नंदू ही आती थी. नींद आती तो वह उस का हाथ पकड़ कर बिस्तर पर ले जाता, ‘‘नंदू थपकी दो न.’’

पूरा दिन नंदू के पीछेपीछे घूमता रहता, ‘‘नंदू नहलाओ, खाना खिलाओ, कपड़े पहनाओ. नंदू मैथ की नोटबुक नहीं मिल रही है. नंदू यहां तो मेरा एक ही मोजा है, दूसरा कहां गया?’’

यही नहीं, कभीकभी नंदू खाना बना रही होती, तो वह आ कर कहता, ‘‘नंदू खेलने चलो न.’’

‘‘कैसे खेलने चलूं? मैं खाना बना रही हूं न.’’

‘‘मम्मी हैं न, वह खाना बनाएंगी. तुम चलो.’’

‘‘जाओ, मम्मी के साथ खेलो, मुझे खाना बनाने दो.’’

‘‘नहीं, उन्हें बौल फेंकना नहीं आता, तुम चलो,’’ एक हाथ में बौल और कंधे पर बैट रखे, जींस और चेक  की शर्ट पहने, पैर पटकते हुए अश्वित की तसवीर नंदू अभी भी जस का तस बना सकती थी.

रंजनाजी हमेशा खीझतीं, ‘‘नंदू, तुम इस की हर जिद मत पूरी किया करो. देखो न, यह जिद्दी होता जा रहा है.’’

नंदू हंस देती. अश्वित रोआंसा हो कर कहता, ‘‘मम्मी, मैं आप से कहां जिद करता हूं. मैं तो नंदू से जिद करता हूं.’’

‘‘मैं देखती नहीें कि हर बात में जिद करता है. जो चाहता है, वही करवाता है.’’

‘‘हां, नंदू से मैं जो चाहूंगा, वही करवाऊंगा.’’

रंजना नंदू को डांटतीं, ‘‘तुम ने इसे बिगाड़ कर रख दिया है. याद रखना, एक दिन पछताओगी.’’

रंजनाजी की बात आखिर इतने दिनों बाद सच निकली. धीरेधीरे वह जिद्दी होता चला गया. आज इतना बड़ा हो गया, फिर भी मन में जो आ गया, वही करवाता है. नंदू के लिए चारधाम की इस यात्रा का पैसा उस ने जिद कर के ही जमा किया था. नंदू ने कितनी बार मना किया, पर वह कहां माना. उस ने कहा,

‘‘नहीं, तुम चारधाम की यात्रा कर आओ. शायद फिर नहीं जा पाओगी.’’

‘‘पर, मैं इस घर और तुम्हें किस के भरोसे छोड़ कर जाऊं? तुम्हारी शादी के बाद…”

“फालतू बात मत करो, अब मैं छोटा नहीं हूं. तुम जाओ. 20-22 दिन तो ऐसे ही बीत जाएंगे.’’

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बस में झटका लगा, तो नंदू की आंखें खुल गईं. उस ने हाथ उठा कर कलाई में बंधी घड़ी देखी, “अरे, अभी तो 2 ही बजे हैं. बस तो दिल्ली सुबह साढ़े 7 बजे तक पहुंचेगी. अगर बस पंख लगा कर उड़ जाती, तो यह 5 घंटे का सफर 5 मिनट में कट जाता. तब कितना अच्छा होता.”

घर छोड़े आज पूरे 22 दिन हो गए हैं. पिछले एक सप्ताह से तो अश्वित से बात भी नहीं हुई है. पता नहीं क्या करता रहता है. न तो घर का ही फोन लग रहा है, न ही उस का मोबाइल.

निकलते समय बात हुई थी कि दिन में एक बार जरूर बात करेगा, पर यह लड़का… नंदू को थोड़ी चिंता हुई, अश्वित कहीं बीमार तो नहीं पड़ गया? पर बीमार होता तो फोन तो लगना चाहिए था. एकदम बेवकूफ लड़का है. नंदू को सहज ही गुस्सा आ गया. उस ने बस में नजर फेरी, हलकी रोशनी में बस की सवारियां गहरी नींद में सो रही थीं. उस ने खिड़की से बाहर की ओर देखा, दुनिया जैसे गहरे अंधकार में डूबी थी. वैसा ही अंधकार उस के जीवन में भी तो समाया हुआ था.

मां की मौत के बाद ही रंजनाजी से उस की मुलाकात हुई थी. रंजना उस समय अश्वित के जन्म के लिए इलाहाबाद अपने मायके आई हुई थीं. रंजना के मायके में नंदू की मामी काम करने आती थी.

मां की मौत के बाद नंदू के मामा उसे अपने घर ले आए थे. उस समय नंदू की उम्र 14-15 साल रही होगी.

रंजनाजी उसे बहुत अच्छी लगती थीं. जब कभी वह रंजना के पास बैठती, रो पड़ती. उस की मां को मरे हुए अभी 6-7 महीने ही हुए थे. मामी के साथ रहना उसे अच्छा नहीं लगता था. दूसरा कोई सगा रिश्तेदार था नहीं. सारे रास्ते बंद हो गए थे. ऐसे में रंजनाजी उस का सहारा बनीं.

बच्चा पैदा होने के बाद जब वह दिल्ली आने लगीं, तो अश्वित के साथ नंदू को भी ले आई थीं.

नंदू दिल्ली का नजारा देख कर दंग रह गई. चौड़ीचौड़ी सड़कें, ऊंचेऊंचे मकान, कतारों में बड़ीबड़ी दुकानें, तमाम मोटरगाड़ियां और रंजना का शहर में उतना बड़ा घर. 5 कमरे नीचे और 4 कमरे ऊपर. उस ने पूछा, ‘‘दीदी, आप यहां अकेली रहती हैं?’’

‘मैं अकेली नहीं, हम दोनों रहते हैं. मैं और तुम्हारे साहब.’’

‘‘सिर्फ 2 लोग. और इतना बड़ा घर…?’’

‘‘पर, अब तो हम 4 लोग हो गए हैं ना.’’

‘‘तो भी तो यह बहुत बड़ा घर है…’’

यह सुन कर रंजनाजी हंस पड़ीं. नंदू को यह घर और दिल्ली, दोनों बहुत अच्छे लगे. धीरेधीरे रंजना ने उसे घर के कामकाज और खाना बनाना सिखा दिया. फिर तो जल्दी ही नंदू ने घर का सारा कामकाज संभाल लिया.

प्रबोधजी उसे प्रेम से रखते थे. फुरसत पाते तो उसे थोड़ाबहुत पढ़ातेलिखाते भी. अश्वित तो पूरी तरह नंदू के सहारे हो गया था. नंदू को भी वह बहुत प्यार करता था. वह जरा भी रोता, नंदू सारे काम छोड़ कर उस के पास आ जाती.

नंदू ने एक बार फिर कलाई पर बंधी घड़ी देखी, ‘यह सूई आगे क्यों नहीं बढ़ रही है?’ उस ने पैर फैलाए. पैर अकड़ गए थे. पीछे सीट पर कोई बच्चा रोया, पर थोड़ी ही देर में शांत हो गया. शायद उस की मां ने थपकी दे कर उसे सुला दिया था.

अश्वित की भी तो ऐसी ही आदत थी. कोई थपकी देता, तभी वह सोता था. और थपकी देने के लिए अकसर नंदू ही आती थी. नींद आती तो वह उस का हाथ पकड़ कर बिस्तर पर ले जाता, ‘‘नंदू थपकी दो न.’’

पूरा दिन नंदू के पीछेपीछे घूमता रहता, ‘‘नंदू नहलाओ, खाना खिलाओ, कपड़े पहनाओ. नंदू मैथ की नोटबुक नहीं मिल रही है. नंदू यहां तो मेरा एक ही मोजा है, दूसरा कहां गया?’’

यही नहीं, कभीकभी नंदू खाना बना रही होती, तो वह आ कर कहता, ‘‘नंदू खेलने चलो न.’’

‘‘कैसे खेलने चलूं? मैं खाना बना रही हूं न.’’

‘‘मम्मी हैं न, वह खाना बनाएंगी. तुम चलो.’’

‘‘जाओ, मम्मी के साथ खेलो, मुझे खाना बनाने दो.’’

‘‘नहीं, उन्हें बौल फेंकना नहीं आता, तुम चलो,’’ एक हाथ में बौल और कंधे पर बैट रखे, जींस और चेक  की शर्ट पहने, पैर पटकते हुए अश्वित की तसवीर नंदू अभी भी जस का तस बना सकती थी.

रंजनाजी हमेशा खीझतीं, ‘‘नंदू, तुम इस की हर जिद मत पूरी किया करो. देखो न, यह जिद्दी होता जा रहा है.’’

नंदू हंस देती. अश्वित रोआंसा हो कर कहता, ‘‘मम्मी, मैं आप से कहां जिद करता हूं. मैं तो नंदू से जिद करता हूं.’’

‘‘मैं देखती नहीें कि हर बात में जिद करता है. जो चाहता है, वही करवाता है.’’

‘‘हां, नंदू से मैं जो चाहूंगा, वही करवाऊंगा.’’

रंजना नंदू को डांटतीं, ‘‘तुम ने इसे बिगाड़ कर रख दिया है. याद रखना, एक दिन पछताओगी.’’

रंजनाजी की बात आखिर इतने दिनों बाद सच निकली. धीरेधीरे वह जिद्दी होता चला गया. आज इतना बड़ा हो गया, फिर भी मन में जो आ गया, वही करवाता है. नंदू के लिए चारधाम की इस यात्रा का पैसा उस ने जिद कर के ही जमा किया था. नंदू ने कितनी बार मना किया, पर वह कहां माना. उस ने कहा,

‘‘नहीं, तुम चारधाम की यात्रा कर आओ. शायद फिर नहीं जा पाओगी.’’

‘‘पर, मैं इस घर और तुम्हें किस के भरोसे छोड़ कर जाऊं? तुम्हारी शादी के बाद…”

“फालतू बात मत करो, अब मैं छोटा नहीं हूं. तुम जाओ. 20-22 दिन तो ऐसे ही बीत जाएंगे.’’

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April 16, 2022 at 09:04AM

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