Friday 15 April 2022

छाया: वृंदा और विनय जब बन गए प्रेम दीवाने

लेखिका- सरिता शर्मा

‘‘तुम में इतना धैर्य कहां से आ गया. 2 दिन हो गए एक फोन भी नहीं किया,’’ विनय झल्लाहट दबा कर बोला.

‘‘नारी का धैर्य तुम ने अभी देखा ही कहां है. वैसे भी मैं तुम्हारे साथ थी भी कहां. बस, एक भीड़ का हिस्सा थी,’’ वृंदा का स्वर शांत था.

‘‘क्या मतलब है. ऐसे कैसे कह सकती हो. परसों मिले थे तो कोई लड़ाईझगड़ा नहीं हुआ था. मैं ने तुम्हें कुछ कहा भी नहीं जिस से तुम्हें गुस्सा आए.’’

‘‘कहने की जरूरत नहीं होती. पिछले 6 महीने से तुम लगातार मुझे अनदेखा करते आ रहे हो और मैं हमेशा सिर्फ तुम्हारे बारे में सोचती रहती हूं. परसों भी अपनी किसी न किसी महिला मित्र से तुम फोन पर बात करते रहे, मानो मैं तुम्हारे साथ थी ही नहीं.’’

‘‘वह तो मेरी लाइन ही ऐसी है.’’

‘‘पर मैं तो पूरी तरह तुम्हारे सुखदुख में भागीदार बन कर समर्पित रही. जब भी तुम्हें कोई काम पड़ा तुम मुझे कह देते और तुम्हारा वह काम करते हुए मुझे लगता कि मैं प्यार के लिए अपना फर्ज निभा रही हूं.’’

‘‘यार, ऐसा कुछ भी नहीं है. अच्छा तुम कल मिलो. ये बेकार की बातें हैं, इन्हें दिमाग से निकालो. कुछ भी नहीं बदला है.’’

‘‘अभी आफिस में काम है, फिर बात करेंगे,’’ कह कर वृंदा मोबाइल औफ करती हुई दफ्तर में लौट आई.

अपनी कुरसी पर बैठी वृंदा सोचने लगी कि इसी विनय ने 2 साल पहले शुरुआती दौर में कितनी कोशिश कर के उस से संपर्क बढ़ाया था. नौकरी लगने के बाद जब वृंदा ने अपनी कहानी छपवाई तो उस को लगा था कि वह हवा में उड़ रही है. पहली ही कहानी किसी प्रतिष्ठित पत्रिका में छप जाए और प्रशंसा के सैकड़ों पत्र मिलें तो मन तो उड़ेगा ही.

बाद में उस की कुछ और कहानियां छपीं तो कुछ पाठकों के फोन भी आने लगे. कुछ तो प्रशंसा के बहाने अपनी रचना पढ़ने का अनुरोध कर देते. कुछ छपी कहानी की समीक्षा विस्तार से करते.

उन्हीं प्रशंसकों में से एक विनय भी था. किसी भी अखबार में वृंदा का कुछ छप जाता तो सब से पहले उस का फोन आता.

एक दिन उस ने पूछ ही लिया, ‘आप क्या हर महिला लेखिका को फोन करते हैं? मेरे अलावा दूसरे लेखकों को भी पढ़ते हैं क्या?’

‘मैडम, मैं पत्रकार हूं. साहित्यिक पृष्ठ मैं ही तैयार करता हूं. बाकी पत्रपत्रिकाओं में क्या जा रहा है उस की पूरी जानकारी मुझे रहती है.’

‘क्या आप मेरी कहानियों को संभाल कर रखते हैं?’ वृंदा ने झिझकते हुए पूछा.

‘मैं आप का जबरदस्त प्रशंसक हूं. बताइए, क्या सेवा है.’

‘आप के यहां से प्रकाशित पत्रिका के पिछले अंक में मेरी एक कहानी छपी है. उस की एक भी प्रति मेरे पास नहीं है. क्या आप एक प्रति भिजवा देंगे. शायद पोस्टमैन ने रख ली होगी.’

और अगले दिन विनय मेरे आफिस के रिसेप्शन पर बैठा था. हम दोनों चाय पीने के लिए पास के रेस्तरां में बैठे तो विनय का फोन बारबार बज उठता.

‘किसी मित्र का फोन है क्या? सुन लो.’

‘नहीं, बड़ी मुश्किल से आप से मिलना हो पाया है. बाद में फोन सुन लूंगा. मुझे आप की कहानियां सच में बहुत अच्छी लगती हैं और प्रभावित भी करती हैं. बाकी लेखिकाएं नारी विमर्श के नाम पर मीडिया से जुड़ा जो कुछ लिख रही हैं वह पढ़ा नहीं जाता है.’

‘मुझे भी लगता है कि नारी आंदोलन को व्यवसाय बना लिया गया है. ऐसी औरतें नारी मुक्ति का झंडा उठाए हुए हैं जो खुद कब की आजाद हो चुकी हैं.’

‘आप समाज के सभी पात्रों को लेती हैं. हमारे परिवार के ढांचे को तोड़ने वाले साहित्य का क्या फायदा. कुछ लेखिकाएं ‘लिव इन रिलेशन’ को मुद्दा बना कर लिख रही हैं तो कुछ कई पुरुषों के साथ यौन संबंधों पर. हम कह सकते हैं कि आपस में वादा और विश्वास होने की बातें कहीं खोती जा रही हैं.’

‘ये तथाकथित लेखिकाएं महिलाओं के किस वर्ग को चित्रित कर रही हैं. इन की चकाचौंध में समस्याओं का सामना करने वाली निम्न और मध्यम वर्ग की महिलाओं पर ध्यान ही नहीं दिया जाता,’ वृंदा जोश में बहती जा रही थी.

‘मैडम, आज मेरा इंटरव्यू है. अब निकलता हूं. अब तो आप से मिलना- जुलना होता ही रहेगा,’ यह कह कर विनय फटाफट चला गया.

फिर तो वृंदा को मानो बात करने के लिए बेहद सुलझा हुआ अपनी तरह की सोच वाला साथी मिल गया. घर और आफिस के बंधेबंधाए ढांचे में सामाजिक चर्चाओं के लिए कोई भी नहीं था. पर विनय के साथ चर्चाओं का दायरा जल्दी ही टूट गया. बौद्धिक चर्चाएं स्त्रीपुरुष के परस्पर आकर्षण पर आ कर रुक गईं. साहित्य जीवन से ही तो बना है. मगर विनय फ्रीलांसर था. इसलिए उस ने साफ कह दिया कि कहीं पक्की नौकरी लगने तक उसे शादी के लिए रुकना होगा.

विनय ने भी हिंदी और अंगरेजी साहित्य पढ़ा था. पर उसे सरकारी नौकरी से चिढ़ थी. पत्रकार को जो आजादी है, वह और किस को है. फिर पावर भी तो है. सत्ता के साए में रहने वाले बड़ेबड़े लोगों से मिलने और बात करने का मौका जिस सहजता से एक पत्रकार को मिलता है वह दूसरों को कहां मिलता है. विनय को एक न्यूज चैनल में नौकरी मिली तो उस का व्यक्तित्व निखर गया और उसी के साथ उस के संपर्क बढ़ते जा रहे थे.

उस दिन लंच में वे दोनों पार्क में बैठे थे तो विनय फोन सुनने लगा. ग्रुप के मित्रों की आपसी खटपट को ले कर वह नीता से 20 मिनट तक बात करता रहा. धीरेधीरे अलगअलग नामों के फोन आने लगे. विनय फोन काटता तो तुरंत एसएमएस आ जाता. वृंदा के साथ होने पर भी विनय का ध्यान दूर जाने लगा था.

वृंदा को विनय अपने कामों में उलझाए रखता. कभी समीक्षा के लिए लाइब्रेरी से किताब मंगाता तो कभी कोलकाता में अपने घर जाने के लिए रेल का आरक्षण कराने के लिए वृंदा को कह देता. वह लंच में आधाआधा घंटा उस का इंतजार करती रहती और जब विनय आता तो फोन पर कोई न कोई डिस्टर्ब करता रहता.

धीरेधीरे वृंदा को लगने लगा कि वह प्यार किसे करती है विनय को या प्यार की धारणा को. जो आदमी अभी से कई लोगों में बंटा है, शादी के बाद उस से कैसे निष्ठा की उम्मीद की जा सकती है. फिर तो पूरा परिवार और समाज बीच में आ जाएगा. कभी वह विनय को टोकती तो कह देता, ‘तुम्हारा वहम है. वह मेरी महिला मित्र है. सब से काम पड़ता है. फिर हमारा दायरा ऐसा है जिस में पीनेपिलाने के लिए पार्टीज चलती ही रहती हैं.’

‘मुझे इन्हीं से चिढ़ है. जहां तक शराब की बात है तो हमारे यहां इसे कोई पसंद नहीं करता. फिर औरतों का शराब पीना तो हम सोच भी नहीं सकते.’

‘तुम अपनी मध्यवर्गीय सोच से बाहर निकलो. सब की अपनीअपनी जिंदगी है. मैं तो कम ही पीता हूं पर ग्रुप में कुछ लोग मुफ्त की देख कर इतनी पी लेते हैं कि उन के लिए घर लौटना मुश्किल हो जाता है.’

‘देखो विनय, अगर तुम शराब नहीं छोड़ोगे तो हम शादी भी नहीं कर सकते हैं.’

‘रहना तो मुझे पत्रकारिता की दुनिया में ही है. तुम अपने मातापिता को समझाओ न कि शायद पीने वाला हर आदमी बुरा नहीं होता है.’

‘मुझे मत समझाओ. मैं ने शादियों में शराब पी कर लोगों को हुड़दंग करते देखा है. बीवी को पीटते लोग भी देखे हैं. हमारे एक रिश्तेदार की मौत शराब पीने के बाद छत से गिर कर हो गई थी. जब मैं ही तुम से कनविंस नहीं हो पा रही हूं तो मम्मीपापा को कैसे करूं. हम दोनों की जिंदगी और हमारे मूल्यांकन का तौर- तरीका बिलकुल अलग है. जो चीज तुम्हें सामान्य लगती है वह मेरे लिए अजीब हो जाती है. फिर तुम सिर्फ मेरे नहीं हो बल्कि नीता, पिंकी, श्वेता यानी एकसाथ कितनी लड़कियों से दोस्ती की हुई है, जो तुम्हारे करीब आने के लिए एकदूसरे को पछाड़ने में लगी हुई हैं.’

‘उन के साथ काम के सिलसिले में बाहर जाना होता है. फिर मैं हूं ही इतना हैंडसम और वैलबिहेव्ड कि सभी मुझे पसंद करती हैं. पर मैं शादी तो तुम से ही करूंगा.’

वृंदा का फ्रस्ट्रैशन बढ़ने लगा था. विनय का फोन अकसर व्यस्त मिलने लगा. कहीं उस की सरकारी नौकरी के कारण ही तो उस से वह शादी करने के लिए जिद पर अड़ा हुआ है. फिर वृंदा की कहानियों और व्यक्तित्व की जो तारीफ शुरू में होती थी वह क्या था? शायद फ्लर्ट करने का तरीका. जिन सामाजिक महिला कार्यकर्ताओं, लेखिकाओं की शुरू में विनय आलोचना करता था, हमेशा उन्हीं के बीच तो रहता है. वह रिश्ता शायद दोनों के लिए अपरिचित संसार का आकर्षण था. वृंदा मुलाकातों में खुद के लिए विनय के मन में जगह ढूंढ़ती मगर वहां उसे भीड़ नजर आती.

शाम को विनय का फोन फिर आया, ‘‘कल लंच में मिलो न, नाराज क्यों हो?’’

‘‘नाराज नहीं हूं पर मुझे नहीं लगता कि हमें शादी करनी चाहिए. ऐसी जिंदगी का क्या फायदा जिस में मैं तुम्हारे लाइफस्टाइल की आलोचना करती रहूं और तुम मेरे. अपनी लाइफ स्टाइल की ही किसी लड़की से शादी कर लो. मैं भी अपने रिश्ते के बारे में सोचतेसोचते थक गई हूं. कोई रास्ता तो निकलेगा ही.’’

‘‘ध्यान से सोचो. जल्दबाजी में कोई फैसला मत लो.’’

‘‘नहीं, मैं तुम से जितना प्यार करती हूं उतना तुम मुझ से कभी भी नहीं कर पाओगे. हमेशा मैं ही समझौता करती हूं और तुम पूरा ध्यान न दो, ऐसा कब तक चलेगा,’’ कह कर वृंदा ने फोन काट दिया.

अचानक उस ने राहत की सांस ली. रुलाई फूट रही थी मगर प्यार या रिश्ते की छाया के पीछे कब तक भागा जा सकता है. एक कविता की पंक्ति मन में उभरी :

‘मेरा तेरा रिश्ता तू तू मैं मैं का रहा. मैं तू तू करती रही, तू मैं मैं करता रहा.’

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लेखिका- सरिता शर्मा

‘‘तुम में इतना धैर्य कहां से आ गया. 2 दिन हो गए एक फोन भी नहीं किया,’’ विनय झल्लाहट दबा कर बोला.

‘‘नारी का धैर्य तुम ने अभी देखा ही कहां है. वैसे भी मैं तुम्हारे साथ थी भी कहां. बस, एक भीड़ का हिस्सा थी,’’ वृंदा का स्वर शांत था.

‘‘क्या मतलब है. ऐसे कैसे कह सकती हो. परसों मिले थे तो कोई लड़ाईझगड़ा नहीं हुआ था. मैं ने तुम्हें कुछ कहा भी नहीं जिस से तुम्हें गुस्सा आए.’’

‘‘कहने की जरूरत नहीं होती. पिछले 6 महीने से तुम लगातार मुझे अनदेखा करते आ रहे हो और मैं हमेशा सिर्फ तुम्हारे बारे में सोचती रहती हूं. परसों भी अपनी किसी न किसी महिला मित्र से तुम फोन पर बात करते रहे, मानो मैं तुम्हारे साथ थी ही नहीं.’’

‘‘वह तो मेरी लाइन ही ऐसी है.’’

‘‘पर मैं तो पूरी तरह तुम्हारे सुखदुख में भागीदार बन कर समर्पित रही. जब भी तुम्हें कोई काम पड़ा तुम मुझे कह देते और तुम्हारा वह काम करते हुए मुझे लगता कि मैं प्यार के लिए अपना फर्ज निभा रही हूं.’’

‘‘यार, ऐसा कुछ भी नहीं है. अच्छा तुम कल मिलो. ये बेकार की बातें हैं, इन्हें दिमाग से निकालो. कुछ भी नहीं बदला है.’’

‘‘अभी आफिस में काम है, फिर बात करेंगे,’’ कह कर वृंदा मोबाइल औफ करती हुई दफ्तर में लौट आई.

अपनी कुरसी पर बैठी वृंदा सोचने लगी कि इसी विनय ने 2 साल पहले शुरुआती दौर में कितनी कोशिश कर के उस से संपर्क बढ़ाया था. नौकरी लगने के बाद जब वृंदा ने अपनी कहानी छपवाई तो उस को लगा था कि वह हवा में उड़ रही है. पहली ही कहानी किसी प्रतिष्ठित पत्रिका में छप जाए और प्रशंसा के सैकड़ों पत्र मिलें तो मन तो उड़ेगा ही.

बाद में उस की कुछ और कहानियां छपीं तो कुछ पाठकों के फोन भी आने लगे. कुछ तो प्रशंसा के बहाने अपनी रचना पढ़ने का अनुरोध कर देते. कुछ छपी कहानी की समीक्षा विस्तार से करते.

उन्हीं प्रशंसकों में से एक विनय भी था. किसी भी अखबार में वृंदा का कुछ छप जाता तो सब से पहले उस का फोन आता.

एक दिन उस ने पूछ ही लिया, ‘आप क्या हर महिला लेखिका को फोन करते हैं? मेरे अलावा दूसरे लेखकों को भी पढ़ते हैं क्या?’

‘मैडम, मैं पत्रकार हूं. साहित्यिक पृष्ठ मैं ही तैयार करता हूं. बाकी पत्रपत्रिकाओं में क्या जा रहा है उस की पूरी जानकारी मुझे रहती है.’

‘क्या आप मेरी कहानियों को संभाल कर रखते हैं?’ वृंदा ने झिझकते हुए पूछा.

‘मैं आप का जबरदस्त प्रशंसक हूं. बताइए, क्या सेवा है.’

‘आप के यहां से प्रकाशित पत्रिका के पिछले अंक में मेरी एक कहानी छपी है. उस की एक भी प्रति मेरे पास नहीं है. क्या आप एक प्रति भिजवा देंगे. शायद पोस्टमैन ने रख ली होगी.’

और अगले दिन विनय मेरे आफिस के रिसेप्शन पर बैठा था. हम दोनों चाय पीने के लिए पास के रेस्तरां में बैठे तो विनय का फोन बारबार बज उठता.

‘किसी मित्र का फोन है क्या? सुन लो.’

‘नहीं, बड़ी मुश्किल से आप से मिलना हो पाया है. बाद में फोन सुन लूंगा. मुझे आप की कहानियां सच में बहुत अच्छी लगती हैं और प्रभावित भी करती हैं. बाकी लेखिकाएं नारी विमर्श के नाम पर मीडिया से जुड़ा जो कुछ लिख रही हैं वह पढ़ा नहीं जाता है.’

‘मुझे भी लगता है कि नारी आंदोलन को व्यवसाय बना लिया गया है. ऐसी औरतें नारी मुक्ति का झंडा उठाए हुए हैं जो खुद कब की आजाद हो चुकी हैं.’

‘आप समाज के सभी पात्रों को लेती हैं. हमारे परिवार के ढांचे को तोड़ने वाले साहित्य का क्या फायदा. कुछ लेखिकाएं ‘लिव इन रिलेशन’ को मुद्दा बना कर लिख रही हैं तो कुछ कई पुरुषों के साथ यौन संबंधों पर. हम कह सकते हैं कि आपस में वादा और विश्वास होने की बातें कहीं खोती जा रही हैं.’

‘ये तथाकथित लेखिकाएं महिलाओं के किस वर्ग को चित्रित कर रही हैं. इन की चकाचौंध में समस्याओं का सामना करने वाली निम्न और मध्यम वर्ग की महिलाओं पर ध्यान ही नहीं दिया जाता,’ वृंदा जोश में बहती जा रही थी.

‘मैडम, आज मेरा इंटरव्यू है. अब निकलता हूं. अब तो आप से मिलना- जुलना होता ही रहेगा,’ यह कह कर विनय फटाफट चला गया.

फिर तो वृंदा को मानो बात करने के लिए बेहद सुलझा हुआ अपनी तरह की सोच वाला साथी मिल गया. घर और आफिस के बंधेबंधाए ढांचे में सामाजिक चर्चाओं के लिए कोई भी नहीं था. पर विनय के साथ चर्चाओं का दायरा जल्दी ही टूट गया. बौद्धिक चर्चाएं स्त्रीपुरुष के परस्पर आकर्षण पर आ कर रुक गईं. साहित्य जीवन से ही तो बना है. मगर विनय फ्रीलांसर था. इसलिए उस ने साफ कह दिया कि कहीं पक्की नौकरी लगने तक उसे शादी के लिए रुकना होगा.

विनय ने भी हिंदी और अंगरेजी साहित्य पढ़ा था. पर उसे सरकारी नौकरी से चिढ़ थी. पत्रकार को जो आजादी है, वह और किस को है. फिर पावर भी तो है. सत्ता के साए में रहने वाले बड़ेबड़े लोगों से मिलने और बात करने का मौका जिस सहजता से एक पत्रकार को मिलता है वह दूसरों को कहां मिलता है. विनय को एक न्यूज चैनल में नौकरी मिली तो उस का व्यक्तित्व निखर गया और उसी के साथ उस के संपर्क बढ़ते जा रहे थे.

उस दिन लंच में वे दोनों पार्क में बैठे थे तो विनय फोन सुनने लगा. ग्रुप के मित्रों की आपसी खटपट को ले कर वह नीता से 20 मिनट तक बात करता रहा. धीरेधीरे अलगअलग नामों के फोन आने लगे. विनय फोन काटता तो तुरंत एसएमएस आ जाता. वृंदा के साथ होने पर भी विनय का ध्यान दूर जाने लगा था.

वृंदा को विनय अपने कामों में उलझाए रखता. कभी समीक्षा के लिए लाइब्रेरी से किताब मंगाता तो कभी कोलकाता में अपने घर जाने के लिए रेल का आरक्षण कराने के लिए वृंदा को कह देता. वह लंच में आधाआधा घंटा उस का इंतजार करती रहती और जब विनय आता तो फोन पर कोई न कोई डिस्टर्ब करता रहता.

धीरेधीरे वृंदा को लगने लगा कि वह प्यार किसे करती है विनय को या प्यार की धारणा को. जो आदमी अभी से कई लोगों में बंटा है, शादी के बाद उस से कैसे निष्ठा की उम्मीद की जा सकती है. फिर तो पूरा परिवार और समाज बीच में आ जाएगा. कभी वह विनय को टोकती तो कह देता, ‘तुम्हारा वहम है. वह मेरी महिला मित्र है. सब से काम पड़ता है. फिर हमारा दायरा ऐसा है जिस में पीनेपिलाने के लिए पार्टीज चलती ही रहती हैं.’

‘मुझे इन्हीं से चिढ़ है. जहां तक शराब की बात है तो हमारे यहां इसे कोई पसंद नहीं करता. फिर औरतों का शराब पीना तो हम सोच भी नहीं सकते.’

‘तुम अपनी मध्यवर्गीय सोच से बाहर निकलो. सब की अपनीअपनी जिंदगी है. मैं तो कम ही पीता हूं पर ग्रुप में कुछ लोग मुफ्त की देख कर इतनी पी लेते हैं कि उन के लिए घर लौटना मुश्किल हो जाता है.’

‘देखो विनय, अगर तुम शराब नहीं छोड़ोगे तो हम शादी भी नहीं कर सकते हैं.’

‘रहना तो मुझे पत्रकारिता की दुनिया में ही है. तुम अपने मातापिता को समझाओ न कि शायद पीने वाला हर आदमी बुरा नहीं होता है.’

‘मुझे मत समझाओ. मैं ने शादियों में शराब पी कर लोगों को हुड़दंग करते देखा है. बीवी को पीटते लोग भी देखे हैं. हमारे एक रिश्तेदार की मौत शराब पीने के बाद छत से गिर कर हो गई थी. जब मैं ही तुम से कनविंस नहीं हो पा रही हूं तो मम्मीपापा को कैसे करूं. हम दोनों की जिंदगी और हमारे मूल्यांकन का तौर- तरीका बिलकुल अलग है. जो चीज तुम्हें सामान्य लगती है वह मेरे लिए अजीब हो जाती है. फिर तुम सिर्फ मेरे नहीं हो बल्कि नीता, पिंकी, श्वेता यानी एकसाथ कितनी लड़कियों से दोस्ती की हुई है, जो तुम्हारे करीब आने के लिए एकदूसरे को पछाड़ने में लगी हुई हैं.’

‘उन के साथ काम के सिलसिले में बाहर जाना होता है. फिर मैं हूं ही इतना हैंडसम और वैलबिहेव्ड कि सभी मुझे पसंद करती हैं. पर मैं शादी तो तुम से ही करूंगा.’

वृंदा का फ्रस्ट्रैशन बढ़ने लगा था. विनय का फोन अकसर व्यस्त मिलने लगा. कहीं उस की सरकारी नौकरी के कारण ही तो उस से वह शादी करने के लिए जिद पर अड़ा हुआ है. फिर वृंदा की कहानियों और व्यक्तित्व की जो तारीफ शुरू में होती थी वह क्या था? शायद फ्लर्ट करने का तरीका. जिन सामाजिक महिला कार्यकर्ताओं, लेखिकाओं की शुरू में विनय आलोचना करता था, हमेशा उन्हीं के बीच तो रहता है. वह रिश्ता शायद दोनों के लिए अपरिचित संसार का आकर्षण था. वृंदा मुलाकातों में खुद के लिए विनय के मन में जगह ढूंढ़ती मगर वहां उसे भीड़ नजर आती.

शाम को विनय का फोन फिर आया, ‘‘कल लंच में मिलो न, नाराज क्यों हो?’’

‘‘नाराज नहीं हूं पर मुझे नहीं लगता कि हमें शादी करनी चाहिए. ऐसी जिंदगी का क्या फायदा जिस में मैं तुम्हारे लाइफस्टाइल की आलोचना करती रहूं और तुम मेरे. अपनी लाइफ स्टाइल की ही किसी लड़की से शादी कर लो. मैं भी अपने रिश्ते के बारे में सोचतेसोचते थक गई हूं. कोई रास्ता तो निकलेगा ही.’’

‘‘ध्यान से सोचो. जल्दबाजी में कोई फैसला मत लो.’’

‘‘नहीं, मैं तुम से जितना प्यार करती हूं उतना तुम मुझ से कभी भी नहीं कर पाओगे. हमेशा मैं ही समझौता करती हूं और तुम पूरा ध्यान न दो, ऐसा कब तक चलेगा,’’ कह कर वृंदा ने फोन काट दिया.

अचानक उस ने राहत की सांस ली. रुलाई फूट रही थी मगर प्यार या रिश्ते की छाया के पीछे कब तक भागा जा सकता है. एक कविता की पंक्ति मन में उभरी :

‘मेरा तेरा रिश्ता तू तू मैं मैं का रहा. मैं तू तू करती रही, तू मैं मैं करता रहा.’

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April 16, 2022 at 09:00AM

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