Monday 18 April 2022

ऐतिहासिक कहानी: समर्पणा

राइटर- डा. प्रभात त्यागी

आंखें मलमल कर उस ने देखा है तो वही. पर यह कैसे संभव है…?

आश्चर्य, हर्ष व उत्साह से उल्लासित जया के कदमों में मानो पर लग गए. वह राजभवन की घुड़साल, पशुशाला, रसोई, स्नानागार व वाटिकाओं को पार कर ऊपरी मंजिल में स्थित अपनी कोठरी में जा घुसी. दूसरे ही पल एक कपड़े की पुटलिया हाथ में थामे आंध्र देश के वारंगल की जनानी ड्योढी में ‘महाराज रुद्र’ के सम्मुख खड़ी थी.

धोंकनी सी चलती अपनी सांसों को मुश्किल से नियंत्रित कर उस ने कहा, ‘आप इन्हें धारण कर लीजिए. अपने महाराज वीरभद्र शीघ्र पधार रहे हैं.’

उस के नयनों में अनोखी चमक थी. उस के होंठों पर हलकी मुसकराहट अठखेलियां कर रही थी. कपड़े की पुटलिया में रुद्रंबा को अपनी चमचम करती स्वर्णा पाजेब. सोने के ही बिछुए, मंगलसूत्र, रत्नों के कई बहुमूल्य हार, मांग भरने की सिंदूर की सुनहरी डिबिया व रत्नचूर्ण से निर्मित माथे की बिंदी, कंगन आदि अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे. ‘जयलक्ष्मी, तू मेरी दासी नहीं मुंहबोली बहन है, पर क्या ऐसी हंसीठिठोली तेरे लिए उचित है?’ रुद्रंबा का स्वर तीखा था.

‘तू भूल गई क्या कि हम सब ने आज से 3 महीने पहले महाराज वीरभद्र के मृत तन को अग्निचिता में सुला दिया था और उन के अंतिम चिन्हों को कृष्णा की उत्ताल लहरों में बहा कर, उन्हें अश्रुपूर्ण विदा भी दी थी? और तू कह रही है कि वे जीवित आ रहे हैं?’ रुद्रंबा रुंधे गले से बोली.

‘महादेवी, मेरा एक भी बोल झूठा हो तो दीवार पर लटकी इस चाबुक से मेरी गरदन काट कर घूरे में फेंक दीजिए. और लीजिए, इस खिड़की से स्वयं झांक लीजिए कि मैं सत्य से कितनी निकट या दूर हूं,’

रुद्रंबा ने तेजी से उठ कर वातायन से झांका. अपलक वह देखती ही रह गई. सचमुच महाराज वीरभद्र को कांधे पर बैठाए कई व्यक्तियों की भीड़ गोलकुंडा के मुख्य राजभवन के प्रमुख द्वार की ओर उमड़ रह थी. बिलकुल सामने सूर्य की लालिमा सारे जग में सिंदूर बिखेर रही थी. कई पक्षियों के नियमबद्ध झुंडों ने इसी पल आसमान में किलोल करते हुए खुशी का इजहार किया.

रुद्रंबा की दृष्टि सहसा अपने वर्तमान विधवा वेश पर गई. श्वेत परिधान, सूखे केश व रंगहीन मुख को परिवर्तित कर वह थोड़े समय के ही बाद माथे पर मुकुट, राजसी वस्त्रों, अनगिनत गले की माल और चमचमाते बंद, गले के उत्तरीय और रत्नजटित पगरखियों को पहन कर गोलकुंडा की ‘रुद्र महाराज’ के रूप में सिंहासनारूढ़ हो जाएगी.

60 वर्ष तक गोलकुंडा पर राज कर उस के पिता गणपति ने ही उसे अपने उत्तराधिकारी के रूप में राज्य सिंहासन पर बैठाते हुए उसे न केवल सदैव पुरुष वेश धारण करते रहने, अपितु जनता को भी उसे हमेशा ‘रुद्र महाराज’ के रूप में संबोधित करने का आदेश दिया था.

रुद्रंबा उस पल को याद करते हुए अचानक सोचने लगी कि पुरुषों के उस के समाज ने नारी जाति को कितना अपमानित किया है? एक ‘पति’ नामधारी प्राणी से पुट लिया की इन सब वस्तुओं का महत्व है, अन्यथा इन्हें किसी कोने में या कहीं भी रख देने में इन की सार्थकता है. यही नहीं, कहीं तो स्वर्ग सिधारे पति की चिता में ही एक-दो नहीं, बल्कि हजारों उस की रानियों और उपपत्नियों को जीवित बैठा कर भी समाज आनंदित हो जाता है क्या?

‘नहीं जया, मैं इन्हें धारण कर अपने नारीत्व का मखौल नहीं उड़ाऊंगी. एक बात बता यदि मैं इन सब से सज्जित हो कर उन के सामने चली भी गई तो क्या उन्हें यह विश्वास नहीं हो जाएगा कि मैं उन की अनुपस्थिति में भी इसी सधवा वेश में आनंदित रहती थी? तब क्या उन के पुरुषत्व पर ठेस नहीं लगेगी?’

‘मैं अपढ़ आप की ऊंचीऊंची बातें क्या समझूं? मेहरबानी कर आप इन्हें अवश्य धारण करें. आप को मेरी कसम. अन्यथा आप मेरा मरा मुंह देखें, यदि इन्हें आप ने अभी धारण नहीं किया,’ जया कक्ष के एक कोने में मुंह सुजा कर जा बैठी.

‘ओह जया. अपनी कसम दे कर तू ने मुझे किस उलझन में डाल दिया. चल, तेरी खुशी के लिए मैं इन्हें धारण कर लेती हूं- अपनी बहन के लिए मैं हृदय पर पत्थर रख कर फिर से सधवा बन जाती हूं. जा, जा कर स्वागत की भाली सजा…

वैसे, तू सुन ले. ‘रुद्र महाराज’ राज्य की संप्रभु हैं. उन का स्थान सर्वोच्च है. साधारण कानून उस पर लागू नहीं हो सकते. हां, सधवा रुद्र राजमहल से बाहर तो जाएगी नहीं.

प्रमुदित जया दौड़ पड़ी. उस ने अपने हाथों में तुरतफुरत रुद्रंबा का सिंगार किया और उन्हें पुटलिया की वस्तुओं के अतिरिक्त भी कई सिंगारिक उपकरणों से विभूषित कर दिया.

एकांत में रुद्रंबा ने पति से प्रश्न किया कि आखिर वे 3 महीने कहां रहे? वे क्यों गायब हो गए थे?

वीरभद्र ने उसे बताया कि एक राजसी अश्व पर आरूढ़ वह वारंगल के जंगलों में शिकार के लिए निकला था. शिकार कोई नहीं मिला. लौटते हुए निद्रित अवस्था में उस का अश्व गोलकुंडा से निकल कर उत्तरपश्चिम दिशा में देर्वागति की सीमा में पहुंच गया, यह उसे ज्ञात नहीं हुआ. अचानक उसे कई सैनिकों ने घेर लिया. उसे बंदी बना कर देवगिरि के शासक सिंघणा के सम्मुख ले जाया गया. सीमोल्लंघन के अपराध में उसे 3 महीने तक बंदीगृह में काटने पड़े.

पर, तुम सावधान हो जाओ, क्योंकि वहां मुझ से कोई परिचित तो था नहीं. अत: मैं ने जब अपनेआप को गोलकुंडा राजमहल का एक सेवक घोषित किया, तो जानती हो सिंघणा ने मुझ से क्या कहा? उस ने भरे दरबार में मुझे धमकी दी कि बहुत शीघ्र वह एक कमजोर नारी द्वारा संचालित गोलकुंडा पर आक्रमण कर, उसे देवगिरि का एक अंग बना लेगा.

वीरभद्र ने मानो सोते हुए सांप पर पैर रख दिया. रुद्रंबा फुफकार कर बोली, ‘आने दो सिंघणा को यहां. उसे ज्ञात हो जाएगा कि पिछले वर्षों में मैं ने यहां राज किया है, कोरा अभिनय नहीं. युद्धस्थल में मैं ने मदुरा के शासकों व उड़ीसा के गंगों को जैसे शिकस्त दी थी, सिंघणा भी मेरे हाथों, एक नारी द्वारा बुरी तरह परास्त ही होगा.’

रुद्रंबा का मस्तिष्क वीरभद्र से बात करते हुए भी पूरी तरह यह मंथ रहा था कि आखिर गोलकुंडा में वीरभद्र के स्थान पर किस की अन्येष्टि की गई. दोष किस का रहा?

जया को जब उस ने अपने पति से हुई वार्तालाप की बातें बताईं तो उस का भी यही प्रश्न था कि राजकीय सम्मान के साथ महाराज वीरभद्र के स्थान पर किसे अंत्येष्टि का लाभ मिला और क्यों?

‘रुद्र महाराज’ के आदेश पर राज्य प्रधान भागता चला आया. तनिक कठोरता दिखाने पर उस ने स्वीकार कर लिया कि उस के किसी कर्मचारी ने किसी ऐसे व्यक्ति की अंतिम क्रिया करा दी, जिस का क्षतविक्षत तन, जिस का खून किया गया था, महाराज वीरभद्र से बहुत मिलताजुलता था.

रुद्रंबा ने तुरंत राज्य प्रधानी को जीवनभर के लिए बंदीगृह में डाल दिया. मूल उत्तरदायित्व उसी का था, कर्मचारी का नहीं.

रुद्रंबा द्वारा रुद्र महाराज का चोला धारणा कर लेने से वीरभद्र से उस के संबंधों में अनजाने ही एक गंभीर दरार पैदा हो गर्ई थी. वीरभद्र कभी राज्य सिंहासन पर रुद्रंबा का साथ नहीं दे सकता था क्योंकि दो पुरुष एक सिंहासन पर कैसे बैठते? सामान्य संबंधों में भी रुद्र महाराज संपूर्णा गोलकुंडा सहित अपने पति की भी ‘महाराज’ थी. उस के पति को भी उसे अपनी शासिका स्वीकारना चाहिए. यह भाव उसे पति से विलग करता गया. वीरभद्र ने भी इसे अपनी नियति मान कर अपनेआप को निम्नतर व उपेक्षित बना लिया. अत: वे दोनों अनजान बनते गए.

जब पतिपत्नी में एकसमान धरातल, सहजता व बराबरी न हो तो दोनों में सामंजस्य कठिन है. वीरभद्र व रुद्रंबा के विवाह बाद से ही ऐसे संबंध थे. पति को पुन: पा कर रुद्रंबा ने यद्यपि हर्ष व आनंद का प्रदर्शन किया, पर उस के मन में तार जया के प्रयासों के उपरांत भी झंकृत नहीं हो सके थे.

वीरभद्र ने देवगिरि से लौटने के पश्चात बातों ही बातों में रुद्रंबा से कहा, ‘रुद्र, तुम्हें विश्वास हो या नहीं, पर मैं तुम्हें मन से चाहता हूं, तुम्हारी मैं पूजा करता हूं. इन तीन महीनों में एकदूसरे से दूर रहने के कारण मेरे हृदय में तुम्हारे प्रति प्रेम की चिंगारी और भी तीव्र हो चुकी है.’

रुद्रंबा कुछ बोली नहीं, पर मन ही मन वह हंस पड़ी.

समय का रथ स्वाभाविक गति से चलता गया. अचानक एक दिन सिंघणा अपनी विशाल सेना ले कर वारंगल में आ धमका. उस का मंतव्य वारंगल को हस्तगत कर गोलकुंडा का विलय देवगिरि में करना था.

पूर्व की भांति रुद्र महाराज ने काकतीय सैनिकों को ललकारा. उन का नेतृत्व करते हुए उस ने उन्हें अपनी व राष्ट्र की स्वाधीनता को अक्षुण्य रखने की प्रेरणा दी. जनसाधारण ने अपनी शासिका की पूर्व युद्ध प्रवीणता को याद कर उसे युद्ध के लिए भावभीनी विदाई दी.

रुद्रंबा शत्रु पर टूट पड़ी. युद्ध भयानक हुआ. इस में रुद्र महाराज की फुरती व सक्रियता दर्शनीय थी. सिंघणा जिसे बच्चों का खेल मान रहा था, उस के विपरीत नारी की सेना का सामना करने में उसे पसीने छूट गए. स्थिति ऐसी हुई कि गोलकुंडा के बहादुर सैनिकों ने देवगिरि को बुरी तरह परास्त कर दिया. सिंघणा को प्राण बचा कर भागना पड़ा. पीठ दिखाने के बाद भी सिंघणा ने देवगिरि में जा कर घोषित किया कि नारी शासिका को अभयदान दे कर वह लौट आया है. चाटुकारों ने उस की बात का समर्थन किया.

रुद्रंबा की भूल यही थी कि उस ने भागते शत्रु का पीछा नहीं किया. उस का कहना था, ‘पीठ दिखाने वाले शत्रु का पीछा करना नैतिकता का प्रतिकार है.’

विजयी रुद्र महाराज का वारंगल की जनता ने अभूतपूर्व स्वागत किया. उसे न केवल पुष्पमालाओं, प्रत्युत्त बहुमूल्य उपहारों से लाद दिया गया. रात्रि में घरघर में दीपमालिका जैसे जगमगाहट हुई.

इस सम्मान से अभिभूत जया की प्रसन्नता का तो पारावार ही नहीं था. उस ने अपनी रानी की अपने ढंग से राजमहल में अगवानी की. रुद्रंबा के तन के घावों को हाथों से संभाल कर धोते हुए उन पर वैद्यजी के परामर्श के अनुसार उस ने कई प्रकार की जड़ीबूटियों का लेप किया.

उसे पलंग पर सावधानी से लिटाते हुए जया अचानक बोली, ‘महाराज, आप को एक गुप्त बात भी मुझे बतानी है.’ उस ने फुसफुसा कर उस के कान में जो बात बताई, उस से रुद्रंबा विस्मित हो कर मौन हो गई. तत्काल उस ने प्रश्न किया, ‘तुझे किस ने बताया?’

‘मुझे कौन बताता, मैं ने अपने ही हाथों में सैनिक वेश उन्हें दिया था.’

‘सच…? तो छोड़ मेरे घावों को. लालटेन उठा व चल मेरे साथ,’ जया ने आज्ञा का पालन किया. वे दोनों युद्ध स्थल में पहुंची. वहां वे एकएक मृत व्यक्ति का मुख लालटेन के प्रकाश में टटोलती रहीं. अचानक जया बोली, ‘महाराज, ये रहा उन का तन. गले में डाली इस विशेष गलमाल को मैं ने विदा लेते समय डाली थी.

रुद्रंबा जड़ खड़ी रह. इस सैनिक वेशधारी की युद्ध प्रवीणता की तो रुद्रंबा ने युद्धकाल में ही खूब प्रशंसा की थी. पर ये वे होंगे, यह उस की कल्पना के परे था.

तभी उसे युद्धकाल की वह घटना भी याद आ गई. ‘जया, इन्होंने तो आज मेरे प्राण भी बचाए थे. एक सैनिक का तीर न जाने किधर से आ कर मेरे तन के आरपार होने को था, पर इन्होंने अपने अश्व से उतर कर उस तीर को अपनी छाती पर ले लिया. मैं तो स्वयं अपने प्राणरक्षक को ढूंढ़ रही थी. ओह, जया…

अपने प्राणी का उत्सर्ग कर, मेरे पति ने मेरी आंखें खोल दी हैं. मुझ मूर्ख को देखो कि मैं ने यह बताने पर भी कि ये मुझे प्राणों से अधिक चाहते हैं, मैं ने उन की बात सुनीअनसुनी कर दी.

मृत पति वीरभद्र का मुख अपने दोनों हाथों में थाम कर, उस पर निर्मल अश्रुओं की झड़ी लगा कर उन के मुख को उस ने धो डाला.

जया तो खड़ीखड़ी तीव्र विलाप कर रही थी, तभी अपने पीछे खड़े एक बीस वर्षीय युवक के बोल रुद्रंबा को सुनाई दिए, ‘नानी, मैं तो आप को ही अब तक अपनी प्रेरणा का पुंज मानता था, पर नाना के अमर बलिदान ने तो मुझे हिला ही डाला.’  प्रताप रुद्र, रुद्रंबा का धेवता आंसू पोंछता हुआ बोल उठा.

इसी समय मुमम्मा, रुद्रंबा की बेटी ने वीरभद्र के चरणों से सिर उठा कर कहा, ‘अम्मां, तुम ने पिताजी की बहुत उपेक्षा की है, पर देखो, उन के मुख पर कितनी प्रखर ओज है इस समय?’

रुद्रंबा क्या प्रत्युत्तर देती? उस के अनवरत अश्रु ही मौन उत्तर दे रहे थे.

‘नाना के मृत तन के सम्मुख मैं शपथ लेता हूं कि आप दोनों की प्रसिद्धि को मैं आंच नहीं आने दूंगा- आप दोनों की प्रतिष्ठा को मैं बनाए रखूंगा.’

अगले चार वर्षों के पश्चात पूरे 34 वर्ष शासन करने के पश्चात जब रुद्र महाराज ने 1289 में अंतिम सांस ली, तो गोलकुंडा चतुर्दिक उन्नति कर चुका था.

रुद्र महाराज की बेटी मुमम्मा ने अपनी मां की इच्छानुसार गोलकुंडा का शासन संभाला, पर उस ने थोड़े समय के ही पश्चात सिंहासन अपने बेटे प्रताप रुद्र को सौंप दिया.

प्रताप रुद्र ने नानी के सम्मुख से ही अश्व संचालन, युद्धकला व शासन के दांवपेच सीखे थे. इसलिए वह काकतीयों का सफलतम व अत्यंत प्रतिभाशाली शासक सिद्ध हुआ. उस ने तो अपने काल में मलिक काफूर व दिल्ली की सेना को भी करारी शिकस्त दी. पूरे दक्षिण भारत को रोंद देने वाले काफूर की गति गोलकुंडा में आ कर प्रताप रुद्र के सामने इतनी कमजोर हो गई कि दिल्ली को गोलकुंडा से समझौता कर के ही किसी प्रकार अपने प्राण बचाने पड़े.

प्रताप अपनी नानी रुद्रंबा का अत्यंत आभारी था, जिस ने उसे प्रत्येक क्षेत्र में पारंगत बनाया. इस से पूर्ण भारत में कश्मीर में यशोवती, दिद्दा व सुगंध, पूर्वी चालुक्यों में विजयामहादेवी, कदंबों में दिवा भारसी और उड़ीसा की भौमकार वंशीय पृथ्वी, दंडी, धर्मा व बैकुंला महादेवी कोई भी उत्तराधिकारी न होने अथवा अपने बेटे के बालिग होने तक सिंहासनारूढ़ रह चुकी थी. पर पूरे 34 वर्ष तक के लंबे अंतराल में सफल शासिका रहने में (वृद्ध भी. सदैव पुरुष वेश में) रुद्रंबा अग्रणी कही जा सकती है.

The post ऐतिहासिक कहानी: समर्पणा appeared first on Sarita Magazine.



from कहानी – Sarita Magazine https://ift.tt/AgN25Jo

राइटर- डा. प्रभात त्यागी

आंखें मलमल कर उस ने देखा है तो वही. पर यह कैसे संभव है…?

आश्चर्य, हर्ष व उत्साह से उल्लासित जया के कदमों में मानो पर लग गए. वह राजभवन की घुड़साल, पशुशाला, रसोई, स्नानागार व वाटिकाओं को पार कर ऊपरी मंजिल में स्थित अपनी कोठरी में जा घुसी. दूसरे ही पल एक कपड़े की पुटलिया हाथ में थामे आंध्र देश के वारंगल की जनानी ड्योढी में ‘महाराज रुद्र’ के सम्मुख खड़ी थी.

धोंकनी सी चलती अपनी सांसों को मुश्किल से नियंत्रित कर उस ने कहा, ‘आप इन्हें धारण कर लीजिए. अपने महाराज वीरभद्र शीघ्र पधार रहे हैं.’

उस के नयनों में अनोखी चमक थी. उस के होंठों पर हलकी मुसकराहट अठखेलियां कर रही थी. कपड़े की पुटलिया में रुद्रंबा को अपनी चमचम करती स्वर्णा पाजेब. सोने के ही बिछुए, मंगलसूत्र, रत्नों के कई बहुमूल्य हार, मांग भरने की सिंदूर की सुनहरी डिबिया व रत्नचूर्ण से निर्मित माथे की बिंदी, कंगन आदि अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे. ‘जयलक्ष्मी, तू मेरी दासी नहीं मुंहबोली बहन है, पर क्या ऐसी हंसीठिठोली तेरे लिए उचित है?’ रुद्रंबा का स्वर तीखा था.

‘तू भूल गई क्या कि हम सब ने आज से 3 महीने पहले महाराज वीरभद्र के मृत तन को अग्निचिता में सुला दिया था और उन के अंतिम चिन्हों को कृष्णा की उत्ताल लहरों में बहा कर, उन्हें अश्रुपूर्ण विदा भी दी थी? और तू कह रही है कि वे जीवित आ रहे हैं?’ रुद्रंबा रुंधे गले से बोली.

‘महादेवी, मेरा एक भी बोल झूठा हो तो दीवार पर लटकी इस चाबुक से मेरी गरदन काट कर घूरे में फेंक दीजिए. और लीजिए, इस खिड़की से स्वयं झांक लीजिए कि मैं सत्य से कितनी निकट या दूर हूं,’

रुद्रंबा ने तेजी से उठ कर वातायन से झांका. अपलक वह देखती ही रह गई. सचमुच महाराज वीरभद्र को कांधे पर बैठाए कई व्यक्तियों की भीड़ गोलकुंडा के मुख्य राजभवन के प्रमुख द्वार की ओर उमड़ रह थी. बिलकुल सामने सूर्य की लालिमा सारे जग में सिंदूर बिखेर रही थी. कई पक्षियों के नियमबद्ध झुंडों ने इसी पल आसमान में किलोल करते हुए खुशी का इजहार किया.

रुद्रंबा की दृष्टि सहसा अपने वर्तमान विधवा वेश पर गई. श्वेत परिधान, सूखे केश व रंगहीन मुख को परिवर्तित कर वह थोड़े समय के ही बाद माथे पर मुकुट, राजसी वस्त्रों, अनगिनत गले की माल और चमचमाते बंद, गले के उत्तरीय और रत्नजटित पगरखियों को पहन कर गोलकुंडा की ‘रुद्र महाराज’ के रूप में सिंहासनारूढ़ हो जाएगी.

60 वर्ष तक गोलकुंडा पर राज कर उस के पिता गणपति ने ही उसे अपने उत्तराधिकारी के रूप में राज्य सिंहासन पर बैठाते हुए उसे न केवल सदैव पुरुष वेश धारण करते रहने, अपितु जनता को भी उसे हमेशा ‘रुद्र महाराज’ के रूप में संबोधित करने का आदेश दिया था.

रुद्रंबा उस पल को याद करते हुए अचानक सोचने लगी कि पुरुषों के उस के समाज ने नारी जाति को कितना अपमानित किया है? एक ‘पति’ नामधारी प्राणी से पुट लिया की इन सब वस्तुओं का महत्व है, अन्यथा इन्हें किसी कोने में या कहीं भी रख देने में इन की सार्थकता है. यही नहीं, कहीं तो स्वर्ग सिधारे पति की चिता में ही एक-दो नहीं, बल्कि हजारों उस की रानियों और उपपत्नियों को जीवित बैठा कर भी समाज आनंदित हो जाता है क्या?

‘नहीं जया, मैं इन्हें धारण कर अपने नारीत्व का मखौल नहीं उड़ाऊंगी. एक बात बता यदि मैं इन सब से सज्जित हो कर उन के सामने चली भी गई तो क्या उन्हें यह विश्वास नहीं हो जाएगा कि मैं उन की अनुपस्थिति में भी इसी सधवा वेश में आनंदित रहती थी? तब क्या उन के पुरुषत्व पर ठेस नहीं लगेगी?’

‘मैं अपढ़ आप की ऊंचीऊंची बातें क्या समझूं? मेहरबानी कर आप इन्हें अवश्य धारण करें. आप को मेरी कसम. अन्यथा आप मेरा मरा मुंह देखें, यदि इन्हें आप ने अभी धारण नहीं किया,’ जया कक्ष के एक कोने में मुंह सुजा कर जा बैठी.

‘ओह जया. अपनी कसम दे कर तू ने मुझे किस उलझन में डाल दिया. चल, तेरी खुशी के लिए मैं इन्हें धारण कर लेती हूं- अपनी बहन के लिए मैं हृदय पर पत्थर रख कर फिर से सधवा बन जाती हूं. जा, जा कर स्वागत की भाली सजा…

वैसे, तू सुन ले. ‘रुद्र महाराज’ राज्य की संप्रभु हैं. उन का स्थान सर्वोच्च है. साधारण कानून उस पर लागू नहीं हो सकते. हां, सधवा रुद्र राजमहल से बाहर तो जाएगी नहीं.

प्रमुदित जया दौड़ पड़ी. उस ने अपने हाथों में तुरतफुरत रुद्रंबा का सिंगार किया और उन्हें पुटलिया की वस्तुओं के अतिरिक्त भी कई सिंगारिक उपकरणों से विभूषित कर दिया.

एकांत में रुद्रंबा ने पति से प्रश्न किया कि आखिर वे 3 महीने कहां रहे? वे क्यों गायब हो गए थे?

वीरभद्र ने उसे बताया कि एक राजसी अश्व पर आरूढ़ वह वारंगल के जंगलों में शिकार के लिए निकला था. शिकार कोई नहीं मिला. लौटते हुए निद्रित अवस्था में उस का अश्व गोलकुंडा से निकल कर उत्तरपश्चिम दिशा में देर्वागति की सीमा में पहुंच गया, यह उसे ज्ञात नहीं हुआ. अचानक उसे कई सैनिकों ने घेर लिया. उसे बंदी बना कर देवगिरि के शासक सिंघणा के सम्मुख ले जाया गया. सीमोल्लंघन के अपराध में उसे 3 महीने तक बंदीगृह में काटने पड़े.

पर, तुम सावधान हो जाओ, क्योंकि वहां मुझ से कोई परिचित तो था नहीं. अत: मैं ने जब अपनेआप को गोलकुंडा राजमहल का एक सेवक घोषित किया, तो जानती हो सिंघणा ने मुझ से क्या कहा? उस ने भरे दरबार में मुझे धमकी दी कि बहुत शीघ्र वह एक कमजोर नारी द्वारा संचालित गोलकुंडा पर आक्रमण कर, उसे देवगिरि का एक अंग बना लेगा.

वीरभद्र ने मानो सोते हुए सांप पर पैर रख दिया. रुद्रंबा फुफकार कर बोली, ‘आने दो सिंघणा को यहां. उसे ज्ञात हो जाएगा कि पिछले वर्षों में मैं ने यहां राज किया है, कोरा अभिनय नहीं. युद्धस्थल में मैं ने मदुरा के शासकों व उड़ीसा के गंगों को जैसे शिकस्त दी थी, सिंघणा भी मेरे हाथों, एक नारी द्वारा बुरी तरह परास्त ही होगा.’

रुद्रंबा का मस्तिष्क वीरभद्र से बात करते हुए भी पूरी तरह यह मंथ रहा था कि आखिर गोलकुंडा में वीरभद्र के स्थान पर किस की अन्येष्टि की गई. दोष किस का रहा?

जया को जब उस ने अपने पति से हुई वार्तालाप की बातें बताईं तो उस का भी यही प्रश्न था कि राजकीय सम्मान के साथ महाराज वीरभद्र के स्थान पर किसे अंत्येष्टि का लाभ मिला और क्यों?

‘रुद्र महाराज’ के आदेश पर राज्य प्रधान भागता चला आया. तनिक कठोरता दिखाने पर उस ने स्वीकार कर लिया कि उस के किसी कर्मचारी ने किसी ऐसे व्यक्ति की अंतिम क्रिया करा दी, जिस का क्षतविक्षत तन, जिस का खून किया गया था, महाराज वीरभद्र से बहुत मिलताजुलता था.

रुद्रंबा ने तुरंत राज्य प्रधानी को जीवनभर के लिए बंदीगृह में डाल दिया. मूल उत्तरदायित्व उसी का था, कर्मचारी का नहीं.

रुद्रंबा द्वारा रुद्र महाराज का चोला धारणा कर लेने से वीरभद्र से उस के संबंधों में अनजाने ही एक गंभीर दरार पैदा हो गर्ई थी. वीरभद्र कभी राज्य सिंहासन पर रुद्रंबा का साथ नहीं दे सकता था क्योंकि दो पुरुष एक सिंहासन पर कैसे बैठते? सामान्य संबंधों में भी रुद्र महाराज संपूर्णा गोलकुंडा सहित अपने पति की भी ‘महाराज’ थी. उस के पति को भी उसे अपनी शासिका स्वीकारना चाहिए. यह भाव उसे पति से विलग करता गया. वीरभद्र ने भी इसे अपनी नियति मान कर अपनेआप को निम्नतर व उपेक्षित बना लिया. अत: वे दोनों अनजान बनते गए.

जब पतिपत्नी में एकसमान धरातल, सहजता व बराबरी न हो तो दोनों में सामंजस्य कठिन है. वीरभद्र व रुद्रंबा के विवाह बाद से ही ऐसे संबंध थे. पति को पुन: पा कर रुद्रंबा ने यद्यपि हर्ष व आनंद का प्रदर्शन किया, पर उस के मन में तार जया के प्रयासों के उपरांत भी झंकृत नहीं हो सके थे.

वीरभद्र ने देवगिरि से लौटने के पश्चात बातों ही बातों में रुद्रंबा से कहा, ‘रुद्र, तुम्हें विश्वास हो या नहीं, पर मैं तुम्हें मन से चाहता हूं, तुम्हारी मैं पूजा करता हूं. इन तीन महीनों में एकदूसरे से दूर रहने के कारण मेरे हृदय में तुम्हारे प्रति प्रेम की चिंगारी और भी तीव्र हो चुकी है.’

रुद्रंबा कुछ बोली नहीं, पर मन ही मन वह हंस पड़ी.

समय का रथ स्वाभाविक गति से चलता गया. अचानक एक दिन सिंघणा अपनी विशाल सेना ले कर वारंगल में आ धमका. उस का मंतव्य वारंगल को हस्तगत कर गोलकुंडा का विलय देवगिरि में करना था.

पूर्व की भांति रुद्र महाराज ने काकतीय सैनिकों को ललकारा. उन का नेतृत्व करते हुए उस ने उन्हें अपनी व राष्ट्र की स्वाधीनता को अक्षुण्य रखने की प्रेरणा दी. जनसाधारण ने अपनी शासिका की पूर्व युद्ध प्रवीणता को याद कर उसे युद्ध के लिए भावभीनी विदाई दी.

रुद्रंबा शत्रु पर टूट पड़ी. युद्ध भयानक हुआ. इस में रुद्र महाराज की फुरती व सक्रियता दर्शनीय थी. सिंघणा जिसे बच्चों का खेल मान रहा था, उस के विपरीत नारी की सेना का सामना करने में उसे पसीने छूट गए. स्थिति ऐसी हुई कि गोलकुंडा के बहादुर सैनिकों ने देवगिरि को बुरी तरह परास्त कर दिया. सिंघणा को प्राण बचा कर भागना पड़ा. पीठ दिखाने के बाद भी सिंघणा ने देवगिरि में जा कर घोषित किया कि नारी शासिका को अभयदान दे कर वह लौट आया है. चाटुकारों ने उस की बात का समर्थन किया.

रुद्रंबा की भूल यही थी कि उस ने भागते शत्रु का पीछा नहीं किया. उस का कहना था, ‘पीठ दिखाने वाले शत्रु का पीछा करना नैतिकता का प्रतिकार है.’

विजयी रुद्र महाराज का वारंगल की जनता ने अभूतपूर्व स्वागत किया. उसे न केवल पुष्पमालाओं, प्रत्युत्त बहुमूल्य उपहारों से लाद दिया गया. रात्रि में घरघर में दीपमालिका जैसे जगमगाहट हुई.

इस सम्मान से अभिभूत जया की प्रसन्नता का तो पारावार ही नहीं था. उस ने अपनी रानी की अपने ढंग से राजमहल में अगवानी की. रुद्रंबा के तन के घावों को हाथों से संभाल कर धोते हुए उन पर वैद्यजी के परामर्श के अनुसार उस ने कई प्रकार की जड़ीबूटियों का लेप किया.

उसे पलंग पर सावधानी से लिटाते हुए जया अचानक बोली, ‘महाराज, आप को एक गुप्त बात भी मुझे बतानी है.’ उस ने फुसफुसा कर उस के कान में जो बात बताई, उस से रुद्रंबा विस्मित हो कर मौन हो गई. तत्काल उस ने प्रश्न किया, ‘तुझे किस ने बताया?’

‘मुझे कौन बताता, मैं ने अपने ही हाथों में सैनिक वेश उन्हें दिया था.’

‘सच…? तो छोड़ मेरे घावों को. लालटेन उठा व चल मेरे साथ,’ जया ने आज्ञा का पालन किया. वे दोनों युद्ध स्थल में पहुंची. वहां वे एकएक मृत व्यक्ति का मुख लालटेन के प्रकाश में टटोलती रहीं. अचानक जया बोली, ‘महाराज, ये रहा उन का तन. गले में डाली इस विशेष गलमाल को मैं ने विदा लेते समय डाली थी.

रुद्रंबा जड़ खड़ी रह. इस सैनिक वेशधारी की युद्ध प्रवीणता की तो रुद्रंबा ने युद्धकाल में ही खूब प्रशंसा की थी. पर ये वे होंगे, यह उस की कल्पना के परे था.

तभी उसे युद्धकाल की वह घटना भी याद आ गई. ‘जया, इन्होंने तो आज मेरे प्राण भी बचाए थे. एक सैनिक का तीर न जाने किधर से आ कर मेरे तन के आरपार होने को था, पर इन्होंने अपने अश्व से उतर कर उस तीर को अपनी छाती पर ले लिया. मैं तो स्वयं अपने प्राणरक्षक को ढूंढ़ रही थी. ओह, जया…

अपने प्राणी का उत्सर्ग कर, मेरे पति ने मेरी आंखें खोल दी हैं. मुझ मूर्ख को देखो कि मैं ने यह बताने पर भी कि ये मुझे प्राणों से अधिक चाहते हैं, मैं ने उन की बात सुनीअनसुनी कर दी.

मृत पति वीरभद्र का मुख अपने दोनों हाथों में थाम कर, उस पर निर्मल अश्रुओं की झड़ी लगा कर उन के मुख को उस ने धो डाला.

जया तो खड़ीखड़ी तीव्र विलाप कर रही थी, तभी अपने पीछे खड़े एक बीस वर्षीय युवक के बोल रुद्रंबा को सुनाई दिए, ‘नानी, मैं तो आप को ही अब तक अपनी प्रेरणा का पुंज मानता था, पर नाना के अमर बलिदान ने तो मुझे हिला ही डाला.’  प्रताप रुद्र, रुद्रंबा का धेवता आंसू पोंछता हुआ बोल उठा.

इसी समय मुमम्मा, रुद्रंबा की बेटी ने वीरभद्र के चरणों से सिर उठा कर कहा, ‘अम्मां, तुम ने पिताजी की बहुत उपेक्षा की है, पर देखो, उन के मुख पर कितनी प्रखर ओज है इस समय?’

रुद्रंबा क्या प्रत्युत्तर देती? उस के अनवरत अश्रु ही मौन उत्तर दे रहे थे.

‘नाना के मृत तन के सम्मुख मैं शपथ लेता हूं कि आप दोनों की प्रसिद्धि को मैं आंच नहीं आने दूंगा- आप दोनों की प्रतिष्ठा को मैं बनाए रखूंगा.’

अगले चार वर्षों के पश्चात पूरे 34 वर्ष शासन करने के पश्चात जब रुद्र महाराज ने 1289 में अंतिम सांस ली, तो गोलकुंडा चतुर्दिक उन्नति कर चुका था.

रुद्र महाराज की बेटी मुमम्मा ने अपनी मां की इच्छानुसार गोलकुंडा का शासन संभाला, पर उस ने थोड़े समय के ही पश्चात सिंहासन अपने बेटे प्रताप रुद्र को सौंप दिया.

प्रताप रुद्र ने नानी के सम्मुख से ही अश्व संचालन, युद्धकला व शासन के दांवपेच सीखे थे. इसलिए वह काकतीयों का सफलतम व अत्यंत प्रतिभाशाली शासक सिद्ध हुआ. उस ने तो अपने काल में मलिक काफूर व दिल्ली की सेना को भी करारी शिकस्त दी. पूरे दक्षिण भारत को रोंद देने वाले काफूर की गति गोलकुंडा में आ कर प्रताप रुद्र के सामने इतनी कमजोर हो गई कि दिल्ली को गोलकुंडा से समझौता कर के ही किसी प्रकार अपने प्राण बचाने पड़े.

प्रताप अपनी नानी रुद्रंबा का अत्यंत आभारी था, जिस ने उसे प्रत्येक क्षेत्र में पारंगत बनाया. इस से पूर्ण भारत में कश्मीर में यशोवती, दिद्दा व सुगंध, पूर्वी चालुक्यों में विजयामहादेवी, कदंबों में दिवा भारसी और उड़ीसा की भौमकार वंशीय पृथ्वी, दंडी, धर्मा व बैकुंला महादेवी कोई भी उत्तराधिकारी न होने अथवा अपने बेटे के बालिग होने तक सिंहासनारूढ़ रह चुकी थी. पर पूरे 34 वर्ष तक के लंबे अंतराल में सफल शासिका रहने में (वृद्ध भी. सदैव पुरुष वेश में) रुद्रंबा अग्रणी कही जा सकती है.

The post ऐतिहासिक कहानी: समर्पणा appeared first on Sarita Magazine.

April 19, 2022 at 09:27AM

No comments:

Post a Comment