Sunday, 23 February 2020

मोहजाल: भाग-3

मोहिनी झुंझला कर बोली, ‘‘अरे अम्मा, सारा दिन पड़ा है, मैं कर दूंगी न. आप अभी सो जाओ और मुझे भी सोने दो.’’

श्यामाजी रजाई से मुंह ढंक कर जाप करने लगीं.

उनींदी मोहिनी अपनी अम्मा के बारे में सोचने लगी कि एक समय अम्मा कितनी सुंदर और सक्रिय थीं. अब झुर्रीदार चेहरा, झुकी हुई कमर, छड़ी का सहारा, उन की जर्जर काया, कान से ऊंचा सुनना, आंखों से कम दिखाई देना, लेकिन इस हालत में भी अपनी अलमारी के लिए आज भी उसी मोहजाल में फंसी हुई हैं. यह भी क्या विडंबना है? शरीर तो साथ छोड़ता जाता है, परंतु मन संसार की छोटीछोटी चीजों में उलझा और जकड़ा रहता है.

वह अलसाई सी बिस्तर पर लेटी थी तभी मंजरी आई और बोली, ‘‘बूआ, आज शाम को थिएटर में बहुत बढि़या नाटक है, मैं ने 2 टिकटें मंगा ली हैं. शाम 5 बजे का शो है. आप तैयार रहना, मैं और आप चलेंगे.’’

‘‘मंजरी, छोड़ो भी थिएटर वगैरह, थोड़ी देर तुम सब के साथ बैठूंगी, कल तो मुझे जाना ही है.’’

मंजरी, बूआ के गले से लिपट कर बोली, ‘‘बूआ प्लीज, चलो न, मेरा एक बार थिएटर देखने का बहुत मन है. मम्मीपापा तो कभी जाते नहीं.’’

मोहिनी चुप ही रही.

‘‘मेरी अच्छी बूआ. तो फिर शाम का प्रोग्राम पक्का रहा न,’’ वह बाहर से दौड़ती हुई फिर लौट कर आई और फुसफुसा कर बोली, ‘‘बूआ, दादी की अलमारी दोपहर में जरूर ठीक कर देना, मुझ से बहुत दिन से कह रही हैं. मुझे यह काम बहुत बोरिंग लगता है.’’

मोहिनी, मंजरी को प्यार से निहारती रही. आज मंजरी में उसे अपना बचपन दिखाई पड़ रहा था.

मानसी सुबह श्यामाजी को नहला रही थीं, तभी उन की निगाह उस के मेहंदी रचे हाथों पर पड़ी. वे चौंक कर बोलीं, ‘‘अरे, यह मेहंदी कब रचा ली? बड़ा गहरा रंग आया है.’’

‘‘कल रात बिग बाजार में मेहंदी लगाने वाली बैठी थी. जीजी का मन था तो उन्हीं की जिद पर हम ने भी लगवा ली.’’

सुबह का नाश्तापानी निबट गया था. मनोहर अपनी दुकान चले गए थे. मंजरी सुबह ही कालेज जा चुकी थी. मानसी किचन में लंच की तैयारी में लगी थी.

तभी मोहिनी अम्मा के पास आई, बोली, ‘‘चलो अम्मा, आप की अलमारी की सफाई कर के ठीक से सैट कर दूं.’’

‘‘कर दो तो बहुत ही अच्छा है. हम से तो अब कुछ होता नहीं है. न जाने कब बुलावा आ जाए.’’

‘‘अम्मा, हर समय इस तरह की बातें मत किया करिए. अच्छा नहीं लगता.’’

7 परतों वाले पर्स से एक के बाद एक, कई जेबों के अंदर से उन्होंने चाबी निकाल कर दी.

अलमारी खोलते ही मोहिनी चौंक उठी, आज भी अम्मा, मानसी भाभी की शादी वाले जेवर अपनी अलमारी में ही रखे हुए थीं.

सबकुछ व्यवस्थित और साफसुथरे ढंग से रखा हुआ था. अम्मा हमेशा से सफाईपसंद स्वभाव की थीं.

कई डब्बों में नोटों की गड्डियां रखे हुए थीं जिन पर चिट लगी हुई थीं परंतु फिर भी उन्हें फिर से गिनवा कर मंजरी की विश्वसनीयता को परखना चाह रही थीं.

अम्मा की इस हरकत से मोहिनी का मन भी खट्टा हो गया था.

‘‘अम्मा, भाभी के जेवर आप के पास आज भी रखे हुए हैं. आप उन की चीज उन्हें देती क्यों नहीं?’’

‘‘क्या हम पहन लेंगे?’’

उन्होंने एक मखमली डब्बे से हथफूल निकाले. पुराने जमाने के कुंदन के हथफूल बहुत ही खूबसूरत थे.

मोहिनी बोल पड़ी, ‘‘अम्मा, ये हथफूल आप किस को देंगी?’’

‘‘लल्ली, तुम चुपचाप इसे आज ही अपने साथ ले जाओ. मेरे मरने के बाद ये लोग तुम्हें कुछ भी नहीं देंगे.’’

तभी हड़बड़ी में एक डब्बा उठा कर बोलीं, ‘‘लल्ली, पहले हमारे इस डब्बे के रुपए गिन कर बताओ, हमें लग रहा है कि मंजरी ने इस में से कुछ रुपए निकाल लिए हैं. हमें खूब याद है कि मनोहर ने हमें पूरे 8 हजार रुपए गिन कर दिए थे.’’

‘‘अम्मा, आप भी गजब करती हैं, मंजरी पर शक करती हैं. इस में तो 8,500 रुपए हैं.’’

‘‘लल्ली, हम तो गिन नहीं पाते. जब मंजरी से गिनवाते हैं तो लगता है कि उस ने 2-4 नोट निकाल लिए होंगे.’’

मोहिनी गुस्से से फट पड़ी थी, ‘‘अम्मा, आप का तो दिमाग खराब हो गया है. अपनी ही पोती पर चोरी का शक कर रही हो. रुपए भी भैया के ही दिए हुए हैं तो भी आप ऐसा कैसे सोच सकती हैं? लो संभालो, अपनी अलमारी. अब आप मुझ पर भी शक करना कि मोहिनी ने मेरा कोई जेवर और रुपया चुरा लिया है.’’

श्यामाजी सिटपिटा कर बोलीं, ‘‘न बिटिया न, तुम नाराज न हो. लो, ये चंपाकली, तुम चुपचाप अपने पास संभाल कर रख लो. न भैया को बताना न अपनी भाभी को. इस के बारे में तो मनोहर को भी नहीं मालूम है. बड़े चाव से रखा हुआ था कि मनोहर की बहू को दूंगी, लेकिन इस से तो मेरा मन नहीं मिलता. इस की तो सूरत से ही मुझे चिढ़ है. लो, ये 10 हजार रुपए भी तुम रख लो. मेरा अब क्या भरोसा कि मैं कितने दिन रहूं. मैं इन सब को जानती हूं, सब दिखावा करते हैं. मेरे मरने के बाद तुम्हें कोई एक चुटकी नमक भी न देगा.’’

‘‘अम्मा, आप अच्छी तरह समझ लीजिए. मुझे कोई कुछ दे या न दे, मैं अपनी दुनिया में बहुत खुश हूं. मुझे केवल भैया और भाभी का प्यार चाहिए. वही मेरे लिए सबकुछ है.’’

उसी समय मानसी भाभी की परछाईं दिखी और आहट हुई, मानो वे कमरे के बाहर से उन लोगों की बातें सुन रही थीं.

‘‘अम्मा, मेरी बात ध्यान से सुन लो कि यदि आप चाहती हैं कि मैं आप के पास आती रहूं तो आज आप को मेरी एक बात माननी ही होगी. आज और अभी मानसी भाभी को अपनी अलमारी की चाबी सौंपनी होगी.’’

‘‘तुम तो मुझे धमकी सी दे रही हो.’’

‘‘वे आप को बच्चों की तरह नहलातीधुलाती हैं, कपड़े पहनाती हैं. समयसमय पर आप को शौच, दवादारू, खानापीना, वे क्या नहीं करतीं और आप हैं कि उन को जलील करने का कोई मौका नहीं छोड़ती हैं. गैरों की तरह अंटशंट बोलती हैं, मेरे बक्से से रुपए निकाल लिए. मेरे चांदी के बरतन चुरा लिए. आप की ऊलजलूल बातों से मैं 2 दिन में ही तंग हो जाती हूं. भाभी जाने कैसे बरदाश्त करती हैं. आप को तो याद ही होगा जब मेरी सास ने मुझे जेवर नहीं दिए थे तो आप कैसे चीखचीख कर लड़ने को तैयार थीं, ‘मेरी बेटी के जेवर वे कैसे अपने पास रख सकती हैं? मैं समधनजी से बात करूंगी.’

‘‘वह तो मैं ने मना न किया होता तो अवश्य ही उसी दिन से आप लोगों से मेरा नाता टूट गया होता. वह तो भाभी सीधी और समझदार हैं, इसीलिए सब सह लेती हैं. मैं तो शायद कभी न कर पाती,’’ यह कह कर मोहिनी तेजी से कमरे से बाहर निकल गई थी.

श्यामाजी की तो बोलती ही बंद हो गई थी. उन को मोहिनी की बातें अक्षरश: सच लग रही थीं. उन की बेटी ने आज उन्हें ही आईना दिखा दिया था. वे पसोपेश में थीं, परंतु उन का अहं उन के आड़े आ रहा था. आज मन ही मन वे सोचने को मजबूर हो गई थीं कि क्या वे अपनी सास के द्वारा किए हुए दुर्व्यवहार का अपनी बहू से बदला ले रही थीं. अपने व्यवहार से वे इतिहास की पुनरावृत्ति कर रही थीं.

ड्राइंगरूम से बहू मानसी, मोहिनी और मंजरी की हंसीमजाक की आवाजें, बीचबीच में ठहाके उन के कानों से टकरा रहे थे. घंटों वे अनिश्चय की स्थिति में सन्न सी बैठी रहीं, फिर उन की आंखों के सामने मानसी बहू की प्यारभरी सहमी सी चितवन घूमने लगी. उन्होंने चाहे कितना भी डांटाफटकारा हो, परंतु मानसी के चेहरे पर कभी भी शिकन नहीं आई थी. हर क्षण ‘जी, अम्माजी’ कह कर हाजिर रहती थी.

वेस्वयं कितनी मूढ़ थीं. अपने खुशनुमा पलों को कुढ़कुढ़ कर गुजारती रहीं. यह तो अच्छा हुआ कि मोहिनी की धमकी से उन की आंखें खुल गईं. आज वे अपनी गलतियों का प्रतिकार तो कर सकती हैं. उन की आंखों में उन के निश्चय की अनोखी चमक थी.

उत्तेजनावश वे स्वयं छड़ी के सहारे उठ खड़ी हुईं. 2-4 कदम वे चल भी ली थीं. छड़ी की खटखट सुनते ही मानसी भागती हुई आई, मोहिनी और मंजरी उस के पीछेपीछे आ गईं.

‘‘अम्माजी, क्या बात है? आप घंटी बजा देतीं.’’

‘‘कमरे में पड़ीपड़ी उदास हो रही थी तो सोचा सब के साथ टीवी देखूं. अकेले देखने में कहां अच्छा लगता है,’’

फिर रुक कर बोलीं, ‘‘और आज सब्जी क्या बनाएगी?’’

‘‘अम्माजी, आलू और हरा सीताफल बना रही हूं.’’

‘‘अच्छा. तो यहीं चाकू के साथ दे दे. टीवी देखतेदेखते जितना हो सकेगा, छीलकाट दूंगी. ठीक कर लेना अगर छोटेबड़े टुकड़े हो जाएं. तू ने तो वर्षों से काम ही नहीं करने दिया.’’

मानसी भौचक्की सी खड़ी थी कि अम्मा ने फिर आवाज दी, ‘‘और सुन बहू, यह अलमारी की चाबी तू रख. इतने पैसेजेवर मुझ से नहीं संभाले जाते. तू जाने और तेरा काम जाने.’’

फिर मोहिनी की ओर मुंह कर के बोलीं, ‘‘और लल्ली, जरा वे साडि़यां तो दिखा जो बहू ने तुझे दिलाईं. उस की पसंद तो लाजवाब है. मुझे भी तो देखने दे. अब पहन तो नहीं सकती पर…’’

अम्मा बोलती रहीं और मानसी व मोहिनी मुंह खोले उन्हें देखती रहीं.

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मोहिनी झुंझला कर बोली, ‘‘अरे अम्मा, सारा दिन पड़ा है, मैं कर दूंगी न. आप अभी सो जाओ और मुझे भी सोने दो.’’

श्यामाजी रजाई से मुंह ढंक कर जाप करने लगीं.

उनींदी मोहिनी अपनी अम्मा के बारे में सोचने लगी कि एक समय अम्मा कितनी सुंदर और सक्रिय थीं. अब झुर्रीदार चेहरा, झुकी हुई कमर, छड़ी का सहारा, उन की जर्जर काया, कान से ऊंचा सुनना, आंखों से कम दिखाई देना, लेकिन इस हालत में भी अपनी अलमारी के लिए आज भी उसी मोहजाल में फंसी हुई हैं. यह भी क्या विडंबना है? शरीर तो साथ छोड़ता जाता है, परंतु मन संसार की छोटीछोटी चीजों में उलझा और जकड़ा रहता है.

वह अलसाई सी बिस्तर पर लेटी थी तभी मंजरी आई और बोली, ‘‘बूआ, आज शाम को थिएटर में बहुत बढि़या नाटक है, मैं ने 2 टिकटें मंगा ली हैं. शाम 5 बजे का शो है. आप तैयार रहना, मैं और आप चलेंगे.’’

‘‘मंजरी, छोड़ो भी थिएटर वगैरह, थोड़ी देर तुम सब के साथ बैठूंगी, कल तो मुझे जाना ही है.’’

मंजरी, बूआ के गले से लिपट कर बोली, ‘‘बूआ प्लीज, चलो न, मेरा एक बार थिएटर देखने का बहुत मन है. मम्मीपापा तो कभी जाते नहीं.’’

मोहिनी चुप ही रही.

‘‘मेरी अच्छी बूआ. तो फिर शाम का प्रोग्राम पक्का रहा न,’’ वह बाहर से दौड़ती हुई फिर लौट कर आई और फुसफुसा कर बोली, ‘‘बूआ, दादी की अलमारी दोपहर में जरूर ठीक कर देना, मुझ से बहुत दिन से कह रही हैं. मुझे यह काम बहुत बोरिंग लगता है.’’

मोहिनी, मंजरी को प्यार से निहारती रही. आज मंजरी में उसे अपना बचपन दिखाई पड़ रहा था.

मानसी सुबह श्यामाजी को नहला रही थीं, तभी उन की निगाह उस के मेहंदी रचे हाथों पर पड़ी. वे चौंक कर बोलीं, ‘‘अरे, यह मेहंदी कब रचा ली? बड़ा गहरा रंग आया है.’’

‘‘कल रात बिग बाजार में मेहंदी लगाने वाली बैठी थी. जीजी का मन था तो उन्हीं की जिद पर हम ने भी लगवा ली.’’

सुबह का नाश्तापानी निबट गया था. मनोहर अपनी दुकान चले गए थे. मंजरी सुबह ही कालेज जा चुकी थी. मानसी किचन में लंच की तैयारी में लगी थी.

तभी मोहिनी अम्मा के पास आई, बोली, ‘‘चलो अम्मा, आप की अलमारी की सफाई कर के ठीक से सैट कर दूं.’’

‘‘कर दो तो बहुत ही अच्छा है. हम से तो अब कुछ होता नहीं है. न जाने कब बुलावा आ जाए.’’

‘‘अम्मा, हर समय इस तरह की बातें मत किया करिए. अच्छा नहीं लगता.’’

7 परतों वाले पर्स से एक के बाद एक, कई जेबों के अंदर से उन्होंने चाबी निकाल कर दी.

अलमारी खोलते ही मोहिनी चौंक उठी, आज भी अम्मा, मानसी भाभी की शादी वाले जेवर अपनी अलमारी में ही रखे हुए थीं.

सबकुछ व्यवस्थित और साफसुथरे ढंग से रखा हुआ था. अम्मा हमेशा से सफाईपसंद स्वभाव की थीं.

कई डब्बों में नोटों की गड्डियां रखे हुए थीं जिन पर चिट लगी हुई थीं परंतु फिर भी उन्हें फिर से गिनवा कर मंजरी की विश्वसनीयता को परखना चाह रही थीं.

अम्मा की इस हरकत से मोहिनी का मन भी खट्टा हो गया था.

‘‘अम्मा, भाभी के जेवर आप के पास आज भी रखे हुए हैं. आप उन की चीज उन्हें देती क्यों नहीं?’’

‘‘क्या हम पहन लेंगे?’’

उन्होंने एक मखमली डब्बे से हथफूल निकाले. पुराने जमाने के कुंदन के हथफूल बहुत ही खूबसूरत थे.

मोहिनी बोल पड़ी, ‘‘अम्मा, ये हथफूल आप किस को देंगी?’’

‘‘लल्ली, तुम चुपचाप इसे आज ही अपने साथ ले जाओ. मेरे मरने के बाद ये लोग तुम्हें कुछ भी नहीं देंगे.’’

तभी हड़बड़ी में एक डब्बा उठा कर बोलीं, ‘‘लल्ली, पहले हमारे इस डब्बे के रुपए गिन कर बताओ, हमें लग रहा है कि मंजरी ने इस में से कुछ रुपए निकाल लिए हैं. हमें खूब याद है कि मनोहर ने हमें पूरे 8 हजार रुपए गिन कर दिए थे.’’

‘‘अम्मा, आप भी गजब करती हैं, मंजरी पर शक करती हैं. इस में तो 8,500 रुपए हैं.’’

‘‘लल्ली, हम तो गिन नहीं पाते. जब मंजरी से गिनवाते हैं तो लगता है कि उस ने 2-4 नोट निकाल लिए होंगे.’’

मोहिनी गुस्से से फट पड़ी थी, ‘‘अम्मा, आप का तो दिमाग खराब हो गया है. अपनी ही पोती पर चोरी का शक कर रही हो. रुपए भी भैया के ही दिए हुए हैं तो भी आप ऐसा कैसे सोच सकती हैं? लो संभालो, अपनी अलमारी. अब आप मुझ पर भी शक करना कि मोहिनी ने मेरा कोई जेवर और रुपया चुरा लिया है.’’

श्यामाजी सिटपिटा कर बोलीं, ‘‘न बिटिया न, तुम नाराज न हो. लो, ये चंपाकली, तुम चुपचाप अपने पास संभाल कर रख लो. न भैया को बताना न अपनी भाभी को. इस के बारे में तो मनोहर को भी नहीं मालूम है. बड़े चाव से रखा हुआ था कि मनोहर की बहू को दूंगी, लेकिन इस से तो मेरा मन नहीं मिलता. इस की तो सूरत से ही मुझे चिढ़ है. लो, ये 10 हजार रुपए भी तुम रख लो. मेरा अब क्या भरोसा कि मैं कितने दिन रहूं. मैं इन सब को जानती हूं, सब दिखावा करते हैं. मेरे मरने के बाद तुम्हें कोई एक चुटकी नमक भी न देगा.’’

‘‘अम्मा, आप अच्छी तरह समझ लीजिए. मुझे कोई कुछ दे या न दे, मैं अपनी दुनिया में बहुत खुश हूं. मुझे केवल भैया और भाभी का प्यार चाहिए. वही मेरे लिए सबकुछ है.’’

उसी समय मानसी भाभी की परछाईं दिखी और आहट हुई, मानो वे कमरे के बाहर से उन लोगों की बातें सुन रही थीं.

‘‘अम्मा, मेरी बात ध्यान से सुन लो कि यदि आप चाहती हैं कि मैं आप के पास आती रहूं तो आज आप को मेरी एक बात माननी ही होगी. आज और अभी मानसी भाभी को अपनी अलमारी की चाबी सौंपनी होगी.’’

‘‘तुम तो मुझे धमकी सी दे रही हो.’’

‘‘वे आप को बच्चों की तरह नहलातीधुलाती हैं, कपड़े पहनाती हैं. समयसमय पर आप को शौच, दवादारू, खानापीना, वे क्या नहीं करतीं और आप हैं कि उन को जलील करने का कोई मौका नहीं छोड़ती हैं. गैरों की तरह अंटशंट बोलती हैं, मेरे बक्से से रुपए निकाल लिए. मेरे चांदी के बरतन चुरा लिए. आप की ऊलजलूल बातों से मैं 2 दिन में ही तंग हो जाती हूं. भाभी जाने कैसे बरदाश्त करती हैं. आप को तो याद ही होगा जब मेरी सास ने मुझे जेवर नहीं दिए थे तो आप कैसे चीखचीख कर लड़ने को तैयार थीं, ‘मेरी बेटी के जेवर वे कैसे अपने पास रख सकती हैं? मैं समधनजी से बात करूंगी.’

‘‘वह तो मैं ने मना न किया होता तो अवश्य ही उसी दिन से आप लोगों से मेरा नाता टूट गया होता. वह तो भाभी सीधी और समझदार हैं, इसीलिए सब सह लेती हैं. मैं तो शायद कभी न कर पाती,’’ यह कह कर मोहिनी तेजी से कमरे से बाहर निकल गई थी.

श्यामाजी की तो बोलती ही बंद हो गई थी. उन को मोहिनी की बातें अक्षरश: सच लग रही थीं. उन की बेटी ने आज उन्हें ही आईना दिखा दिया था. वे पसोपेश में थीं, परंतु उन का अहं उन के आड़े आ रहा था. आज मन ही मन वे सोचने को मजबूर हो गई थीं कि क्या वे अपनी सास के द्वारा किए हुए दुर्व्यवहार का अपनी बहू से बदला ले रही थीं. अपने व्यवहार से वे इतिहास की पुनरावृत्ति कर रही थीं.

ड्राइंगरूम से बहू मानसी, मोहिनी और मंजरी की हंसीमजाक की आवाजें, बीचबीच में ठहाके उन के कानों से टकरा रहे थे. घंटों वे अनिश्चय की स्थिति में सन्न सी बैठी रहीं, फिर उन की आंखों के सामने मानसी बहू की प्यारभरी सहमी सी चितवन घूमने लगी. उन्होंने चाहे कितना भी डांटाफटकारा हो, परंतु मानसी के चेहरे पर कभी भी शिकन नहीं आई थी. हर क्षण ‘जी, अम्माजी’ कह कर हाजिर रहती थी.

वेस्वयं कितनी मूढ़ थीं. अपने खुशनुमा पलों को कुढ़कुढ़ कर गुजारती रहीं. यह तो अच्छा हुआ कि मोहिनी की धमकी से उन की आंखें खुल गईं. आज वे अपनी गलतियों का प्रतिकार तो कर सकती हैं. उन की आंखों में उन के निश्चय की अनोखी चमक थी.

उत्तेजनावश वे स्वयं छड़ी के सहारे उठ खड़ी हुईं. 2-4 कदम वे चल भी ली थीं. छड़ी की खटखट सुनते ही मानसी भागती हुई आई, मोहिनी और मंजरी उस के पीछेपीछे आ गईं.

‘‘अम्माजी, क्या बात है? आप घंटी बजा देतीं.’’

‘‘कमरे में पड़ीपड़ी उदास हो रही थी तो सोचा सब के साथ टीवी देखूं. अकेले देखने में कहां अच्छा लगता है,’’

फिर रुक कर बोलीं, ‘‘और आज सब्जी क्या बनाएगी?’’

‘‘अम्माजी, आलू और हरा सीताफल बना रही हूं.’’

‘‘अच्छा. तो यहीं चाकू के साथ दे दे. टीवी देखतेदेखते जितना हो सकेगा, छीलकाट दूंगी. ठीक कर लेना अगर छोटेबड़े टुकड़े हो जाएं. तू ने तो वर्षों से काम ही नहीं करने दिया.’’

मानसी भौचक्की सी खड़ी थी कि अम्मा ने फिर आवाज दी, ‘‘और सुन बहू, यह अलमारी की चाबी तू रख. इतने पैसेजेवर मुझ से नहीं संभाले जाते. तू जाने और तेरा काम जाने.’’

फिर मोहिनी की ओर मुंह कर के बोलीं, ‘‘और लल्ली, जरा वे साडि़यां तो दिखा जो बहू ने तुझे दिलाईं. उस की पसंद तो लाजवाब है. मुझे भी तो देखने दे. अब पहन तो नहीं सकती पर…’’

अम्मा बोलती रहीं और मानसी व मोहिनी मुंह खोले उन्हें देखती रहीं.

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February 24, 2020 at 09:50AM

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