Sunday 31 May 2020

तनहाइयां-भाग 3: बस में बैठे लड़के से अंजू का क्या रिश्ता था ?

एक दिन मैं लाइब्रेरी में बैठी पढ़ रही थी कि अचानक सीमा मेरे पास आई, ‘अंजू, तुझे पता है कि मजनू की शादी हो गई?’

‘क्या?’ मैं चौंक गई. थोड़ी देर बाद खुद को संयत कर के बोली थी, ‘क्या कोई और मजाक नहीं कर सकती थी?’

‘अंजू, यह मजाक नहीं है. मुकुल अपने दोस्त की शादी में गया था. मेरा भाई भी उस शादी में गया हुआ था. वहां फेरों के पहले लड़के ने लड़की से शादी करने से इनकार कर दिया क्योंकि लड़की बेहद कुरूप थी.

‘मजनू ने दोनों में समझौता कराना चाहा तो लड़के ने क्रोध में कहा, मुझे जो लड़की दिखाई गई थी, वह यह नहीं है. इस कुरूप से कौन करेगा शादी. तू बहुत समझा रहा है तो तू ही इस से शादी कर ले.

‘दरअसल, कुछ दिन पहले लड़की का चेहरा खाना बनाते समय थोड़ा जल गया था,’ इतना कह कर वह थोड़ा रुकी.

इधर मेरी सांस रुकी जा रही थी. मैं सब कुछ जल्दी ही सुन लेना चाहती थी, ‘आगे बोल, क्या हुआ?’

‘कुछ नहीं अंजू, फिर वही हुआ जो नहीं होना चाहिए था. वहां पूरे पंडाल में उस लड़की से शादी करने के लिए कोई राजी न हुआ. मुकुल उस लड़के को समझा कर हार गया तो अंत में उस ने यह निर्णय ले लिया कि वह उस लड़की से शादी करेगा. पता नहीं क्यों, उसे ऐसा निर्णय लेते समय तेरा खयाल क्यों नहीं आया?’

इतना सुनना था कि मैं सीमा के कंधे पर सिर रख कर फफकफफक कर रोने लगी. मेरी सहेलियां और मुकुल के कुछ मित्र भी वहां आ पहुंचे थे. सब ने मुझे घेर लिया था. हमारे प्यार की दास्तान सब को पता थी, इसलिए सभी इस घटना से दुखी थे.

‘मजनू ने क्या उस कुरूप लड़की का उद्धार करने का ठेका ले रखा था,’ यह उत्तेजित स्वर अरुण का था.

‘अब जो हो गया सो हो गया. मजनू को कोसने से क्या होगा. अंजू को संभालो,’ सीमा बोली.

‘नहीं, मुझे तुम सब अकेला छोड़ दो,’ मैं ने रुंधे कंठ से कहा था. थोड़ी देर बाद ही मैं घर आ गई थी.

मैं बारबार यही सोच रही थी कि जो मुकुल मेरे बिना एक पल भी नहीं रह सकता था वही अब हमेशा के लिए मुझ से जुदा हो गया है. आखिर उस ने यह क्यों नहीं सोचा कि उस के बिना मेरा क्या होगा. मैं मुकुल के अतिरिक्त किसी और व्यक्ति का खयाल भी अपने मन में नहीं ला सकती. अब तो मुझे अपने जीवन की तनहाइयों को ही स्वीकार कर के चलना होगा. मुकुल की बेवफाई से मुझे बहुत सदमा पहुंचा और मैं ने अकेले ही अपना जीवन बिताने का निर्णय लिया. धोखे से भरी इस दुनिया में किसे अपना अवलंबन मानती, पता नहीं कौन किस मोड़ पर अपनी मंजिल बदल दे. इस घटना को लगभग 17-18 साल बीत गए थे. घाव भर चुका था पर निशान बाकी था और अब वह घाव फिर से ताजा हो गया था.

‘अच्छा हुआ, उस की पत्नी मर गई. अपने जुर्म का फल तो भुगतेगा,’ मैं बड़बड़ाई थी.

रात देर तक जागने के कारण सुबह सिर भारी था. सोचा कि कालेज से छुट्टी ले लूं, फिर नहीं ली. घर बैठ कर तो मानसिक सुकून और भी छिन जाता. कालेज में कम से कम व्यस्त तो रहूंगी. मेरे कल के व्यवहार से छात्राएं आज भी सहमी थीं मगर मैं शांत थी. तूफान आने के बाद की शांति छाई हुई थी, हालांकि मन का तूफान थमा नहीं था. शाम को किसी ने दरवाजा खटखटाया. मैं अनमने भाव से उठी और दरवाजा खोल दिया. सामने मुकुल को देख कर आश्चर्यचकित रह गई, ‘‘तुम…’’

‘‘अंदर आने के लिए नहीं कहोगी?’’ उस ने बाहर खड़ेखड़े पूछा.

‘‘मेरे घर आने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?’’

‘‘सच, हिम्मत तो बहुत जुटाई है मैं ने, तभी आ पाया हूं,’’ यह कहते हुए वह स्वत: अंदर चला आया और सोफे पर साधिकार बैठ गया.

‘‘अंजू, कई वर्षों से मैं बहुत परेशान था. अपराधबोध से ग्रस्त था. तुम्हारे साथ मैं न्याय नहीं कर पाया था. इसीलिए वक्त ने मेरे साथ भी न्याय नहीं किया. परिस्थितिवश अचानक मेरी शादी कहीं और हो गई और…’’ वह चुप हो गया.

‘‘मुकुल, इतने अंतराल के बाद आज सफाई देने क्यों आए हो? मैं जानना चाहती हूं कि किस अधिकार से तुम मेरे घर चले आए?’’ मेरा स्वर तीखा था.

‘‘मैं तुम्हारी कड़वाहट की वजह जानता हूं इसलिए मैं बुरा नहीं मानूंगा,’’ मुकुल ने सोफे पर बैठेबैठे ही सिगरेट सुलगा ली थी. थोड़ी देर तक वातावरण में चुप्पी छाई रही. फिर वह बोला, ‘‘अंजू, बीती बातें भूल जाओ. संयोग से हम दोबारा मिले हैं. क्या हम अच्छे पड़ोसी बन कर नहीं रह सकते?’’ वह एकटक मुझे देख रहा था.

‘‘मेहरबानी कर के यहां से चले जाओ,’’ मैं लगभग रो पड़ी थी.

‘‘अच्छा, मैं फिर कभी आऊंगा. परेशान होने की जरूरत नहीं है,’’ यह कह कर उस ने मेरे कंधे थपथपाए और चला गया.

कंधों पर उस का स्पर्श किसी जलती हुई सलाखों के सदृश लगा था. आखिर किस अधिकार से वह सोफे पर पसर गया था? कैसे बेशर्म होते हैं लोग, जो बड़ी सहजता से विश्वासघात कर लेते हैं, और अपने किए को सहजता से स्वीकार भी करते हैं, जैसे कुछ हुआ ही न हो. शायद उस के लिए कुछ नहीं हुआ था. बेसहारा, जीवन से संघर्ष करती हुई दर्द के मोड़ पर तो मैं खड़ी थी. वह तो आराम से अपना गृहस्थ जीवन जी रहा था. उसे तो इस बात का एहसास ही नहीं हुआ होगा कि अंजू नाम की कोई लड़की उस के कारण पूरे संसार में एकदम अकेली रह गई. मैं सोचने लगी कि अच्छा ही हुआ जो उस की पत्नी उसे छोड़ कर चल बसी. जीवन की कुछ कड़वाहटें उस के हिस्से में भी तो आई हैं. मेरा मन बहुत खिन्न हो उठा था. मैं ने 4 दिन की छुट्टियां ले ली थीं और इस बीच अपनेआप को संयत करने की असफल चेष्टा में लगी रही थी. लगभग 5-6 दिन बाद शाम को फिर मुकुल आ धमका. इस बार उस के साथ मोनू भी था.

‘‘मोनू, इन्हें नमस्ते करो,’’ मुकुल बोला था और साधिकार भीतर चला आया था.

‘‘कैसे आना हुआ?’’ मैं ने बेरुखी से पूछा.

‘‘आज तो साहबजादे के कारण आया हूं. तुम हो अंगरेजी की व्याख्याता और हमारा बेटा अंगरेजी में बहुत कमजोर है. तुम से अच्छा ट्यूटर मोनू को कोई दूसरा नहीं मिल सकता,’’ मुकुल अधिकार पर अधिकार जता रहा था और मुझे उस के इस व्यवहार से चिढ़ हो रही थी.

‘‘देखिए, मैं ट्यूशन नहीं करती,’’ मैं ने साफ इनकार कर दिया.

‘‘लेकिन मोनू को तो पढ़ाना ही होगा. इस का भविष्य तुम्हारे हाथ में है.’’

‘मेरा भविष्य उजाड़ने वाले, आज अपने बेटे का भविष्य संवारने के लिए मेरे पास आए हो,’ मैं ने मन ही मन सोचा परंतु प्रत्यक्ष में कुछ न कहा.

‘‘बेटे मोनू, यह हमारी सहपाठी रह चुकी हैं. अब तुम रोज शाम को इन से पढ़ने आया करोगे.’’

‘‘लेकिन मैं…’’ मैं ने कुछ कहना चाहा.

‘‘इनकार मत करना,’’ मुकुल बीच में ही बोला. उस की आंखों में विनती थी और पता नहीं क्यों, फिर मैं एकदम शांत हो गई.

मोनू रोज पढ़ने के लिए आने लगा. कभी मैं उस को मुग्ध हो कर निहारती तो कभी उस पर अपनी खीज और झल्लाहट भी उतारती. जब मेरी डांट से उस की आंखें भर आतीं तो मुझे अजीब सा सुकून मिलता. कभीकभी मुझे लगता कि मैं मानसिक विकृति का शिकार हो रही हूं. सोचती, कालेज में छात्रों पर बरस पड़ना, घर में मोनू को डांटना, जबतब खीज से भर उठना, आखिर क्यों मैं अपना मानसिक संतुलन खोती जा रही हूं? मुकुल ने दोबारा मेरे जीवन में प्रवेश कर के मुझे बुरी तरह विचलित कर दिया था. लगभग 3-4 महीने यों ही बीत गए. एक दिन मुकुल ने फिर दरवाजा खटखटाया. जैसे ही मैं ने दरवाजा खोला, वह अंदर आते हुए बोला, ‘‘अंजू, आज तो चाय पी कर जाऊंगा.’’उस ने इस तरह अपनेपन से यह बात कही कि मैं पिघल गई. मैं चाय बना कर ले आई. उसे प्याला पकड़ाते समय मेरा ध्यान उस के हाथ की तरफ गया. उस का हाथ ब्लेड से कटा हुआ था, ऊपर खून की तह जमी थी.

‘ओह, तो जनाब फिर प्यार का इजहार करने आए हैं. फिर मजनू का भेष बना कर बैठे हैं,’ मैं ने मन ही मन सोचा और मुसकरा दी. मैं ने सोच लिया था कि मुकुल रोएगा, गिड़गिड़ाएगा औरहाथ की नस भी काट लेगा तो भी मैं ‘हां’ नहीं करूंगी. उस की यही सजा है.

‘‘अंजू, तुम ने शादी के बारे में क्या सोचा?’’ अचानक उस ने पूछा.

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘क्या अपनी जिंदगी यों ही तनहा गुजार दोगी?’’

‘‘तुम्हें इस से क्या, मेरी जिंदगी है, मैं कैसे भी गुजारूं,’’ मैं चीख कर बोली थी.

‘‘यह हर बार तुम उत्तेजित क्यों हो जाती हो? तुम्हारे सामने अभी उम्र का लंबा सफर पड़ा है. आखिर कब तक अकेले ही अपने सुखदुख ढोती रहोगी?’’ वह चिंतित हो उठा.

‘‘मुकुल, मेरी चिंता तुम न करो. मुझे मेरे ही हाल पर छोड़ दो. मैं बहुत अच्छी तरह जी रही हूं.’’

‘‘अंजू, क्या यह तुम्हारा आखिरी फैसला है?’’ उस ने मेरी आंखों में झांकते हुए पूछा.

उस की आंखों के भावों को देख कर एक बार मेरा मन डगमगा उठा था लेकिन मैं ने स्वयं को मजबूत बनाते हुए कहा, ‘‘हां.’’

‘‘अंजू, मैं जानता हूं कि तुम ने मेरी खातिर तनहाइयां भोगी हैं. मैं यह भी जानता हूं कि तुम मेरे लिए तड़प रही हो, उसी तरह जिस तरह मैं आज तुम्हारी तनहाइयां समेटने के लिए तड़प रहा हूं… उसी तरह, जैसे मोनू तुम्हें मां के रूप में पाने के लिए तड़प रहा है…’’

‘‘मोनू,’’ मैं ने मुकुल की तरफ अपनी प्रश्नवाचक दृष्टि स्थिर कर दी.

‘‘हां अंजू, उस की डायरी से चिट्ठी मिली है,’’ मुकुल ने जेब से एक मुड़ातुड़ा कागज निकाल कर मेरी तरफ बढ़ा दिया. उस में लिखा था :

‘मौसी, मैं आप को बहुत चाहता हूं. क्या मैं आप को मां बोल सकता हूं?’

इस पंक्ति के बाद पूरे पृष्ठ पर ‘मां… मां…मां…’ लिखा हुआ था.

मैं ने मुकुल की तरफ देखा, उस की आंखें गीली थीं. वह भर्राए स्वर में बोला, ‘‘इस समय सिर्फ तुम ही नहीं, मैं और मोनू भी तनहाइयां झेल रहे हैं. लेकिन हम सब की तनहाइयां दूर हो सकती हैं… यदि तुम चाहो तो?’’

मुकुल का इतना कहना था कि मैं रोने लगी. अब मुझ में हिम्मत नहीं थी कि मैं अपनी तनहाइयों में और अधिक जी सकूं.

‘‘तो क्या सोचा है, अंजू?’’ वह बोला.

मैं ने आंसुओं से भरा चेहरा ऊपर उठाया. मुकुल को एकटक देखा और कहा, ‘‘मैं तुम से नहीं बोलना चाहती क्योंकि तुम ने मेरे बेटे को मुझ से दूर रखा…’’

‘‘अच्छा बाबा, मुझ से मत बोलना, पर अपने बेटे से तो बोलना. चलो, मेरे घर चलो. मोनू तुम्हें देख कर बहुत खुश होगा.’’

मैं मुकुल के पीछेपीछे चल दी. एक सिहरन मेरे मन में समाती जा रही थी और मोनू को सीने से लगाने के लिए मैं बुरी तरह छटपटा रही थी.

 

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एक दिन मैं लाइब्रेरी में बैठी पढ़ रही थी कि अचानक सीमा मेरे पास आई, ‘अंजू, तुझे पता है कि मजनू की शादी हो गई?’

‘क्या?’ मैं चौंक गई. थोड़ी देर बाद खुद को संयत कर के बोली थी, ‘क्या कोई और मजाक नहीं कर सकती थी?’

‘अंजू, यह मजाक नहीं है. मुकुल अपने दोस्त की शादी में गया था. मेरा भाई भी उस शादी में गया हुआ था. वहां फेरों के पहले लड़के ने लड़की से शादी करने से इनकार कर दिया क्योंकि लड़की बेहद कुरूप थी.

‘मजनू ने दोनों में समझौता कराना चाहा तो लड़के ने क्रोध में कहा, मुझे जो लड़की दिखाई गई थी, वह यह नहीं है. इस कुरूप से कौन करेगा शादी. तू बहुत समझा रहा है तो तू ही इस से शादी कर ले.

‘दरअसल, कुछ दिन पहले लड़की का चेहरा खाना बनाते समय थोड़ा जल गया था,’ इतना कह कर वह थोड़ा रुकी.

इधर मेरी सांस रुकी जा रही थी. मैं सब कुछ जल्दी ही सुन लेना चाहती थी, ‘आगे बोल, क्या हुआ?’

‘कुछ नहीं अंजू, फिर वही हुआ जो नहीं होना चाहिए था. वहां पूरे पंडाल में उस लड़की से शादी करने के लिए कोई राजी न हुआ. मुकुल उस लड़के को समझा कर हार गया तो अंत में उस ने यह निर्णय ले लिया कि वह उस लड़की से शादी करेगा. पता नहीं क्यों, उसे ऐसा निर्णय लेते समय तेरा खयाल क्यों नहीं आया?’

इतना सुनना था कि मैं सीमा के कंधे पर सिर रख कर फफकफफक कर रोने लगी. मेरी सहेलियां और मुकुल के कुछ मित्र भी वहां आ पहुंचे थे. सब ने मुझे घेर लिया था. हमारे प्यार की दास्तान सब को पता थी, इसलिए सभी इस घटना से दुखी थे.

‘मजनू ने क्या उस कुरूप लड़की का उद्धार करने का ठेका ले रखा था,’ यह उत्तेजित स्वर अरुण का था.

‘अब जो हो गया सो हो गया. मजनू को कोसने से क्या होगा. अंजू को संभालो,’ सीमा बोली.

‘नहीं, मुझे तुम सब अकेला छोड़ दो,’ मैं ने रुंधे कंठ से कहा था. थोड़ी देर बाद ही मैं घर आ गई थी.

मैं बारबार यही सोच रही थी कि जो मुकुल मेरे बिना एक पल भी नहीं रह सकता था वही अब हमेशा के लिए मुझ से जुदा हो गया है. आखिर उस ने यह क्यों नहीं सोचा कि उस के बिना मेरा क्या होगा. मैं मुकुल के अतिरिक्त किसी और व्यक्ति का खयाल भी अपने मन में नहीं ला सकती. अब तो मुझे अपने जीवन की तनहाइयों को ही स्वीकार कर के चलना होगा. मुकुल की बेवफाई से मुझे बहुत सदमा पहुंचा और मैं ने अकेले ही अपना जीवन बिताने का निर्णय लिया. धोखे से भरी इस दुनिया में किसे अपना अवलंबन मानती, पता नहीं कौन किस मोड़ पर अपनी मंजिल बदल दे. इस घटना को लगभग 17-18 साल बीत गए थे. घाव भर चुका था पर निशान बाकी था और अब वह घाव फिर से ताजा हो गया था.

‘अच्छा हुआ, उस की पत्नी मर गई. अपने जुर्म का फल तो भुगतेगा,’ मैं बड़बड़ाई थी.

रात देर तक जागने के कारण सुबह सिर भारी था. सोचा कि कालेज से छुट्टी ले लूं, फिर नहीं ली. घर बैठ कर तो मानसिक सुकून और भी छिन जाता. कालेज में कम से कम व्यस्त तो रहूंगी. मेरे कल के व्यवहार से छात्राएं आज भी सहमी थीं मगर मैं शांत थी. तूफान आने के बाद की शांति छाई हुई थी, हालांकि मन का तूफान थमा नहीं था. शाम को किसी ने दरवाजा खटखटाया. मैं अनमने भाव से उठी और दरवाजा खोल दिया. सामने मुकुल को देख कर आश्चर्यचकित रह गई, ‘‘तुम…’’

‘‘अंदर आने के लिए नहीं कहोगी?’’ उस ने बाहर खड़ेखड़े पूछा.

‘‘मेरे घर आने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?’’

‘‘सच, हिम्मत तो बहुत जुटाई है मैं ने, तभी आ पाया हूं,’’ यह कहते हुए वह स्वत: अंदर चला आया और सोफे पर साधिकार बैठ गया.

‘‘अंजू, कई वर्षों से मैं बहुत परेशान था. अपराधबोध से ग्रस्त था. तुम्हारे साथ मैं न्याय नहीं कर पाया था. इसीलिए वक्त ने मेरे साथ भी न्याय नहीं किया. परिस्थितिवश अचानक मेरी शादी कहीं और हो गई और…’’ वह चुप हो गया.

‘‘मुकुल, इतने अंतराल के बाद आज सफाई देने क्यों आए हो? मैं जानना चाहती हूं कि किस अधिकार से तुम मेरे घर चले आए?’’ मेरा स्वर तीखा था.

‘‘मैं तुम्हारी कड़वाहट की वजह जानता हूं इसलिए मैं बुरा नहीं मानूंगा,’’ मुकुल ने सोफे पर बैठेबैठे ही सिगरेट सुलगा ली थी. थोड़ी देर तक वातावरण में चुप्पी छाई रही. फिर वह बोला, ‘‘अंजू, बीती बातें भूल जाओ. संयोग से हम दोबारा मिले हैं. क्या हम अच्छे पड़ोसी बन कर नहीं रह सकते?’’ वह एकटक मुझे देख रहा था.

‘‘मेहरबानी कर के यहां से चले जाओ,’’ मैं लगभग रो पड़ी थी.

‘‘अच्छा, मैं फिर कभी आऊंगा. परेशान होने की जरूरत नहीं है,’’ यह कह कर उस ने मेरे कंधे थपथपाए और चला गया.

कंधों पर उस का स्पर्श किसी जलती हुई सलाखों के सदृश लगा था. आखिर किस अधिकार से वह सोफे पर पसर गया था? कैसे बेशर्म होते हैं लोग, जो बड़ी सहजता से विश्वासघात कर लेते हैं, और अपने किए को सहजता से स्वीकार भी करते हैं, जैसे कुछ हुआ ही न हो. शायद उस के लिए कुछ नहीं हुआ था. बेसहारा, जीवन से संघर्ष करती हुई दर्द के मोड़ पर तो मैं खड़ी थी. वह तो आराम से अपना गृहस्थ जीवन जी रहा था. उसे तो इस बात का एहसास ही नहीं हुआ होगा कि अंजू नाम की कोई लड़की उस के कारण पूरे संसार में एकदम अकेली रह गई. मैं सोचने लगी कि अच्छा ही हुआ जो उस की पत्नी उसे छोड़ कर चल बसी. जीवन की कुछ कड़वाहटें उस के हिस्से में भी तो आई हैं. मेरा मन बहुत खिन्न हो उठा था. मैं ने 4 दिन की छुट्टियां ले ली थीं और इस बीच अपनेआप को संयत करने की असफल चेष्टा में लगी रही थी. लगभग 5-6 दिन बाद शाम को फिर मुकुल आ धमका. इस बार उस के साथ मोनू भी था.

‘‘मोनू, इन्हें नमस्ते करो,’’ मुकुल बोला था और साधिकार भीतर चला आया था.

‘‘कैसे आना हुआ?’’ मैं ने बेरुखी से पूछा.

‘‘आज तो साहबजादे के कारण आया हूं. तुम हो अंगरेजी की व्याख्याता और हमारा बेटा अंगरेजी में बहुत कमजोर है. तुम से अच्छा ट्यूटर मोनू को कोई दूसरा नहीं मिल सकता,’’ मुकुल अधिकार पर अधिकार जता रहा था और मुझे उस के इस व्यवहार से चिढ़ हो रही थी.

‘‘देखिए, मैं ट्यूशन नहीं करती,’’ मैं ने साफ इनकार कर दिया.

‘‘लेकिन मोनू को तो पढ़ाना ही होगा. इस का भविष्य तुम्हारे हाथ में है.’’

‘मेरा भविष्य उजाड़ने वाले, आज अपने बेटे का भविष्य संवारने के लिए मेरे पास आए हो,’ मैं ने मन ही मन सोचा परंतु प्रत्यक्ष में कुछ न कहा.

‘‘बेटे मोनू, यह हमारी सहपाठी रह चुकी हैं. अब तुम रोज शाम को इन से पढ़ने आया करोगे.’’

‘‘लेकिन मैं…’’ मैं ने कुछ कहना चाहा.

‘‘इनकार मत करना,’’ मुकुल बीच में ही बोला. उस की आंखों में विनती थी और पता नहीं क्यों, फिर मैं एकदम शांत हो गई.

मोनू रोज पढ़ने के लिए आने लगा. कभी मैं उस को मुग्ध हो कर निहारती तो कभी उस पर अपनी खीज और झल्लाहट भी उतारती. जब मेरी डांट से उस की आंखें भर आतीं तो मुझे अजीब सा सुकून मिलता. कभीकभी मुझे लगता कि मैं मानसिक विकृति का शिकार हो रही हूं. सोचती, कालेज में छात्रों पर बरस पड़ना, घर में मोनू को डांटना, जबतब खीज से भर उठना, आखिर क्यों मैं अपना मानसिक संतुलन खोती जा रही हूं? मुकुल ने दोबारा मेरे जीवन में प्रवेश कर के मुझे बुरी तरह विचलित कर दिया था. लगभग 3-4 महीने यों ही बीत गए. एक दिन मुकुल ने फिर दरवाजा खटखटाया. जैसे ही मैं ने दरवाजा खोला, वह अंदर आते हुए बोला, ‘‘अंजू, आज तो चाय पी कर जाऊंगा.’’उस ने इस तरह अपनेपन से यह बात कही कि मैं पिघल गई. मैं चाय बना कर ले आई. उसे प्याला पकड़ाते समय मेरा ध्यान उस के हाथ की तरफ गया. उस का हाथ ब्लेड से कटा हुआ था, ऊपर खून की तह जमी थी.

‘ओह, तो जनाब फिर प्यार का इजहार करने आए हैं. फिर मजनू का भेष बना कर बैठे हैं,’ मैं ने मन ही मन सोचा और मुसकरा दी. मैं ने सोच लिया था कि मुकुल रोएगा, गिड़गिड़ाएगा औरहाथ की नस भी काट लेगा तो भी मैं ‘हां’ नहीं करूंगी. उस की यही सजा है.

‘‘अंजू, तुम ने शादी के बारे में क्या सोचा?’’ अचानक उस ने पूछा.

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘क्या अपनी जिंदगी यों ही तनहा गुजार दोगी?’’

‘‘तुम्हें इस से क्या, मेरी जिंदगी है, मैं कैसे भी गुजारूं,’’ मैं चीख कर बोली थी.

‘‘यह हर बार तुम उत्तेजित क्यों हो जाती हो? तुम्हारे सामने अभी उम्र का लंबा सफर पड़ा है. आखिर कब तक अकेले ही अपने सुखदुख ढोती रहोगी?’’ वह चिंतित हो उठा.

‘‘मुकुल, मेरी चिंता तुम न करो. मुझे मेरे ही हाल पर छोड़ दो. मैं बहुत अच्छी तरह जी रही हूं.’’

‘‘अंजू, क्या यह तुम्हारा आखिरी फैसला है?’’ उस ने मेरी आंखों में झांकते हुए पूछा.

उस की आंखों के भावों को देख कर एक बार मेरा मन डगमगा उठा था लेकिन मैं ने स्वयं को मजबूत बनाते हुए कहा, ‘‘हां.’’

‘‘अंजू, मैं जानता हूं कि तुम ने मेरी खातिर तनहाइयां भोगी हैं. मैं यह भी जानता हूं कि तुम मेरे लिए तड़प रही हो, उसी तरह जिस तरह मैं आज तुम्हारी तनहाइयां समेटने के लिए तड़प रहा हूं… उसी तरह, जैसे मोनू तुम्हें मां के रूप में पाने के लिए तड़प रहा है…’’

‘‘मोनू,’’ मैं ने मुकुल की तरफ अपनी प्रश्नवाचक दृष्टि स्थिर कर दी.

‘‘हां अंजू, उस की डायरी से चिट्ठी मिली है,’’ मुकुल ने जेब से एक मुड़ातुड़ा कागज निकाल कर मेरी तरफ बढ़ा दिया. उस में लिखा था :

‘मौसी, मैं आप को बहुत चाहता हूं. क्या मैं आप को मां बोल सकता हूं?’

इस पंक्ति के बाद पूरे पृष्ठ पर ‘मां… मां…मां…’ लिखा हुआ था.

मैं ने मुकुल की तरफ देखा, उस की आंखें गीली थीं. वह भर्राए स्वर में बोला, ‘‘इस समय सिर्फ तुम ही नहीं, मैं और मोनू भी तनहाइयां झेल रहे हैं. लेकिन हम सब की तनहाइयां दूर हो सकती हैं… यदि तुम चाहो तो?’’

मुकुल का इतना कहना था कि मैं रोने लगी. अब मुझ में हिम्मत नहीं थी कि मैं अपनी तनहाइयों में और अधिक जी सकूं.

‘‘तो क्या सोचा है, अंजू?’’ वह बोला.

मैं ने आंसुओं से भरा चेहरा ऊपर उठाया. मुकुल को एकटक देखा और कहा, ‘‘मैं तुम से नहीं बोलना चाहती क्योंकि तुम ने मेरे बेटे को मुझ से दूर रखा…’’

‘‘अच्छा बाबा, मुझ से मत बोलना, पर अपने बेटे से तो बोलना. चलो, मेरे घर चलो. मोनू तुम्हें देख कर बहुत खुश होगा.’’

मैं मुकुल के पीछेपीछे चल दी. एक सिहरन मेरे मन में समाती जा रही थी और मोनू को सीने से लगाने के लिए मैं बुरी तरह छटपटा रही थी.

 

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June 01, 2020 at 10:00AM

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