Monday 30 March 2020

परवरिश

चिकित्सा के उन्नत कहे जाने वाले युग को ऐसा कहा भी जाए या नहीं, कुछ घटनाएं घटते समय यह प्रश्न खड़ा कर देती हैं. वे घटनाएं आएदिन घट कर चिकित्सकों को तो अपना अभ्यस्त बना देती हैं लेकिन उन की कसमसाहट मिनटों, घंटों या कुछ दिनों तक ही सीमित रह जाती है. हद से हद फुरसत के क्षणों में कोई इक्कादुक्का डाक्टर उन्हें अपनी डायरी के पन्नों पर उतार लेता है. परंतु जिन के साथ वे घटी होती हैं उन के सीने में तो दर्द की स्थायी कील गाड़ देती हैं. विद्या दी अदने से मच्छर के कारण हुए डेंगू में अपने 10 वर्षीय बेटे को खो कर अपने सीने में दर्द की ऐसी ही अनगिनत कीलें गाड़ लाई थीं.

विवाह के कई वर्ष बाद, ऐलोपैथी, होम्योपैथी, गंडेतावीज, झाड़फूंक और निरी मन्नतों की बैसाखियों पर चढ़ कर पैदा हुआ था वह. दुख का उत्पीड़न सहती विद्या दी अपना मानसिक संतुलन लगभग खो ही बैठी थीं. 3 बहनों में सब से बड़ी विद्या दी की ऐसी अवस्था देख मझली सारिका ने अपना नवजात शिशु, जो उस की दूसरी संतान था, विद्या दी की गोद में डाल कर उन्हें उन के करोड़ों के व्यवसाय का उत्तराधिकारी दे दिया. बेटे को खो देने के दुख को, बेटा पा कर विद्या दी तहखानों के ढीठ अंधेरों में धकेल आईं. आरंभिक उदास, संकोची सी खुशी कुछ ही दिनों में उन के बुझे हुए चेहरे पर उन्मुक्त हो कर खिलखिला उठी.

इसे विडंबना ही कहेंगे कि तीनों बहनों में छोटी जूही के विवाह के 10 बरस बाद भी संतान का सुख प्राप्त नहीं हुआ था. ताउम्र निसंतान रह जाने से पतिपत्नी ने किसी बालक को गोद ले लेना बेहतर समझा. घर वाले विद्या दी की तरह ही किसी नातेदार के बच्चे को गोद लेने पर जोर देने लगे. परंतु उस दंपती के विचार में उस बच्चे को जिस दिन से उन रिश्तेदारों का अपने मातापिता होना पता चलेगा उसी दिन से वे दोनों उस के नाममात्र के ही मातापिता रह जाएंगे उन्होंने किसी ऐसे अनाथ बच्चे को गोद लेने का निश्चय किया जो उन की गोद में आने के बाद किसी और का न रह जाता हो.

परंतु लोगों ने किसी अनजाने अनाथ को गोद लेने में सैकड़ों भयानक खतरे बता डाले. जैसे, कौन जाने कौन जात का होगा, क्या पता किसी चोरउचक्के का ही खून हो. आंखों का, कानों का, गले का, दिलदिमाग का या फिर सब से बड़ा रोग एड्स ही ले कर आए. अनेक तर्कवितर्कों के बाद सम्मति बनी कि जानीमानी वंशपरंपरा के अभाव में सभ्य, संस्कारी लोग किसी अनजाने बच्चे को गोद नहीं ले सकते. परंतु जूही और उस के पति का निर्णय किसी के बहकाए नहीं बहका. उन्होंने बच्चे को सिर्फ और सिर्फ बच्चा जात का माना. तर्क रखा कि हमारे सभी रिश्तेदार हम से ज्यादा पैसे वाले हैं. ऐसे में हम उन के बच्चे की अधिक सुविधा वाली जिंदगी छीन कर अपना मध्यवर्गीय स्तर दे कर उस के साथ अन्याय ही करेंगे. हम क्यों न किसी ऐसे बच्चे को मातापिता के रिश्ते की सघन छांव दें जिस ने उस छांव के तले क्षणभर गुजारे बगैर ही उसे खो दिया. रही बच्चे के साथ आने वाले संभावित रोगों की बात, तो क्या आज तक किसी का अपना बच्चा कोई रोग ले कर नहीं आया. रोगों का तो आजकल क्या भरोसा, न जाने कितने लोगों को अस्पताल की गलती से एड्स से संक्रमित रोगी का रक्त चढ़ा दिया गया है. उन को एड्स होना तय है फिर वे कौन सी वंशपरंपरा के कहलाएंगे. ऐसे ही अनेक तर्क दे कर एक बड़े अस्पताल की नर्सरी से एक ऐसा शिशु गोद ले लिया गया जिस के मातापिता हमेशा जूही और उस का पति ही सिद्ध होने थे.

हर नवजात अपनी मां के लिए अनचीन्हा, अनदेखा ही होता है. कौन जाने अस्पतालों में स्टाफ की गलती से या कभी जानबूझ कर बच्चे बदल भी दिए जाते हों, कहां पहचान पाती हैं माताएं अपने नवजात को. विज्ञान के अनुसार, शिशु भले अपनी मां के गर्भ में ही उस की आवाज पहचानना सीख जाता हो पर बाहर आने पर वह भी उस के संकेत धीरेधीरे ही दे पाता है.

जूही के अनजाने बच्चे ने भी धीरेधीरे अपनी प्यारी मां को पहचान लेने के संकेत ठीक वैसे ही देने शुरू कर दिए थे जैसे कोई उस की अपनी ही कोख से जन्म ले कर देता. जब वह मातापिता को देख कर अद्भुत रूप भर मुसकराता तो कईकई पूर्व जन्मों से स्वयं को उन का अनन्य हिस्सा साबित कर देता. उस की किलकारियों के संगीत की नूतन धुनें उस दंपती के कानों में ठीक वैसे ही रस घोलतीं जैसे उन के खुद के जन्मे बच्चे की घोल पातीं. जब वह अपनी नन्हीनन्ही कोमल बांहें जूही और उस के पति के गले में पहना देता तो एक से एक नायाब फूलों की माला की रंगत भी पल में फीकी पड़ जाती. जब वह थोड़ा बड़ा हुआ तो उस दंपती को उस के हाथों अपनी वंशपरंपरा सुरक्षित दिखने लगी. उन्हें विश्वास हो गया कि अगर वे किसी संतान को जन्म दे पाते तो उस में और इस नन्हे बच्चे में कोई खास फर्क तो नहीं ही होता. विद्या दी का बेटा विलास और जूही का बेटा अविरल खूब लाड़प्यार में पलने लगे, विशेषकर विद्या दी का बेटा विलास. उस के अधिक लाड़प्यार का पहला कारण विद्या दी के दुख से जुड़ा था. अपने इकलौते बेटे को खो देने के बाद उस के हिस्से का लाड़प्यार वे स्वयं पर ऋण सरीखा समझती थीं, सो उसे विलास पर उड़ेल कर उऋण हो जाना चाहती थीं. दूसरा और शायद अधिक महत्त्वपूर्ण कारण था कि विद्या दी मझली के पति और उस के ससुरालियों को यह दिखा देना चाहती थीं कि उन की अपेक्षा उन के बेटे को उन से अधिक लाड़प्यार दे कर पाल रही हैं.

तीसरा कारण दूसरे से जुड़ा था, यह दिखाने का प्रयास कि उन की अपेक्षा वे उसे अधिक सुखसुविधाओ में पाल रही हैं. इसी धुन में विलास की हर जायजनाजायज बात मान ली जाती. परिणामस्वरूप उस की इच्छाएं दिन पर दिन बढ़ने लगी थीं. वह जो भी चीज जितनी मांगता, उस से अधिक मिलती. यही बात रुपयों पर भी लागू थी. विद्या दी के विवेकहीन प्यार का दुष्परिणाम जल्दी ही सामने आने लगा. विलास का ध्यान पढ़ाईलिखाई से पूरी तरह हट गया था. उस ने पैसे खर्च करना सीखने की उम्र से पहले ही उसे बरबाद करने के सैकड़ों तरीके खोज निकाले. उस ने धीरेधीरे विद्या दी के करोड़ों के कारोबार से अपना हाथ खींचना आरंभ कर दिया. करोड़ों का व्यापार लाखों में सिमटा, लाखों का हजारों में और हजारों से नीचे आने का अर्थ था पूरी तरह सिमटना. ‘जो चीज बढ़ती नहीं, घट जाती है,’ कहावत चरितार्थ हो गई.

ब तक, विलास की आदतें बिगड़ैल रईसों के जैसी हो गई थीं. पर विद्या दी में उस की जिदें पूरी करने की सामर्थ्य अब नहीं रह गई थी. शुरू में तो पैसों के लिए वह उन से मौखिक लड़ाइयां करता, बाद में उस ने धक्कामुक्की तक करना शुरू कर दिया. एक बार तो जूही और उस के बेटे अविरल के सामने ही उस ने विद्या दी को धक्का दे दिया था. उस दिन अविरल ने ही उन्हें गिरने से बचाया था और विलास को ऐसा न करने के लिए समझाना चाहा था पर वह उसे भी धकिया कर घर से बाहर निकल गया था. उस दिन विद्या दी ने अश्रुविगलित हो कर आंखों ही आंखों में जूही के तथाकथित संस्कारविहीन बेटे को सराहा था. उन की आंखों में ऐसी निरीहता दिखाई दी थी कि जैसे उस गाय की आंखों में जिसे कसाई बस काटना ही चाहता हो. उस दिन विद्या दी अपनी लाचारी पर तो बहुत रोईं परंतु स्वयं के अपने व्यवहार को उस दिन भी दोष नहीं दिया.

मझली बहन सारिका ने जब अपना बेटा विलास विद्या दी को सौंपा था तब विद्या दी सर्वसंपन्न थीं और सारिका सुखसुविधाओं में उन से काफी पीछे. परंतु अब सारिका के पति का व्यापार काफी बढ़ चुका था. अब सारिका स्वयं संपन्नता में रह कर अपने बेटे को पैसेपैसे के लिए लड़ते देख पश्चात्ताप से भर उठती. पैसे की कमी ने विलास को चोरी की लत लगा दी थी. अब उस के घर जो भी आता, वह उस के पर्स का बोझ थोड़ा हलका कर के ही भेजता. हद तो तब हो गई जब विलास ने स्कूल टीचर के पर्स से पैसे उड़ा लिए, एक बार नहीं कईकई बार. अनेक बार चेतावनी देने के बाद भी जब उस ने अपनी गलती को नहीं सुधारा बल्कि मारपिटाई और करने लगा तो प्रिंसिपल ने उसे स्कूल से निकाल दिया. अब उस की आवारगी प्रमाणित थी. उस की बरबादी का मार्ग पूरी तरह तब प्रशस्त हो गया जब विद्या दी के पति को लकवा मार गया और वे बिस्तर पर आ टिके. अथाह दौलत की मालकिन विद्या दी को घर का खर्च चलाने के लिए भी घर का आधा हिस्सा किराए पर देना पड़ा था.

विलास अब पूरी तरह स्वतंत्र था. अपनी आवारगी को अंजाम देने के लिए घर के सामान तक बेच आता. शराब पीता, ड्रग्स लेता, आएदिन लोगों से झगड़ा करता. पड़ोसियों ने उस की आदतों से आजिज आ कर उसे पुलिस के हवाले कर दिया. उस दिन उसे सारिका और उस का पति ही छुड़ा कर लाए, इस वादे के साथ कि वह जेल तक पहुंचने की कोई भी राह फिर कभी नहीं पकड़ेगा. परंतु वादों का स्थायित्व आचरण का अनुगामी होता है. वादा जल्दी ही टूट गया. जूही का बेटा अविरल सत्य से अनभिज्ञ था और वह दंपती अनभिज्ञ हो जाना चाहता था. सत्य की इस सुखद अनभिज्ञता में उन दोनों के चेतन मन तक ने धीरेधीरे सत्य को सचमुच ही धुंधला दिया. पुत्र से प्रेम और भी प्रगाढ़ हो गया. अब तो बस यही सच था कि जूही और उस का पति ही उस बच्चे के सगे मातापिता हैं जिन्होंने उस की राह के सब कांटों को समूल नष्ट कर दिया है. वरना क्या उन्हें उस के सगे मातापिता कहना होगा जिन्होंने निष्ठुरता की हद पार कर के उसे क्षणभर में अनाथ बना कर उस के रास्ते को अंगारों से पाट दिया था.

जूही और उस के पति ने अपने उस तथाकथित वंशहीन, जातिहीन, संस्कारविहीन संभावित रोगों की खान बेटे का पालनपोषण, सूझबूझ भरे मातापिता बन कर किया. उन्होंने अपनी शिक्षा और संस्कारों से उसे आपादमस्तक नहला दिया, अपने मनचाहे व्यवहार की शिक्षा को उस की रगरग में बहना सिखा दिया. कोरे कैनवास जैसे उस मासूम पर उन्होंने अपने मनपसंद दृष्टि लुभाते शीतल रंगों के साथ मनचाहे चित्र उकेरे. एक साधारण से बच्चे को असाधारण प्रयास कर समाज के हर क्षेत्र में मुंहबाए खड़ी प्रतियोगिताओं की कतार में सब से आगे ला खड़ा किया, जैसे किसी देसी आम के पौधे पर किसी बेहतरीन किस्म के आम की कलम लगा कर स्वादिष्ठ फल उतारे जाएं. उन दोनों के संतुलित लाड़प्यार और देखरेख ने उस अबोध के मन की सभी अवांछनीय उमंगों को स्थायी रूप से समाप्त कर दिया. विद्या दी अपनी संस्कारी बहन के निश्चित रूप से संस्कारी निकलने वाले पुत्र को भी अपनी अक्षम्य भूलों के अंधड़ में पाल कर संस्कारी नहीं बना पाई थीं. हर किसी की तरह अति ने उन्हें भी बुरा ही फल दिया था.

एक दिन विलास ने विद्या दी की अनुपस्थिति में उन के बचेखुचे गहनों को निकाल कर बेच दिया और हफ्तों के लिए घर से गायब हो गया. बिस्तर पर पड़े विद्या दी के पति विलास की विलासिता की जीत के आगे अपने जीवन की जंग हार गए. जिस दिन के लिए हिंदू समाज में लोग पुत्र की कामना करते हैं उसी दिन वह उन के साथ नहीं था और जब वह लौटा विद्या दी के पति के सभी कार्य हमेशा के लिए पूरे हो चुके थे. अब घर में विद्या दी और विलास ही रह गए थे. अब बेचने के लिए बरतनों और कपड़ों के सिवा कुछ बचा नहीं था. अपने नशे की आदतों को संतुष्ट करने के लिए विलास उन्हें भी बेच आता. विद्या दी को दबा माल निकालने का आदेश करता, नहीं मानने पर जान से मार डालने की भयावह धमकी देता. उस की सारी बांहें नशे के इंजैक्शन की सुइयों से छिदी रहतीं, घर में जगहजगह उस का संस्कारी खून टपका पड़ा रहता. अब उस के साथ विद्या दी को अपना जीवन खतरे में दिखाई देने लगा था. उन की अमीरी के समय उन की गोद में अपनी संतान डाल जाने वाली बहन ने उन की मुश्किल घड़ी में उन्हें दुखी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. अपने बेटे की बरबादी का दोष उस ने अकेली विद्या दी के सिर ही मढ़ा, किसी क्षण उन्हें अपने बेटे को गोद लेने के पश्चात्ताप से मुक्त नहीं होने दिया.

जूही ने अपने बच्चे को उस के छिन जाने के डर से रहित किसी के उलाहनों से भी इतर हो स्वतंत्र रूप से सिर्फ अपनी तरह पाला. अपनी उपस्थिति से वातावरण को सकारात्मक ऊर्जा से भर देने वाला उस का बेटा अब हट्टाकट्टा जवान हो कर नौसेना में इंजीनियर के पद पर कार्यरत था. उस ने अपने मातापिता को समाज में और भी सम्मानित बना दिया था. विद्या दी एक आवारा, नशेड़ी के साथ अपमानित और मृत्यु से मिलताजुलता जीवन जीने को अभिशप्त थीं. अपमानों और अभिशापों से भरे सैकड़ों दिनों में उस एक दिन विद्या दी के स्नान करते समय विलास ने उन की पुरानी अलमारी का ताला तोड़ लिया. कागजों से मेलजोल तो नहीं था उस का पर कुछ रुपए मिल जाने की फिराक में वह कागजों को उलटनेपलटने लगा. विद्या दी स्नान कर जल्दी ही आ गईं, उन्होंने उस के हाथ से वह फाइल छीननी चाही. फाइल की छीनाझपटी में एक पुराना सा पीला पड़ गया लिफाफा हवा में तैरता हुआ जमीन पर जा गिरा. विद्या दी उसे उठाने के लिए झुकी ही थीं कि विलास ने उन्हें धक्का दे कर वह लिफाफा उठा लिया. धक्का खा कर विद्या दी का सिर दीवार से टकराया और वे जमीन पर गिर गईं. उन की तरफ ध्यान दिए बगैर विलास लिफाफे को खोल कर पढ़ने लगा जिस में उस की सगी मां सारिका का उसे विद्या दी को सौंपने को ले कर पश्चात्ताप से भरा पत्र था जिस में उस ने अपने बेटे को वापस मांगने का विनम्र आग्रह किया था. परंतु विद्या दी का मन विलास से ऐसे जुड़ गया था जैसे जल से मीन. सो उन्होंने उस की वापसी से इनकार कर दिया.

सारिका ने बड़ी बहन की बात तो रखी परंतु कभी उन के घर जा कर, कभी विलास को अपने घर बुला कर उन्हें बताए बिना, किसी जरूरत के भी बिना उसे मुट्ठियां भरभर नोट पकड़ाने शुरू कर दिए. विद्या दी का विलास के लिए अंधा प्यार तो उसे बरबाद कर देने का सब से बड़ा अपराधी था ही, सारिका के कुतर्की व्यवहार ने भी छोटी भूमिका तो नहीं ही निभाई थी उसे आवारा बनाने में. विलास ने पत्र पढ़ लिया था. अब उस के हाथ कुबेर का दूसरा खजाना आ गया था बरबाद करने के लिए. वह विद्या दी से लड़ने के पूर्व कृत्य में उन्हें झंझोड़ने लगा था. पर वे अपने लाड़ले विलास को खो देने और फिर से निसंतान हो जाने के डर से भयभीत हो चुपचाप निकल गई थीं जीवन की जद्दोजहद से.

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चिकित्सा के उन्नत कहे जाने वाले युग को ऐसा कहा भी जाए या नहीं, कुछ घटनाएं घटते समय यह प्रश्न खड़ा कर देती हैं. वे घटनाएं आएदिन घट कर चिकित्सकों को तो अपना अभ्यस्त बना देती हैं लेकिन उन की कसमसाहट मिनटों, घंटों या कुछ दिनों तक ही सीमित रह जाती है. हद से हद फुरसत के क्षणों में कोई इक्कादुक्का डाक्टर उन्हें अपनी डायरी के पन्नों पर उतार लेता है. परंतु जिन के साथ वे घटी होती हैं उन के सीने में तो दर्द की स्थायी कील गाड़ देती हैं. विद्या दी अदने से मच्छर के कारण हुए डेंगू में अपने 10 वर्षीय बेटे को खो कर अपने सीने में दर्द की ऐसी ही अनगिनत कीलें गाड़ लाई थीं.

विवाह के कई वर्ष बाद, ऐलोपैथी, होम्योपैथी, गंडेतावीज, झाड़फूंक और निरी मन्नतों की बैसाखियों पर चढ़ कर पैदा हुआ था वह. दुख का उत्पीड़न सहती विद्या दी अपना मानसिक संतुलन लगभग खो ही बैठी थीं. 3 बहनों में सब से बड़ी विद्या दी की ऐसी अवस्था देख मझली सारिका ने अपना नवजात शिशु, जो उस की दूसरी संतान था, विद्या दी की गोद में डाल कर उन्हें उन के करोड़ों के व्यवसाय का उत्तराधिकारी दे दिया. बेटे को खो देने के दुख को, बेटा पा कर विद्या दी तहखानों के ढीठ अंधेरों में धकेल आईं. आरंभिक उदास, संकोची सी खुशी कुछ ही दिनों में उन के बुझे हुए चेहरे पर उन्मुक्त हो कर खिलखिला उठी.

इसे विडंबना ही कहेंगे कि तीनों बहनों में छोटी जूही के विवाह के 10 बरस बाद भी संतान का सुख प्राप्त नहीं हुआ था. ताउम्र निसंतान रह जाने से पतिपत्नी ने किसी बालक को गोद ले लेना बेहतर समझा. घर वाले विद्या दी की तरह ही किसी नातेदार के बच्चे को गोद लेने पर जोर देने लगे. परंतु उस दंपती के विचार में उस बच्चे को जिस दिन से उन रिश्तेदारों का अपने मातापिता होना पता चलेगा उसी दिन से वे दोनों उस के नाममात्र के ही मातापिता रह जाएंगे उन्होंने किसी ऐसे अनाथ बच्चे को गोद लेने का निश्चय किया जो उन की गोद में आने के बाद किसी और का न रह जाता हो.

परंतु लोगों ने किसी अनजाने अनाथ को गोद लेने में सैकड़ों भयानक खतरे बता डाले. जैसे, कौन जाने कौन जात का होगा, क्या पता किसी चोरउचक्के का ही खून हो. आंखों का, कानों का, गले का, दिलदिमाग का या फिर सब से बड़ा रोग एड्स ही ले कर आए. अनेक तर्कवितर्कों के बाद सम्मति बनी कि जानीमानी वंशपरंपरा के अभाव में सभ्य, संस्कारी लोग किसी अनजाने बच्चे को गोद नहीं ले सकते. परंतु जूही और उस के पति का निर्णय किसी के बहकाए नहीं बहका. उन्होंने बच्चे को सिर्फ और सिर्फ बच्चा जात का माना. तर्क रखा कि हमारे सभी रिश्तेदार हम से ज्यादा पैसे वाले हैं. ऐसे में हम उन के बच्चे की अधिक सुविधा वाली जिंदगी छीन कर अपना मध्यवर्गीय स्तर दे कर उस के साथ अन्याय ही करेंगे. हम क्यों न किसी ऐसे बच्चे को मातापिता के रिश्ते की सघन छांव दें जिस ने उस छांव के तले क्षणभर गुजारे बगैर ही उसे खो दिया. रही बच्चे के साथ आने वाले संभावित रोगों की बात, तो क्या आज तक किसी का अपना बच्चा कोई रोग ले कर नहीं आया. रोगों का तो आजकल क्या भरोसा, न जाने कितने लोगों को अस्पताल की गलती से एड्स से संक्रमित रोगी का रक्त चढ़ा दिया गया है. उन को एड्स होना तय है फिर वे कौन सी वंशपरंपरा के कहलाएंगे. ऐसे ही अनेक तर्क दे कर एक बड़े अस्पताल की नर्सरी से एक ऐसा शिशु गोद ले लिया गया जिस के मातापिता हमेशा जूही और उस का पति ही सिद्ध होने थे.

हर नवजात अपनी मां के लिए अनचीन्हा, अनदेखा ही होता है. कौन जाने अस्पतालों में स्टाफ की गलती से या कभी जानबूझ कर बच्चे बदल भी दिए जाते हों, कहां पहचान पाती हैं माताएं अपने नवजात को. विज्ञान के अनुसार, शिशु भले अपनी मां के गर्भ में ही उस की आवाज पहचानना सीख जाता हो पर बाहर आने पर वह भी उस के संकेत धीरेधीरे ही दे पाता है.

जूही के अनजाने बच्चे ने भी धीरेधीरे अपनी प्यारी मां को पहचान लेने के संकेत ठीक वैसे ही देने शुरू कर दिए थे जैसे कोई उस की अपनी ही कोख से जन्म ले कर देता. जब वह मातापिता को देख कर अद्भुत रूप भर मुसकराता तो कईकई पूर्व जन्मों से स्वयं को उन का अनन्य हिस्सा साबित कर देता. उस की किलकारियों के संगीत की नूतन धुनें उस दंपती के कानों में ठीक वैसे ही रस घोलतीं जैसे उन के खुद के जन्मे बच्चे की घोल पातीं. जब वह अपनी नन्हीनन्ही कोमल बांहें जूही और उस के पति के गले में पहना देता तो एक से एक नायाब फूलों की माला की रंगत भी पल में फीकी पड़ जाती. जब वह थोड़ा बड़ा हुआ तो उस दंपती को उस के हाथों अपनी वंशपरंपरा सुरक्षित दिखने लगी. उन्हें विश्वास हो गया कि अगर वे किसी संतान को जन्म दे पाते तो उस में और इस नन्हे बच्चे में कोई खास फर्क तो नहीं ही होता. विद्या दी का बेटा विलास और जूही का बेटा अविरल खूब लाड़प्यार में पलने लगे, विशेषकर विद्या दी का बेटा विलास. उस के अधिक लाड़प्यार का पहला कारण विद्या दी के दुख से जुड़ा था. अपने इकलौते बेटे को खो देने के बाद उस के हिस्से का लाड़प्यार वे स्वयं पर ऋण सरीखा समझती थीं, सो उसे विलास पर उड़ेल कर उऋण हो जाना चाहती थीं. दूसरा और शायद अधिक महत्त्वपूर्ण कारण था कि विद्या दी मझली के पति और उस के ससुरालियों को यह दिखा देना चाहती थीं कि उन की अपेक्षा उन के बेटे को उन से अधिक लाड़प्यार दे कर पाल रही हैं.

तीसरा कारण दूसरे से जुड़ा था, यह दिखाने का प्रयास कि उन की अपेक्षा वे उसे अधिक सुखसुविधाओ में पाल रही हैं. इसी धुन में विलास की हर जायजनाजायज बात मान ली जाती. परिणामस्वरूप उस की इच्छाएं दिन पर दिन बढ़ने लगी थीं. वह जो भी चीज जितनी मांगता, उस से अधिक मिलती. यही बात रुपयों पर भी लागू थी. विद्या दी के विवेकहीन प्यार का दुष्परिणाम जल्दी ही सामने आने लगा. विलास का ध्यान पढ़ाईलिखाई से पूरी तरह हट गया था. उस ने पैसे खर्च करना सीखने की उम्र से पहले ही उसे बरबाद करने के सैकड़ों तरीके खोज निकाले. उस ने धीरेधीरे विद्या दी के करोड़ों के कारोबार से अपना हाथ खींचना आरंभ कर दिया. करोड़ों का व्यापार लाखों में सिमटा, लाखों का हजारों में और हजारों से नीचे आने का अर्थ था पूरी तरह सिमटना. ‘जो चीज बढ़ती नहीं, घट जाती है,’ कहावत चरितार्थ हो गई.

ब तक, विलास की आदतें बिगड़ैल रईसों के जैसी हो गई थीं. पर विद्या दी में उस की जिदें पूरी करने की सामर्थ्य अब नहीं रह गई थी. शुरू में तो पैसों के लिए वह उन से मौखिक लड़ाइयां करता, बाद में उस ने धक्कामुक्की तक करना शुरू कर दिया. एक बार तो जूही और उस के बेटे अविरल के सामने ही उस ने विद्या दी को धक्का दे दिया था. उस दिन अविरल ने ही उन्हें गिरने से बचाया था और विलास को ऐसा न करने के लिए समझाना चाहा था पर वह उसे भी धकिया कर घर से बाहर निकल गया था. उस दिन विद्या दी ने अश्रुविगलित हो कर आंखों ही आंखों में जूही के तथाकथित संस्कारविहीन बेटे को सराहा था. उन की आंखों में ऐसी निरीहता दिखाई दी थी कि जैसे उस गाय की आंखों में जिसे कसाई बस काटना ही चाहता हो. उस दिन विद्या दी अपनी लाचारी पर तो बहुत रोईं परंतु स्वयं के अपने व्यवहार को उस दिन भी दोष नहीं दिया.

मझली बहन सारिका ने जब अपना बेटा विलास विद्या दी को सौंपा था तब विद्या दी सर्वसंपन्न थीं और सारिका सुखसुविधाओं में उन से काफी पीछे. परंतु अब सारिका के पति का व्यापार काफी बढ़ चुका था. अब सारिका स्वयं संपन्नता में रह कर अपने बेटे को पैसेपैसे के लिए लड़ते देख पश्चात्ताप से भर उठती. पैसे की कमी ने विलास को चोरी की लत लगा दी थी. अब उस के घर जो भी आता, वह उस के पर्स का बोझ थोड़ा हलका कर के ही भेजता. हद तो तब हो गई जब विलास ने स्कूल टीचर के पर्स से पैसे उड़ा लिए, एक बार नहीं कईकई बार. अनेक बार चेतावनी देने के बाद भी जब उस ने अपनी गलती को नहीं सुधारा बल्कि मारपिटाई और करने लगा तो प्रिंसिपल ने उसे स्कूल से निकाल दिया. अब उस की आवारगी प्रमाणित थी. उस की बरबादी का मार्ग पूरी तरह तब प्रशस्त हो गया जब विद्या दी के पति को लकवा मार गया और वे बिस्तर पर आ टिके. अथाह दौलत की मालकिन विद्या दी को घर का खर्च चलाने के लिए भी घर का आधा हिस्सा किराए पर देना पड़ा था.

विलास अब पूरी तरह स्वतंत्र था. अपनी आवारगी को अंजाम देने के लिए घर के सामान तक बेच आता. शराब पीता, ड्रग्स लेता, आएदिन लोगों से झगड़ा करता. पड़ोसियों ने उस की आदतों से आजिज आ कर उसे पुलिस के हवाले कर दिया. उस दिन उसे सारिका और उस का पति ही छुड़ा कर लाए, इस वादे के साथ कि वह जेल तक पहुंचने की कोई भी राह फिर कभी नहीं पकड़ेगा. परंतु वादों का स्थायित्व आचरण का अनुगामी होता है. वादा जल्दी ही टूट गया. जूही का बेटा अविरल सत्य से अनभिज्ञ था और वह दंपती अनभिज्ञ हो जाना चाहता था. सत्य की इस सुखद अनभिज्ञता में उन दोनों के चेतन मन तक ने धीरेधीरे सत्य को सचमुच ही धुंधला दिया. पुत्र से प्रेम और भी प्रगाढ़ हो गया. अब तो बस यही सच था कि जूही और उस का पति ही उस बच्चे के सगे मातापिता हैं जिन्होंने उस की राह के सब कांटों को समूल नष्ट कर दिया है. वरना क्या उन्हें उस के सगे मातापिता कहना होगा जिन्होंने निष्ठुरता की हद पार कर के उसे क्षणभर में अनाथ बना कर उस के रास्ते को अंगारों से पाट दिया था.

जूही और उस के पति ने अपने उस तथाकथित वंशहीन, जातिहीन, संस्कारविहीन संभावित रोगों की खान बेटे का पालनपोषण, सूझबूझ भरे मातापिता बन कर किया. उन्होंने अपनी शिक्षा और संस्कारों से उसे आपादमस्तक नहला दिया, अपने मनचाहे व्यवहार की शिक्षा को उस की रगरग में बहना सिखा दिया. कोरे कैनवास जैसे उस मासूम पर उन्होंने अपने मनपसंद दृष्टि लुभाते शीतल रंगों के साथ मनचाहे चित्र उकेरे. एक साधारण से बच्चे को असाधारण प्रयास कर समाज के हर क्षेत्र में मुंहबाए खड़ी प्रतियोगिताओं की कतार में सब से आगे ला खड़ा किया, जैसे किसी देसी आम के पौधे पर किसी बेहतरीन किस्म के आम की कलम लगा कर स्वादिष्ठ फल उतारे जाएं. उन दोनों के संतुलित लाड़प्यार और देखरेख ने उस अबोध के मन की सभी अवांछनीय उमंगों को स्थायी रूप से समाप्त कर दिया. विद्या दी अपनी संस्कारी बहन के निश्चित रूप से संस्कारी निकलने वाले पुत्र को भी अपनी अक्षम्य भूलों के अंधड़ में पाल कर संस्कारी नहीं बना पाई थीं. हर किसी की तरह अति ने उन्हें भी बुरा ही फल दिया था.

एक दिन विलास ने विद्या दी की अनुपस्थिति में उन के बचेखुचे गहनों को निकाल कर बेच दिया और हफ्तों के लिए घर से गायब हो गया. बिस्तर पर पड़े विद्या दी के पति विलास की विलासिता की जीत के आगे अपने जीवन की जंग हार गए. जिस दिन के लिए हिंदू समाज में लोग पुत्र की कामना करते हैं उसी दिन वह उन के साथ नहीं था और जब वह लौटा विद्या दी के पति के सभी कार्य हमेशा के लिए पूरे हो चुके थे. अब घर में विद्या दी और विलास ही रह गए थे. अब बेचने के लिए बरतनों और कपड़ों के सिवा कुछ बचा नहीं था. अपने नशे की आदतों को संतुष्ट करने के लिए विलास उन्हें भी बेच आता. विद्या दी को दबा माल निकालने का आदेश करता, नहीं मानने पर जान से मार डालने की भयावह धमकी देता. उस की सारी बांहें नशे के इंजैक्शन की सुइयों से छिदी रहतीं, घर में जगहजगह उस का संस्कारी खून टपका पड़ा रहता. अब उस के साथ विद्या दी को अपना जीवन खतरे में दिखाई देने लगा था. उन की अमीरी के समय उन की गोद में अपनी संतान डाल जाने वाली बहन ने उन की मुश्किल घड़ी में उन्हें दुखी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. अपने बेटे की बरबादी का दोष उस ने अकेली विद्या दी के सिर ही मढ़ा, किसी क्षण उन्हें अपने बेटे को गोद लेने के पश्चात्ताप से मुक्त नहीं होने दिया.

जूही ने अपने बच्चे को उस के छिन जाने के डर से रहित किसी के उलाहनों से भी इतर हो स्वतंत्र रूप से सिर्फ अपनी तरह पाला. अपनी उपस्थिति से वातावरण को सकारात्मक ऊर्जा से भर देने वाला उस का बेटा अब हट्टाकट्टा जवान हो कर नौसेना में इंजीनियर के पद पर कार्यरत था. उस ने अपने मातापिता को समाज में और भी सम्मानित बना दिया था. विद्या दी एक आवारा, नशेड़ी के साथ अपमानित और मृत्यु से मिलताजुलता जीवन जीने को अभिशप्त थीं. अपमानों और अभिशापों से भरे सैकड़ों दिनों में उस एक दिन विद्या दी के स्नान करते समय विलास ने उन की पुरानी अलमारी का ताला तोड़ लिया. कागजों से मेलजोल तो नहीं था उस का पर कुछ रुपए मिल जाने की फिराक में वह कागजों को उलटनेपलटने लगा. विद्या दी स्नान कर जल्दी ही आ गईं, उन्होंने उस के हाथ से वह फाइल छीननी चाही. फाइल की छीनाझपटी में एक पुराना सा पीला पड़ गया लिफाफा हवा में तैरता हुआ जमीन पर जा गिरा. विद्या दी उसे उठाने के लिए झुकी ही थीं कि विलास ने उन्हें धक्का दे कर वह लिफाफा उठा लिया. धक्का खा कर विद्या दी का सिर दीवार से टकराया और वे जमीन पर गिर गईं. उन की तरफ ध्यान दिए बगैर विलास लिफाफे को खोल कर पढ़ने लगा जिस में उस की सगी मां सारिका का उसे विद्या दी को सौंपने को ले कर पश्चात्ताप से भरा पत्र था जिस में उस ने अपने बेटे को वापस मांगने का विनम्र आग्रह किया था. परंतु विद्या दी का मन विलास से ऐसे जुड़ गया था जैसे जल से मीन. सो उन्होंने उस की वापसी से इनकार कर दिया.

सारिका ने बड़ी बहन की बात तो रखी परंतु कभी उन के घर जा कर, कभी विलास को अपने घर बुला कर उन्हें बताए बिना, किसी जरूरत के भी बिना उसे मुट्ठियां भरभर नोट पकड़ाने शुरू कर दिए. विद्या दी का विलास के लिए अंधा प्यार तो उसे बरबाद कर देने का सब से बड़ा अपराधी था ही, सारिका के कुतर्की व्यवहार ने भी छोटी भूमिका तो नहीं ही निभाई थी उसे आवारा बनाने में. विलास ने पत्र पढ़ लिया था. अब उस के हाथ कुबेर का दूसरा खजाना आ गया था बरबाद करने के लिए. वह विद्या दी से लड़ने के पूर्व कृत्य में उन्हें झंझोड़ने लगा था. पर वे अपने लाड़ले विलास को खो देने और फिर से निसंतान हो जाने के डर से भयभीत हो चुपचाप निकल गई थीं जीवन की जद्दोजहद से.

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March 31, 2020 at 10:00AM

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