Sunday 29 March 2020

नीलाम होते गांव: भाग 3

लेखक-श्री धरण सिंह

एक शाम जब विश्वासनाथ आरामकुरसी में सुस्ता रहे थे, तभी पास बैठी सौदामिनी बोल उठी, ‘देखिए जी, अब मकान बन गया है. दोनों बच्चों की शादी भी हो गई है. नरेन कहता है कि वह अभी ब्याह नहीं करेगा. वह व्यापार करना चाहता है.’

‘व्यापार? माने किस चीज का व्यापार?’ विश्वास दा ने पूछा.

‘वह ड्राइविंग सीख रहा है न. उसे सैलानियों को घुमाने के लिए टूरिस्ट गाड़ी चाहिए. वह कहता है कि 5 लाख रुपए तो चाहिए ही होंगे.’

‘हूं,’ उन्होंने सिर हिलाया.

‘तो क्यों न बचे हुए रुपए हम बच्चों में बांट दें. इतने रुपयों का हम क्या करेंगे. पता नहीं, कब ऊपर से बुलावा आ जाए,’ उस ने एक लंबी सांस खींची. तभी खांसी का एक दौरा उठा जो उसे निढाल कर गया.

‘ऐसे नहीं बोलो सौदामिनी, चलो, भीतर जा कर लेट जाओ,’ विश्वास दा ने कहा. तभी बहू ने मांजी की अलमारी से ‘इन्हेलर’ मशीन ला कर दी जो सौदामिनी के शहर के एक डाक्टर ने दी थी. थोड़ी दवा लेने के बाद वह अब पलंग पर लेट गई थी.

अगले सप्ताह पत्नी के कहने पर हीरेन, नरेन के अकाउंट खुलवा कर विश्वासनाथ ने 30 लाख रुपए हर एक के खाते में डलवा दिए. दामाद को भी 30 लाख रुपए नकदी देने का फैसला किया गया.

बड़े बेटे की बहू चूंकि शहर की थी, उस ने धीरेधीरे हीरेन को शहर जाने के लिए मना लिया था. दोनों ने शहर जा कर एक नया बनाबनाया मकान ले लिया था. छोटे बेटे नरेन ने 2 टूरिस्ट गाडि़यां और्डर दे कर मंगवा ली थीं, जो देशीविदेशी टूरिस्टों को पूरे हैवलौक द्वीप में घुमाती थीं. गाडि़यों से अच्छी आय होने लगी थी. लेकिन सैलानियों को घुमातेघुमाते उस की आदतें अब कुछ बिगड़ने लगी थीं.

कुछ यारदोस्तों की संगति में उसे शराब की बुरी लत लग गई थी. कुछ विदेशी लोग भी उसे शराब की बोतलें बतौर तोहफे दे जाते थे.

इस बीच, अभिलाष को बेंगलुरु में होटल मैनेजमैंट की पढ़ाई के लिए सीट मिल गई थी. कृष्णानगर में सब्जियों की पैदावार से उन्हें कोई अच्छी आय नहीं हो रही थी. उस के पिता ने उस की पढ़ाई के खर्चे के लिए विश्वासनाथ से कुछ रुपए मांगे थे. सौदामिनी के मन में भी उस लड़के के लिए जगह थी. उस ने ही तो उन्हें ये दिन दिखलाए थे. सौदामिनी की सहमति से विश्वासनाथ ने उसे 3 लाख रुपए दिए थे. अभिलाष सब का सहयोग पा कर अपनी पढ़ाई करने चला गया इस बीच, होली के एक दिन राधानगर सागरतट से नरेन अपनी मोटरसाइकिल से दोस्तों की टोलियों के साथ वापस लौट रहा था. उस की मोटरसाइकिल एक पेड़ से टकरा कर दुर्घटनाग्रस्त हो गई. दुर्घटनास्थल पर ही नरेन की मृत्यु हो गई. दोस्त उस के शव को घर लाए. सौदामिनी ने ज्यों ही अपने मृत बेटे का शव देखा, दहाड़ मार कर रोने लगी. विश्वासनाथ का भी बुरा हाल था. शव को शाम तक घर में रखा गया. शाम तक सभी रिश्तेदार पहुंच गए थे. विजयनगर के समुद्रतट के पास उस के शव का अंतिम संस्कार किया गया.

नरेन की मृत्यु के बाद सौदामिनी की तबीयत दिन पर दिन बिगड़ती जा रही थी. विश्वासनाथ उसे शहर के डाक्टर को दिखाने ले गए. हीरेन भी साथ था. डाक्टर ने विश्वासनाथ को अलग से बताया कि मांजी को फेफड़ों का रोग है. विश्वासनाथ के पैरों के नीचे से जैसे जमीन खिसक गई. डाक्टर ने कुछ महंगी दवाएं दीं. दवा ले कर वे लौट आए. अब बहू अनुराधा अपनी सासू मां को ज्यादा कामकाज न करने देती थी. वह उन का खयाल रखती थी. मांजी का खानापीना, दवा, बिस्तर, सब सही ढंग से करती थी. जैसे फिर उसे यह मौका मिले, न मिले. सौदामिनी को जबतब खांसी का दौरा पड़ता रहता.

दिसंबर के उमस भरे दिन आ गए थे और रातें थीं कि कड़ाकेदार ठंडी. सौदामिनी की सेहत इन्हीं दिनों डांवांडोल होने लगी. एक रात अचानक उस को जोर की खांसी उठी. सांसें उल्टी चलने लगीं. और पलभर में उस की सांसें रुक गई थीं. उस रात सभी उस के पास थे. ‘हम को अकेला छोड़ कर चली गई रे, अब मैं कैसे जिऊंगा…’ विश्वासनाथ पत्नी को सीने में समेट कर रोने लगे. पता नहीं नियति ने वश्वासनाथ के साथ कैसी लीला रची है, पहले बेटा गया अब पत्नी. दीपशिखा और जमाई को फोन द्वारा सूचित कर दिया गया. गांव के लोग भी आ जुटे थे.

दोपहर के बाद दीपशिखा और दामाद आ गए थे. दीपशिखा के ब्याह को अभी बरसभर ही तो हुआ था, अपनी मां के शव पर वह दहाड़ मार कर रो रही थी. शाम होतेहोते उसी जगह, जहां पर 10 महीने पहले बेटे के शव को जलाया गया था, बड़े बेटे हीरेन ने अपनी मां को वहीं विदाई दी. अब किसी को भी उस गांव में अच्छा नहीं लग रहा था, जैसे कोई शापित गांव हो. 1 महीने के बाद हीरेन और बहू अनुराधा ने बाबूजी को पोर्टब्लेयर शहर आने को कहा, जहां पर उन्होंने मकान ले लिया था. दीपशिखा और जमाई ने भी उन्हें न्योता दिया था उन के साथ आ कर रहने के लिए. विश्वासनाथ ने उन से माफी मांगी और कहा, ‘बच्चो, इसी गांव में हमारी जिंदगी बदली. यहीं हम ने सबकुछ पाया और यहीं हम ने अपना सबकुछ खोया. मेरे बेटे की यादें यहीं बसी हैं. तुम्हारी मां की यादें भी इस जगह बसी हुई हैं. हम कहीं नहीं जाएंगे, बेटे,’ फिर लक्ष्मण से कहा, ‘भाई, तेरे लिए मैं कुछ नहीं कर सका.’

‘नहीं दादा, मैं कुछ नहीं चाहता. बस, आप के साथ रहना चाहता हूं,’ कहते हुए वह रोने लगा.

इतने बड़े मकान में विश्वासनाथ कैसे अकेले रह सकते थे. सो, बहूबेटे, दामाद के कहने पर उन्होंने वह मकान भी बेच दिया. किसी रिसोर्ट के मालिक ने उसे खरीद लिया जहां गोताखोरी की ट्रेनिंग का केंद्र बनाया गया. वहां से सागर तट बहुत नजदीक पड़ता था. इस से मिली रकम को बड़े बेटे और बेटी के नाम बैंक में उन्होंने डलवा दिए. लक्ष्मण को भी उस ने जेटी में एक बढि़या ढाबा खुलवा दिया. वह अब अपना जीवन सुधार ही लेगा, इस विश्वास से. हीरेन ने आखिरी बार अपने बापू को अपने साथ चलने को कहा था लेकिन उन की प्रतिज्ञा को अब कोई भी तोड़ नहीं सकता था. एक वह दिन था, एक यह दिन है. यही है वह अभिलाष जो रिसोर्ट का मैनेजर बन गया है, जिस पर विश्वासनाथ के कितने एहसान हैं. अभिलाष ही उस के एकाकी दिनों में उन का अभयदाता बना हुआ है.

फरवरी महीने का एक सुहाना दिन था. हर दिन की तरह विश्वासनाथ होटल के लौन में फूलों के पौधों को सींच रहे थे. वे अलबत्ता कुछ खांस भी रहे थे, ‘‘दादा, मैं जरा इन्हें राधानगर बीच दिखा लाऊं,’’ यह अभिलाष की आवाज थी.

दादा ने घूम कर देखा, एक युवा जोड़ा सामने खड़ा था.

‘‘बेटा, शाम तक आ जाओगे न?’’ दादा ने पूछा.

‘‘हां, हां, जल्दी आ जाऊंगा,’’ अभिलाष ने कहा.

वे अब जीप में बैठ चुके थे. वास्तव में अभिलाष ने ही उन दोनों को ‘हैवलौक’ देखने के लिए न्योता दिया था. युवक का नाम समीर था. बेंगलुरु में कालेज के दिनों में उन की दोस्ती हुई थी. साथ में उस की पत्नी नेहा थी.

शाम 6 बजे तक वे होटल लौट आए थे. तभी अभिलाष से किसी ने कहा कि विश्वासनाथ की तबीयत कुछ ठीक नहीं है. उन्हें चक्कर आए हैं और शारीरिक कमजोरी भी है. अभिलाष तुरंत उन के आउटहाउस वाले कमरे में पहुंचा. उस ने देखा, दादा एकदम निढाल पड़े हैं. उस ने सोचा कि मित्रों को ले कर वह राधानगर गया ही क्यों. पर अब क्या किया जाए, तुरंत उस ने गांव के डाक्टर को दिखाने का फैसला किया. उस ने होटल के ड्राइवर को शीघ्र बुलवाया. गाड़ी निकाली और डाक्टर को दिखला लाया. डाक्टर ने जांच कर बताया कि उन्हें बेहद कमजोरी थी, रक्तचाप भी बढ़ चुका था. डाक्टर ने उन्हें शहर ले जाने के लिए कहा, साथ ही ताकत की कुछ दवा दे दी थी. विश्वासनाथ को कुछ खाने का मन ही नहीं था. अभिलाष के कहने पर बड़ी मुश्किल से उन्होंने 2 निवाले पेट में डाले. अभिलाष ने उन्हें डाक्टर की दी हुई गोली खिलाई. उन्होंने तुरंत अभिलाष के हाथों को अपने बूढ़े हाथों में लिया. आंसू का एक गरम कतरा अभिलाष के हाथों पर गिर पड़ा.

‘‘दादा, आप फिक्र न करें. मैं हूं न. सुबह हम शहर चलेंगे. आप आराम कीजिए, ठीक है?’’ अभिलाष ने उन्हें सांत्वना दी. उस ने दादा को चादर ओढ़ा दी और कमरे से बाहर चला गया.

वह रात अभिलाष पर भारी गुजरी. अगली सुबह जागते ही वह विश्वासनाथ के कमरे की ओर बढ़ा. ज्यों ही कमरे में पहुंचा, वह अवाक् रह गया. बिस्तर पर विश्वासनाथ का सिर एक ओर लुढ़का हुआ था. उन के शरीर को हाथों से हिलाया, ‘‘दादा, दादा, उठिए, शहर नहीं जाना है क्या?’’ अभिलाष ने जोर से पुकारा, पर वे कहां उठते.

तभी उस ने बाहर जा कर होटल के एक कारिंदे को बुलाया जिस ने आ कर अपनी हथेली उन की नाक पर रखी. उन के प्राण पखेरू उड़ चुके थे. कारिंदे ने उन की पलकों को बंद किया फिर उन के शरीर को पलंग पर सीधे लिटा दिया और अभिलाष को इशारे से बताया.

अभिलाष के आंसू निकल आए. वह सिसकसिसक कर रोने लगा जैसे वह उन का सगा बेटा हो. होटल में हड़बड़ी मच गई. सभी कर्मचारी और अन्य लोग आ जुटे. समीर और नेहा भी आ गए. वे रोते हुए अभिलाष को ढाढ़स देने लगे. एक घंटे बाद विश्वासनाथ का भाई लक्ष्मण भी जेटी से आ पहुंचा. अपने भैया के सिरहाने बैठ कर वह फूटफूट कर रोने लगा. किसी तरह से सब लोगों को खबर दी गई. शाम होने से पहले शव का क्रियाकर्म किया जाना था. सभी आखिरी स्टीमर के आने तक राह देखते रहे, शायद शहर से बेटा आ जाए या दूर द्वीप से जंवाई बेटी आ जाएं. पर तब तक कोई नहीं पहुंच पाया, पता नहीं क्यों.

तब लक्ष्मण ने अभिलाष से कहा, ‘‘अब हम प्रतीक्षा नहीं कर सकते.’’

कभी करोड़पति रहे विश्वासनाथ का पूरे हैवलौक में कहां ठिकाना था. अभिलाष ने सारा इंतजाम कर लिया था. शव को राधानगर ले जाया गया. सागरतट से दूर बादाम और महुए के पेड़ों के झुरमुट में एक खाली जगह पर उन के शव को ले जाया गया. शव जलाने की लकडि़यां रखी थीं. उन का छोटा भाई लक्ष्मण के चेहरे पर अकथनीय दुख की छाया थी. अभिलाष भी लक्ष्मण की तरह धोती पहने शव के पास खड़ा था चेहरे पर कर्तव्यनिष्ठ भाव लिए. हैवलौक के पश्चिमी किनारे पर सूर्य डूब रहा था पर आज के सूर्य की 0किरणें सिंदूरी आभा लिए नहीं थीं, उन का रंग शायद खूनी लाल था. लक्ष्मण जैसा छोटा भाई शायद कहीं भी न हो, अभिलाष जैसा बेटा इस युग में ढूंढ़े से भी न मिले पर विश्वासनाथ जैसे विस्थापित जिंदगी जीने वाले और भी होंगे, शायद.

 

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लेखक-श्री धरण सिंह

एक शाम जब विश्वासनाथ आरामकुरसी में सुस्ता रहे थे, तभी पास बैठी सौदामिनी बोल उठी, ‘देखिए जी, अब मकान बन गया है. दोनों बच्चों की शादी भी हो गई है. नरेन कहता है कि वह अभी ब्याह नहीं करेगा. वह व्यापार करना चाहता है.’

‘व्यापार? माने किस चीज का व्यापार?’ विश्वास दा ने पूछा.

‘वह ड्राइविंग सीख रहा है न. उसे सैलानियों को घुमाने के लिए टूरिस्ट गाड़ी चाहिए. वह कहता है कि 5 लाख रुपए तो चाहिए ही होंगे.’

‘हूं,’ उन्होंने सिर हिलाया.

‘तो क्यों न बचे हुए रुपए हम बच्चों में बांट दें. इतने रुपयों का हम क्या करेंगे. पता नहीं, कब ऊपर से बुलावा आ जाए,’ उस ने एक लंबी सांस खींची. तभी खांसी का एक दौरा उठा जो उसे निढाल कर गया.

‘ऐसे नहीं बोलो सौदामिनी, चलो, भीतर जा कर लेट जाओ,’ विश्वास दा ने कहा. तभी बहू ने मांजी की अलमारी से ‘इन्हेलर’ मशीन ला कर दी जो सौदामिनी के शहर के एक डाक्टर ने दी थी. थोड़ी दवा लेने के बाद वह अब पलंग पर लेट गई थी.

अगले सप्ताह पत्नी के कहने पर हीरेन, नरेन के अकाउंट खुलवा कर विश्वासनाथ ने 30 लाख रुपए हर एक के खाते में डलवा दिए. दामाद को भी 30 लाख रुपए नकदी देने का फैसला किया गया.

बड़े बेटे की बहू चूंकि शहर की थी, उस ने धीरेधीरे हीरेन को शहर जाने के लिए मना लिया था. दोनों ने शहर जा कर एक नया बनाबनाया मकान ले लिया था. छोटे बेटे नरेन ने 2 टूरिस्ट गाडि़यां और्डर दे कर मंगवा ली थीं, जो देशीविदेशी टूरिस्टों को पूरे हैवलौक द्वीप में घुमाती थीं. गाडि़यों से अच्छी आय होने लगी थी. लेकिन सैलानियों को घुमातेघुमाते उस की आदतें अब कुछ बिगड़ने लगी थीं.

कुछ यारदोस्तों की संगति में उसे शराब की बुरी लत लग गई थी. कुछ विदेशी लोग भी उसे शराब की बोतलें बतौर तोहफे दे जाते थे.

इस बीच, अभिलाष को बेंगलुरु में होटल मैनेजमैंट की पढ़ाई के लिए सीट मिल गई थी. कृष्णानगर में सब्जियों की पैदावार से उन्हें कोई अच्छी आय नहीं हो रही थी. उस के पिता ने उस की पढ़ाई के खर्चे के लिए विश्वासनाथ से कुछ रुपए मांगे थे. सौदामिनी के मन में भी उस लड़के के लिए जगह थी. उस ने ही तो उन्हें ये दिन दिखलाए थे. सौदामिनी की सहमति से विश्वासनाथ ने उसे 3 लाख रुपए दिए थे. अभिलाष सब का सहयोग पा कर अपनी पढ़ाई करने चला गया इस बीच, होली के एक दिन राधानगर सागरतट से नरेन अपनी मोटरसाइकिल से दोस्तों की टोलियों के साथ वापस लौट रहा था. उस की मोटरसाइकिल एक पेड़ से टकरा कर दुर्घटनाग्रस्त हो गई. दुर्घटनास्थल पर ही नरेन की मृत्यु हो गई. दोस्त उस के शव को घर लाए. सौदामिनी ने ज्यों ही अपने मृत बेटे का शव देखा, दहाड़ मार कर रोने लगी. विश्वासनाथ का भी बुरा हाल था. शव को शाम तक घर में रखा गया. शाम तक सभी रिश्तेदार पहुंच गए थे. विजयनगर के समुद्रतट के पास उस के शव का अंतिम संस्कार किया गया.

नरेन की मृत्यु के बाद सौदामिनी की तबीयत दिन पर दिन बिगड़ती जा रही थी. विश्वासनाथ उसे शहर के डाक्टर को दिखाने ले गए. हीरेन भी साथ था. डाक्टर ने विश्वासनाथ को अलग से बताया कि मांजी को फेफड़ों का रोग है. विश्वासनाथ के पैरों के नीचे से जैसे जमीन खिसक गई. डाक्टर ने कुछ महंगी दवाएं दीं. दवा ले कर वे लौट आए. अब बहू अनुराधा अपनी सासू मां को ज्यादा कामकाज न करने देती थी. वह उन का खयाल रखती थी. मांजी का खानापीना, दवा, बिस्तर, सब सही ढंग से करती थी. जैसे फिर उसे यह मौका मिले, न मिले. सौदामिनी को जबतब खांसी का दौरा पड़ता रहता.

दिसंबर के उमस भरे दिन आ गए थे और रातें थीं कि कड़ाकेदार ठंडी. सौदामिनी की सेहत इन्हीं दिनों डांवांडोल होने लगी. एक रात अचानक उस को जोर की खांसी उठी. सांसें उल्टी चलने लगीं. और पलभर में उस की सांसें रुक गई थीं. उस रात सभी उस के पास थे. ‘हम को अकेला छोड़ कर चली गई रे, अब मैं कैसे जिऊंगा…’ विश्वासनाथ पत्नी को सीने में समेट कर रोने लगे. पता नहीं नियति ने वश्वासनाथ के साथ कैसी लीला रची है, पहले बेटा गया अब पत्नी. दीपशिखा और जमाई को फोन द्वारा सूचित कर दिया गया. गांव के लोग भी आ जुटे थे.

दोपहर के बाद दीपशिखा और दामाद आ गए थे. दीपशिखा के ब्याह को अभी बरसभर ही तो हुआ था, अपनी मां के शव पर वह दहाड़ मार कर रो रही थी. शाम होतेहोते उसी जगह, जहां पर 10 महीने पहले बेटे के शव को जलाया गया था, बड़े बेटे हीरेन ने अपनी मां को वहीं विदाई दी. अब किसी को भी उस गांव में अच्छा नहीं लग रहा था, जैसे कोई शापित गांव हो. 1 महीने के बाद हीरेन और बहू अनुराधा ने बाबूजी को पोर्टब्लेयर शहर आने को कहा, जहां पर उन्होंने मकान ले लिया था. दीपशिखा और जमाई ने भी उन्हें न्योता दिया था उन के साथ आ कर रहने के लिए. विश्वासनाथ ने उन से माफी मांगी और कहा, ‘बच्चो, इसी गांव में हमारी जिंदगी बदली. यहीं हम ने सबकुछ पाया और यहीं हम ने अपना सबकुछ खोया. मेरे बेटे की यादें यहीं बसी हैं. तुम्हारी मां की यादें भी इस जगह बसी हुई हैं. हम कहीं नहीं जाएंगे, बेटे,’ फिर लक्ष्मण से कहा, ‘भाई, तेरे लिए मैं कुछ नहीं कर सका.’

‘नहीं दादा, मैं कुछ नहीं चाहता. बस, आप के साथ रहना चाहता हूं,’ कहते हुए वह रोने लगा.

इतने बड़े मकान में विश्वासनाथ कैसे अकेले रह सकते थे. सो, बहूबेटे, दामाद के कहने पर उन्होंने वह मकान भी बेच दिया. किसी रिसोर्ट के मालिक ने उसे खरीद लिया जहां गोताखोरी की ट्रेनिंग का केंद्र बनाया गया. वहां से सागर तट बहुत नजदीक पड़ता था. इस से मिली रकम को बड़े बेटे और बेटी के नाम बैंक में उन्होंने डलवा दिए. लक्ष्मण को भी उस ने जेटी में एक बढि़या ढाबा खुलवा दिया. वह अब अपना जीवन सुधार ही लेगा, इस विश्वास से. हीरेन ने आखिरी बार अपने बापू को अपने साथ चलने को कहा था लेकिन उन की प्रतिज्ञा को अब कोई भी तोड़ नहीं सकता था. एक वह दिन था, एक यह दिन है. यही है वह अभिलाष जो रिसोर्ट का मैनेजर बन गया है, जिस पर विश्वासनाथ के कितने एहसान हैं. अभिलाष ही उस के एकाकी दिनों में उन का अभयदाता बना हुआ है.

फरवरी महीने का एक सुहाना दिन था. हर दिन की तरह विश्वासनाथ होटल के लौन में फूलों के पौधों को सींच रहे थे. वे अलबत्ता कुछ खांस भी रहे थे, ‘‘दादा, मैं जरा इन्हें राधानगर बीच दिखा लाऊं,’’ यह अभिलाष की आवाज थी.

दादा ने घूम कर देखा, एक युवा जोड़ा सामने खड़ा था.

‘‘बेटा, शाम तक आ जाओगे न?’’ दादा ने पूछा.

‘‘हां, हां, जल्दी आ जाऊंगा,’’ अभिलाष ने कहा.

वे अब जीप में बैठ चुके थे. वास्तव में अभिलाष ने ही उन दोनों को ‘हैवलौक’ देखने के लिए न्योता दिया था. युवक का नाम समीर था. बेंगलुरु में कालेज के दिनों में उन की दोस्ती हुई थी. साथ में उस की पत्नी नेहा थी.

शाम 6 बजे तक वे होटल लौट आए थे. तभी अभिलाष से किसी ने कहा कि विश्वासनाथ की तबीयत कुछ ठीक नहीं है. उन्हें चक्कर आए हैं और शारीरिक कमजोरी भी है. अभिलाष तुरंत उन के आउटहाउस वाले कमरे में पहुंचा. उस ने देखा, दादा एकदम निढाल पड़े हैं. उस ने सोचा कि मित्रों को ले कर वह राधानगर गया ही क्यों. पर अब क्या किया जाए, तुरंत उस ने गांव के डाक्टर को दिखाने का फैसला किया. उस ने होटल के ड्राइवर को शीघ्र बुलवाया. गाड़ी निकाली और डाक्टर को दिखला लाया. डाक्टर ने जांच कर बताया कि उन्हें बेहद कमजोरी थी, रक्तचाप भी बढ़ चुका था. डाक्टर ने उन्हें शहर ले जाने के लिए कहा, साथ ही ताकत की कुछ दवा दे दी थी. विश्वासनाथ को कुछ खाने का मन ही नहीं था. अभिलाष के कहने पर बड़ी मुश्किल से उन्होंने 2 निवाले पेट में डाले. अभिलाष ने उन्हें डाक्टर की दी हुई गोली खिलाई. उन्होंने तुरंत अभिलाष के हाथों को अपने बूढ़े हाथों में लिया. आंसू का एक गरम कतरा अभिलाष के हाथों पर गिर पड़ा.

‘‘दादा, आप फिक्र न करें. मैं हूं न. सुबह हम शहर चलेंगे. आप आराम कीजिए, ठीक है?’’ अभिलाष ने उन्हें सांत्वना दी. उस ने दादा को चादर ओढ़ा दी और कमरे से बाहर चला गया.

वह रात अभिलाष पर भारी गुजरी. अगली सुबह जागते ही वह विश्वासनाथ के कमरे की ओर बढ़ा. ज्यों ही कमरे में पहुंचा, वह अवाक् रह गया. बिस्तर पर विश्वासनाथ का सिर एक ओर लुढ़का हुआ था. उन के शरीर को हाथों से हिलाया, ‘‘दादा, दादा, उठिए, शहर नहीं जाना है क्या?’’ अभिलाष ने जोर से पुकारा, पर वे कहां उठते.

तभी उस ने बाहर जा कर होटल के एक कारिंदे को बुलाया जिस ने आ कर अपनी हथेली उन की नाक पर रखी. उन के प्राण पखेरू उड़ चुके थे. कारिंदे ने उन की पलकों को बंद किया फिर उन के शरीर को पलंग पर सीधे लिटा दिया और अभिलाष को इशारे से बताया.

अभिलाष के आंसू निकल आए. वह सिसकसिसक कर रोने लगा जैसे वह उन का सगा बेटा हो. होटल में हड़बड़ी मच गई. सभी कर्मचारी और अन्य लोग आ जुटे. समीर और नेहा भी आ गए. वे रोते हुए अभिलाष को ढाढ़स देने लगे. एक घंटे बाद विश्वासनाथ का भाई लक्ष्मण भी जेटी से आ पहुंचा. अपने भैया के सिरहाने बैठ कर वह फूटफूट कर रोने लगा. किसी तरह से सब लोगों को खबर दी गई. शाम होने से पहले शव का क्रियाकर्म किया जाना था. सभी आखिरी स्टीमर के आने तक राह देखते रहे, शायद शहर से बेटा आ जाए या दूर द्वीप से जंवाई बेटी आ जाएं. पर तब तक कोई नहीं पहुंच पाया, पता नहीं क्यों.

तब लक्ष्मण ने अभिलाष से कहा, ‘‘अब हम प्रतीक्षा नहीं कर सकते.’’

कभी करोड़पति रहे विश्वासनाथ का पूरे हैवलौक में कहां ठिकाना था. अभिलाष ने सारा इंतजाम कर लिया था. शव को राधानगर ले जाया गया. सागरतट से दूर बादाम और महुए के पेड़ों के झुरमुट में एक खाली जगह पर उन के शव को ले जाया गया. शव जलाने की लकडि़यां रखी थीं. उन का छोटा भाई लक्ष्मण के चेहरे पर अकथनीय दुख की छाया थी. अभिलाष भी लक्ष्मण की तरह धोती पहने शव के पास खड़ा था चेहरे पर कर्तव्यनिष्ठ भाव लिए. हैवलौक के पश्चिमी किनारे पर सूर्य डूब रहा था पर आज के सूर्य की 0किरणें सिंदूरी आभा लिए नहीं थीं, उन का रंग शायद खूनी लाल था. लक्ष्मण जैसा छोटा भाई शायद कहीं भी न हो, अभिलाष जैसा बेटा इस युग में ढूंढ़े से भी न मिले पर विश्वासनाथ जैसे विस्थापित जिंदगी जीने वाले और भी होंगे, शायद.

 

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March 30, 2020 at 10:00AM

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