Sunday 29 March 2020

नीलाम होते गांव: भाग 1

लेखक-श्री धरण सिंह

उसी समय किसी ने अभिलाष को होटल के भीतर बुला लिया था. वह जाने लगा, ‘‘दादा, ये कुरसियां बरामदे में रखवा दीजिए,’’ उस ने कहा. कुरसियां रखवाने के बाद सुस्ताने के उद्देश्य से वे बरामदे के चबूतरे पर बैठ गए और अपने हाथों सनराइज होटल के लौन में वे गुलाब और गेंदे के पौधों को सींच रहे थे, तभी होटल के मैनेजर अभिलाष ने उन्हें पुकारा, ‘‘विश्वास दा, अब बस करिए. देखिए, आप से कुछ लोग मिलने आए हैं.’’ उन्होंने झट से सींचना बंद किया और बरामदे की ओर बढ़े अभिलाष के साथ एक अधेड़ विदेशी पर्यटक और एक फिल्म कैमरामैन खड़ा था. दोनों ने उन्हें देख कर ‘हैलो’ कहा. विश्वास दा ने सिर झुकाया और प्रणाम किया. तभी अभिलाष बोल उठा, ‘‘दादा, ये विदेशी पर्यटक हैं और हैवलौक द्वीप पर कोई डाक्यूमैंट्री फिल्म बनाना चाहते हैं. मैं ने आप के बारे में बताया, ये लोग आप की फोटो लेंगे, जल्दी से कपड़े बदल कर आइए. विश्वास दा फौरन होटल के पीछे वाले आउटहाउस में चले गए. मैनेजर पर्यटक और कैमरामैन से बतियाता रहा. कुछ क्षण बाद अपना हुलिया बदल कर लौट आए. उन्होंने सफेद पायजामा और कुरता पहना हुआ था.

अमलतास के पेड़ के नीचे आर्मेट की कुरसियां रखी गई थीं. विदेशी पर्यटक ने दादा को कुरसी पर बैठने को कहा. ठीक उन की ओर मुंह किए कुरसियों पर दोनों पर्यटक महाशय और अभिलाष बैठे हुए थे. कैमरामैन कैमरे को स्टैंड में लगाए उन के पार्श्व में खड़ा था.

‘‘दादा, ये आप से पूछना चाहते हैं कि आज और बीते कल के जमाने के हैवलौक में क्या फर्क है? आप ने अपना संघर्ष कैसे किया? अपनी जमीन को होटलमालिकों को बेच कर क्या आप खुश हैं?’’ अभिलाष ने दादा  को बताया.

पहले विश्वास दा ने रूमाल से पसीना पोंछा और अपने को संयत किया. पहली बार कोई उन की वीडियो शूट कर रहा था.‘‘स्टार्ट कैमरा,’’ पर्यटक ने कहा.

कैमरा चालू हो चुका था. अभिलाष ने इशारे से विश्वास दा से कहा कि वे बोलें. टूटीफूटी हिंदीबंगला मिश्रित भाषा में उन्होंने कहा, ‘‘हैवलौक और नील द्वीप सैलानियों का बहुत खूबसूरत स्थल बन जाएगा, यह तो हम ने स्वप्न में भी नहीं सोचा था. विभाजन के बाद सरकार ने हम को इधर ला कर बसाया. हम ने और दूसरे विस्थापितों की टोलियों ने खूनपसीना एक कर दिया इन जंगलों को काट कर कृषियोग्य भूमि बनाने में. हमारी आजीविका कृषि थी. हमारे बच्चे भी यहीं हुए.’’ तभी पर्यटक महाशय ने अंगरेजी में कहा, ‘‘दैट्स नाइस, ओके. व्हाट अबाउट मनी यू रिसीव्ड फौर योर लैंड?’’

दादा कुछ समझ न पाए. अभिलाष ने उन्हें दुविधा से निकाला, ‘‘दादा, ये पूछ रहे हैं अपनी जमीन का आप को जो पैसा मिला उस से क्या आप संतुष्ट हैं?’’ विश्वासनाथ ने अपनी 2 उंगलियां हवा में उठा दीं और कहा, ‘‘दो कौड़ी (करोड़). मेरे परिवार के सभी लोग बहुत खुश हैं,’’ लेकिन दूसरे ही क्षण दर्द की एक रेखा उन के चेहरे पर उभरी. उन्होंने तुरंत रूमाल से मुंह से पोंछा.

‘‘ओके, कट, कट,’’ पर्यटक महाशय की आवाज आई, ‘‘थैंक्यू मिस्टर विश्वासनाथ,’’ उस ने झट से बढ़ कर दादा से हाथ मिलाया.दादा के सख्त और खुरदरे हाथ को महसूस करते ही उस ने झट अपना हाथ खींच लिया.‘‘ओह, सो स्ट्रौंग,’’ उस ने कहा और झट कुरसी से उठ खड़ा हुआ. कैमरामैन ने भी अपना कैमरा कंधे पर रख लिया था. पर्यटक महाशय और उस के साथी कुछ देर तक अभिलाष से बातें करने के बाद विदा ले कर चले गए.

को देखते हुए सोचने लगे, यही तो वे हाथ हैं जिन की सख्ती में महीनों की मेहनत का दर्द छिपा है, जंगलों को मैदान में बदलने का एहसास भी. स्मृतियों का एक रेला उन्हें 40 बरस पीछे लिए चला जा रहा था… उन दिनों जब विश्वासनाथ और उन के जैसे दूसरे लोग कलकत्ता के शरणार्थी कैंपों में अपनी जिंदगी जी रहे थे. उन में औरतें भी थीं, बच्चे भी, उम्रदराज बूढ़े भी. जमीन से उखड़ना उन की नियति बन गई थी.

वहां हर सुबहशाम पुनर्स्थापना अधिकारी आतेजाते रहते थे. सरकार की मंशा थी कि पूर्वी पाकिस्तान से विस्थापित इन हिंदू परिवारों को भारत की मुख्यभूमि से दूर अंडमान के अलगअलग द्वीपों में बसाया जाए. कैंपों में वर्षों से लोग रह रहे थे. ये वही लोग थे जो अपने गांव, अपनी जमीन को छोड़ कर पूर्वी पाकिस्तान से भागने को मजबूर हुए.

भारत के विभाजन के बाद दंगेफसाद के माहौल में तब रहना सुरक्षित कहां था. उन्हें कोई ठिकाना तो चाहिए था. मुसलिम बहुतायत की जगहों से हिंदू पलायन कर रहे थे. कैंपों में अंडमान भेजने की कोशिशें जोरों पर थीं. एक शाम की बात है,  पुनर्स्थापना अधिकारी विश्वासनाथ के शिविर में आ धमका.

उस ने विश्वासनाथ को बुलाया, ‘ए, इधर आ.’वे एक कोने में बैठे थे. वे तुरंत अफसर के पास चले आए. रिहैबिलिटेशन अफसर ने फौरन उन के हाथों को मजबूती से खींचा.‘ओह, स्ट्रौंग, गुड,’ अधिकारी ने कहा, ‘तुम लोगों को कल जहाज से अंडमान ले जाया जाएगा, समझे. तुम्हारी घरवाली है?’

‘हां साहब, है,’ उन्होंने कहा. उन की पत्नी सौदामिनी कैंप में ही उन के साथ थी. उन के साथ अन्य टोलियों को उस दिन छांटा गया. मनुष्य की एक कुत्सित मानसिकता के आगे, एक पागलपन के कारण छूट गए धान के वे खेत, गांव के तालाबपोखर जहां वे मछलियां पकड़ा करते थे. अपनी जमीन से उखड़ने के इसी दुख में उन के बूढ़े पिता चल बसे थे. अपने पति के विछोह में उन की मां दुनिया छोड़ गईं. बच गए थे विश्वासनाथ और उन का छोटा भाई.

अगली सुबह अपने साथियों के साथ उन्हें जहाज पर चढ़ा कर रवाना कर दिया गया था. कलकत्ता से छूटने के बाद जहाज के डैक पर खड़ेखड़े विश्वासनाथ और उन के साथी सागर के असीम विस्तार को देख कर चकित होते गए थे. 1 दिन, 2 दिन, 3 दिन…अंडमान अब भी बहुत दूर था. औरतों की हालत ठीक नहीं थी. उन्हें लगातार उल्टियां हो रही थीं. 7वें दिन उन की खुशी का ठिकाना न रहा जब उन्होंने अंडमान के छितरे हुए द्वीपों को देखा. उन सभी टोलियों को पोर्टब्लेयर के बंदरगाह में उतारा गया और अगले दिन विश्वासनाथ और उन के साथियों को एक मोटर नौका द्वारा बारीबारी से हैवलौक द्वीप पहुंचाया गया. अपनी जमीन से उखड़े ये लोग फिर बसने जा रहे थे. उखड़ना और बसना उन की नियति जो है.

चीफ कमिश्नर के आदेश के अनुसार, राजस्व विभाग ने उन के रहने के लिए अस्थायी झोंपड़ी की व्यवस्था कर दी थी. राजस्व विभाग के अधिकारी अपनी फटफटी में बैठ कर वहां आते थे. निर्वासितों का काम होता जंगलों को काट कर कृषियोग्य बनाना. अधिकारी उन्हें जंगल के भीतर ले जाते. कभी मील दो मील पैदल भी चलना पड़ता. अधिकारी उन्हें 15 बीघा या लगभग 30 बीघा (10 एकड़) जमीन नाप कर देते जाते. निशानी के तौर पर वहां लकड़ी की बनी एक खूंटी भी गड़वा देते, यही क्रम होता. आज विश्वासनाथ और सौदामिनी को भी अपनी जमीन मिल गई थी. उन के साथ उन का छोटा भाई लक्ष्मण भी था. उन के जीवन का स्वर्ण अध्याय शुरू हो चुका था. राजस्व अधिकारी के कारिंदे ने एक कुल्हाड़ी और 2 तेज धार वाली दाव विश्वासनाथ को दीं और कहा, ‘लो भई, विश्वासनाथ, शुरू हो जाओ.’ विश्वासनाथ ने कुल्हाड़ी अपनी मजबूत हाथों में ली, कमर में गमछे को कस कर बांधा और अपनी जमीन पर खड़े पहले के पेड़ों पर कुल्हाड़ी से वार करने लगे. धम…धम…कुल्हाड़ी चलने की आवाज से जंगल गूंजने लगा. विश्वासनाथ का छोटा भाई उन का साथ देने लगा. सौदामिनी झाडि़यों, बेलों को साफ करने में जुट गई.

पसीने की शक्ल में खून शरीर से बहता रहा. दिन सप्ताहों में, सप्ताह महीनों में बदलते रहे. लगभग एकतिहाई जंगल गायब हो गए थे और उन सब की जगह उभर आए थे नई मिट्टी की सुवास लिए, छोटेछोटे तालाबपोखरों, नालों को समेटे छोटेछोटे गांव. मानचित्र पर विजयनगर, श्यामनगर, राधानगर जैसे गांव उभर आए. अपने नए गांव विजयनगर में विश्वासनाथ और सौदामिनी बहुत खुशी से जिंदगी बिता रहे थे. बांस की चटाई से बनी दीवारें व टिन के छप्पर से बने उन के घर आरामदायक थे.

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लेखक-श्री धरण सिंह

उसी समय किसी ने अभिलाष को होटल के भीतर बुला लिया था. वह जाने लगा, ‘‘दादा, ये कुरसियां बरामदे में रखवा दीजिए,’’ उस ने कहा. कुरसियां रखवाने के बाद सुस्ताने के उद्देश्य से वे बरामदे के चबूतरे पर बैठ गए और अपने हाथों सनराइज होटल के लौन में वे गुलाब और गेंदे के पौधों को सींच रहे थे, तभी होटल के मैनेजर अभिलाष ने उन्हें पुकारा, ‘‘विश्वास दा, अब बस करिए. देखिए, आप से कुछ लोग मिलने आए हैं.’’ उन्होंने झट से सींचना बंद किया और बरामदे की ओर बढ़े अभिलाष के साथ एक अधेड़ विदेशी पर्यटक और एक फिल्म कैमरामैन खड़ा था. दोनों ने उन्हें देख कर ‘हैलो’ कहा. विश्वास दा ने सिर झुकाया और प्रणाम किया. तभी अभिलाष बोल उठा, ‘‘दादा, ये विदेशी पर्यटक हैं और हैवलौक द्वीप पर कोई डाक्यूमैंट्री फिल्म बनाना चाहते हैं. मैं ने आप के बारे में बताया, ये लोग आप की फोटो लेंगे, जल्दी से कपड़े बदल कर आइए. विश्वास दा फौरन होटल के पीछे वाले आउटहाउस में चले गए. मैनेजर पर्यटक और कैमरामैन से बतियाता रहा. कुछ क्षण बाद अपना हुलिया बदल कर लौट आए. उन्होंने सफेद पायजामा और कुरता पहना हुआ था.

अमलतास के पेड़ के नीचे आर्मेट की कुरसियां रखी गई थीं. विदेशी पर्यटक ने दादा को कुरसी पर बैठने को कहा. ठीक उन की ओर मुंह किए कुरसियों पर दोनों पर्यटक महाशय और अभिलाष बैठे हुए थे. कैमरामैन कैमरे को स्टैंड में लगाए उन के पार्श्व में खड़ा था.

‘‘दादा, ये आप से पूछना चाहते हैं कि आज और बीते कल के जमाने के हैवलौक में क्या फर्क है? आप ने अपना संघर्ष कैसे किया? अपनी जमीन को होटलमालिकों को बेच कर क्या आप खुश हैं?’’ अभिलाष ने दादा  को बताया.

पहले विश्वास दा ने रूमाल से पसीना पोंछा और अपने को संयत किया. पहली बार कोई उन की वीडियो शूट कर रहा था.‘‘स्टार्ट कैमरा,’’ पर्यटक ने कहा.

कैमरा चालू हो चुका था. अभिलाष ने इशारे से विश्वास दा से कहा कि वे बोलें. टूटीफूटी हिंदीबंगला मिश्रित भाषा में उन्होंने कहा, ‘‘हैवलौक और नील द्वीप सैलानियों का बहुत खूबसूरत स्थल बन जाएगा, यह तो हम ने स्वप्न में भी नहीं सोचा था. विभाजन के बाद सरकार ने हम को इधर ला कर बसाया. हम ने और दूसरे विस्थापितों की टोलियों ने खूनपसीना एक कर दिया इन जंगलों को काट कर कृषियोग्य भूमि बनाने में. हमारी आजीविका कृषि थी. हमारे बच्चे भी यहीं हुए.’’ तभी पर्यटक महाशय ने अंगरेजी में कहा, ‘‘दैट्स नाइस, ओके. व्हाट अबाउट मनी यू रिसीव्ड फौर योर लैंड?’’

दादा कुछ समझ न पाए. अभिलाष ने उन्हें दुविधा से निकाला, ‘‘दादा, ये पूछ रहे हैं अपनी जमीन का आप को जो पैसा मिला उस से क्या आप संतुष्ट हैं?’’ विश्वासनाथ ने अपनी 2 उंगलियां हवा में उठा दीं और कहा, ‘‘दो कौड़ी (करोड़). मेरे परिवार के सभी लोग बहुत खुश हैं,’’ लेकिन दूसरे ही क्षण दर्द की एक रेखा उन के चेहरे पर उभरी. उन्होंने तुरंत रूमाल से मुंह से पोंछा.

‘‘ओके, कट, कट,’’ पर्यटक महाशय की आवाज आई, ‘‘थैंक्यू मिस्टर विश्वासनाथ,’’ उस ने झट से बढ़ कर दादा से हाथ मिलाया.दादा के सख्त और खुरदरे हाथ को महसूस करते ही उस ने झट अपना हाथ खींच लिया.‘‘ओह, सो स्ट्रौंग,’’ उस ने कहा और झट कुरसी से उठ खड़ा हुआ. कैमरामैन ने भी अपना कैमरा कंधे पर रख लिया था. पर्यटक महाशय और उस के साथी कुछ देर तक अभिलाष से बातें करने के बाद विदा ले कर चले गए.

को देखते हुए सोचने लगे, यही तो वे हाथ हैं जिन की सख्ती में महीनों की मेहनत का दर्द छिपा है, जंगलों को मैदान में बदलने का एहसास भी. स्मृतियों का एक रेला उन्हें 40 बरस पीछे लिए चला जा रहा था… उन दिनों जब विश्वासनाथ और उन के जैसे दूसरे लोग कलकत्ता के शरणार्थी कैंपों में अपनी जिंदगी जी रहे थे. उन में औरतें भी थीं, बच्चे भी, उम्रदराज बूढ़े भी. जमीन से उखड़ना उन की नियति बन गई थी.

वहां हर सुबहशाम पुनर्स्थापना अधिकारी आतेजाते रहते थे. सरकार की मंशा थी कि पूर्वी पाकिस्तान से विस्थापित इन हिंदू परिवारों को भारत की मुख्यभूमि से दूर अंडमान के अलगअलग द्वीपों में बसाया जाए. कैंपों में वर्षों से लोग रह रहे थे. ये वही लोग थे जो अपने गांव, अपनी जमीन को छोड़ कर पूर्वी पाकिस्तान से भागने को मजबूर हुए.

भारत के विभाजन के बाद दंगेफसाद के माहौल में तब रहना सुरक्षित कहां था. उन्हें कोई ठिकाना तो चाहिए था. मुसलिम बहुतायत की जगहों से हिंदू पलायन कर रहे थे. कैंपों में अंडमान भेजने की कोशिशें जोरों पर थीं. एक शाम की बात है,  पुनर्स्थापना अधिकारी विश्वासनाथ के शिविर में आ धमका.

उस ने विश्वासनाथ को बुलाया, ‘ए, इधर आ.’वे एक कोने में बैठे थे. वे तुरंत अफसर के पास चले आए. रिहैबिलिटेशन अफसर ने फौरन उन के हाथों को मजबूती से खींचा.‘ओह, स्ट्रौंग, गुड,’ अधिकारी ने कहा, ‘तुम लोगों को कल जहाज से अंडमान ले जाया जाएगा, समझे. तुम्हारी घरवाली है?’

‘हां साहब, है,’ उन्होंने कहा. उन की पत्नी सौदामिनी कैंप में ही उन के साथ थी. उन के साथ अन्य टोलियों को उस दिन छांटा गया. मनुष्य की एक कुत्सित मानसिकता के आगे, एक पागलपन के कारण छूट गए धान के वे खेत, गांव के तालाबपोखर जहां वे मछलियां पकड़ा करते थे. अपनी जमीन से उखड़ने के इसी दुख में उन के बूढ़े पिता चल बसे थे. अपने पति के विछोह में उन की मां दुनिया छोड़ गईं. बच गए थे विश्वासनाथ और उन का छोटा भाई.

अगली सुबह अपने साथियों के साथ उन्हें जहाज पर चढ़ा कर रवाना कर दिया गया था. कलकत्ता से छूटने के बाद जहाज के डैक पर खड़ेखड़े विश्वासनाथ और उन के साथी सागर के असीम विस्तार को देख कर चकित होते गए थे. 1 दिन, 2 दिन, 3 दिन…अंडमान अब भी बहुत दूर था. औरतों की हालत ठीक नहीं थी. उन्हें लगातार उल्टियां हो रही थीं. 7वें दिन उन की खुशी का ठिकाना न रहा जब उन्होंने अंडमान के छितरे हुए द्वीपों को देखा. उन सभी टोलियों को पोर्टब्लेयर के बंदरगाह में उतारा गया और अगले दिन विश्वासनाथ और उन के साथियों को एक मोटर नौका द्वारा बारीबारी से हैवलौक द्वीप पहुंचाया गया. अपनी जमीन से उखड़े ये लोग फिर बसने जा रहे थे. उखड़ना और बसना उन की नियति जो है.

चीफ कमिश्नर के आदेश के अनुसार, राजस्व विभाग ने उन के रहने के लिए अस्थायी झोंपड़ी की व्यवस्था कर दी थी. राजस्व विभाग के अधिकारी अपनी फटफटी में बैठ कर वहां आते थे. निर्वासितों का काम होता जंगलों को काट कर कृषियोग्य बनाना. अधिकारी उन्हें जंगल के भीतर ले जाते. कभी मील दो मील पैदल भी चलना पड़ता. अधिकारी उन्हें 15 बीघा या लगभग 30 बीघा (10 एकड़) जमीन नाप कर देते जाते. निशानी के तौर पर वहां लकड़ी की बनी एक खूंटी भी गड़वा देते, यही क्रम होता. आज विश्वासनाथ और सौदामिनी को भी अपनी जमीन मिल गई थी. उन के साथ उन का छोटा भाई लक्ष्मण भी था. उन के जीवन का स्वर्ण अध्याय शुरू हो चुका था. राजस्व अधिकारी के कारिंदे ने एक कुल्हाड़ी और 2 तेज धार वाली दाव विश्वासनाथ को दीं और कहा, ‘लो भई, विश्वासनाथ, शुरू हो जाओ.’ विश्वासनाथ ने कुल्हाड़ी अपनी मजबूत हाथों में ली, कमर में गमछे को कस कर बांधा और अपनी जमीन पर खड़े पहले के पेड़ों पर कुल्हाड़ी से वार करने लगे. धम…धम…कुल्हाड़ी चलने की आवाज से जंगल गूंजने लगा. विश्वासनाथ का छोटा भाई उन का साथ देने लगा. सौदामिनी झाडि़यों, बेलों को साफ करने में जुट गई.

पसीने की शक्ल में खून शरीर से बहता रहा. दिन सप्ताहों में, सप्ताह महीनों में बदलते रहे. लगभग एकतिहाई जंगल गायब हो गए थे और उन सब की जगह उभर आए थे नई मिट्टी की सुवास लिए, छोटेछोटे तालाबपोखरों, नालों को समेटे छोटेछोटे गांव. मानचित्र पर विजयनगर, श्यामनगर, राधानगर जैसे गांव उभर आए. अपने नए गांव विजयनगर में विश्वासनाथ और सौदामिनी बहुत खुशी से जिंदगी बिता रहे थे. बांस की चटाई से बनी दीवारें व टिन के छप्पर से बने उन के घर आरामदायक थे.

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March 30, 2020 at 10:00AM

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