Sunday 29 March 2020

नीलाम होते गांव: भाग 2

लेखक-श्री धरण सिंह

सौदामिनी यहीं पर पहली बार मां बनी थी. उस ने बेटे को जन्म दिया था. नाम रखा गया-हीरेन. वह हीरा ही तो था जिस के आने के बाद सौदामिनी का जीवन चमक उठा था. 5 एकड़ जमीन में उन के धान के खेत लहलहा उठे थे, शेष 5 एकड़ में सुपारी, केले, नारियल इत्यादि के वृक्ष खड़े थे. सब्जियों की भी क्यारियां लगा रखी थीं उन्होंने.

अगले 5 वर्षों में उन के और 2 संतानें हुईं, बेटा नरेन और बेटी दीपशिखा. खेतखलिहानों में कूदतेफांदते वे बड़े हुए थे. चूंकि गांव में ही प्राइमरी स्कूल खुल गए थे, सभी बच्चे वहीं सरकारी स्कूल में पढ़ने लगे. विश्वासनाथ को मछली मारने का बहुत शौक था. उन्हें जेटी के मछुआरों की तरफ से एक छोटी लकड़ी की बनी नाव मिल गई थी जिस में बैठ कर वे विजयनगर के सागर में जा कर मछलियां पकड़ा करते थे. बड़ा बेटा हीरेन अकसर अपने बापू के साथ मछली पकड़ने जाया करता. विश्वासनाथ को यों लगा जैसे पूर्वी पाकिस्तान में खो गए सुनहरे दिन यहां विजयनगर की जमीन पर वापस लौट आए हैं, खेत से धान, मछलियों, सब्जियों की आय…एक औसत दरजे का जीवन वे जी रहे थे.

‘‘दादा, अभी तक यहां बैठे हो…’’ अचानक अभिलाष की आवाज से अतीत की यादों का वह रेला एकाएक गुम हो गया, ‘‘नाश्ता कर लीजिए,’’ उस ने कहा.

अभिलाष ही वह व्यक्ति था जिस ने विश्वासनाथ के जीवन की धारा को मोड़ने में मदद की थी. उस दिन के बाद से विश्वासनाथ और दूसरे कुछेक विस्थापितों के जीवन की परिभाषाएं बदलती जा रही थीं. पंचसितारा होटल और रेस्तरां के मालिक विजयनगर के सागर किनारे की भूमि का मोलतोल करने आ पहुंचे थे जो विस्थापितों की मिल्कियत थी. होटल के एक प्रतिनिधि के साथ अभिलाष ही इस व्यापार की सूचना देने आया था. अभिलाष वैसे कृष्णानगर के उन के एक ममेरे भाई हरिपाद सरकार का बेटा था. विश्वास दा पुन: अतीत की यादों में खो गए. उन्होंने जब यह सुना कि उन की 15 बीघे जमीन के बदले उन्हें लगभग 2 करोड़ या उस से ज्यादा रुपए मिलेंगे तो उन के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. उन की आंखें कुछ क्षण के लिए अपलक बड़ी हो गईं. जब बच्चों ने यह सुना, वे भी अचंभे में पड़ गए परंतु सौदामिनी को विश्वास नहीं हो रहा था.

‘2 करोड़ रुपए तो बहुत होते हैं न. इतने पैसों का हम क्या करेंगे. यह कोई सपना तो नहीं है न,’ विश्वास दा की पत्नी ने जैसे रोंआसी हो कर कहा.

‘सौदामिनी, तुम फिक्र न करो. हमारे दिन फिर गए हैं. सब ठीक हो जाएगा. मैं शहर जा रहा हूं इन लोगों के साथ.’

विश्वास दा ने पत्नी को जैसे सांत्वना दी. और अगले दिन ही स्टीमर द्वारा वे पोर्टब्लेयर चले गए जहां पर सारी कागजी कार्यवाही होनी थी. तीसरे दिन स्टीमर द्वारा अभिलाष लौट आए थे. विजयनगर के अन्य 5-6 व्यक्तियों को भी शहर बुलाया गया था. उन की भी जमीनों की पेशगी लाखों रुपयों के रूप में उन्हें मिल गई थी. विश्वासनाथ के हाथों में एक बड़ी अटैची थी. जब बच्चों के सामने उन्होंने अटैची को खोला तो सब के मुंह से चीखें निकल गईं. अभिलाष ने उन्हें बताया, ‘ये पेशगी के तौर पर 20 लाख रुपए हैं, बाकी के रुपए डिमांड ड्राफ्ट के तौर पर जल्दी ही मिल जाएंगे.’

सबकुछ समझा कर अभिलाष चला गया था. वह रात उन सबों पर बहुत भारी गुजरी थी. विश्वासनाथ और सौदामिनी को नींद नहीं आ रही थी. बगल के कमरे में बेटे हीरेन और नरेन अपनी स्कीमों पर चर्चा करते रहे. किसी तरह से सुबह हुई. रातोंरात विश्वासनाथ का परिवार करोड़पति बन गया था. दिन, महीने गुजरते गए. अगले 2 बरसों में विश्वासनाथ का परिवार बहुत खुशहाल परिवार कहलाने लगा. जमीन की बकाया राशि में से उन्हें अब 90 लाख रुपए मिल गए थे. पूर्वी किनारे की 15 बीघे (5 एकड़) जमीन का सौदा हो चुका था. रेस्तरां मालिक विश्वासनाथ की पश्चिमी छोर की भूमि की भी मांग कर बैठे, तभी बाकी रकम की अदाएगी करेंगे. विश्वासनाथ ने वह जमीन अपने परिवारों की जरूरत के लिए रख छोड़ी थी.

आखिर काफी सोचविचार के बाद उस में से आधी जमीन फिर बेच दी. 50 लाख रुपए में उन की डील हुई थी. इसी जमीन में ही उन के नारियल, केले एवं सब्जियों के बागान थे. खैर, आधी बची जमीन में उन्होंने एक पक्का मकान बनाने को सोची. अगले एक महीने के भीतर विश्वास दा को पिछली बकाया राशि के 20 लाख और नई जमीन के सौदे के 10 लाख रुपए पेशगी मिले. ये रकम उन के बैंक खाते में आ गई थी. घरपरिवार का बोझ उठातेउठाते अब सौदामिनी भी कमजोर हो चुकी थी. वह भी चाहती थी कि उस के काम में कोई हाथ बंटाए. उसे बीच में खांसी के दौरे भी पड़ते रहते. उस की उम्र भी अब 60 बरस होने को आई थी. एक बहू लाने की चाह थी उसे. हालांकि खेतों में काम करने वह अब न जाती थी, देवर ने उसे सख्त मनाही कर दी थी. एक आज्ञाकारी भाई की तरह लक्ष्मण सरकार विश्वास दा का सदा ही हाथ बंटाता.

एक दिन लक्ष्मण ने अपने भाई से कहा था, ‘दादा, अब इतने पैसे मिल गए हैं, भाभी भी अब पहले जैसा कामकाज नहीं संभाल सकतीं…’

‘हां, सो तो है,’ विश्वासनाथ ने सिर हिलाया, ‘तुम कहना क्या चाहते थे?’

‘दादा, घरपरिवार तो अब बढ़ेगा ही. हीरेन की भी शादी करानी है. एक आलीशान मकान बन जाए तो अच्छा है न, रुपए का क्या भरोसा?’

‘हां लक्ष्मण, तुम ने मुंह की बात छीन ली. मुझे यह काम जल्दी करना होगा,’ और उन्हें थोड़ी खांसी सी आई, मुंह में रखी अधजली बीड़ी उन्होंने दूर फेंक दी.

अगले 6 महीनों के भीतर उन के जीवन का कायापलट हो चुका था. पश्चिमी किनारे की बची जमीन पर एक आलीशान पक्का मकान बन कर तैयार हो चुका था. अब मांबापू ने मई महीने में बड़े हीरेन और दीपशिखा के ब्याह की बात चलाई क्योंकि छोटा नरेन अभी ब्याह नहीं करना चाहता था. ‘लिटिल’ अंडमान द्वीप का एक इंजीनियर वर दीपशिखा को देखने आया. दीपशिखा को देखते ही वह उसे पसंद कर बैठा. गोरी, छरहरी देह की दीपशिखा भला किसे न भाती.

गांव के कुछ दूसरे लोगों ने विश्वासनाथ को समझाया था कि अभी समय अच्छा है, दीपशिखा को अच्छा वर मिल रहा है, जहां तक पढ़ाई की बात है वह शादी के बाद भी पढ़ सकेगी. हीरेन की बात दूसरी थी, वह अब पढ़ना नहीं चाहता था. उसे अब बिजनैस की सूझी थी. मांजी के कारण वह भी शादी के लिए राजी हो चुका था. मई महीने में दोनों का ब्याह होना तय हो चुका था. यही फैसला किया गया कि पहले बहू घर आएगी, अगले महीने बेटी की विदाई होगी. ऐसा हुआ भी.

विश्वास दा का नया आलीशान मकान रोशनी से जगमगा रहा था. मकान से लगे पंडाल और शामियाने पड़ोसी गांव के मेहमानों और बरातियों से भरे हुए थे. खानेपीने का प्रबंध एकदम शहर के ढर्रे पर किया गया था. पैसा पानी की तरह बह रहा था. सुंदर एवं सुशील बहू को पा कर सौदामिनी फूली न समाई. चूल्हे में लड़कियां फूंकफूंक कर जलाते हुए उसे 35 बरस होने को आए हैं. अब उसे अकसर खांसी की शिकायत रहती. डाक्टरों को भी दिखाया पर आराम कहां. बीचबीच में उसे खांसी के दौरे पड़ने लगे थे. नई बहू अनुराधा पढ़ीलिखी थी. उस ने आते ही सबकुछ बढि़या संभाल लिया था. अगले महीने दीपशिखा की विदाई धूमधाम से हो गई. बेटी ही से घर भरापूरा होता है. दीपशिखा के जाने के बाद घर जैसे खालीखाली हो गया, यह एहसास विश्वासनाथ और उस की पत्नी को तब हुआ. सबकुछ ठीक चल रहा था. ऐसे सुंदर दिन जीवन में आएंगे, दोनों पतिपत्नी ने भला कब सोचा था.

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लेखक-श्री धरण सिंह

सौदामिनी यहीं पर पहली बार मां बनी थी. उस ने बेटे को जन्म दिया था. नाम रखा गया-हीरेन. वह हीरा ही तो था जिस के आने के बाद सौदामिनी का जीवन चमक उठा था. 5 एकड़ जमीन में उन के धान के खेत लहलहा उठे थे, शेष 5 एकड़ में सुपारी, केले, नारियल इत्यादि के वृक्ष खड़े थे. सब्जियों की भी क्यारियां लगा रखी थीं उन्होंने.

अगले 5 वर्षों में उन के और 2 संतानें हुईं, बेटा नरेन और बेटी दीपशिखा. खेतखलिहानों में कूदतेफांदते वे बड़े हुए थे. चूंकि गांव में ही प्राइमरी स्कूल खुल गए थे, सभी बच्चे वहीं सरकारी स्कूल में पढ़ने लगे. विश्वासनाथ को मछली मारने का बहुत शौक था. उन्हें जेटी के मछुआरों की तरफ से एक छोटी लकड़ी की बनी नाव मिल गई थी जिस में बैठ कर वे विजयनगर के सागर में जा कर मछलियां पकड़ा करते थे. बड़ा बेटा हीरेन अकसर अपने बापू के साथ मछली पकड़ने जाया करता. विश्वासनाथ को यों लगा जैसे पूर्वी पाकिस्तान में खो गए सुनहरे दिन यहां विजयनगर की जमीन पर वापस लौट आए हैं, खेत से धान, मछलियों, सब्जियों की आय…एक औसत दरजे का जीवन वे जी रहे थे.

‘‘दादा, अभी तक यहां बैठे हो…’’ अचानक अभिलाष की आवाज से अतीत की यादों का वह रेला एकाएक गुम हो गया, ‘‘नाश्ता कर लीजिए,’’ उस ने कहा.

अभिलाष ही वह व्यक्ति था जिस ने विश्वासनाथ के जीवन की धारा को मोड़ने में मदद की थी. उस दिन के बाद से विश्वासनाथ और दूसरे कुछेक विस्थापितों के जीवन की परिभाषाएं बदलती जा रही थीं. पंचसितारा होटल और रेस्तरां के मालिक विजयनगर के सागर किनारे की भूमि का मोलतोल करने आ पहुंचे थे जो विस्थापितों की मिल्कियत थी. होटल के एक प्रतिनिधि के साथ अभिलाष ही इस व्यापार की सूचना देने आया था. अभिलाष वैसे कृष्णानगर के उन के एक ममेरे भाई हरिपाद सरकार का बेटा था. विश्वास दा पुन: अतीत की यादों में खो गए. उन्होंने जब यह सुना कि उन की 15 बीघे जमीन के बदले उन्हें लगभग 2 करोड़ या उस से ज्यादा रुपए मिलेंगे तो उन के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. उन की आंखें कुछ क्षण के लिए अपलक बड़ी हो गईं. जब बच्चों ने यह सुना, वे भी अचंभे में पड़ गए परंतु सौदामिनी को विश्वास नहीं हो रहा था.

‘2 करोड़ रुपए तो बहुत होते हैं न. इतने पैसों का हम क्या करेंगे. यह कोई सपना तो नहीं है न,’ विश्वास दा की पत्नी ने जैसे रोंआसी हो कर कहा.

‘सौदामिनी, तुम फिक्र न करो. हमारे दिन फिर गए हैं. सब ठीक हो जाएगा. मैं शहर जा रहा हूं इन लोगों के साथ.’

विश्वास दा ने पत्नी को जैसे सांत्वना दी. और अगले दिन ही स्टीमर द्वारा वे पोर्टब्लेयर चले गए जहां पर सारी कागजी कार्यवाही होनी थी. तीसरे दिन स्टीमर द्वारा अभिलाष लौट आए थे. विजयनगर के अन्य 5-6 व्यक्तियों को भी शहर बुलाया गया था. उन की भी जमीनों की पेशगी लाखों रुपयों के रूप में उन्हें मिल गई थी. विश्वासनाथ के हाथों में एक बड़ी अटैची थी. जब बच्चों के सामने उन्होंने अटैची को खोला तो सब के मुंह से चीखें निकल गईं. अभिलाष ने उन्हें बताया, ‘ये पेशगी के तौर पर 20 लाख रुपए हैं, बाकी के रुपए डिमांड ड्राफ्ट के तौर पर जल्दी ही मिल जाएंगे.’

सबकुछ समझा कर अभिलाष चला गया था. वह रात उन सबों पर बहुत भारी गुजरी थी. विश्वासनाथ और सौदामिनी को नींद नहीं आ रही थी. बगल के कमरे में बेटे हीरेन और नरेन अपनी स्कीमों पर चर्चा करते रहे. किसी तरह से सुबह हुई. रातोंरात विश्वासनाथ का परिवार करोड़पति बन गया था. दिन, महीने गुजरते गए. अगले 2 बरसों में विश्वासनाथ का परिवार बहुत खुशहाल परिवार कहलाने लगा. जमीन की बकाया राशि में से उन्हें अब 90 लाख रुपए मिल गए थे. पूर्वी किनारे की 15 बीघे (5 एकड़) जमीन का सौदा हो चुका था. रेस्तरां मालिक विश्वासनाथ की पश्चिमी छोर की भूमि की भी मांग कर बैठे, तभी बाकी रकम की अदाएगी करेंगे. विश्वासनाथ ने वह जमीन अपने परिवारों की जरूरत के लिए रख छोड़ी थी.

आखिर काफी सोचविचार के बाद उस में से आधी जमीन फिर बेच दी. 50 लाख रुपए में उन की डील हुई थी. इसी जमीन में ही उन के नारियल, केले एवं सब्जियों के बागान थे. खैर, आधी बची जमीन में उन्होंने एक पक्का मकान बनाने को सोची. अगले एक महीने के भीतर विश्वास दा को पिछली बकाया राशि के 20 लाख और नई जमीन के सौदे के 10 लाख रुपए पेशगी मिले. ये रकम उन के बैंक खाते में आ गई थी. घरपरिवार का बोझ उठातेउठाते अब सौदामिनी भी कमजोर हो चुकी थी. वह भी चाहती थी कि उस के काम में कोई हाथ बंटाए. उसे बीच में खांसी के दौरे भी पड़ते रहते. उस की उम्र भी अब 60 बरस होने को आई थी. एक बहू लाने की चाह थी उसे. हालांकि खेतों में काम करने वह अब न जाती थी, देवर ने उसे सख्त मनाही कर दी थी. एक आज्ञाकारी भाई की तरह लक्ष्मण सरकार विश्वास दा का सदा ही हाथ बंटाता.

एक दिन लक्ष्मण ने अपने भाई से कहा था, ‘दादा, अब इतने पैसे मिल गए हैं, भाभी भी अब पहले जैसा कामकाज नहीं संभाल सकतीं…’

‘हां, सो तो है,’ विश्वासनाथ ने सिर हिलाया, ‘तुम कहना क्या चाहते थे?’

‘दादा, घरपरिवार तो अब बढ़ेगा ही. हीरेन की भी शादी करानी है. एक आलीशान मकान बन जाए तो अच्छा है न, रुपए का क्या भरोसा?’

‘हां लक्ष्मण, तुम ने मुंह की बात छीन ली. मुझे यह काम जल्दी करना होगा,’ और उन्हें थोड़ी खांसी सी आई, मुंह में रखी अधजली बीड़ी उन्होंने दूर फेंक दी.

अगले 6 महीनों के भीतर उन के जीवन का कायापलट हो चुका था. पश्चिमी किनारे की बची जमीन पर एक आलीशान पक्का मकान बन कर तैयार हो चुका था. अब मांबापू ने मई महीने में बड़े हीरेन और दीपशिखा के ब्याह की बात चलाई क्योंकि छोटा नरेन अभी ब्याह नहीं करना चाहता था. ‘लिटिल’ अंडमान द्वीप का एक इंजीनियर वर दीपशिखा को देखने आया. दीपशिखा को देखते ही वह उसे पसंद कर बैठा. गोरी, छरहरी देह की दीपशिखा भला किसे न भाती.

गांव के कुछ दूसरे लोगों ने विश्वासनाथ को समझाया था कि अभी समय अच्छा है, दीपशिखा को अच्छा वर मिल रहा है, जहां तक पढ़ाई की बात है वह शादी के बाद भी पढ़ सकेगी. हीरेन की बात दूसरी थी, वह अब पढ़ना नहीं चाहता था. उसे अब बिजनैस की सूझी थी. मांजी के कारण वह भी शादी के लिए राजी हो चुका था. मई महीने में दोनों का ब्याह होना तय हो चुका था. यही फैसला किया गया कि पहले बहू घर आएगी, अगले महीने बेटी की विदाई होगी. ऐसा हुआ भी.

विश्वास दा का नया आलीशान मकान रोशनी से जगमगा रहा था. मकान से लगे पंडाल और शामियाने पड़ोसी गांव के मेहमानों और बरातियों से भरे हुए थे. खानेपीने का प्रबंध एकदम शहर के ढर्रे पर किया गया था. पैसा पानी की तरह बह रहा था. सुंदर एवं सुशील बहू को पा कर सौदामिनी फूली न समाई. चूल्हे में लड़कियां फूंकफूंक कर जलाते हुए उसे 35 बरस होने को आए हैं. अब उसे अकसर खांसी की शिकायत रहती. डाक्टरों को भी दिखाया पर आराम कहां. बीचबीच में उसे खांसी के दौरे पड़ने लगे थे. नई बहू अनुराधा पढ़ीलिखी थी. उस ने आते ही सबकुछ बढि़या संभाल लिया था. अगले महीने दीपशिखा की विदाई धूमधाम से हो गई. बेटी ही से घर भरापूरा होता है. दीपशिखा के जाने के बाद घर जैसे खालीखाली हो गया, यह एहसास विश्वासनाथ और उस की पत्नी को तब हुआ. सबकुछ ठीक चल रहा था. ऐसे सुंदर दिन जीवन में आएंगे, दोनों पतिपत्नी ने भला कब सोचा था.

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March 30, 2020 at 10:00AM

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