Monday 29 June 2020

जिद-भाग 4: शिशिर चंचल पर क्यों चिल्लाया ?

लेखिकारिजवाना बानो ‘इकरा’

‘‘नहीं, अपनी हैल्प करनी है मुझे,‘‘ आत्मविश्वास भरा जवाब आया चंचल का.

‘‘अपनी हैल्प? हाहाहा…दिमाग तो ठीक है न तुम्हारा चंचल? तुम को किस बात की कमी है?‘‘

‘‘ये जुमला 10 सालों से सुनती आ रही हूं, शिशिर. अब बस भी करो ये ड्रामा. मुझे कब, कैसे, क्या करना है, सबकुछ तो आप और मांजी फैसला लेते हैं. मेरी अपनी कोई मरजी, कोई अस्तित्व नहीं छोड़ा है आप ने. ये कमी है मुझे.‘‘

‘‘हां, तो सही सोचते हैं हम लोग. समझ है ही कहां तुम में. देखो, अपने पीहर 3 दिन रुकी हो और कैसी बातें करनी लगी हो. दिल्ली चली जाओ, आज ही.‘‘

‘‘नहीं, दिल्ली तो मैं रविवार को ही जाऊंगी. बस, आप को बतानी थी ये बात, सो बता दी मैं ने.‘‘

‘‘कह रहा हूं न मैं, आज ही जाओ. और ये कोर्स वगैरह का भूत उतारो अपने दिमाग से, बच्चों पर ध्यान दो बस.‘‘

‘‘शिशिर, बच्चे जितने मेरे हैं, उतने ही आप के भी हैं. और ये मेरा आखिरी फैसला है, सोच लीजिए आप,‘‘ फोन डिस्कनैक्ट हो गया. पीछे खड़ा मनु बहुत खुश है, दीदी को शादी के बाद आज अपने असली रूप में देख रहा है.

‘‘फैसला? मेरी चंचल फैसले कब से करने लगी? वो तो फैसले मानती है बस,‘‘ अब शिशिर को थोड़ी घबराहट हुई, चंचल की ‘जिद‘ दिख रही थी उसे.

आकांक्षा का घर, आज समय से पहले, ब्रैडआमलेट और चाय बना कर तैयार है. हालांकि आज आकांक्षा औफिस के लिए तैयार नहीं हुई है.

‘‘क्या बात है डार्लिंग? आज तो फेवरेट नाश्ता और वो भी समय से पहले? क्या डिमांड होने वाली है आज? हां, और तुम ये आज तैयार क्यों नहीं हुईं? नौकरीवौकरी छोड़ने का इरादा है क्या?‘‘

‘‘हां पंकज, नौकरी छोड़ने का ही इरादा है.‘‘

आमलेट गले में अटक गया पंकज के, ‘‘पगला गई हो क्या?‘‘ गुस्से में चिल्लाया, लेकिन तुरंत उसे अहसास हुआ कि गुस्से से बात नहीं संभाली जा सकती.

‘‘क्या हुआ बेटा? औफिस में कोई दिक्कत? मैं बात करूं चावला से?‘‘

‘‘नहीं, दिक्कत घर में है, औफिस में नहीं.‘‘

‘‘नाराज हो मुझ से? कुछ चाहिए मेरी प्यारी अक्कू को?‘‘

‘‘हां, चाहिए.‘‘

‘‘क्या चाहिए, मेरी प्यारी अक्कू को?‘‘

खूब समझती है इन चिकनीचुपडी बातों को आकांक्षा. पहले की तरह ही गंभीर रहते हुए आकांक्षा बोली, ‘‘बच्चा चाहिए मुझे.‘‘

‘‘क्या…?‘‘

‘‘मां बनना चाहती हूं मैं. कितने साल और इंतजार करूं अब मैं?‘‘

‘‘तुम जानती हो अक्कू, अभी हम तैयार नहीं हंै. विला ले लें, फिर जितने चाहे बच्चे करना. नहीं रोकने वाला मैं.‘‘

‘‘हम नहीं पंकज, केवल तुम तैयार नहीं हो. मैं पिछले 4 साल से कह रही हूं तुम्हें. पहले गाड़ी, फिर फ्लैट और अब विला. कल कुछ और शामिल हो जाएगा तुम्हारी लिस्ट में.‘‘

‘‘मैं खुश हूं पंकज, जो है उस में और मेरे बच्चे भी खुश रहेंगे, जानती हूं मैं. भौतिक सुखों का कोई अंत नहीं है, मैं थक गई हूं, इस तरह दौड़तेदौड़ते. मुझे ठहराव चाहिए, बच्चा चाहिए मुझे.‘‘

‘‘सुनो तो आकांक्षा…‘‘

‘‘नहीं पंकज, ये मेरा आखिरी फैसला है. अगर तुम्हें नहीं मंजूर, तो मैं कल ही इस्तीफा दे दूंगी. आज छुट्टी ली है बस,‘‘ मुसकराते हुए आकांक्षा बोली.

पंकज को समझ नहीं आ रहा था, वो छुट्टी की बात सुन कर खुश हो या बच्चे की बात सुन कर चिंतित. फिलहाल उसे अपना ‘विला‘ का सपना टूटते हुए दिख रहा था और दिख रही थी आकांक्षा की ‘जिद‘.

जिद तो दोनों ने कर ली थी, लेकिन जिद इतनी भी आसानी से पूरी नहीं होती. एक तरफ, चंचल की सासू मां ने हंगामा मचाया हुआ था, तो दूसरी तरफ, पंकज भी सारे दिन परेशान रहा कि कैसे अपनी बीवी को समझाए वो, कहां, बच्चों के चक्कर में पड़ गई है?

बुध का दिन इसी हलचल में गुजर गया. गुरुवार की सुबह शिशिर ने अपनी नाराजगी जताते हुए फोन नहीं किया, न ही चंचल का फोन उठाया. पंकज को भी कुछ समझ नहीं आ रहा था, बात टालने के लिए वो भी टूर पर निकल गया, इतवार तक.

इतवार भी आ गया. चंचल को भी आज ही दिल्ली लौटना था, लेकिन चंचल ने न जाने का फैसला किया. इधर, आकांक्षा भी अपना सारा सामान पैक कर बैठी थी. पंकज को लगा था, 2-4 दिन दूर रहेगी आकांक्षा उस से तो खुद ही अक्ल आ जाएगी. पंकज के बिना आकांक्षा का कहां मन लगना था. लेकिन जो वो देख रहा था, वो अप्रत्याशित था.

‘‘आकांक्षा, क्या बचपना है ये?‘‘

‘‘बच्चों बिना कैसा बचपना? बच्चे तो इस घर में आने से रहे तो मैं ही बच्चा बन कर देख लेती हूं.‘‘

‘‘बस भी करो ये पागलपन… परेशान हो गया हूं मैं.‘‘

‘‘सो तो मैं भी. चलो परेशानी खत्म कर देते हैं. मैं ने साथ वाली कालोनी में एक रूम व किचन देख लिया है. तलाक के कागजात भिजवा दूंगी.‘‘

‘‘चलती हूं.‘‘

पंकज के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई हो मानो.

‘‘ठहरो आकांक्षा… बैठो, बात तो करो.‘‘

‘‘क्या बात करनी है पंकज? तुम्हारा फैसला मुझे पता है.‘‘

‘‘अच्छा, क्या पता है तुम को? यही ना कि मुझे अपने जैसा बेटा नहीं चाहिए, बल्कि तुम्हारे जैसी बेटी चाहिए. एकदम समझदार, मजबूत और निडर…‘‘

इस बार, आकांक्षा खुद को रोक नहीं पाई. पंकज को गले लगाते ही सालों का दर्द आंसुओं के साथ बहा दिया, आकांक्षा ने. रह गया तो उन दोनों के बीच का प्यार बस.

उधर, दिल्ली में जब शिशिर पूरे परिवार के साथ घर लौटा, तो चंचल और बच्चों को वहां न देख गुस्से से आगबबूला हो गया.

‘‘चंचल की इतनी हिम्मत? अभी बताता हूं उसे…‘‘

इस बार फोन नहीं किया, शिशिर ने, सीधा नासिक के लिए फ्लाइट ली. ‘‘बहुत बोलने लगी है, पीहर बैठ जाने को बोलूंगा न तो अपनेआप सीधी हो जाएगी.‘‘

रात होतेहोते शिशिर चंचल के घर पहुंच ही गया. चंचल जैसे उसी के इंतजार में बैठी थी. डोरबैल बजी, चंचल ने दरवाजा खोला, एकदम सपाट चेहरे के साथ. न खुशी, न नाराजगी. लेकिन शिशिर तो नाराज था ही.

‘‘अपना सामान पैक करो चंचल… और तुम घर में क्यों नहीं हो? यहां क्यों हो? चल क्या रहा है दिमाग में तुम्हारे.‘‘

‘‘हाथपैर धो कर खाना खा लो शिशिर, डिनर तैयार है. बाद में बात करते हैं.‘‘

तभी आशु आ कर शिशिर से लिपट गया, ‘‘पापा आ गए… पापा आ गए.‘‘

बेटे को देख कर शिशिर अपना गुस्सा भूल गया, कुछ देर को. और फ्रेश होने चला गया.

डिनर के बाद चंचल ने उसे छत पर बुलाया, ‘‘हम्म, बताइए, क्या बोल रहे थे आप?‘‘

‘‘क्या बोलूंगा? तुम फोन क्यों नहीं उठा रही हो? और घर क्यों नहीं पहुंची अब तक?‘‘

‘‘क्या आप को सच में नहीं पता शिशिर?‘‘

‘‘अगर ये तुम्हारे बेकार से सर्टिफिकेट कोर्स और जौब के लिए है तो मुझे कोई बात नहीं करनी इस बारे में. तुम अच्छे से जानती हो, मां को बिलकुल पसंद नहीं ये सब और बच्चे…? बच्चों का भी खयाल नहीं आया तुम्हें? उन्हें कौन देखेगा?‘‘

‘‘शांत हो जाओ शिशिर, बात तो मुझे भी करनी है आप से और इसी बारे में करनी है, लेकिन इस तरह नहीं.‘‘

‘‘जो कौर्स और जौब तुम्हारे लिए बेकार है, वो मेरी आत्मनिर्भरता है. और इतने सालों से बच्चों को देख रही हूं न, आगे भी देख लूंगी.‘‘

‘‘मुझे नहीं पसंद, कह दिया न…‘‘

‘‘बात आप की पसंद की नहीं है, मेरे अस्तित्व की है.‘‘

‘‘तो ठीक है, आज से मेरे घर के दरवाजे बंद तुम्हारे लिए…‘‘

‘‘ठीक है, आप जब चाहें, जा सकते हैं.‘‘

इतना शांत जवाब? शिशिर अंदर तक हिल गया. सिर पकड़ कर बैठ गया, दस मिनट.

‘‘चंचल, क्या तुम सच में मेरे बिना रहना चाहती हो?‘‘

‘‘नहीं… मैं आप के साथ रहना चाहती हूं, लेकिन अपनी पहचान के साथ.‘‘

सुबकते हुए शिशिर बोला, ‘‘ठीक है, सुबह चलो साथ.‘‘

‘‘और मांजी?‘‘

‘‘परेशान मत होओ, सुबह सब साथ चलते हैं. सुहाना मैं और तुम, जब सब साथ मिल कर मनाएंगे तो मां भी मान ही जाएगी.‘‘

दोनों के चेहरे पर प्यार भरी मुसकराहट आ जाती है.

 

 

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लेखिकारिजवाना बानो ‘इकरा’

‘‘नहीं, अपनी हैल्प करनी है मुझे,‘‘ आत्मविश्वास भरा जवाब आया चंचल का.

‘‘अपनी हैल्प? हाहाहा…दिमाग तो ठीक है न तुम्हारा चंचल? तुम को किस बात की कमी है?‘‘

‘‘ये जुमला 10 सालों से सुनती आ रही हूं, शिशिर. अब बस भी करो ये ड्रामा. मुझे कब, कैसे, क्या करना है, सबकुछ तो आप और मांजी फैसला लेते हैं. मेरी अपनी कोई मरजी, कोई अस्तित्व नहीं छोड़ा है आप ने. ये कमी है मुझे.‘‘

‘‘हां, तो सही सोचते हैं हम लोग. समझ है ही कहां तुम में. देखो, अपने पीहर 3 दिन रुकी हो और कैसी बातें करनी लगी हो. दिल्ली चली जाओ, आज ही.‘‘

‘‘नहीं, दिल्ली तो मैं रविवार को ही जाऊंगी. बस, आप को बतानी थी ये बात, सो बता दी मैं ने.‘‘

‘‘कह रहा हूं न मैं, आज ही जाओ. और ये कोर्स वगैरह का भूत उतारो अपने दिमाग से, बच्चों पर ध्यान दो बस.‘‘

‘‘शिशिर, बच्चे जितने मेरे हैं, उतने ही आप के भी हैं. और ये मेरा आखिरी फैसला है, सोच लीजिए आप,‘‘ फोन डिस्कनैक्ट हो गया. पीछे खड़ा मनु बहुत खुश है, दीदी को शादी के बाद आज अपने असली रूप में देख रहा है.

‘‘फैसला? मेरी चंचल फैसले कब से करने लगी? वो तो फैसले मानती है बस,‘‘ अब शिशिर को थोड़ी घबराहट हुई, चंचल की ‘जिद‘ दिख रही थी उसे.

आकांक्षा का घर, आज समय से पहले, ब्रैडआमलेट और चाय बना कर तैयार है. हालांकि आज आकांक्षा औफिस के लिए तैयार नहीं हुई है.

‘‘क्या बात है डार्लिंग? आज तो फेवरेट नाश्ता और वो भी समय से पहले? क्या डिमांड होने वाली है आज? हां, और तुम ये आज तैयार क्यों नहीं हुईं? नौकरीवौकरी छोड़ने का इरादा है क्या?‘‘

‘‘हां पंकज, नौकरी छोड़ने का ही इरादा है.‘‘

आमलेट गले में अटक गया पंकज के, ‘‘पगला गई हो क्या?‘‘ गुस्से में चिल्लाया, लेकिन तुरंत उसे अहसास हुआ कि गुस्से से बात नहीं संभाली जा सकती.

‘‘क्या हुआ बेटा? औफिस में कोई दिक्कत? मैं बात करूं चावला से?‘‘

‘‘नहीं, दिक्कत घर में है, औफिस में नहीं.‘‘

‘‘नाराज हो मुझ से? कुछ चाहिए मेरी प्यारी अक्कू को?‘‘

‘‘हां, चाहिए.‘‘

‘‘क्या चाहिए, मेरी प्यारी अक्कू को?‘‘

खूब समझती है इन चिकनीचुपडी बातों को आकांक्षा. पहले की तरह ही गंभीर रहते हुए आकांक्षा बोली, ‘‘बच्चा चाहिए मुझे.‘‘

‘‘क्या…?‘‘

‘‘मां बनना चाहती हूं मैं. कितने साल और इंतजार करूं अब मैं?‘‘

‘‘तुम जानती हो अक्कू, अभी हम तैयार नहीं हंै. विला ले लें, फिर जितने चाहे बच्चे करना. नहीं रोकने वाला मैं.‘‘

‘‘हम नहीं पंकज, केवल तुम तैयार नहीं हो. मैं पिछले 4 साल से कह रही हूं तुम्हें. पहले गाड़ी, फिर फ्लैट और अब विला. कल कुछ और शामिल हो जाएगा तुम्हारी लिस्ट में.‘‘

‘‘मैं खुश हूं पंकज, जो है उस में और मेरे बच्चे भी खुश रहेंगे, जानती हूं मैं. भौतिक सुखों का कोई अंत नहीं है, मैं थक गई हूं, इस तरह दौड़तेदौड़ते. मुझे ठहराव चाहिए, बच्चा चाहिए मुझे.‘‘

‘‘सुनो तो आकांक्षा…‘‘

‘‘नहीं पंकज, ये मेरा आखिरी फैसला है. अगर तुम्हें नहीं मंजूर, तो मैं कल ही इस्तीफा दे दूंगी. आज छुट्टी ली है बस,‘‘ मुसकराते हुए आकांक्षा बोली.

पंकज को समझ नहीं आ रहा था, वो छुट्टी की बात सुन कर खुश हो या बच्चे की बात सुन कर चिंतित. फिलहाल उसे अपना ‘विला‘ का सपना टूटते हुए दिख रहा था और दिख रही थी आकांक्षा की ‘जिद‘.

जिद तो दोनों ने कर ली थी, लेकिन जिद इतनी भी आसानी से पूरी नहीं होती. एक तरफ, चंचल की सासू मां ने हंगामा मचाया हुआ था, तो दूसरी तरफ, पंकज भी सारे दिन परेशान रहा कि कैसे अपनी बीवी को समझाए वो, कहां, बच्चों के चक्कर में पड़ गई है?

बुध का दिन इसी हलचल में गुजर गया. गुरुवार की सुबह शिशिर ने अपनी नाराजगी जताते हुए फोन नहीं किया, न ही चंचल का फोन उठाया. पंकज को भी कुछ समझ नहीं आ रहा था, बात टालने के लिए वो भी टूर पर निकल गया, इतवार तक.

इतवार भी आ गया. चंचल को भी आज ही दिल्ली लौटना था, लेकिन चंचल ने न जाने का फैसला किया. इधर, आकांक्षा भी अपना सारा सामान पैक कर बैठी थी. पंकज को लगा था, 2-4 दिन दूर रहेगी आकांक्षा उस से तो खुद ही अक्ल आ जाएगी. पंकज के बिना आकांक्षा का कहां मन लगना था. लेकिन जो वो देख रहा था, वो अप्रत्याशित था.

‘‘आकांक्षा, क्या बचपना है ये?‘‘

‘‘बच्चों बिना कैसा बचपना? बच्चे तो इस घर में आने से रहे तो मैं ही बच्चा बन कर देख लेती हूं.‘‘

‘‘बस भी करो ये पागलपन… परेशान हो गया हूं मैं.‘‘

‘‘सो तो मैं भी. चलो परेशानी खत्म कर देते हैं. मैं ने साथ वाली कालोनी में एक रूम व किचन देख लिया है. तलाक के कागजात भिजवा दूंगी.‘‘

‘‘चलती हूं.‘‘

पंकज के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई हो मानो.

‘‘ठहरो आकांक्षा… बैठो, बात तो करो.‘‘

‘‘क्या बात करनी है पंकज? तुम्हारा फैसला मुझे पता है.‘‘

‘‘अच्छा, क्या पता है तुम को? यही ना कि मुझे अपने जैसा बेटा नहीं चाहिए, बल्कि तुम्हारे जैसी बेटी चाहिए. एकदम समझदार, मजबूत और निडर…‘‘

इस बार, आकांक्षा खुद को रोक नहीं पाई. पंकज को गले लगाते ही सालों का दर्द आंसुओं के साथ बहा दिया, आकांक्षा ने. रह गया तो उन दोनों के बीच का प्यार बस.

उधर, दिल्ली में जब शिशिर पूरे परिवार के साथ घर लौटा, तो चंचल और बच्चों को वहां न देख गुस्से से आगबबूला हो गया.

‘‘चंचल की इतनी हिम्मत? अभी बताता हूं उसे…‘‘

इस बार फोन नहीं किया, शिशिर ने, सीधा नासिक के लिए फ्लाइट ली. ‘‘बहुत बोलने लगी है, पीहर बैठ जाने को बोलूंगा न तो अपनेआप सीधी हो जाएगी.‘‘

रात होतेहोते शिशिर चंचल के घर पहुंच ही गया. चंचल जैसे उसी के इंतजार में बैठी थी. डोरबैल बजी, चंचल ने दरवाजा खोला, एकदम सपाट चेहरे के साथ. न खुशी, न नाराजगी. लेकिन शिशिर तो नाराज था ही.

‘‘अपना सामान पैक करो चंचल… और तुम घर में क्यों नहीं हो? यहां क्यों हो? चल क्या रहा है दिमाग में तुम्हारे.‘‘

‘‘हाथपैर धो कर खाना खा लो शिशिर, डिनर तैयार है. बाद में बात करते हैं.‘‘

तभी आशु आ कर शिशिर से लिपट गया, ‘‘पापा आ गए… पापा आ गए.‘‘

बेटे को देख कर शिशिर अपना गुस्सा भूल गया, कुछ देर को. और फ्रेश होने चला गया.

डिनर के बाद चंचल ने उसे छत पर बुलाया, ‘‘हम्म, बताइए, क्या बोल रहे थे आप?‘‘

‘‘क्या बोलूंगा? तुम फोन क्यों नहीं उठा रही हो? और घर क्यों नहीं पहुंची अब तक?‘‘

‘‘क्या आप को सच में नहीं पता शिशिर?‘‘

‘‘अगर ये तुम्हारे बेकार से सर्टिफिकेट कोर्स और जौब के लिए है तो मुझे कोई बात नहीं करनी इस बारे में. तुम अच्छे से जानती हो, मां को बिलकुल पसंद नहीं ये सब और बच्चे…? बच्चों का भी खयाल नहीं आया तुम्हें? उन्हें कौन देखेगा?‘‘

‘‘शांत हो जाओ शिशिर, बात तो मुझे भी करनी है आप से और इसी बारे में करनी है, लेकिन इस तरह नहीं.‘‘

‘‘जो कौर्स और जौब तुम्हारे लिए बेकार है, वो मेरी आत्मनिर्भरता है. और इतने सालों से बच्चों को देख रही हूं न, आगे भी देख लूंगी.‘‘

‘‘मुझे नहीं पसंद, कह दिया न…‘‘

‘‘बात आप की पसंद की नहीं है, मेरे अस्तित्व की है.‘‘

‘‘तो ठीक है, आज से मेरे घर के दरवाजे बंद तुम्हारे लिए…‘‘

‘‘ठीक है, आप जब चाहें, जा सकते हैं.‘‘

इतना शांत जवाब? शिशिर अंदर तक हिल गया. सिर पकड़ कर बैठ गया, दस मिनट.

‘‘चंचल, क्या तुम सच में मेरे बिना रहना चाहती हो?‘‘

‘‘नहीं… मैं आप के साथ रहना चाहती हूं, लेकिन अपनी पहचान के साथ.‘‘

सुबकते हुए शिशिर बोला, ‘‘ठीक है, सुबह चलो साथ.‘‘

‘‘और मांजी?‘‘

‘‘परेशान मत होओ, सुबह सब साथ चलते हैं. सुहाना मैं और तुम, जब सब साथ मिल कर मनाएंगे तो मां भी मान ही जाएगी.‘‘

दोनों के चेहरे पर प्यार भरी मुसकराहट आ जाती है.

 

 

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June 30, 2020 at 10:00AM

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