Thursday 28 January 2021

बोल ‘जय श्री राम’-भाग 3: आलिम आखिरी सांस लेते हुए क्या कहा था

‘‘वैदेही, अभी समय लक्ष्य के आकाश पर उड़ान भरने का है, स्वप्नों को जीवन प्रदान करने का है. हृदय में यदि प्रेम है, तो वह सदा रहेगा. यदि यह समय के साथ धूमिल हो भी गया, तो उसे एक आसक्ति सम झ बिसार देना. हर स्थिति में मित्रता तो जीवित रहेगी ही.’’

भावनाओं की एक वेगवती नदी, जो बांध तोड़ कर बह रही थी, साहिल से मिलते ही शांत हो गई थी. वैदेही का हृदय इस पुरुष के शब्दों और उस के नेत्रों से बंध गया था. इस बंधन में भी स्वाधीनता का यह अनुभव नवीन तो था ही, सुभग भी था.

‘‘मित्रता तो सदा रहेगी, आलिम,’’ वैदेही के कपोलों का रंग सुर्खलाल हो गया था.

‘‘इस नवीन मैत्री की साक्षी यह कैंटीन रहेगी.’’ हंसते हुए आलिम खाने का और्डर देने चला गया था.

एक वर्ष में मित्रता का यह बीज अंकुरित हो गया था. उन दोनों ने एकदूसरे को बिना किसी शर्त स्वीकार कर लिया था. न कोई वादा, न किसी रिश्ते का बंधन और न ही कोई प्रतिज्ञा. अनकहे प्रेम की शक्ति वृहत होती है, उसे शब्दों की बैसाखी की आवश्यकता नहीं होती. उन का मौन ही संवाद होता है.

दोनों की पारिवारिक पृष्ठभूमि ही नहीं, व्यक्तित्व और आचरण भी भिन्न थे. जहां आलिम नास्तिक था, वहीं वैदेही की ईश्वर में अटूट आस्था थी. हर सुबह कालेज जाने से पूर्व वह 101 बार गायत्री मंत्र का पाठ करना नहीं भूलती थी. आलिम कभी उस की आस्था पर प्रश्न नहीं उठाता और न ही वैदेही उसे आस्तिक बनाने का प्रयास करती थी.

आलिम एक शाकाहारी था. आरंभ में मांसाहार का सेवन करता था किंतु उसे उस का स्वाद कभी पसंद नहीं आया. बचपन में जब अपने बाबा के साथ बकरे अथवा मुरगे का मांस लेने जाता, वह उन्हें कटता देख कर रो देता था. अपने पेट को भरने के लिए किसी जीव की हत्या करने का कारण उसे स्वार्थ लगने लगा था. वहीं, शाकाहारी परिवार में पलीबढ़ी वैदेही बटर चिकन की दीवानी थी. दोनों में से किसी ने भी कभी एकदूसरे के स्वाद पर भी सवाल नहीं उठाया. उन का मानना था, आदमी का आहार उस की पसंद का विषय है. आहार के आधार पर उस का वर्गीकरण करना मूर्खता है.

जहां सूर्योदय को देखना आलिम को प्रिय था, वैदेही को देर तक सोना पसंद था. आलिम को पुराने गीत और गजल पसंद थे, वैदेही नए गानों पर  झूमना पसंद करती थी. लेकिन, वे प्रसन्न थे. क्योंकि, दोनों ने ही अपनी वैयक्तिकता के साथ कोई सम झौता नहीं किया था.

विषय की पढ़ाई के साथ ही दोनों ने सिविल सर्विसेज की तैयारी भी शुरू कर दी थी. वैदेही एक मेधावी छात्रा तो नहीं थी लेकिन परिश्रमी अवश्य थी. उसे आलिम के सान्निध्य से एक मजबूत संबल भी प्राप्त हो गया था. यही कारण था कि स्नातक में बड़ी मुश्किल से प्रथम श्रेणी लाने वाली वैदेही स्नातकोत्तर के प्रथम वर्ष में डिस्ंिटक्शन के साथ पास हुई थी. समय कभी किसी के लिए नहीं थमता. अच्छा हो अथवा बुरा, उसे गुजरना ही होता है.

उन के कालेज का अंतिम साल भी समाप्त हो गया था. आखिरी पेपर के बाद दोनों कुछ दिनों के लिए गांव चले गए थे. शीघ्र ही लौट कर सिविल सर्विसेज की तैयारी में लग जाना था. वैदेही ने तो दिल्ली के एक कोचिंग संस्थान का पता भी कर लिया था. आलिम भी दिल्ली आने की ही सोच रहा था. किंतु उस की प्राथमिकता स्वअध्ययन थी.

उन के बीच हुए एक पारस्परिक अनुबंध के अनुसार दोनों ने गांव में एकदूसरे से दूरी बना रखी थी. भूल से एकदूसरे के सम्मुख पड़ने पर दोनों अजनबीपन की चादर ओढ़ लेते थे. लेकिन लाख सावधानी रखने पर भी नियति को छलना असंभव होता है.

हर गांव में कुछ आवारा और बेकार लड़कों की प्रजाति पाई जाती है. उन की न कोई जाति होती है और न धर्म. उन के लिए हर लड़की, चाहे वह किसी भी धर्म अथवा जाति से संबंध रखती हो, एक वस्तु होती है. बिना किसी भेदभाव के लड़कियों पर भौंडी फब्तियां कसना उन का स्वभाव होता है. वे छेड़छाड़ करते समय लड़की के जातीय अथवा धार्मिक वर्गीकरण पर ध्यान नहीं रखते, वे मात्र उस के शरीर के वर्गों पर नजर रखते हैं. किंतु, जब यह बात लड़की के घर तक पहुंचती है, उन आवारा लड़कों को सजा दिलाने से पूर्व, उन के जातीय अथवा धार्मिक वर्गीकरण के आधार पर बदला लेने की योजना बन जाती है. उस शाम भी कुछ ऐसा ही हुआ था.

उस शाम वैदेही और उस की सहेली जया बाजार से लौट रही थीं. रास्ते में गांव के कुछ आवारा लड़कों का समूह कंचे खेल रहा था. जमीन का बंटवारा भी धर्म और जाति के आधार पर हो रखा था. चूंकि वह महल्ला मुसलमानों का था और उस समूह में अधिकांश मुसलमान थे.

‘‘वह जा रही पंडित की लौंडिया,’’ एक ने कहा था.

‘‘कौन सी वाली?’’ दूसरे ने कहा जैसे बिना देखे तो उस का जीवन समाप्त हो जाएगा.

‘‘जे वाली,’’ इतना कह कर उस ने आगे बढ़ वैदेही का दुपट्टा पकड़ लिया था.

इन फब्तियों को अनसुना कर आगे बढ़ जाने की बात हर लड़की को घुट्टी में बांध कर पिलाई जाती है. वैदेही और जया सिर  झुका कर आगे बढ़ ही रहे थे कि रहमान ने वह अनहोनी कर दी थी.

ठीक उसी समय अचानक आलिम और उस का छोटा भाई घूमते हुए वहां आ गए थे, ‘‘रहमान…’’ आलिम की इस चीख से रहमान कुछ पलों के लिए सहम गया और उस ने दुपट्टा छोड़ दिया था.

तेज कदमों से चलता हुआ आलिम वैदेही के निकट जा खड़ा हुआ था. वैदेही की आंखें आलिम से चुप रहने की विनती करने लगी थीं. आलिम जैसा पुरुष तो ऐसी परिस्थिति में किसी भी स्त्री के लिए उठ खड़ा होता, फिर यहां तो बात वैदेही की थी.

‘‘तुम ठीक हो?’’ वैदेही के हाथों को थाम कर आलिम बोला था. उस के स्वर की पीड़ा ने वैदेही के दिल को छू लिया था. किंतु, वस्तुस्थिति वह सम झ रही थी. उस ने एक  झटके में हाथ हटा लिया था.

‘‘आलिम, आप यहां से जाइए. मैं भी घर चली जाऊंगी,’’ वैदेही ने धीरे से आलिम को सम झाने का प्रयास किया था.

‘‘पहले भी कहा था, बारबार कहूंगा. अज्ञानतावश कही गई गलत बात क्षम्य है लेकिन सही बात भी यदि चतुराई अथवा गलत भावना से कही गई है तो वह गलत है. फिर यह तो सोचसम झ कर किया गया गलत कार्य है. रहमान, अभी माफी मांग,’’ आलिम का क्रोध  झलक रहा था.

रहमान ने उस समय क्षमा मांग ली थी लेकिन उन में से कोई भी जया के भीतर के प्रश्नों के पहाड़ को नहीं देख पाया था. वैदेही ने उसे इस घटना का जिक्र किसी से भी करने से मना किया था. लेकिन इस बात से जया के प्रश्नों का पहाड़ उस के सिर से उतर कर हृदय पर बैठ गया था.

घर पहुंचते ही जया ने वह पहाड़ उतार कर अपनी मां के सम्मुख रख दिया. बातों के मात्र पैर नहीं होते, उन्हें भूख भी लगती है. तभी तो क्षणभर में ही एक से दूसरे कान तक पहुंच जाती है, वह भी दोगुनी और तिगुनी हो कर.

वैदेही के परिवार तक पहुंचने में भी कहां समय लगा था.

‘‘वैदेही,’’ उच्च स्वर में पिता के मुख से अपना नाम सुनते ही वैदेही सब सम झ गई थी.

‘‘जी बाबूजी.’’

‘‘कल कुछ मुल्लों ने तुम्हारा अपमान किया था, तुम ने बताया नहीं.’’ उन की इस बात पर वैदेही के मुख पर दर्दभरी एक मुसकान खेल गई थी.

‘‘बाबूजी, मैं बताने ही वाली थी कि वह घटना याद आ गई थी. बचपन में एक बार जब गुरुजी के अनुचित स्पर्श के बारे में आप को बताया, तो आप ने ‘कोई खास बात नहीं है’ कह कर टाल दिया था. उस के बाद एक लड़के की भद्दी टिप्पणी के बारे में मां को बताया था. उन्होंने इसे स्त्री जीवन का कष्टदायक लेकिन अभिन्न अंग बता कर चुप रहने की शिक्षा दी थी. कल जो हुआ वह कुछ भिन्न नहीं था. क्या बताती आप को?’’

‘‘ज्ञात होता है, तु झे इतना बोलना अहमद का बेटा सिखा रहा है. तुम दोनों का चक्कर कब से चल रहा है?’’ इस बार वैदेही का बड़ा भाई बोला था.

वैदेही अनहोनी की आशंका से कांप गई थी. वह गिड़गिड़ाने लगी थी, ‘‘भाई, ऐसा कुछ नहीं है. वह, बस, मु झे बचा रहा था.’’

‘‘हाथ पकड़ कर, गले से लगा कर,’’ भाई के चेहरे पर कुटिल मुसकान खेल रही थी.

‘‘यह  झूठ है भाई,’’ वैदेही चीख पड़ी थी.

‘‘इन म्लेच्छों को इन की औकात बताने का समय आ गया है. ब्राह्मण की बेटी को हाथ लगाने की कुचेष्टा का उचित दंड देना ही पड़ेगा,’’ बाबूजी ने कहा था.

जब मां और भाभी वैदेही को घसीटते हुए अंदर ले जा रही थीं तो उस ने भाई की आंखों में खून उतरते हुए देख लिया था. जब तक वैदेही के शरीर में शक्ति थी, वह बंद दरवाजे पर चोट करती रही. दरवाजे के बाहर मां और भाभी अनभीष्ट बैठीं वैसे ही अपना काम करती रहीं जैसे इस देश की जनता मूक हो कर करती रहती है. क्लांत वैदेही का शरीर गिर गया, लेकिन उस के हाथ नहीं रुके. विरोध की अभिव्यक्ति नहीं रुकी.

उधर जब एक भीड़, एक अप्रशासनिक समूह, बिना किसी न्याय प्रक्रिया के पूर्वनियोजित योजना के तहत उसे दोषी निर्धारित कर, शारीरिक प्रताड़ना देने आ रही थी, उस समय आलिम अपने जीवन का अंतिम रात्रिभोजन अपने परिवार के साथ कर रहा था.

भीड़ वाले पहले रहमान के घर गए थे लेकिन रहमान उन की पकड़ में नहीं आ पाया. वह भाग गया था. फिर उन का क्रोध आलिम पर अधिक भड़क गया था. उस के घर के दरवाजे पर लातों और घूंसों से दस्तक दी गई. शोर सुनते ही महल्ले के अन्य लोग जाग गए थे लेकिन कोई भी पंडित के बेटे के सम्मुख खड़े होने की हिम्मत नहीं जुटा पाया. दरवाजा खोलते ही आलिम को उस के घर से घसीटते हुए गांव के बीच ला कर खड़ा कर दिया गया था. पीछेपीछे उस के बाबा और भाई भी आ गए थे. उस समय तक भीड़ में मात्र ब्राह्मणों का  झुंड था.

‘‘देवी, क्या हुआ है? मौलवी का बेटा तो बड़ा सीधा मालूम पड़ता है. इस ने ऐसा क्या कर दिया? और अगर मामला तेरे घर का था तो गांव को क्यों जगाया?’’ गांव के सरपंच निर्मल ठाकुर ने पूछा था.

‘‘सीधा कह रहे हो ताऊ. अरे, ले कर आ रे,’’ उस के इतना कहते ही एक लड़का आलिम की साइकिल ले कर आ गया था. साइकिल के पीछे एक बड़ा बैग बंधा हुआ था.

‘‘बैग खोल कर दिखा,’’ उस ने आदेश दिया था.

बैग में एक बछड़े का अधकटा शरीर था. पलभर में ही भीड़ की भक्ति दोगुनी हो कर आलिम के शरीर पर टूट पड़ी थी. जो अभी तक तमाशबीन बन कर सब देख रहे थे वे भी अब भक्तिपूर्वक प्रभु की सेवा में लग गए थे. आलिम के पिता और भाई की निर्बल आवाज उन के कानों तक पहुंच ही नहीं रही थी. वे लगातार आलिम के शाकाहारी होने की दुहाई दे रहे थे. लेकिन बाहरी भीड़ को कहां कुछ सुनाई देता है. आलिम को बचाने में भीड़ के क्रोध का शिकार वे दोनों भी हो रहे थे.

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‘‘वैदेही, अभी समय लक्ष्य के आकाश पर उड़ान भरने का है, स्वप्नों को जीवन प्रदान करने का है. हृदय में यदि प्रेम है, तो वह सदा रहेगा. यदि यह समय के साथ धूमिल हो भी गया, तो उसे एक आसक्ति सम झ बिसार देना. हर स्थिति में मित्रता तो जीवित रहेगी ही.’’

भावनाओं की एक वेगवती नदी, जो बांध तोड़ कर बह रही थी, साहिल से मिलते ही शांत हो गई थी. वैदेही का हृदय इस पुरुष के शब्दों और उस के नेत्रों से बंध गया था. इस बंधन में भी स्वाधीनता का यह अनुभव नवीन तो था ही, सुभग भी था.

‘‘मित्रता तो सदा रहेगी, आलिम,’’ वैदेही के कपोलों का रंग सुर्खलाल हो गया था.

‘‘इस नवीन मैत्री की साक्षी यह कैंटीन रहेगी.’’ हंसते हुए आलिम खाने का और्डर देने चला गया था.

एक वर्ष में मित्रता का यह बीज अंकुरित हो गया था. उन दोनों ने एकदूसरे को बिना किसी शर्त स्वीकार कर लिया था. न कोई वादा, न किसी रिश्ते का बंधन और न ही कोई प्रतिज्ञा. अनकहे प्रेम की शक्ति वृहत होती है, उसे शब्दों की बैसाखी की आवश्यकता नहीं होती. उन का मौन ही संवाद होता है.

दोनों की पारिवारिक पृष्ठभूमि ही नहीं, व्यक्तित्व और आचरण भी भिन्न थे. जहां आलिम नास्तिक था, वहीं वैदेही की ईश्वर में अटूट आस्था थी. हर सुबह कालेज जाने से पूर्व वह 101 बार गायत्री मंत्र का पाठ करना नहीं भूलती थी. आलिम कभी उस की आस्था पर प्रश्न नहीं उठाता और न ही वैदेही उसे आस्तिक बनाने का प्रयास करती थी.

आलिम एक शाकाहारी था. आरंभ में मांसाहार का सेवन करता था किंतु उसे उस का स्वाद कभी पसंद नहीं आया. बचपन में जब अपने बाबा के साथ बकरे अथवा मुरगे का मांस लेने जाता, वह उन्हें कटता देख कर रो देता था. अपने पेट को भरने के लिए किसी जीव की हत्या करने का कारण उसे स्वार्थ लगने लगा था. वहीं, शाकाहारी परिवार में पलीबढ़ी वैदेही बटर चिकन की दीवानी थी. दोनों में से किसी ने भी कभी एकदूसरे के स्वाद पर भी सवाल नहीं उठाया. उन का मानना था, आदमी का आहार उस की पसंद का विषय है. आहार के आधार पर उस का वर्गीकरण करना मूर्खता है.

जहां सूर्योदय को देखना आलिम को प्रिय था, वैदेही को देर तक सोना पसंद था. आलिम को पुराने गीत और गजल पसंद थे, वैदेही नए गानों पर  झूमना पसंद करती थी. लेकिन, वे प्रसन्न थे. क्योंकि, दोनों ने ही अपनी वैयक्तिकता के साथ कोई सम झौता नहीं किया था.

विषय की पढ़ाई के साथ ही दोनों ने सिविल सर्विसेज की तैयारी भी शुरू कर दी थी. वैदेही एक मेधावी छात्रा तो नहीं थी लेकिन परिश्रमी अवश्य थी. उसे आलिम के सान्निध्य से एक मजबूत संबल भी प्राप्त हो गया था. यही कारण था कि स्नातक में बड़ी मुश्किल से प्रथम श्रेणी लाने वाली वैदेही स्नातकोत्तर के प्रथम वर्ष में डिस्ंिटक्शन के साथ पास हुई थी. समय कभी किसी के लिए नहीं थमता. अच्छा हो अथवा बुरा, उसे गुजरना ही होता है.

उन के कालेज का अंतिम साल भी समाप्त हो गया था. आखिरी पेपर के बाद दोनों कुछ दिनों के लिए गांव चले गए थे. शीघ्र ही लौट कर सिविल सर्विसेज की तैयारी में लग जाना था. वैदेही ने तो दिल्ली के एक कोचिंग संस्थान का पता भी कर लिया था. आलिम भी दिल्ली आने की ही सोच रहा था. किंतु उस की प्राथमिकता स्वअध्ययन थी.

उन के बीच हुए एक पारस्परिक अनुबंध के अनुसार दोनों ने गांव में एकदूसरे से दूरी बना रखी थी. भूल से एकदूसरे के सम्मुख पड़ने पर दोनों अजनबीपन की चादर ओढ़ लेते थे. लेकिन लाख सावधानी रखने पर भी नियति को छलना असंभव होता है.

हर गांव में कुछ आवारा और बेकार लड़कों की प्रजाति पाई जाती है. उन की न कोई जाति होती है और न धर्म. उन के लिए हर लड़की, चाहे वह किसी भी धर्म अथवा जाति से संबंध रखती हो, एक वस्तु होती है. बिना किसी भेदभाव के लड़कियों पर भौंडी फब्तियां कसना उन का स्वभाव होता है. वे छेड़छाड़ करते समय लड़की के जातीय अथवा धार्मिक वर्गीकरण पर ध्यान नहीं रखते, वे मात्र उस के शरीर के वर्गों पर नजर रखते हैं. किंतु, जब यह बात लड़की के घर तक पहुंचती है, उन आवारा लड़कों को सजा दिलाने से पूर्व, उन के जातीय अथवा धार्मिक वर्गीकरण के आधार पर बदला लेने की योजना बन जाती है. उस शाम भी कुछ ऐसा ही हुआ था.

उस शाम वैदेही और उस की सहेली जया बाजार से लौट रही थीं. रास्ते में गांव के कुछ आवारा लड़कों का समूह कंचे खेल रहा था. जमीन का बंटवारा भी धर्म और जाति के आधार पर हो रखा था. चूंकि वह महल्ला मुसलमानों का था और उस समूह में अधिकांश मुसलमान थे.

‘‘वह जा रही पंडित की लौंडिया,’’ एक ने कहा था.

‘‘कौन सी वाली?’’ दूसरे ने कहा जैसे बिना देखे तो उस का जीवन समाप्त हो जाएगा.

‘‘जे वाली,’’ इतना कह कर उस ने आगे बढ़ वैदेही का दुपट्टा पकड़ लिया था.

इन फब्तियों को अनसुना कर आगे बढ़ जाने की बात हर लड़की को घुट्टी में बांध कर पिलाई जाती है. वैदेही और जया सिर  झुका कर आगे बढ़ ही रहे थे कि रहमान ने वह अनहोनी कर दी थी.

ठीक उसी समय अचानक आलिम और उस का छोटा भाई घूमते हुए वहां आ गए थे, ‘‘रहमान…’’ आलिम की इस चीख से रहमान कुछ पलों के लिए सहम गया और उस ने दुपट्टा छोड़ दिया था.

तेज कदमों से चलता हुआ आलिम वैदेही के निकट जा खड़ा हुआ था. वैदेही की आंखें आलिम से चुप रहने की विनती करने लगी थीं. आलिम जैसा पुरुष तो ऐसी परिस्थिति में किसी भी स्त्री के लिए उठ खड़ा होता, फिर यहां तो बात वैदेही की थी.

‘‘तुम ठीक हो?’’ वैदेही के हाथों को थाम कर आलिम बोला था. उस के स्वर की पीड़ा ने वैदेही के दिल को छू लिया था. किंतु, वस्तुस्थिति वह सम झ रही थी. उस ने एक  झटके में हाथ हटा लिया था.

‘‘आलिम, आप यहां से जाइए. मैं भी घर चली जाऊंगी,’’ वैदेही ने धीरे से आलिम को सम झाने का प्रयास किया था.

‘‘पहले भी कहा था, बारबार कहूंगा. अज्ञानतावश कही गई गलत बात क्षम्य है लेकिन सही बात भी यदि चतुराई अथवा गलत भावना से कही गई है तो वह गलत है. फिर यह तो सोचसम झ कर किया गया गलत कार्य है. रहमान, अभी माफी मांग,’’ आलिम का क्रोध  झलक रहा था.

रहमान ने उस समय क्षमा मांग ली थी लेकिन उन में से कोई भी जया के भीतर के प्रश्नों के पहाड़ को नहीं देख पाया था. वैदेही ने उसे इस घटना का जिक्र किसी से भी करने से मना किया था. लेकिन इस बात से जया के प्रश्नों का पहाड़ उस के सिर से उतर कर हृदय पर बैठ गया था.

घर पहुंचते ही जया ने वह पहाड़ उतार कर अपनी मां के सम्मुख रख दिया. बातों के मात्र पैर नहीं होते, उन्हें भूख भी लगती है. तभी तो क्षणभर में ही एक से दूसरे कान तक पहुंच जाती है, वह भी दोगुनी और तिगुनी हो कर.

वैदेही के परिवार तक पहुंचने में भी कहां समय लगा था.

‘‘वैदेही,’’ उच्च स्वर में पिता के मुख से अपना नाम सुनते ही वैदेही सब सम झ गई थी.

‘‘जी बाबूजी.’’

‘‘कल कुछ मुल्लों ने तुम्हारा अपमान किया था, तुम ने बताया नहीं.’’ उन की इस बात पर वैदेही के मुख पर दर्दभरी एक मुसकान खेल गई थी.

‘‘बाबूजी, मैं बताने ही वाली थी कि वह घटना याद आ गई थी. बचपन में एक बार जब गुरुजी के अनुचित स्पर्श के बारे में आप को बताया, तो आप ने ‘कोई खास बात नहीं है’ कह कर टाल दिया था. उस के बाद एक लड़के की भद्दी टिप्पणी के बारे में मां को बताया था. उन्होंने इसे स्त्री जीवन का कष्टदायक लेकिन अभिन्न अंग बता कर चुप रहने की शिक्षा दी थी. कल जो हुआ वह कुछ भिन्न नहीं था. क्या बताती आप को?’’

‘‘ज्ञात होता है, तु झे इतना बोलना अहमद का बेटा सिखा रहा है. तुम दोनों का चक्कर कब से चल रहा है?’’ इस बार वैदेही का बड़ा भाई बोला था.

वैदेही अनहोनी की आशंका से कांप गई थी. वह गिड़गिड़ाने लगी थी, ‘‘भाई, ऐसा कुछ नहीं है. वह, बस, मु झे बचा रहा था.’’

‘‘हाथ पकड़ कर, गले से लगा कर,’’ भाई के चेहरे पर कुटिल मुसकान खेल रही थी.

‘‘यह  झूठ है भाई,’’ वैदेही चीख पड़ी थी.

‘‘इन म्लेच्छों को इन की औकात बताने का समय आ गया है. ब्राह्मण की बेटी को हाथ लगाने की कुचेष्टा का उचित दंड देना ही पड़ेगा,’’ बाबूजी ने कहा था.

जब मां और भाभी वैदेही को घसीटते हुए अंदर ले जा रही थीं तो उस ने भाई की आंखों में खून उतरते हुए देख लिया था. जब तक वैदेही के शरीर में शक्ति थी, वह बंद दरवाजे पर चोट करती रही. दरवाजे के बाहर मां और भाभी अनभीष्ट बैठीं वैसे ही अपना काम करती रहीं जैसे इस देश की जनता मूक हो कर करती रहती है. क्लांत वैदेही का शरीर गिर गया, लेकिन उस के हाथ नहीं रुके. विरोध की अभिव्यक्ति नहीं रुकी.

उधर जब एक भीड़, एक अप्रशासनिक समूह, बिना किसी न्याय प्रक्रिया के पूर्वनियोजित योजना के तहत उसे दोषी निर्धारित कर, शारीरिक प्रताड़ना देने आ रही थी, उस समय आलिम अपने जीवन का अंतिम रात्रिभोजन अपने परिवार के साथ कर रहा था.

भीड़ वाले पहले रहमान के घर गए थे लेकिन रहमान उन की पकड़ में नहीं आ पाया. वह भाग गया था. फिर उन का क्रोध आलिम पर अधिक भड़क गया था. उस के घर के दरवाजे पर लातों और घूंसों से दस्तक दी गई. शोर सुनते ही महल्ले के अन्य लोग जाग गए थे लेकिन कोई भी पंडित के बेटे के सम्मुख खड़े होने की हिम्मत नहीं जुटा पाया. दरवाजा खोलते ही आलिम को उस के घर से घसीटते हुए गांव के बीच ला कर खड़ा कर दिया गया था. पीछेपीछे उस के बाबा और भाई भी आ गए थे. उस समय तक भीड़ में मात्र ब्राह्मणों का  झुंड था.

‘‘देवी, क्या हुआ है? मौलवी का बेटा तो बड़ा सीधा मालूम पड़ता है. इस ने ऐसा क्या कर दिया? और अगर मामला तेरे घर का था तो गांव को क्यों जगाया?’’ गांव के सरपंच निर्मल ठाकुर ने पूछा था.

‘‘सीधा कह रहे हो ताऊ. अरे, ले कर आ रे,’’ उस के इतना कहते ही एक लड़का आलिम की साइकिल ले कर आ गया था. साइकिल के पीछे एक बड़ा बैग बंधा हुआ था.

‘‘बैग खोल कर दिखा,’’ उस ने आदेश दिया था.

बैग में एक बछड़े का अधकटा शरीर था. पलभर में ही भीड़ की भक्ति दोगुनी हो कर आलिम के शरीर पर टूट पड़ी थी. जो अभी तक तमाशबीन बन कर सब देख रहे थे वे भी अब भक्तिपूर्वक प्रभु की सेवा में लग गए थे. आलिम के पिता और भाई की निर्बल आवाज उन के कानों तक पहुंच ही नहीं रही थी. वे लगातार आलिम के शाकाहारी होने की दुहाई दे रहे थे. लेकिन बाहरी भीड़ को कहां कुछ सुनाई देता है. आलिम को बचाने में भीड़ के क्रोध का शिकार वे दोनों भी हो रहे थे.

The post बोल ‘जय श्री राम’-भाग 3: आलिम आखिरी सांस लेते हुए क्या कहा था appeared first on Sarita Magazine.

January 29, 2021 at 10:00AM

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