Thursday 28 January 2021

बोल ‘जय श्री राम’-भाग 2: आलिम आखिरी सांस लेते हुए क्या कहा था

आलिम के लिए तो वैदेही का अस्तित्व ही नहीं था. किंतु, वैदेही को आलिम जैसे सुचित्त की विद्वत्ता, सादगी, साफगोई तथा उदासीनता ने मोह लिया था. वह पिछले 2 वर्षों में आलिम से संलाप स्थापित करने के हर प्रयास में पराजित हो  गई थी.

कुरसी पर बैठने से भी आलिम की ऊंचाई का अंदाजा लगाना कठिन नहीं था. लंबा कद, गेहुंआ रंग, पतली नाक पर काले रंग के पतले फ्रेम का चश्मा और हलके कत्थई रंग के होंठ. पिछले 3 वर्षों से वह उसे ऐसे ही निहारती आ रही थी. प्रथम वर्ष तो मात्र अपनी भावनाओं को सम झने में खर्च हो गया. बाद के 2 वर्ष संवाद स्थापित करने के निरर्थक प्रयास में समाप्त हो गए. अब कुछ समय से उसे आलिम के व्यवहार में परिवर्तन प्रतीत हो रहा था. उस की उपस्थिति को समूल नकार देने वाला आलिम अब उसे एक नजर देख लिया करता था. शायद यह उस का भ्रम ही था लेकिन इस भ्रम में कैद वैदेही आज रिहा हो गई थी. अपनी जगह से उठ कर, सीधे आलिम के पास जा पहुंची और उस के निकट वाली कुरसी खींच कर बैठ गई थी.

चर्रचर्र… कुरसी खींचने की इस ध्वनि ने आलिम के प्रवाह को रोक दिया था. अपना सिर उठा कर उस ने आवाज की दिशा में देखा, तो वहां अपने अधरों पर खेदपूर्ण मंदहास के साथ वैदेही को पाया. ऐसा नहीं था कि आलिम को वैदेही के हृदय की दशा का संज्ञान नहीं था लेकिन वह वस्तुस्थितियों को सम झता था. वह भावनाओं को व्यावहारिकता से विजित करना जानता था. इसलिए उस ने अपनी उदासीनता को हथियार बनाया था. लेकिन, वैदेही की भावनाओं का ज्वार तो घटने के स्थान पर बढ़ गया था.

आलिम चश्मा उतार कर उसे ही देख रहा था. उन भूरी आंखों की आर्द्रता का वैदेही पहली बार अनुभव कर रही थी. समय को रोक लेने की उस की प्रार्थना अस्वीकार हो गई थी. आलिम के नेत्रों के अग्रहण की उपेक्षा कर वह बोली थी, ‘‘मु झे सम झ आ गया है कि आप सम झ गए हैं.’’

आलिम ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया. बस, अपनी डायरी और पुस्तकों को उठाया और लाइब्रेरी से बाहर निकल गया था. उस अपमान से वैदेही का मुख कुछ क्षणों के लिए काला अवश्य पड़ गया था लेकिन उस उपेक्षा ने उस के निश्चय को अधिक दृढ़ कर दिया था.

आलिम को लगा कि वैदेही चली जाएगी लेकिन वह तो उस के पीछेपीछे कैंटीन तक आ गई थी, बोली, ‘‘आप मु झ से भाग क्यों रहे हैं?’’ ‘‘ऐसा कुछ नहीं है,’’ आलिम कुरसी खींच कर बैठ गया था. उस ने वैदेही को भी बैठने का संकेत किया.

‘‘फिर बिना कुछ कहे, चले क्यों आए?’’ उस ने बैठते हुए कहा था. ‘‘जहां तक मैं जानता हूं, लाइब्रेरी में बात करना अनुपयुक्त है.’’ आलिम की बात सुन वैदेही की पलकें  झुक गई थीं.

‘‘मैं…’’ वैदेही कुछ कहती, इस से पहले ही आलिम ने उसे रोक दिया था, ‘‘पहले कुछ खाने का और्डर दे दें, मैं ने सुबह से कुछ खाया नहीं.’’ ‘‘हां…हां, वैदेही बोली थी.’’ ‘‘आप कुछ लेंगी?’’ आलिम ने पूछा तो  वैदेही ने न में गरदन हिला दी थी.

‘‘मेरे साथ खाने में कोई समस्या तो नहीं?’’ आलिम के इस व्यंग्यमिश्रित वाक्य ने वैदेही के हृदय को मरोड़ दिया था. वह तड़प उठी थी. ‘‘मेरी घ्राणशक्ति आप की सुगंध को मेरे हृदय तक ले गई थी. मेरे नेत्रों के द्वार से हो कर, बिना किसी दस्तक के, आप मेरी जान में बस गए. उस एक क्षण में मेरे शरीर, मेरे अंतर्मन और मेरे हृदय का आप के साथ समागम हो गया था, समस्या तब नहीं हुई, तो अब तो मैं भी आप ही हूं.’’

वैदेही जिन पंक्तियों का अभ्यास कर के आई थी और जिन्हें बोलने के प्रयास में हारे जा रही थी, उन के स्थान पर कुछ भिन्न कह गई थी. लेकिन, जब हृदय बोलता है, होंठ खामोश हो जाते हैं.

आलिम निरुशब्द, निर्निमेष वैदेही को देखता रह गया था. उस उन्मेष में उस का हृदय भी पलभर के लिए जागृत हुआ था. लेकिन, वह सत्य सम झता था. वह निर्बल नहीं था. वह मूर्ख भी नहीं था. उस ने स्वयं को संभाल लिया था.

‘‘वैदेही, मैं आप की भावनाओं को आहत नहीं करना चाहता, उन का सम्मान करता हूं. लेकिन यह मात्र मूर्खता नहीं है, बल्कि अपने उज्ज्वल भविष्य की हत्या है.’’

‘‘तो आप ने भी एक  झूठ ओढ़ा हुआ है. बातें समाज को बदलने की करते हैं लेकिन वास्तविक प्रयास से पीछे हट जाते हैं. इतना विरोधाभास क्यों?’’ वैदेही क्रोधित हो गई थी. आलिम के होंठों पर एक विजयी मुसकान खिल गई. उसे वैदेही से ऐसी ही प्रतिक्रिया की अपेक्षा थी.

‘‘मैं मात्र समाज बदलने की बात नहीं करना चाहता, वास्तविकता में बदलाव चाहता हूं. मैं आज मात्र एक छात्र हूं. मेरे विचार मात्र मेरे हैं. मु झे इस लायक बनना है कि जब मैं कुछ कहूं तो उसे यह समाज सुने. अंतर्जातीय अथवा अंतर्धर्मीय प्रेम अथवा विवाह कर लेने मात्र से यह समाज नहीं बदलेगा. उस से पूर्व, स्वयं को आर्थिक तथा मानसिक रूप से इतना सशक्त बनाओ कि किसी भी तरह के विरोध का प्रभावशाली प्रतिवचन दे सको.

‘‘आज मेरे पास वह शक्ति नहीं है कि मेरी इन भावनाओं का प्रतिफल यदि मेरे परिवार, हमारे समुदायों और हमारे गांव को चुकाना पड़े तो मैं खड़ा हो सकूं. समाज को बदलने की बात लिखना जितना सरल है, बदलना उतना ही कठिन. यहां तक आने के लिए मैं ने कठिनाइयों के विशाल सागर को पार किया है. और आज भी स्वयं को डूबने से बचाने में प्रयासरत हूं.

‘‘तुम भी तो सम झती हो कि अत्यंत परिश्रम के बाद ही एक स्त्री उस गांव से निकल कर यहां तक पहुंचती है. यहां तक आ कर बदलाव का आरंभ तो तुम ने कर ही दिया है लेकिन तुम्हारा एक कदम उस गांव की अन्य स्त्रियों के लिए शिक्षा का द्वार सदा के लिए बंद कर देगा. तुम जो कह रही हो, वह गलत नहीं है लेकिन धर्म और जाति की पट्टी बांधे खड़ा यह समाज गांधारीरूपी है. इस की आंखों से पट्टी उतारने के लिए और सही समय पर सत्य का बोध कराने के लिए शिक्षा के दीपक को हर स्त्री व पुरुष के भीतर जलाना होगा. कूपमंडूकता के इस सागर को पार करने के लिए पुस्तकों का सेतु बनाना होगा.

 

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आलिम के लिए तो वैदेही का अस्तित्व ही नहीं था. किंतु, वैदेही को आलिम जैसे सुचित्त की विद्वत्ता, सादगी, साफगोई तथा उदासीनता ने मोह लिया था. वह पिछले 2 वर्षों में आलिम से संलाप स्थापित करने के हर प्रयास में पराजित हो  गई थी.

कुरसी पर बैठने से भी आलिम की ऊंचाई का अंदाजा लगाना कठिन नहीं था. लंबा कद, गेहुंआ रंग, पतली नाक पर काले रंग के पतले फ्रेम का चश्मा और हलके कत्थई रंग के होंठ. पिछले 3 वर्षों से वह उसे ऐसे ही निहारती आ रही थी. प्रथम वर्ष तो मात्र अपनी भावनाओं को सम झने में खर्च हो गया. बाद के 2 वर्ष संवाद स्थापित करने के निरर्थक प्रयास में समाप्त हो गए. अब कुछ समय से उसे आलिम के व्यवहार में परिवर्तन प्रतीत हो रहा था. उस की उपस्थिति को समूल नकार देने वाला आलिम अब उसे एक नजर देख लिया करता था. शायद यह उस का भ्रम ही था लेकिन इस भ्रम में कैद वैदेही आज रिहा हो गई थी. अपनी जगह से उठ कर, सीधे आलिम के पास जा पहुंची और उस के निकट वाली कुरसी खींच कर बैठ गई थी.

चर्रचर्र… कुरसी खींचने की इस ध्वनि ने आलिम के प्रवाह को रोक दिया था. अपना सिर उठा कर उस ने आवाज की दिशा में देखा, तो वहां अपने अधरों पर खेदपूर्ण मंदहास के साथ वैदेही को पाया. ऐसा नहीं था कि आलिम को वैदेही के हृदय की दशा का संज्ञान नहीं था लेकिन वह वस्तुस्थितियों को सम झता था. वह भावनाओं को व्यावहारिकता से विजित करना जानता था. इसलिए उस ने अपनी उदासीनता को हथियार बनाया था. लेकिन, वैदेही की भावनाओं का ज्वार तो घटने के स्थान पर बढ़ गया था.

आलिम चश्मा उतार कर उसे ही देख रहा था. उन भूरी आंखों की आर्द्रता का वैदेही पहली बार अनुभव कर रही थी. समय को रोक लेने की उस की प्रार्थना अस्वीकार हो गई थी. आलिम के नेत्रों के अग्रहण की उपेक्षा कर वह बोली थी, ‘‘मु झे सम झ आ गया है कि आप सम झ गए हैं.’’

आलिम ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया. बस, अपनी डायरी और पुस्तकों को उठाया और लाइब्रेरी से बाहर निकल गया था. उस अपमान से वैदेही का मुख कुछ क्षणों के लिए काला अवश्य पड़ गया था लेकिन उस उपेक्षा ने उस के निश्चय को अधिक दृढ़ कर दिया था.

आलिम को लगा कि वैदेही चली जाएगी लेकिन वह तो उस के पीछेपीछे कैंटीन तक आ गई थी, बोली, ‘‘आप मु झ से भाग क्यों रहे हैं?’’ ‘‘ऐसा कुछ नहीं है,’’ आलिम कुरसी खींच कर बैठ गया था. उस ने वैदेही को भी बैठने का संकेत किया.

‘‘फिर बिना कुछ कहे, चले क्यों आए?’’ उस ने बैठते हुए कहा था. ‘‘जहां तक मैं जानता हूं, लाइब्रेरी में बात करना अनुपयुक्त है.’’ आलिम की बात सुन वैदेही की पलकें  झुक गई थीं.

‘‘मैं…’’ वैदेही कुछ कहती, इस से पहले ही आलिम ने उसे रोक दिया था, ‘‘पहले कुछ खाने का और्डर दे दें, मैं ने सुबह से कुछ खाया नहीं.’’ ‘‘हां…हां, वैदेही बोली थी.’’ ‘‘आप कुछ लेंगी?’’ आलिम ने पूछा तो  वैदेही ने न में गरदन हिला दी थी.

‘‘मेरे साथ खाने में कोई समस्या तो नहीं?’’ आलिम के इस व्यंग्यमिश्रित वाक्य ने वैदेही के हृदय को मरोड़ दिया था. वह तड़प उठी थी. ‘‘मेरी घ्राणशक्ति आप की सुगंध को मेरे हृदय तक ले गई थी. मेरे नेत्रों के द्वार से हो कर, बिना किसी दस्तक के, आप मेरी जान में बस गए. उस एक क्षण में मेरे शरीर, मेरे अंतर्मन और मेरे हृदय का आप के साथ समागम हो गया था, समस्या तब नहीं हुई, तो अब तो मैं भी आप ही हूं.’’

वैदेही जिन पंक्तियों का अभ्यास कर के आई थी और जिन्हें बोलने के प्रयास में हारे जा रही थी, उन के स्थान पर कुछ भिन्न कह गई थी. लेकिन, जब हृदय बोलता है, होंठ खामोश हो जाते हैं.

आलिम निरुशब्द, निर्निमेष वैदेही को देखता रह गया था. उस उन्मेष में उस का हृदय भी पलभर के लिए जागृत हुआ था. लेकिन, वह सत्य सम झता था. वह निर्बल नहीं था. वह मूर्ख भी नहीं था. उस ने स्वयं को संभाल लिया था.

‘‘वैदेही, मैं आप की भावनाओं को आहत नहीं करना चाहता, उन का सम्मान करता हूं. लेकिन यह मात्र मूर्खता नहीं है, बल्कि अपने उज्ज्वल भविष्य की हत्या है.’’

‘‘तो आप ने भी एक  झूठ ओढ़ा हुआ है. बातें समाज को बदलने की करते हैं लेकिन वास्तविक प्रयास से पीछे हट जाते हैं. इतना विरोधाभास क्यों?’’ वैदेही क्रोधित हो गई थी. आलिम के होंठों पर एक विजयी मुसकान खिल गई. उसे वैदेही से ऐसी ही प्रतिक्रिया की अपेक्षा थी.

‘‘मैं मात्र समाज बदलने की बात नहीं करना चाहता, वास्तविकता में बदलाव चाहता हूं. मैं आज मात्र एक छात्र हूं. मेरे विचार मात्र मेरे हैं. मु झे इस लायक बनना है कि जब मैं कुछ कहूं तो उसे यह समाज सुने. अंतर्जातीय अथवा अंतर्धर्मीय प्रेम अथवा विवाह कर लेने मात्र से यह समाज नहीं बदलेगा. उस से पूर्व, स्वयं को आर्थिक तथा मानसिक रूप से इतना सशक्त बनाओ कि किसी भी तरह के विरोध का प्रभावशाली प्रतिवचन दे सको.

‘‘आज मेरे पास वह शक्ति नहीं है कि मेरी इन भावनाओं का प्रतिफल यदि मेरे परिवार, हमारे समुदायों और हमारे गांव को चुकाना पड़े तो मैं खड़ा हो सकूं. समाज को बदलने की बात लिखना जितना सरल है, बदलना उतना ही कठिन. यहां तक आने के लिए मैं ने कठिनाइयों के विशाल सागर को पार किया है. और आज भी स्वयं को डूबने से बचाने में प्रयासरत हूं.

‘‘तुम भी तो सम झती हो कि अत्यंत परिश्रम के बाद ही एक स्त्री उस गांव से निकल कर यहां तक पहुंचती है. यहां तक आ कर बदलाव का आरंभ तो तुम ने कर ही दिया है लेकिन तुम्हारा एक कदम उस गांव की अन्य स्त्रियों के लिए शिक्षा का द्वार सदा के लिए बंद कर देगा. तुम जो कह रही हो, वह गलत नहीं है लेकिन धर्म और जाति की पट्टी बांधे खड़ा यह समाज गांधारीरूपी है. इस की आंखों से पट्टी उतारने के लिए और सही समय पर सत्य का बोध कराने के लिए शिक्षा के दीपक को हर स्त्री व पुरुष के भीतर जलाना होगा. कूपमंडूकता के इस सागर को पार करने के लिए पुस्तकों का सेतु बनाना होगा.

 

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January 29, 2021 at 10:00AM

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