Monday 28 September 2020

अजाबे जिंदगी -भाग 4 : क्या एक औरत होना ही कुसूर था नईमा का

जमात से निकाल दिए जाने की धमकी ने करामत को सहमा दिया. करामत नईमा को तलाक दिए जाने के फैसले पर बौखला गया. एक बार फिर वह गरजता, बरसता कमरे में घुसा और धड़ाम से दरवाजा अंदर से बंद कर लिया. डरीसहमी नईमा के बाल पकड़ कर खींचते हुए पलंग पर पटक दिया, ‘‘सुन, तलाक तो मुकीम भाई का गमगीन चेहरा देख कर दे रहा हूं मगर याद रख, जब भी मेरी ख्वाहिश का अजगर फन उठाएगा तो उस की खुराक पूरी करनी होगी, समझी. वरना तुझे समूचा का समूचा निगल कर तेरी हड्डीपसलियां तोड़ कर पचा जाने की भी ताकत रखता है यह करामत.’’नईमा कंपकंपा गई यह सुन कर. वह रात काली थी मगर जितनी शिद्दत से उस कालिमा को महसूस कर रही थी नईमा, उतनी शायद किसी ने भी नहीं की होगी. उजले बदन पर नाखूनों और दांतों के नीले निशान लिए नईमा अब्बा के घर लौटी. आखिर किस मिट्टी की बनी है यह औरत, जो मर्दों के हर जुल्म को बरदाश्त कर लेती है.

‘‘अम्मी, करामत से तलाक के बाद अब तो मेरा निकाह बच्चों के अब्बू से दोबारा हो जाएगा न,’’ अंदर से घबराई, डरीडरी सी नईमा ने अपनी अम्मी से पूछा.

‘‘मेरे खयाल से अब कोई दिक्कत तो नहीं आनी चाहिए,’’ अम्मा ने उसे तसल्ली दी.

‘‘बस, अम्मी, इद्दत के 3 महीने 13 दिनों के बाद के दिन निकाह की तारीख तय करवा लेना अब्बा से कह कर. बस, थोड़े दिनों की बात और है अम्मी, मेरा और बच्चों का बहुत बोझ पड़ गया है आप दोनों के बूढ़े कंधों पर. लेकिन अम्मा, फिक्र मत करो, मैं दिन में बीड़ी और रात को कपड़ों में बटन टांक कर पाईपाई जमा करूंगी और रफीक मुकद्दम का सारा कर्जा, सूद समेत चुका दूंगी,’’ आशाओं की हजार किरणें उतर आईं नईमा की आंखों में. अम्मी की बूढ़ी पलकें बेटी की शबनमी हमदर्दी से भीग गईं.इद्दत के दिनों में ही नईमा ने घर सजाने की कई छोटीबड़ी चीजें खरीद लीं. जिंदगी को नए सिरे से जीने की ललक ने मीठामीठा एहसास जगा दिया नईमा के दिल में. पुराने दिनों की तमाम तल्खियों को भूल कर हर पल खुशहाल जिंदगी जीने के सपने फिर से पनीली आंखों में तैरने लगे.

मौका मिलते ही वह बच्चों को समझाने से न चूकती, ‘‘बेटा, ऐसी गलत हरकत मत करो. अब्बू देखेंगे तो नाराज होंगे. कहेंगे, कैसे नकारा हो गए हैं बच्चे.’’

मां के मानसिक द्वंद्व और उथलपुथल से बेखबर बच्चे कभी पतंग उड़ाते तो कभी आम की कैरियां तोड़ने में व्यस्त रहते.

‘‘अम्मी, तुम तो बोल रही थीं कि अपने पुराने वाले घर चलेंगे. कब चलेंगे अम्मी?’’ छोटी बेटी मुबीना ने नईमा के कंधों पर झूलते हुए पूछा था.

‘‘कल ही चलेंगे, बेटी,’’ कहते हुए नईमा के चेहरे पर खुशियों के अनगिनत दीप जल गए. उसी दिन शाम को मुकीम दालान में बैठ कर नईमा के अब्बा से बातें कर रहा था. झेंपा हुआ चेहरा, आवाज में दुनियाभर की नरमी समेटे वह नईमा के साथ अपने दूसरे निकाह की योजना बना रहा था. एकदो बार नईमा ने टाट का परदा हटा कर देखा भी, मगर मुकीम ने नजर नहीं मिलाईं. ‘अपने किए पर पछतावा हो रहा होगा.’ यही सोच कर तसल्ली कर ली थी नईमा ने.

इद्दत पूरी होने के दूसरे दिन असर की नमाज के बाद 8-10 जमाती पेशइमाम साहब के मिट्टी से लीपे आंगन में जमा हो गए. नईमा की रजामंदी से मुकीम के साथ दूसरा निकाह अंजाम पा गया और कसबे के इतिहास में एक नया पृष्ठ मिसाल की तरह जुड़ गया. नईमा और बच्चों ने घर में कदम रखा. पहले से ही झोंपड़नुमा मकान अपनी टपकती छत और जर्जर दीवारों की दास्तान सुना रहा था. चूल्हे में मुंहतक भरी राख, जहांतहां फैले कपड़े, औंधे कालिख में सने बरतन मुकीम की लापरवाही को बयां कर रहे थे. 2 दिन और 3 रातें नईमा घर को संवारने में उलझी रही. मुकीम पहले से ज्यादा गंभीर और बुझाबुझा सा रहने लगा. रात को आटो ले कर घर लौटता तो नईमा के कंधों का सहारा ले कर लड़खड़ाते हुए चारपाई तक पहुंचाया जाता.

पूरे 2 महीनों में मुकीम ने एक या दो बार ही बात की होगी नईमा से, वह भी बच्चों के मारफत. नईमा यही समझती रही कि मुकीम अपनी कारगुजारियों और बीवीबच्चों के प्रति किए गए अन्याय के लिए शर्मिंदा है, इसीलिए गुमसुम रहता है.

जिंदगी एक तयशुदा ढर्रे से चल रही थी कि एक सुनसान दोपहर को करामत, नईमा की चौखट पर कुटिल मुसकान लिए आ खड़ा हुआ. नईमा टाट के परदे लगे कच्चे बाथरूम में नहा रही थी. करामत परदे के छोटेछोटे छेदों में अपनी गिद्ध सी आंखें चिपकाए, अंदर का नजारा लेता रहा. बाथरूम से बाहर निकलते ही नईमा को अपनी मजबूत बांहों में कस कर दबोच लिया. नईमा की छटपटाहट भरी घुटीघुटी चीख को करामत ने हथेलियों से दबा दिया. नईमा ने उस के सीने पर अपने दांत गड़ा दिए मगर वह पसीने से लथपथ अपनी दहकन बुझाता रहा. बच्चों की आहट सुन कर जल्दी से बीड़ी मुंह में दबाए बाहर निकल कर तेजतेज कदमों से चल पड़ा जीवनशाह चौराहे की तरफ, बेखौफ सा.

नईमा अपनी बेबसी पर फफकफफक कर रोती रही. महल्ले की औरतें मुंह में तंबाकू वाला पान दबाए दबीदबी हंसी के साथ आपस में कानाफूसी करती रहीं. नशे में धुत मुकीम रात को घर लौटा तो महल्ले के ही मनचलों ने फिकरा कसा, ‘‘क्या करेगी बेचारी नईमा भाभी, आदमी शराबी होगा तो औरत अपनी भूख मिटाने के लिए जंगली कुत्तों का शिकार बनेगी ही न.’’ सुनते ही मुकीम का नशा हिरन हो गया. लड़खड़ाते कदमों से, गाली बकते हुए मुकीम ने दोनों हाथों से चौखट थाम ली. नईमा और बच्चे जमीन पर ही लेटे थे. ढिबरी की रोशनी में बड़े बेटे का चेहरा झिलमिलाया. अब्बू की आवाज सुन कर उठ बैठा था, ‘‘अब्बू, आज शाम को चूल्हा नहीं जला. दोपहर को करामत चाचा आए थे, तब से अम्मी औंधी लेटी, रोए चली जा रही हैं. अब्बू, बहुत भूख लगी है, पैसे दो न, चौराहे से डबलरोटी ले आता हूं, बहुत भूख लगी है. मुबीना, अफजल और पप्पू तो भूखे ही सो गए अब्बू.’’

सुनते ही मुकीम लेटी हुई नईमा को, बाल पकड़ कर घसीटते हुए गली में ले आया था. गंदीगंदी गाली देते हुए उस पर लातघूसों की बौछार करने लगा. गली के लोग अपनेअपने घरों के चबूतरों पर बैठे हुए दांत में फंसे खाने के रेशों को अगरबत्ती की सींकों से निकालते हुए चुपचाप तमाशा देखते रहे. मुकीम के अंदरूनी हैवान ने अपनी गलतियों पर गौर किए बिना ही नईमा को बदकारा करार दे दिया. सहमे हुए बच्चे मुंह ढंक कर सो गए. मुकीम भनभनाता हुए आटो ले कर जाने कहां चला गया. मगर नईमा अपनी बेबसी पर जारोकतार रोती हुई गली में ही पड़ी रही. हमेशा की तरह लोगों ने अपने घरों के दरवाजेखिड़कियां बंद कर लिए और गुदडि़यों में दब कर सो गए. नईमा आधी बेहोशी और आधे होश के आलम में खुद को कोसती रही. एक अदद छत, एक सामाजिक दरवाजा, दो रोटी, बच्चों का भविष्य, इन्हीं की आस ने उसे जलालत के हर मकाम तय करवा दिए. फिर भी… क्या मिला?

नहीं, अब और नहीं, बिलकुल नहीं. बूढ़े मांबाप का एहसास भी अब कमजोर नहीं बना सकता. तो क्या, खुदकुशी करेगी? नहीं, यह गलत है और मैं बुजदिल नहीं. फिर…बच्चों का माथा चूम कर, सिर पर हाथ फेर कर सुबकती नईमा उस रात के अंधेरे में कहां चली गई, महीनों गुजर गए, कहां खो गई, कोई नहीं जान पाया आज तक. जिंदा है भी कि नहीं.

 

The post अजाबे जिंदगी -भाग 4 : क्या एक औरत होना ही कुसूर था नईमा का appeared first on Sarita Magazine.



from कहानी – Sarita Magazine https://ift.tt/2Sa8wy4

जमात से निकाल दिए जाने की धमकी ने करामत को सहमा दिया. करामत नईमा को तलाक दिए जाने के फैसले पर बौखला गया. एक बार फिर वह गरजता, बरसता कमरे में घुसा और धड़ाम से दरवाजा अंदर से बंद कर लिया. डरीसहमी नईमा के बाल पकड़ कर खींचते हुए पलंग पर पटक दिया, ‘‘सुन, तलाक तो मुकीम भाई का गमगीन चेहरा देख कर दे रहा हूं मगर याद रख, जब भी मेरी ख्वाहिश का अजगर फन उठाएगा तो उस की खुराक पूरी करनी होगी, समझी. वरना तुझे समूचा का समूचा निगल कर तेरी हड्डीपसलियां तोड़ कर पचा जाने की भी ताकत रखता है यह करामत.’’नईमा कंपकंपा गई यह सुन कर. वह रात काली थी मगर जितनी शिद्दत से उस कालिमा को महसूस कर रही थी नईमा, उतनी शायद किसी ने भी नहीं की होगी. उजले बदन पर नाखूनों और दांतों के नीले निशान लिए नईमा अब्बा के घर लौटी. आखिर किस मिट्टी की बनी है यह औरत, जो मर्दों के हर जुल्म को बरदाश्त कर लेती है.

‘‘अम्मी, करामत से तलाक के बाद अब तो मेरा निकाह बच्चों के अब्बू से दोबारा हो जाएगा न,’’ अंदर से घबराई, डरीडरी सी नईमा ने अपनी अम्मी से पूछा.

‘‘मेरे खयाल से अब कोई दिक्कत तो नहीं आनी चाहिए,’’ अम्मा ने उसे तसल्ली दी.

‘‘बस, अम्मी, इद्दत के 3 महीने 13 दिनों के बाद के दिन निकाह की तारीख तय करवा लेना अब्बा से कह कर. बस, थोड़े दिनों की बात और है अम्मी, मेरा और बच्चों का बहुत बोझ पड़ गया है आप दोनों के बूढ़े कंधों पर. लेकिन अम्मा, फिक्र मत करो, मैं दिन में बीड़ी और रात को कपड़ों में बटन टांक कर पाईपाई जमा करूंगी और रफीक मुकद्दम का सारा कर्जा, सूद समेत चुका दूंगी,’’ आशाओं की हजार किरणें उतर आईं नईमा की आंखों में. अम्मी की बूढ़ी पलकें बेटी की शबनमी हमदर्दी से भीग गईं.इद्दत के दिनों में ही नईमा ने घर सजाने की कई छोटीबड़ी चीजें खरीद लीं. जिंदगी को नए सिरे से जीने की ललक ने मीठामीठा एहसास जगा दिया नईमा के दिल में. पुराने दिनों की तमाम तल्खियों को भूल कर हर पल खुशहाल जिंदगी जीने के सपने फिर से पनीली आंखों में तैरने लगे.

मौका मिलते ही वह बच्चों को समझाने से न चूकती, ‘‘बेटा, ऐसी गलत हरकत मत करो. अब्बू देखेंगे तो नाराज होंगे. कहेंगे, कैसे नकारा हो गए हैं बच्चे.’’

मां के मानसिक द्वंद्व और उथलपुथल से बेखबर बच्चे कभी पतंग उड़ाते तो कभी आम की कैरियां तोड़ने में व्यस्त रहते.

‘‘अम्मी, तुम तो बोल रही थीं कि अपने पुराने वाले घर चलेंगे. कब चलेंगे अम्मी?’’ छोटी बेटी मुबीना ने नईमा के कंधों पर झूलते हुए पूछा था.

‘‘कल ही चलेंगे, बेटी,’’ कहते हुए नईमा के चेहरे पर खुशियों के अनगिनत दीप जल गए. उसी दिन शाम को मुकीम दालान में बैठ कर नईमा के अब्बा से बातें कर रहा था. झेंपा हुआ चेहरा, आवाज में दुनियाभर की नरमी समेटे वह नईमा के साथ अपने दूसरे निकाह की योजना बना रहा था. एकदो बार नईमा ने टाट का परदा हटा कर देखा भी, मगर मुकीम ने नजर नहीं मिलाईं. ‘अपने किए पर पछतावा हो रहा होगा.’ यही सोच कर तसल्ली कर ली थी नईमा ने.

इद्दत पूरी होने के दूसरे दिन असर की नमाज के बाद 8-10 जमाती पेशइमाम साहब के मिट्टी से लीपे आंगन में जमा हो गए. नईमा की रजामंदी से मुकीम के साथ दूसरा निकाह अंजाम पा गया और कसबे के इतिहास में एक नया पृष्ठ मिसाल की तरह जुड़ गया. नईमा और बच्चों ने घर में कदम रखा. पहले से ही झोंपड़नुमा मकान अपनी टपकती छत और जर्जर दीवारों की दास्तान सुना रहा था. चूल्हे में मुंहतक भरी राख, जहांतहां फैले कपड़े, औंधे कालिख में सने बरतन मुकीम की लापरवाही को बयां कर रहे थे. 2 दिन और 3 रातें नईमा घर को संवारने में उलझी रही. मुकीम पहले से ज्यादा गंभीर और बुझाबुझा सा रहने लगा. रात को आटो ले कर घर लौटता तो नईमा के कंधों का सहारा ले कर लड़खड़ाते हुए चारपाई तक पहुंचाया जाता.

पूरे 2 महीनों में मुकीम ने एक या दो बार ही बात की होगी नईमा से, वह भी बच्चों के मारफत. नईमा यही समझती रही कि मुकीम अपनी कारगुजारियों और बीवीबच्चों के प्रति किए गए अन्याय के लिए शर्मिंदा है, इसीलिए गुमसुम रहता है.

जिंदगी एक तयशुदा ढर्रे से चल रही थी कि एक सुनसान दोपहर को करामत, नईमा की चौखट पर कुटिल मुसकान लिए आ खड़ा हुआ. नईमा टाट के परदे लगे कच्चे बाथरूम में नहा रही थी. करामत परदे के छोटेछोटे छेदों में अपनी गिद्ध सी आंखें चिपकाए, अंदर का नजारा लेता रहा. बाथरूम से बाहर निकलते ही नईमा को अपनी मजबूत बांहों में कस कर दबोच लिया. नईमा की छटपटाहट भरी घुटीघुटी चीख को करामत ने हथेलियों से दबा दिया. नईमा ने उस के सीने पर अपने दांत गड़ा दिए मगर वह पसीने से लथपथ अपनी दहकन बुझाता रहा. बच्चों की आहट सुन कर जल्दी से बीड़ी मुंह में दबाए बाहर निकल कर तेजतेज कदमों से चल पड़ा जीवनशाह चौराहे की तरफ, बेखौफ सा.

नईमा अपनी बेबसी पर फफकफफक कर रोती रही. महल्ले की औरतें मुंह में तंबाकू वाला पान दबाए दबीदबी हंसी के साथ आपस में कानाफूसी करती रहीं. नशे में धुत मुकीम रात को घर लौटा तो महल्ले के ही मनचलों ने फिकरा कसा, ‘‘क्या करेगी बेचारी नईमा भाभी, आदमी शराबी होगा तो औरत अपनी भूख मिटाने के लिए जंगली कुत्तों का शिकार बनेगी ही न.’’ सुनते ही मुकीम का नशा हिरन हो गया. लड़खड़ाते कदमों से, गाली बकते हुए मुकीम ने दोनों हाथों से चौखट थाम ली. नईमा और बच्चे जमीन पर ही लेटे थे. ढिबरी की रोशनी में बड़े बेटे का चेहरा झिलमिलाया. अब्बू की आवाज सुन कर उठ बैठा था, ‘‘अब्बू, आज शाम को चूल्हा नहीं जला. दोपहर को करामत चाचा आए थे, तब से अम्मी औंधी लेटी, रोए चली जा रही हैं. अब्बू, बहुत भूख लगी है, पैसे दो न, चौराहे से डबलरोटी ले आता हूं, बहुत भूख लगी है. मुबीना, अफजल और पप्पू तो भूखे ही सो गए अब्बू.’’

सुनते ही मुकीम लेटी हुई नईमा को, बाल पकड़ कर घसीटते हुए गली में ले आया था. गंदीगंदी गाली देते हुए उस पर लातघूसों की बौछार करने लगा. गली के लोग अपनेअपने घरों के चबूतरों पर बैठे हुए दांत में फंसे खाने के रेशों को अगरबत्ती की सींकों से निकालते हुए चुपचाप तमाशा देखते रहे. मुकीम के अंदरूनी हैवान ने अपनी गलतियों पर गौर किए बिना ही नईमा को बदकारा करार दे दिया. सहमे हुए बच्चे मुंह ढंक कर सो गए. मुकीम भनभनाता हुए आटो ले कर जाने कहां चला गया. मगर नईमा अपनी बेबसी पर जारोकतार रोती हुई गली में ही पड़ी रही. हमेशा की तरह लोगों ने अपने घरों के दरवाजेखिड़कियां बंद कर लिए और गुदडि़यों में दब कर सो गए. नईमा आधी बेहोशी और आधे होश के आलम में खुद को कोसती रही. एक अदद छत, एक सामाजिक दरवाजा, दो रोटी, बच्चों का भविष्य, इन्हीं की आस ने उसे जलालत के हर मकाम तय करवा दिए. फिर भी… क्या मिला?

नहीं, अब और नहीं, बिलकुल नहीं. बूढ़े मांबाप का एहसास भी अब कमजोर नहीं बना सकता. तो क्या, खुदकुशी करेगी? नहीं, यह गलत है और मैं बुजदिल नहीं. फिर…बच्चों का माथा चूम कर, सिर पर हाथ फेर कर सुबकती नईमा उस रात के अंधेरे में कहां चली गई, महीनों गुजर गए, कहां खो गई, कोई नहीं जान पाया आज तक. जिंदा है भी कि नहीं.

 

The post अजाबे जिंदगी -भाग 4 : क्या एक औरत होना ही कुसूर था नईमा का appeared first on Sarita Magazine.

September 29, 2020 at 10:00AM

No comments:

Post a Comment