Monday 28 September 2020

अजाबे जिंदगी -भाग 1 : क्या एक औरत होना ही कुसूर था नईमा का

जीवनशाह चौराहे के दाईं ओर की लंबी सी गली के उस पार कच्ची दीवारों और खपरैल वाले घरों का सिलसिला शुरू हो जाता है. ज्यादातर आबादी मुसलमानों की है जो अपने पुश्तैनी धंधों को कंधे पर लाद कर, सीमित आय और बढ़ती महंगाई के बीच समीकरण बैठातेबैठाते जिंदगी से चूक जाते हैं. वक्त से पहले उन के खिचड़ी हुए बाल, पोपले मुंह और झुकी हुई कमर उन की अभावोंभरी जिंदगी की दर्दनाक सचाई को उजागर करते हैं.

टिमटिमाते असंख्य तारों से भरा स्याह आकाश, पश्चिम से आती सर्द पुरवा, उस समय सहम कर थम सी जाती जब मुकीम का आटो तेज आवाज करता हुआ गली में दाखिल होता. आसपड़ोस के लोग रात के खाने से फ्री हो कर अपनेअपने दुपट्टों और लुंगी के छोर से हाथ पोंछते हुए अगरबत्ती की सींक से खाने के फंसे रेशों को दांतों से निकालने का काम फुरसत में करने लगते. अचानक बरतन पटकने और मुकीम की लड़खड़ाती आवाज की चीखचिल्लाहट, नींद से जागे बच्चों के रोने की आवाज और आखिर में नईमा को बाल खींच कर कच्चे आंगन में पटकपटक कर मारते हुए मुकीम की बेखौफ हंसी के तले दब जाती नईमा की दर्दभरी चीखें. यह किस्सा कोई एक दिन का नहीं, रोज की ही कहानी बन गया था. मांसल जिस्म की मंझोले कद वाली नईमा की रंगत सेमल की रुई की तरह उजली थी. शादी के बाद हर साल बढ़ने वाली बच्चों की पौध ने उस के चेहरे पर कमजोरी की लकीरें खींच दी थीं. अंगूठाछाप नईमा, आटो चला कर चार पैसे कमा कर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर लेने वाले मुकीम को सौंप दी गई थी. 15 वर्गफुट के दायरे में सिमटी नईमा की जिंदगी नागफनी का ऐसा फूल बन कर रह गई जिसे तोड़ कर गुलदान में सजाने की ख्वाहिश एकदम बचकानी सी लगती. पूरे 10 सालों तक, हर रात शराब के भभके के बीच कत्ल की रात बनती रही और हर दिन जिंदगी को नए सिरे से जीने की आस में धीरेधीरे शबनम की तरह पिघलती रही.

गम, परेशानी, अभाव और जिल्लतों के बीच जीती नईमा शौहर के मीठे बोल को तरसती. सबकुछ समय पर छोड़ कर राहत की सांस लेने की लाख कोशिशें करती. हर रोज मुकीम की बेबुनियाद और तर्कहीन बातों को चुपचाप बरदाश्त करना, बेवजह मार खाना, जाने कितनी रातें भूखी सो जाने के बावजूद उस दिन नईमा सिर से पांव तक थरथरा गई जब सब्जी में नमक जरा सा कम होने पर मुकीम के तलाक, तलाक, तलाक के शब्दों ने कानों में सीसा घोल दिया. ‘जाहिल मुकीम ने बिना सोचेसमझे यह क्या कर दिया,’ बस्ती के समझदार मर्द और औरतें मन ही मन बुदबुदाने लगे. ‘‘औरत चाहे फूहड़ हो, बदमिजाज हो, मर्द को अगर बाप का दरजा दिला दे तो मर्द उसे हर हाल में जिंदगीभर बरदाश्त कर लेता है, लेकिन मजहबी और दुनियाबी उसूलों से अनभिज्ञ, गंवार मुकीम, तो बस नाम का ही मुसलमान रह गया,’’ बीड़ी कारखाने के मालिक खालिक साहब की अलीगढ़ में पलीबढ़ी बीवी ने कहा. उस रात नईमा आंगन में बैठी रोरो कर सितारों से अपना कुसूर पूछती रही और चांद से अपने बिगड़े समय को संवारने के लिए फरियाद करती रही. मुकीम, अपने किए से बेखबर, पस्त सा, बच्चों के पायताने दिनचढ़े तक पड़ा रहा.

पौ फटते ही मसजिद से उठती अजान की आवाज सुन पड़ोसी समीर का मुरगा पंख फड़फड़ा कर बांग देने लगा. बूढ़ों की खांसखंखार शुरू हो गई और सूरज की पहली किरण के जमीन को चूमते ही मोहसिन की दादी बकरी के थन को पानी से धोते हुए नईमा को देखते ही मुंह बिचका कर बोलीं, ‘‘नासपीटी कितनी बेशरम है, रात को खसम ने तलाक दे दिया मगर यह कम्बख्तमारी मनहूस सूरत लिए अभी तक यहीं मौजूद है. कसम से, एक की जनी होती तो चली न जाती अपने पेशइमाम बाप के घर.’’ थोड़ी ही देर में नईमा के आसपास बच्चों और औरतों का जमघट सा लग गया. करीमन बूआ बोलीं, ‘‘तलाक के बाद औरत अपने मरद के घर नहीं रह सकती, मौलाना कदीर साहब ने बतलाया था तकरीर में.’’ सुनते ही गुलबानो ने चट लुकमा दिया, ‘‘तलाक के बाद भी यह खूंटे गाड़ कर बैठी है यहां. बड़ी दीदेफटी औरत है. अरे, चलोचलो, झोंटा पकड़ कर गली से निकाल बाहर करो वरना इस के लच्छन और ढिठाई देख कर हमारे घरों की बहुएं भी सिर उठाने पर आमादा हो सकती हैं.’’

3-4 तंदुरुस्त और जाहिल औरतों ने नईमा को लगभग खींचते हुए जीवनशाह चौराहे तक पहुंचा दिया. नईमा रोती रही, रहम की भीख मांगती रही लेकिन एक भी जिगर वाला मर्द या औरत नईमा की मदद के लिए आगे नहीं आया. न ही किसी ने मुकीम की बेजा हरकत का विरोध किया. इसलाम में तलाक देने का हक सिर्फ मर्द को ही दे रखा है. इंसानी जज्बात का मखौल उड़ाती मर्द की करतूत ने बस्ती की हर औरत को भीतर तक कंपकंपा दिया. जाने कब किस का शौहर मुकीम का रवैया दोहरा दे. औरत की ममता, प्यार, अपनापन और वफा सब मजहबी कानूनों के हाथों में ठहरे पत्थरों के वार से बुरी तरह लहूलुहान होते रहे.

नईमा के अब्बा जीविकोपार्जन के लिए पेशइमामत के बाद बचे हुए वक्त में किले के उस पार वाले महल्ले में जा कर बच्चों को उर्दू व अरबी पढ़ा कर अपने और अपनी बूढ़ी बीवी के लिए बमुश्किल दो वक्त की रोटी का इंतजाम कर पाते थे. नईमा और उस के 5 बच्चों का मुंह भिगोने के लिए दलिया तक जुटाना मुश्किल होने लगा. नईमा और उस की अम्मा दिनभर बीड़ी बनातीं, कभी किसी की रजाईगुदड़ी सिल देतीं. किसी के सलवारकुरते पर गोटाटिकली का काम कर के चटनीरोटी का खर्च निकाल लेतीं. 6 साल का बड़ा बेटा छिपछिप कर घर से चुराई हुई बीड़ी पीता और गुलेल से फाख्ता मारने की कोशिश में दिनभर गलीमहल्ले में फिरता रहता. बीवीबच्चों की जिम्मेदारी के सिर से हटते ही मुकीम का आटो अब अपने घर की तरफ मुड़ने के बजाय खुशीपुरा की उस गली की तरफ मुड़ जाता जहां समाज के मवाद को पैसों के बल पर ब्लौटिंगपेपर की तरह सोखा जाता है.

6 महीने की मौजमस्ती के बाद गांठ का पैसा चूकने लगा. आटोरिकशे के लिए बैंक से लिए गए कर्ज की किस्त की रकम जमा करने के लिए नोटिस आने लगे. घर खस्ता हालत में था. खुशीपुरा की दुत्कार कानों को भेदने लगी. तब मुकीम को बच्चों के चेहरे याद आने लगे. नईमा का खामोशी से उस का जुल्म सहना दिलोदिमाग को कुतरने लगा. औंधे पड़े बरतन, टूटा हुआ चूल्हा मुकीम को कोसने लगा तो वह जा कर एक मौलाना के सामने सिर झुका कर खड़ा हो गया. अपनी भूल पर पछताते हुए कोई रास्ता निकालने के लिए गिड़गिड़ाने लगा. उक्त मौलाना ने कहा, ‘‘दूसरा निकाह कर लो मियां. अच्छेखासे हट्टेकट्टे हो, आटो चलाते हो, एक अदद बीवी का पेट तो पाल लोगे.’’

‘‘मौलाना साहब, इस खड़खडि़या से 7 पेट पल ही रहे थे. एक की क्या बात है.’’ वही मर्दाना अकड़ सिर उठाने लगी ही थी कि इस सोच ने एकदम पस्त कर दिया, ‘खिचड़ी बालों वाले 5 बच्चे के बाप को कौन अपनी बेटी देगा. अभी तो बच्चे नईमा के पास हैं. दूसरा निकाह करते ही वह कोर्ट में अपील कर देगी. उन सभी का खानाखर्चा देतेदेते तो मेरी ये खड़खडि़या भी बिक जाएगी.’

‘‘तो आखिर तुम चाहते क्या हो?’’ मौलाना को गुस्सा आने लगा.

‘‘हुजूर 8-9 सालों में जितना नईमा ने मुझे बरदाश्त किया, उतना कोई दूसरी औरत नहीं करेगी. वह ही समझती है मुझे. गलती तो मुझ से हो गई. उस को ही बच्चों के साथ वापस बुलवाने का इंतजाम कर दीजिए तो एहसान मानूंगा.’’ ठोकर खाने के बाद पछतावे के आंसू मौलाना का दिल पिघलाने लगे. ‘‘हूं, एक बार और अच्छी तरह सोच लो. 15 दिनों के बाद मिलना, तब कुछ सोचेंगे,’’ टालते हुए मौलाना अपने घर की तरफ बढ़ गए थे. अजीब मुसलमान है, तलाक के नफानुकसान मालूम नहीं, बस, लठ्ठ की तरह मजलूम औरत पर ठोंक दिया ‘तलाक’. अब जख्म भरने की दवा मांगते फिर रहा है, जाहिल कहीं का. मुसलमान मजहबी उसूलों को उस रूमाल की तरह समझने लगे हैं जिस की एक तह से मुंह पोंछा जाता है और दूसरी तह से जूता साफ किया जाता है.

मुकीम रिश्तेदारों को नईमा के पास सुलह के लिए भेजने लगा. जुमालो चच्ची मुंह में जर्दे वाले पान का बीड़ा चबाते हुए नईमा के पास पहुंचीं और बोलीं, ‘‘नईमा, जो हुआ उसे भूल जा और मुकीम को माफ कर दे, अपने लिए न सही, बच्चों की खातिर माफ कर दे.’’

‘बच्चे?’ चौंकी नईमा. औरत की सब से बड़ी कमजोरी और सब से बड़ी हिम्मत बच्चे ही तो होते हैं. ये बच्चे बेबाप के न हो जाएं. लोग उन पर तलाकशुदा मां के बेलगाम बच्चे होने का फिकरा न कस दें. तिलमिलाहट में बच्चे तब क्या मेरी कुर्बानियों को सही माने में समझ पाएंगे. नहीं, नहीं, सब सह लूंगी लेकिन, बच्चों की हिकारतभरी निगाहें तो मुझे जिंदा ही जमीन में गाड़ देंगी. मुकीम शराबी, अफीमची है तो क्या हुआ, है तो मेरे बच्चों का बाप. मेरा शौहर है, मेरा वसीला है. परंपरागत और बेहद लिजलिजी सी थोपी गई सोच ने नईमा के तपते लोहे से गुस्से को माफ कर देने वाली दरिया में डाल दिया. छन्न सी आवाज के साथ धुंआ सा उठा. काला कसैला धुंआ जो सदियों से औरत के कमजोर फैसलों पर वक्त की कालिमा पोतता रहा है.

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जीवनशाह चौराहे के दाईं ओर की लंबी सी गली के उस पार कच्ची दीवारों और खपरैल वाले घरों का सिलसिला शुरू हो जाता है. ज्यादातर आबादी मुसलमानों की है जो अपने पुश्तैनी धंधों को कंधे पर लाद कर, सीमित आय और बढ़ती महंगाई के बीच समीकरण बैठातेबैठाते जिंदगी से चूक जाते हैं. वक्त से पहले उन के खिचड़ी हुए बाल, पोपले मुंह और झुकी हुई कमर उन की अभावोंभरी जिंदगी की दर्दनाक सचाई को उजागर करते हैं.

टिमटिमाते असंख्य तारों से भरा स्याह आकाश, पश्चिम से आती सर्द पुरवा, उस समय सहम कर थम सी जाती जब मुकीम का आटो तेज आवाज करता हुआ गली में दाखिल होता. आसपड़ोस के लोग रात के खाने से फ्री हो कर अपनेअपने दुपट्टों और लुंगी के छोर से हाथ पोंछते हुए अगरबत्ती की सींक से खाने के फंसे रेशों को दांतों से निकालने का काम फुरसत में करने लगते. अचानक बरतन पटकने और मुकीम की लड़खड़ाती आवाज की चीखचिल्लाहट, नींद से जागे बच्चों के रोने की आवाज और आखिर में नईमा को बाल खींच कर कच्चे आंगन में पटकपटक कर मारते हुए मुकीम की बेखौफ हंसी के तले दब जाती नईमा की दर्दभरी चीखें. यह किस्सा कोई एक दिन का नहीं, रोज की ही कहानी बन गया था. मांसल जिस्म की मंझोले कद वाली नईमा की रंगत सेमल की रुई की तरह उजली थी. शादी के बाद हर साल बढ़ने वाली बच्चों की पौध ने उस के चेहरे पर कमजोरी की लकीरें खींच दी थीं. अंगूठाछाप नईमा, आटो चला कर चार पैसे कमा कर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर लेने वाले मुकीम को सौंप दी गई थी. 15 वर्गफुट के दायरे में सिमटी नईमा की जिंदगी नागफनी का ऐसा फूल बन कर रह गई जिसे तोड़ कर गुलदान में सजाने की ख्वाहिश एकदम बचकानी सी लगती. पूरे 10 सालों तक, हर रात शराब के भभके के बीच कत्ल की रात बनती रही और हर दिन जिंदगी को नए सिरे से जीने की आस में धीरेधीरे शबनम की तरह पिघलती रही.

गम, परेशानी, अभाव और जिल्लतों के बीच जीती नईमा शौहर के मीठे बोल को तरसती. सबकुछ समय पर छोड़ कर राहत की सांस लेने की लाख कोशिशें करती. हर रोज मुकीम की बेबुनियाद और तर्कहीन बातों को चुपचाप बरदाश्त करना, बेवजह मार खाना, जाने कितनी रातें भूखी सो जाने के बावजूद उस दिन नईमा सिर से पांव तक थरथरा गई जब सब्जी में नमक जरा सा कम होने पर मुकीम के तलाक, तलाक, तलाक के शब्दों ने कानों में सीसा घोल दिया. ‘जाहिल मुकीम ने बिना सोचेसमझे यह क्या कर दिया,’ बस्ती के समझदार मर्द और औरतें मन ही मन बुदबुदाने लगे. ‘‘औरत चाहे फूहड़ हो, बदमिजाज हो, मर्द को अगर बाप का दरजा दिला दे तो मर्द उसे हर हाल में जिंदगीभर बरदाश्त कर लेता है, लेकिन मजहबी और दुनियाबी उसूलों से अनभिज्ञ, गंवार मुकीम, तो बस नाम का ही मुसलमान रह गया,’’ बीड़ी कारखाने के मालिक खालिक साहब की अलीगढ़ में पलीबढ़ी बीवी ने कहा. उस रात नईमा आंगन में बैठी रोरो कर सितारों से अपना कुसूर पूछती रही और चांद से अपने बिगड़े समय को संवारने के लिए फरियाद करती रही. मुकीम, अपने किए से बेखबर, पस्त सा, बच्चों के पायताने दिनचढ़े तक पड़ा रहा.

पौ फटते ही मसजिद से उठती अजान की आवाज सुन पड़ोसी समीर का मुरगा पंख फड़फड़ा कर बांग देने लगा. बूढ़ों की खांसखंखार शुरू हो गई और सूरज की पहली किरण के जमीन को चूमते ही मोहसिन की दादी बकरी के थन को पानी से धोते हुए नईमा को देखते ही मुंह बिचका कर बोलीं, ‘‘नासपीटी कितनी बेशरम है, रात को खसम ने तलाक दे दिया मगर यह कम्बख्तमारी मनहूस सूरत लिए अभी तक यहीं मौजूद है. कसम से, एक की जनी होती तो चली न जाती अपने पेशइमाम बाप के घर.’’ थोड़ी ही देर में नईमा के आसपास बच्चों और औरतों का जमघट सा लग गया. करीमन बूआ बोलीं, ‘‘तलाक के बाद औरत अपने मरद के घर नहीं रह सकती, मौलाना कदीर साहब ने बतलाया था तकरीर में.’’ सुनते ही गुलबानो ने चट लुकमा दिया, ‘‘तलाक के बाद भी यह खूंटे गाड़ कर बैठी है यहां. बड़ी दीदेफटी औरत है. अरे, चलोचलो, झोंटा पकड़ कर गली से निकाल बाहर करो वरना इस के लच्छन और ढिठाई देख कर हमारे घरों की बहुएं भी सिर उठाने पर आमादा हो सकती हैं.’’

3-4 तंदुरुस्त और जाहिल औरतों ने नईमा को लगभग खींचते हुए जीवनशाह चौराहे तक पहुंचा दिया. नईमा रोती रही, रहम की भीख मांगती रही लेकिन एक भी जिगर वाला मर्द या औरत नईमा की मदद के लिए आगे नहीं आया. न ही किसी ने मुकीम की बेजा हरकत का विरोध किया. इसलाम में तलाक देने का हक सिर्फ मर्द को ही दे रखा है. इंसानी जज्बात का मखौल उड़ाती मर्द की करतूत ने बस्ती की हर औरत को भीतर तक कंपकंपा दिया. जाने कब किस का शौहर मुकीम का रवैया दोहरा दे. औरत की ममता, प्यार, अपनापन और वफा सब मजहबी कानूनों के हाथों में ठहरे पत्थरों के वार से बुरी तरह लहूलुहान होते रहे.

नईमा के अब्बा जीविकोपार्जन के लिए पेशइमामत के बाद बचे हुए वक्त में किले के उस पार वाले महल्ले में जा कर बच्चों को उर्दू व अरबी पढ़ा कर अपने और अपनी बूढ़ी बीवी के लिए बमुश्किल दो वक्त की रोटी का इंतजाम कर पाते थे. नईमा और उस के 5 बच्चों का मुंह भिगोने के लिए दलिया तक जुटाना मुश्किल होने लगा. नईमा और उस की अम्मा दिनभर बीड़ी बनातीं, कभी किसी की रजाईगुदड़ी सिल देतीं. किसी के सलवारकुरते पर गोटाटिकली का काम कर के चटनीरोटी का खर्च निकाल लेतीं. 6 साल का बड़ा बेटा छिपछिप कर घर से चुराई हुई बीड़ी पीता और गुलेल से फाख्ता मारने की कोशिश में दिनभर गलीमहल्ले में फिरता रहता. बीवीबच्चों की जिम्मेदारी के सिर से हटते ही मुकीम का आटो अब अपने घर की तरफ मुड़ने के बजाय खुशीपुरा की उस गली की तरफ मुड़ जाता जहां समाज के मवाद को पैसों के बल पर ब्लौटिंगपेपर की तरह सोखा जाता है.

6 महीने की मौजमस्ती के बाद गांठ का पैसा चूकने लगा. आटोरिकशे के लिए बैंक से लिए गए कर्ज की किस्त की रकम जमा करने के लिए नोटिस आने लगे. घर खस्ता हालत में था. खुशीपुरा की दुत्कार कानों को भेदने लगी. तब मुकीम को बच्चों के चेहरे याद आने लगे. नईमा का खामोशी से उस का जुल्म सहना दिलोदिमाग को कुतरने लगा. औंधे पड़े बरतन, टूटा हुआ चूल्हा मुकीम को कोसने लगा तो वह जा कर एक मौलाना के सामने सिर झुका कर खड़ा हो गया. अपनी भूल पर पछताते हुए कोई रास्ता निकालने के लिए गिड़गिड़ाने लगा. उक्त मौलाना ने कहा, ‘‘दूसरा निकाह कर लो मियां. अच्छेखासे हट्टेकट्टे हो, आटो चलाते हो, एक अदद बीवी का पेट तो पाल लोगे.’’

‘‘मौलाना साहब, इस खड़खडि़या से 7 पेट पल ही रहे थे. एक की क्या बात है.’’ वही मर्दाना अकड़ सिर उठाने लगी ही थी कि इस सोच ने एकदम पस्त कर दिया, ‘खिचड़ी बालों वाले 5 बच्चे के बाप को कौन अपनी बेटी देगा. अभी तो बच्चे नईमा के पास हैं. दूसरा निकाह करते ही वह कोर्ट में अपील कर देगी. उन सभी का खानाखर्चा देतेदेते तो मेरी ये खड़खडि़या भी बिक जाएगी.’

‘‘तो आखिर तुम चाहते क्या हो?’’ मौलाना को गुस्सा आने लगा.

‘‘हुजूर 8-9 सालों में जितना नईमा ने मुझे बरदाश्त किया, उतना कोई दूसरी औरत नहीं करेगी. वह ही समझती है मुझे. गलती तो मुझ से हो गई. उस को ही बच्चों के साथ वापस बुलवाने का इंतजाम कर दीजिए तो एहसान मानूंगा.’’ ठोकर खाने के बाद पछतावे के आंसू मौलाना का दिल पिघलाने लगे. ‘‘हूं, एक बार और अच्छी तरह सोच लो. 15 दिनों के बाद मिलना, तब कुछ सोचेंगे,’’ टालते हुए मौलाना अपने घर की तरफ बढ़ गए थे. अजीब मुसलमान है, तलाक के नफानुकसान मालूम नहीं, बस, लठ्ठ की तरह मजलूम औरत पर ठोंक दिया ‘तलाक’. अब जख्म भरने की दवा मांगते फिर रहा है, जाहिल कहीं का. मुसलमान मजहबी उसूलों को उस रूमाल की तरह समझने लगे हैं जिस की एक तह से मुंह पोंछा जाता है और दूसरी तह से जूता साफ किया जाता है.

मुकीम रिश्तेदारों को नईमा के पास सुलह के लिए भेजने लगा. जुमालो चच्ची मुंह में जर्दे वाले पान का बीड़ा चबाते हुए नईमा के पास पहुंचीं और बोलीं, ‘‘नईमा, जो हुआ उसे भूल जा और मुकीम को माफ कर दे, अपने लिए न सही, बच्चों की खातिर माफ कर दे.’’

‘बच्चे?’ चौंकी नईमा. औरत की सब से बड़ी कमजोरी और सब से बड़ी हिम्मत बच्चे ही तो होते हैं. ये बच्चे बेबाप के न हो जाएं. लोग उन पर तलाकशुदा मां के बेलगाम बच्चे होने का फिकरा न कस दें. तिलमिलाहट में बच्चे तब क्या मेरी कुर्बानियों को सही माने में समझ पाएंगे. नहीं, नहीं, सब सह लूंगी लेकिन, बच्चों की हिकारतभरी निगाहें तो मुझे जिंदा ही जमीन में गाड़ देंगी. मुकीम शराबी, अफीमची है तो क्या हुआ, है तो मेरे बच्चों का बाप. मेरा शौहर है, मेरा वसीला है. परंपरागत और बेहद लिजलिजी सी थोपी गई सोच ने नईमा के तपते लोहे से गुस्से को माफ कर देने वाली दरिया में डाल दिया. छन्न सी आवाज के साथ धुंआ सा उठा. काला कसैला धुंआ जो सदियों से औरत के कमजोर फैसलों पर वक्त की कालिमा पोतता रहा है.

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September 29, 2020 at 10:00AM

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