Wednesday 30 September 2020

स्नेह की डोर-भाग 3 : संजय और मेरे बीच कैसे जुड़ गए स्नेह के तार

संजय भी हम सब से बहुत घुलमिल गया था. अपनी हर छोटीबड़ी बात, अपनी हर समस्या मुझे ऐसे ही बताता जैसे वह अपनी मां से बात कर रहा हो. यह बात अलग है कि उम्र में इतने कम अंतर के कारण वह भी मुझे मां कहने से झिझकता था.

कुछ दिनों से मैं महसूस कर रही हूं कि जैसेजैसे संजय के साथ जुड़ा रिश्ता मजबूत होता जा रहा था वैसेवैसे निखिल और सारांश का रवैया कुछ बदलता जा रहा था. सारांश अब पहले की तरह उसे घर आया देख कर खुश नहीं होता और निखिल के चेहरे पर भी कोई ज्यादा खुशी के भाव अब नजर नहीं आते. अब वे उस से न ज्यादा बात करते हैं न ही उस से बैठने या कुछ खाने आदि के लिए आग्रह ही करते हैं.

सारांश तो बच्चा है. उस के व्यवहार, उस की बेवजह की जिद और शिकायतों से मुझे अंदाजा होने लगा था कि वह मेरा प्यार बंटता हुआ नहीं देख पा रहा है. मेरे समय, मेरे प्यार, मेरे दुलार, सब पर सिर्फ उसी का अधिकार है. इस सब का अंश मात्र भी वह किसी से बांटना नहीं चाहता. लेकिन निखिल को क्या हुआ है?

मैं कुछ समय से नोट कर रही हूं कि संजय को घर पर आया देख कर निखिल बेवजह छोटीछोटी बात पर चिल्लाने लगते हैं. अलग से बैडरूम में जा कर बैठ जाते हैं. बातोंबातों में संजय का जिक्र आते ही या तो उसे अनसुना कर देते हैं या झट से बातचीत का विषय ही बदल देते हैं. उन के ऐसे व्यवहार से मैं बहुत आहत हो जाती, तनाव में आ जाती.

एक दिन मैं ने निखिल से पूछ ही लिया कि आखिर बात क्या है? उन्हें संजय की कौन सी बात बुरी लग गई है? उन का व्यवहार संजय के प्रति इतना बदल क्यों गया है? निखिल ने भी कुछ नहीं छिपाया. उन्होंने जो कुछ कहा, सुन कर मैं सन्न रह गई.

निखिल का कहना था कि मुझे इस तरह संजय की बातों में आ कर भावनाओं में नहीं बहना चाहिए. इतने बड़े नौजवान को इस उम्र में मां के प्यार की नहीं, एक अच्छे दोस्त की जरूरत होती है. वह यदि अपनी भावनाओं को ठीक से समझ नहीं पा रहा है तो मुझे तो समझदारी से काम लेना चाहिए. संजय का इस तरह अकसर घर आना अफवाहों को हवा दे रहा है. बाहर दुनिया न जाने क्याक्या बातें बना रही होगी.

यह सब सुन कर मैं ने कई दिनों तक इस विषय पर बहुत मंथन किया. निखिल ऐसे नहीं हैं, न ही उन की सोच इतनी कुंठित है. ऐसा होता तो वह पहले ही दिन से संजय के साथ इतने घुलमिल न गए होते. वे मेरे बारे में भी कोई शकशुबहा नहीं रखते हैं. जरूर आसपड़ोस से ही उन्होंने कुछ ऐसावैसा सुना होगा जो उन्हें अच्छा नहीं लगा.

अब कहने वालों का मुंह तो बंद किया नहीं जा सकता, स्वयं को ही सुधारा जा सकता है कि किसी को कुछ कहने का अवसर ही न मिले. लोगों का क्या है, वे तो धुएं की लकीर देखते ही चिनगारियां ढूंढ़ने निकल पड़ते हैं. मैं ने निखिल को कोई सफाई नहीं दी. न ही मैं उन्हें यह बता पाई कि मैं तो संजय में अपने सारांश का भविष्य देखने लग गई हूं. संजय को देखती हूं तो सोचती हूं कि एक दिन हमारा सारांश भी इसी तरह बड़ा होगा. पढ़लिख कर इंजीनियर बनेगा. उसी तरह हमारा सम्मान करेगा, हमारा खयाल रखेगा.

मैं ने महसूस किया है कि अपने इस बदले हुए व्यवहार से निखिल भी सहज नहीं हैं. वे संजय से नाराज भी नहीं हैं. अगर उन्हें संजय का घर आना बुरा लगता होता तो वे उसे साफ शब्दों में मना कर देते. वे बहुत ही स्पष्टवादी हैं, मैं जानती हूं.

लेकिन मैं क्या करूं? संजय से क्या कहूं? उसे घर आने से कैसे रोकूं? वह तो टूट ही जाएगा. जब से उस ने घर आना शुरू किया है वह कितना खुश रहता है.

पढ़ाई में भी बहुत अच्छा कर रहा है. उस का इंजीनियरिंग का यह अंतिम वर्ष है. क्या दुनिया के डर से मैं उस का सुनहरा भविष्य चौपट कर दूं? उस ने तो कितने पवित्र रिश्ते की डोर थाम कर मेरी तरफ अपना हाथ बढ़ाया है. मैं एक औरत, एक मां हो कर उस बिन मां के बच्चे का हाथ झटक दूं?

अभी पिछले दिनों ही तो मदर्स डे के दिन कितने मन से मेरे लिए फूल, कार्ड और मेरी पसंद की मिठाई लाया था. कह रहा था, जिस दिन उस की नौकरी लग जाएगी वह मेरे लिए एक अच्छी सी साड़ी लाएगा. उस की इस पवित्र भावना को मैं दुनिया की बुरी नजर से कैसे बचाऊं?

मैं ने संजय के व्यवहार को बहुत बारीकी से जांचापरखा है लेकिन कहीं कुछ गलत नहीं पाया. उस की भावनाओं में कहीं कोई खोट नहीं है. फिर भी अब न चाहते हुए भी उस के घर आने पर मेरा व्यवहार बड़ा ही असहज हो उठता. पता नहीं आसपड़ोस वालों की गलत सोच मुझ पर हावी हो जाती या निखिल का व्यवहार या सारांश की बिना कारण चिड़चिड़ाहट और जिद मुझ से यह सब करवाती.

इधर संजय ने भी घर आना कम कर दिया है. पता नहीं हम सब के व्यवहार को देख कर यह फैसला किया है या उस ने भी लोगों की बातें सुन लीं या वास्तव में वह परीक्षा की तैयारी में व्यस्त था, जैसा कि उस ने बताया था. मुझे उस की बहुत याद आती. उस की चिंता भी रहती लेकिन मैं किसी से कुछ न कहती, न ही उसे बुलाती.

निखिल औफिस के काम से 10 दिनों के लिए ताइवान गए हुए थे. कल सुबह उन की वापसी थी. मैं और सारांश बहुत बेसब्री से उन के लौटने की राह देख रहे थे. सुबह से मेरी तबीयत भी कुछ ठीक नहीं लग रही थी. शाम होतेहोते अचानक जोरदार कंपकंपाहट के साथ मुझे तेज बुखार आ गया. घर में रखी बुखार की गोली खा ली है. लिहाफकंबल सभी कुछ ओढ़ने के बाद भी मैं कांपती ही जा रही थी. बुखार बढ़ता ही जा रहा था. मैं कब बेहोश हो गई, मुझे कुछ पता ही नहीं लगा.

अगले दिन सुबह जब ठीक से होश आया तो परेशान, दुखी, घबराया हुआ संजय मेरे सामने खड़ा था. उस की उंगली थामे साथ में सारांश भी खड़ा था. मुझे होश में आया देख कर सारांश आंखों में आंसू भर कर मम्मीमम्मी कहता हुआ मुझ से लिपट गया. भाव तो संजय के भी कुछ ऐसे ही थे. आंखें उस की भी सजल हो उठी थीं लेकिन वह अपनी जगह स्थिर खड़ा रहा. तभी निखिल भी आ पहुंचे.

तब हम ने जाना कि मेरी हालत देख कर सारांश पड़ोस की वीना आंटी को बुलाने दौड़ा तो वे लोग घर पर ही नहीं थे. तभी उस ने घबरा कर संजय को फोन कर दिया था. संजय डाक्टर को ले कर पहुंच गया. डाक्टर ने तुरंत मलेरिया का इलाज शुरू कर दिया और खून की जांच करवाने के लिए कहा. उस समय 104 डिगरी बुखार था. डाक्टर के कहे अनुसार संजय रात भर मेरे सिर पर पानी की पट्टियां रखता रहा और दवा देता रहा था. इतना ही नहीं, उस ने सारांश की भी देखभाल की थी.

‘‘तुम ने दूसरी बार मेरी पत्नी की जान बचाई है. मेरी गृहस्थी उजड़ने से बचाई है. मैं तुम्हारा बहुत आभारी हूं,’’ कहते हुए निखिल ने संजय को गले से लगा लिया. निखिल बहुत भावुक हो उठे थे. मैं जानती हूं, वे मुझ से बहुत प्यार करते हैं. मेरी जरा सी परेशानी उन्हें झकझोर देती है.

‘‘यह तो मेरा फर्ज था. मैं एक बार अपनी मां को खो चुका हूं, दोबारा…’’ संजय के जो आंसू अभी तक पलकों में छिपे हुए थे, बह निकले. आंसू तो निखिल की भी आंखों में थे, पता नहीं मेरे ठीक होने की खुशी के थे या संजय के प्रति अपने व्यवहार के पश्चात्ताप के लिए थे.

‘‘तुम दोनों बैठो अपनी मां के पास, मैं नाश्ते का प्रबंध करता हूं. मैं भी रातभर सफर में था और लगता है तुम लोगों ने भी कल रात से कुछ नहीं खाया है,’’ कहते हुए निखिल जल्दी से बाहर चले गए.

मैं जान गई हूं कि अब निखिल को दुनिया की कोई परवा नहीं, उन्होंने मेरे और संजय के रिश्ते की पवित्रता को दिल से स्वीकार कर लिया था.

 

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संजय भी हम सब से बहुत घुलमिल गया था. अपनी हर छोटीबड़ी बात, अपनी हर समस्या मुझे ऐसे ही बताता जैसे वह अपनी मां से बात कर रहा हो. यह बात अलग है कि उम्र में इतने कम अंतर के कारण वह भी मुझे मां कहने से झिझकता था.

कुछ दिनों से मैं महसूस कर रही हूं कि जैसेजैसे संजय के साथ जुड़ा रिश्ता मजबूत होता जा रहा था वैसेवैसे निखिल और सारांश का रवैया कुछ बदलता जा रहा था. सारांश अब पहले की तरह उसे घर आया देख कर खुश नहीं होता और निखिल के चेहरे पर भी कोई ज्यादा खुशी के भाव अब नजर नहीं आते. अब वे उस से न ज्यादा बात करते हैं न ही उस से बैठने या कुछ खाने आदि के लिए आग्रह ही करते हैं.

सारांश तो बच्चा है. उस के व्यवहार, उस की बेवजह की जिद और शिकायतों से मुझे अंदाजा होने लगा था कि वह मेरा प्यार बंटता हुआ नहीं देख पा रहा है. मेरे समय, मेरे प्यार, मेरे दुलार, सब पर सिर्फ उसी का अधिकार है. इस सब का अंश मात्र भी वह किसी से बांटना नहीं चाहता. लेकिन निखिल को क्या हुआ है?

मैं कुछ समय से नोट कर रही हूं कि संजय को घर पर आया देख कर निखिल बेवजह छोटीछोटी बात पर चिल्लाने लगते हैं. अलग से बैडरूम में जा कर बैठ जाते हैं. बातोंबातों में संजय का जिक्र आते ही या तो उसे अनसुना कर देते हैं या झट से बातचीत का विषय ही बदल देते हैं. उन के ऐसे व्यवहार से मैं बहुत आहत हो जाती, तनाव में आ जाती.

एक दिन मैं ने निखिल से पूछ ही लिया कि आखिर बात क्या है? उन्हें संजय की कौन सी बात बुरी लग गई है? उन का व्यवहार संजय के प्रति इतना बदल क्यों गया है? निखिल ने भी कुछ नहीं छिपाया. उन्होंने जो कुछ कहा, सुन कर मैं सन्न रह गई.

निखिल का कहना था कि मुझे इस तरह संजय की बातों में आ कर भावनाओं में नहीं बहना चाहिए. इतने बड़े नौजवान को इस उम्र में मां के प्यार की नहीं, एक अच्छे दोस्त की जरूरत होती है. वह यदि अपनी भावनाओं को ठीक से समझ नहीं पा रहा है तो मुझे तो समझदारी से काम लेना चाहिए. संजय का इस तरह अकसर घर आना अफवाहों को हवा दे रहा है. बाहर दुनिया न जाने क्याक्या बातें बना रही होगी.

यह सब सुन कर मैं ने कई दिनों तक इस विषय पर बहुत मंथन किया. निखिल ऐसे नहीं हैं, न ही उन की सोच इतनी कुंठित है. ऐसा होता तो वह पहले ही दिन से संजय के साथ इतने घुलमिल न गए होते. वे मेरे बारे में भी कोई शकशुबहा नहीं रखते हैं. जरूर आसपड़ोस से ही उन्होंने कुछ ऐसावैसा सुना होगा जो उन्हें अच्छा नहीं लगा.

अब कहने वालों का मुंह तो बंद किया नहीं जा सकता, स्वयं को ही सुधारा जा सकता है कि किसी को कुछ कहने का अवसर ही न मिले. लोगों का क्या है, वे तो धुएं की लकीर देखते ही चिनगारियां ढूंढ़ने निकल पड़ते हैं. मैं ने निखिल को कोई सफाई नहीं दी. न ही मैं उन्हें यह बता पाई कि मैं तो संजय में अपने सारांश का भविष्य देखने लग गई हूं. संजय को देखती हूं तो सोचती हूं कि एक दिन हमारा सारांश भी इसी तरह बड़ा होगा. पढ़लिख कर इंजीनियर बनेगा. उसी तरह हमारा सम्मान करेगा, हमारा खयाल रखेगा.

मैं ने महसूस किया है कि अपने इस बदले हुए व्यवहार से निखिल भी सहज नहीं हैं. वे संजय से नाराज भी नहीं हैं. अगर उन्हें संजय का घर आना बुरा लगता होता तो वे उसे साफ शब्दों में मना कर देते. वे बहुत ही स्पष्टवादी हैं, मैं जानती हूं.

लेकिन मैं क्या करूं? संजय से क्या कहूं? उसे घर आने से कैसे रोकूं? वह तो टूट ही जाएगा. जब से उस ने घर आना शुरू किया है वह कितना खुश रहता है.

पढ़ाई में भी बहुत अच्छा कर रहा है. उस का इंजीनियरिंग का यह अंतिम वर्ष है. क्या दुनिया के डर से मैं उस का सुनहरा भविष्य चौपट कर दूं? उस ने तो कितने पवित्र रिश्ते की डोर थाम कर मेरी तरफ अपना हाथ बढ़ाया है. मैं एक औरत, एक मां हो कर उस बिन मां के बच्चे का हाथ झटक दूं?

अभी पिछले दिनों ही तो मदर्स डे के दिन कितने मन से मेरे लिए फूल, कार्ड और मेरी पसंद की मिठाई लाया था. कह रहा था, जिस दिन उस की नौकरी लग जाएगी वह मेरे लिए एक अच्छी सी साड़ी लाएगा. उस की इस पवित्र भावना को मैं दुनिया की बुरी नजर से कैसे बचाऊं?

मैं ने संजय के व्यवहार को बहुत बारीकी से जांचापरखा है लेकिन कहीं कुछ गलत नहीं पाया. उस की भावनाओं में कहीं कोई खोट नहीं है. फिर भी अब न चाहते हुए भी उस के घर आने पर मेरा व्यवहार बड़ा ही असहज हो उठता. पता नहीं आसपड़ोस वालों की गलत सोच मुझ पर हावी हो जाती या निखिल का व्यवहार या सारांश की बिना कारण चिड़चिड़ाहट और जिद मुझ से यह सब करवाती.

इधर संजय ने भी घर आना कम कर दिया है. पता नहीं हम सब के व्यवहार को देख कर यह फैसला किया है या उस ने भी लोगों की बातें सुन लीं या वास्तव में वह परीक्षा की तैयारी में व्यस्त था, जैसा कि उस ने बताया था. मुझे उस की बहुत याद आती. उस की चिंता भी रहती लेकिन मैं किसी से कुछ न कहती, न ही उसे बुलाती.

निखिल औफिस के काम से 10 दिनों के लिए ताइवान गए हुए थे. कल सुबह उन की वापसी थी. मैं और सारांश बहुत बेसब्री से उन के लौटने की राह देख रहे थे. सुबह से मेरी तबीयत भी कुछ ठीक नहीं लग रही थी. शाम होतेहोते अचानक जोरदार कंपकंपाहट के साथ मुझे तेज बुखार आ गया. घर में रखी बुखार की गोली खा ली है. लिहाफकंबल सभी कुछ ओढ़ने के बाद भी मैं कांपती ही जा रही थी. बुखार बढ़ता ही जा रहा था. मैं कब बेहोश हो गई, मुझे कुछ पता ही नहीं लगा.

अगले दिन सुबह जब ठीक से होश आया तो परेशान, दुखी, घबराया हुआ संजय मेरे सामने खड़ा था. उस की उंगली थामे साथ में सारांश भी खड़ा था. मुझे होश में आया देख कर सारांश आंखों में आंसू भर कर मम्मीमम्मी कहता हुआ मुझ से लिपट गया. भाव तो संजय के भी कुछ ऐसे ही थे. आंखें उस की भी सजल हो उठी थीं लेकिन वह अपनी जगह स्थिर खड़ा रहा. तभी निखिल भी आ पहुंचे.

तब हम ने जाना कि मेरी हालत देख कर सारांश पड़ोस की वीना आंटी को बुलाने दौड़ा तो वे लोग घर पर ही नहीं थे. तभी उस ने घबरा कर संजय को फोन कर दिया था. संजय डाक्टर को ले कर पहुंच गया. डाक्टर ने तुरंत मलेरिया का इलाज शुरू कर दिया और खून की जांच करवाने के लिए कहा. उस समय 104 डिगरी बुखार था. डाक्टर के कहे अनुसार संजय रात भर मेरे सिर पर पानी की पट्टियां रखता रहा और दवा देता रहा था. इतना ही नहीं, उस ने सारांश की भी देखभाल की थी.

‘‘तुम ने दूसरी बार मेरी पत्नी की जान बचाई है. मेरी गृहस्थी उजड़ने से बचाई है. मैं तुम्हारा बहुत आभारी हूं,’’ कहते हुए निखिल ने संजय को गले से लगा लिया. निखिल बहुत भावुक हो उठे थे. मैं जानती हूं, वे मुझ से बहुत प्यार करते हैं. मेरी जरा सी परेशानी उन्हें झकझोर देती है.

‘‘यह तो मेरा फर्ज था. मैं एक बार अपनी मां को खो चुका हूं, दोबारा…’’ संजय के जो आंसू अभी तक पलकों में छिपे हुए थे, बह निकले. आंसू तो निखिल की भी आंखों में थे, पता नहीं मेरे ठीक होने की खुशी के थे या संजय के प्रति अपने व्यवहार के पश्चात्ताप के लिए थे.

‘‘तुम दोनों बैठो अपनी मां के पास, मैं नाश्ते का प्रबंध करता हूं. मैं भी रातभर सफर में था और लगता है तुम लोगों ने भी कल रात से कुछ नहीं खाया है,’’ कहते हुए निखिल जल्दी से बाहर चले गए.

मैं जान गई हूं कि अब निखिल को दुनिया की कोई परवा नहीं, उन्होंने मेरे और संजय के रिश्ते की पवित्रता को दिल से स्वीकार कर लिया था.

 

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October 01, 2020 at 10:00AM

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