Thursday 28 October 2021

आ अब लौट चलें

लेखक-पंकज धवन

गजब का आकर्षण था उस अजनबी महिला के चेहरे पर. उस से हुई छोटी सी मुलाकात के बाद दोबारा मिलने की चाह उसे तड़पाने लगी थी. लेकिन यह एकतरफा चाह क्या मृगमरीचिका जैसी नहीं थी? बसस्टौप तक पहुंचतेपहुंचते मेरा सारा शरीर पसीने से तरबतर हो गया था. पैंट की जेब से रूमाल निकाल कर गरदन के पीछे आया पसीना पोंछा, फिर अपना ब्रीफकेस बैंच पर रख कर इधरउधर देखने लगा. ऊपर बस नंबर लिखे थे. मुझे किसी भी नंबर के बारे में कोई जानकारी नहीं थी.

फिर भी अनमने भाव से कोई जानापहचाना सा नंबर ढूंढ़ने लगा, 26, 212, 50… पता नहीं कौन सी बस मेरे औफिस के आसपास उतार दे. तभी अचानक वहां आई एक महिला से कुछ पूछना चाहा. स्लीवलैस ब्लाउज और पीली प्रिंटेड साड़ी में लिपटी वह महिला बहुत ही तटस्थ भाव से काला चश्मा लगाए एक ओर खड़ी हो गई. महिला के सिवा और कोई था भी नहीं. सकुचाते हुए मैं ने पूछा, ‘‘सैक्टर 40 के लिए यहां से कोई बस जाएगी क्या?’’ ‘‘827,’’ उस का संक्षिप्त सा उत्तर था. ‘‘क्या आप भी उस तरफ जा रही हैं?’’ मैं ने पूछा.

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हालांकि मुझे उस अनजान महिला से इस तरह कुछ पूछना तो नहीं चाहिए था परंतु देर तक कोई बस न आती दिखाई दी तो चुप्पी तोड़ने के लिए पूछ ही बैठा. ‘‘जी,’’ उस ने फिर संक्षिप्त उत्तर दिया. आधा घंटा और खड़े रहने के बाद भी कोई बस नहीं आई. 10 बजने वाले थे. देर से औफिस पहुंचूंगा तो कैसे चलेगा. एकदम सुनसान था बसस्टौप. ‘‘क्या सचमुच यहां से बसें जाती हैं?’’ मैं ने मुसकरा कर कहा. हालांकि मैं ने कुछ उत्तर सुनने के लिए नहीं कहा था, मगर फिर भी उस महिला ने कहा, ‘‘आज शायद बस लेट हो गई हो.’’ बस का इंतजार करना मेरी मजबूरी बन चुका था. आसपास कहीं औटो या रिकशा होता तो शायद एक क्षण के लिए भी न सोचता. तभी वही बस पहले आई जिस का इंतजार था. मुझे 3 महीने हो गए थे इस छोटे से शहर में. बसस्टौप से थोड़ी ही दूर मेरा फ्लैट था.

स्कूटर अचानक स्टार्ट न होने के कारण आज पहली बार बस में जाना पड़ा. बसस्टौप पर भी पूछतेपूछते पहुंच पाया था. स्टेट बैंक की नौकरी में मेरा यह पहला अवसर ही था जब इस छोटे से शहर में, जो कसबा ज्यादा था, रहना पड़ा. बच्चों की पढ़ाई की मजबूरी न होती तो शायद उन्हें भी यहीं ले आता और पत्नी का बच्चों के साथ रहना तो तय ही था. बड़ी लड़की को 10वीं की परीक्षा देनी थी और शहरों की अपेक्षा यहां इतनी सुविधा भी नहीं थी. 2 कमरों का छोटा सा फ्लैट बैंक की तरफ से ही मिला हुआ था. पिछले मैनेजर की भी यही मजबूरी थी, उसे भी इस फ्लैट में 3 वर्ष तक इसी तरह रहना पड़ा था.

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चैक पास करतेकरते उस दिन अचानक कैबिन के दरवाजे की चरमराहट और खनखनाती सी आवाज ने सारा ध्यान तोड़ दिया, ‘‘लौकर के लिए मिलना चाहती हूं,’’ उस महिला ने कैबिन में घुसते ही कहा. मैं ने सिर उठा कर देखा तो देखता ही रह गया. बहुत ही शालीनता से बौबकट बालों को पीछे करती हुई, धूप का चश्मा माथे पर अटकाते हुए उस ने पूछा. ‘‘जी,’’ मैं ने कहा. कोई और होता तो ऊंचे स्वर में 1-2 बातें कर के अपने मैनेजर होने का एहसास जरूर कराता कि देखते नहीं, मैं काम कर रहा हूं. परंतु कुछ कहते न बना. मैं ने एक बार फिर भरपूर नजरों से उसे देखा और उसे सामने वाली कुरसी पर बैठने का इशारा किया. ‘‘लगता है, हम पहले भी मिल चुके हैं,’’ उस महिला का स्पष्ट सा स्वर था, पर स्वर में न कोई महिलासुलभ झिझक थी न ही घबराहट. ‘‘याद आया,’’ मैं ने नाटक सा करते हुए कहा, ‘‘शायद उस दिन बसस्टौप पर…’’ वह मुसकरा पड़ी. मैं फिर बोला, ‘‘अच्छा बताइए, मैं क्या कर सकता हूं आप के लिए?’’ मैं ने सीधेसीधे बिना समय गंवाए पूछा. ‘‘लौकर लेना चाहती हूं इस बैंक में, कोई उपलब्ध हो तो…?’’ ‘‘आप का खाता है क्या यहां?’’ मैं ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘जी हां. पिछले 5 साल से हर बार लौकर के लिए प्रार्थनापत्र देती हूं, परंतु कोई फायदा नहीं हुआ. एफडी करने को भी तैयार हूं…’’ ‘‘क्या करती हैं आप?’’ मैं ने पूछा. ‘‘टीचर हूं, यहीं पास के स्कूल में.’’ मुझे लगा, इसे टालना ठीक नहीं. मैं ने उसे एप्लीकेशन फौर्म के साथ कुछ आवश्यक पेपर पूरे कर के कल लाने को कहा. उस असाधारण सी दिखने वाली महिला ने अपने साधारण स्वभाव से ऐसी अमिट छाप छोड़ दी कि मैं प्रभावित हुए बिना न रह सका. इस छोटी सी पहली मुलाकात से हम दोनों चिरपरिचित की तरह विदा हुए. कितने ही लोग आतेजाते मिलते रहते थे, परंतु इस महिला के आगे सब रंग ऐसे फीके पड़ गए कि मानसपटल पर किसी भी काल्पनिक स्वप्नसुंदरी की छवि भी शायद धूमिल पड़ जाए. दूसरे दिन ही मैं ने उसे लौकर उपलब्ध कराने की जैसे ठान ही ली और सारी औपचारिकताएं पूरी कर लीं. 11 बजे के बाद तो लगातार टकटकी बांधे बेसब्री से निगाहें दरवाजे पर अटकी रहीं. पौने 2 बजे उस के बैंक में आने से ही अटकी निगाहों को थोड़ी राहत मिली.

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चेहरे के सभी भावों को छिपा कर दूसरे कामों में अनमने भाव से लगा रहा, परंतु तिरछी निगाहें मेरी अपनी कैबिन की चरमराहट पर ही थीं. ‘‘नमस्ते,’’ हर बार की तरह संक्षिप्त शब्दों में उस ने मुसकरा कर कहा और कागजात देती हुई बोली, ‘‘ये लीजिए सारे पेपर्स, राशनकार्ड, फोटो और जो आप ने मंगवाए थे.’’ ‘‘बैठिए, प्लीज,’’ उस के हाथ से पेपर्स ले कर मैं ने पूछा, ‘‘कुछ लेंगी आप?’’ ‘‘नो, थैंक्यू. बच्चे स्कूल से घर आने वाले हैं, स्कूल में ही थोड़ा लेट हो गई थी. पहले सोचा कि कल आऊंगी. फिर लगा, न जाने आप क्या सोचेंगे.’’ थोड़ीबहुत खानापूर्ति कर उसे लौकर दिलवा दिया और अपना ताला लौकर में लगाने को कहा, जैसा कि नियम था. मुसकरा कर वह आभार प्रकट करती चली गई. एक सवेरे जौगिंग करते हुए मैं पार्क में पहुंचा तो वह लंबे कदमों से चक्कर लगाने में लीन थी.

मुझे देख कर एक क्षण के लिए रुकी भी, शायद पहचानने का प्रयत्न कर रही हो, पर शुरुआत मैं ने ही की, बोला, ‘‘मेरा नाम…’’ ‘‘जानती हूं,’’ मेरी बात काटती हुई हाथ जोड़ कर बहुत ही शिष्ट व्यवहार से वह बोली, ‘‘आप को भला मैं कैसे भूल सकती हूं. 5 साल से जो नहीं हो पाया वह 2 ही दिन में आप ने कर दिया.’’ उस के पहने हुए नीले रंग के ट्रैक सूट और महंगे जूते उस की पसंद और छवि को दोगुना कर रहे थे. इस शहर में तो इन वस्तुओं का उपलब्ध होना संभव नहीं था, परंतु इन सब के बावजूद बिना किसी मेकअप के उस के चेहरे में गजब की कशिश थी. कोई भी साहित्यकार मेरी आंखों से देखता तो शायद तारीफ में इतिहास रच डालता. ‘‘यहां कैसे, आप? कहीं पास ही में रहती हैं क्या?’’ मैं ने पूछा. ‘‘जी, सामने वाली सोसाइटी में. घूमतेघूमते इधर निकल आई. रविवार था. कहीं जाने की जल्दी तो थी नहीं.

एक ही पार्क है यहां.’’ बातोंबातों में ही उस ने बताया कि 2 छोटे बेटे हैं, पति आर्मी में मेजर हैं और दूसरी जगह पोस्टेड हैं. छुट्टियों में आते रहते हैं. समय बिताने के लिए उस ने यह सब शौक रखे हैं, वरना नीरस से जीवन में क्या रखा है. न जाने क्यों, पहले दिन से ही उस के प्रति आकर्षण था और उस का प्रत्येक हावभाव मेरे दिमाग पर अजीब सी मीठी कसक छोड़ता रहा. मुझे उस से मिलने का नशा सा हो गया. रविवार का मैं बहुत ही बेसब्री से इंतजार करता रहता और वह भी पार्क में आती रही. हम दोनों पार्क के 2 चक्कर तेजी से लगाते, फिर तीसरी बार में इधरउधर की बातें करते रहते. मैं बैंक की बताता तो वह अपने स्कूल के शरारती बच्चों के बारे में. उस का इस तरह नियमित समय से आना लगभग तय था. चेहरे की मुसकराहट तथा भाव से उस का भी मेरे प्रति झुकना कोई असामान्य नहीं लगा. एक दिन अपना उम्र प्रमाणपत्र सत्यापित कराने बैंक में आई तो उस में लिखी उम्र देख कर मैं हैरान रह गया.

‘‘1964 का जन्म है आप का, लगता नहीं कि आप 38 की होंगी,’’ मैं ने कहा तो वह मुसकरा कर रह गई. ‘‘क्यों?’’ वह सकुचाती सी बोली, ‘‘क्या लगता था आप को?’’ शायद हर नारी की तरह वह भी 20-22 ही सुनना चाहती हो. मैं बोला, ‘‘कुछ भी लगता हो, परंतु आप 38 की नहीं लगतीं.’’ उस के चेहरे की लालिमा मुझ से छिपी नहीं रही. इस लालिमा को देखने के लिए ही तो मैं लालायित था. ‘‘शायद इसीलिए ही लड़कियां अपनी उम्र बताना पसंद नहीं करतीं,’’ मैं बोला. महिला के स्थान पर लड़की शब्द का प्रयोग पता नहीं मैं किस बहाव में कर गया, परंतु उसे अच्छा ही लगा होगा. मैं ने फिर दोहराया, ‘‘परंतु कुछ भी कहिए, मिसेज शर्मा, आप 38 की लगती नहीं हैं,’’ मेरे द्वारा चुटकी लेते हुए कही गई इस बात से उस के सुर्ख चेहरे पर गहराती लालिमा देखते ही बनती थी. ‘‘आप मर्दों को तो छेड़ने का बहाना चाहिए,’’ उस ने सहज लेते हुए दार्शनिक अंदाज में मुसकराते हुए कहा. मुझे लगा वह बुरा मान गई है,

इसलिए मैं ने कहा, ‘‘माफी चाहता हूं, यदि अनजाने में कही यह बात आप को अच्छी न लगी हो.’’ ‘‘नहीं, मुझे कुछ भी बुरा नहीं लगा. आप को जो ठीक लगा, आप ने कह दिया. मेरे सामने कह कर स्पष्टवादिता का परिचय दिया, पर पीछे से कहते तो मैं क्या कह सकती थी,’’ वह बोली. इतनी गंभीर बात को सहज ढंग से निबटाना सचमुच प्रशंसनीय था. यह सिलसिला जो पार्क से प्रारंभ हुआ था, पार्क में ही समाप्त होता नजर आने लगा, क्योंकि यह क्रम उस दिन के बाद आगे नहीं चल सका. मुझे लगा वह मेरी उस बात का बुरा मान गईर् होगी. अब हर सवेरे मैं उस पार्क में जा कर एक चक्कर लगाता, 1-2 एक्सरसाइज करता और देर तक इधरउधर शरीर हिला कर व्यायाम का नाटक करता. बैंक में कैबिन के बाहर ही गतिविधियों पर पैनी नजरें गड़ाए रहता, परंतु उस से फिर पूरे 2 सप्ताह न बैंक में मुलाकात हो सकी न पार्क में. शाम होती तो सुबह का इंतजार रहता और सैर के बाद तो बैंक में आने का इंतजार.

3 दिन लगातार बसस्टौप पर भी जाता रहा. मेरे मन की स्थिति एकदम पपीहा जैसी हो गई जो सिर्फ बरसात का इंतजार करता रहता है. उस का पता ले कर एक दिन उस के घर जाने का मन भी बनाया पर लगा, यह ठीक नहीं रहेगा. वह स्वयं क्या सोचेगी, उस के बच्चों को क्या कहूंगा. वह क्या कह कर मेरा परिचय कराएगी और कोशिशों के बावजूद नहीं जा पाया. बैंक में उस के पते के साथ फोन नंबर न होने का आज सचमुच मुझे बहुत ही क्षोभ हुआ. कम से कम फोन तो इस मानसिक अंतर्द्वंद्व को कम करता. चपरासी के हाथ अकाउंट स्टेटमैंट के बहाने उस को बैंक में आने का संदेशा भिजवाया. रविवार की इस सुबह ने मुझे बेहद मायूस किया. इस पूरे आवास काल में पहला रविवार था कि घूमने का मन ही नहीं बन सका. दरवाजे पर अचानक बजी घंटी ने दिल के सारे तार झंकृत कर दिए. इतनी सुबह तो कोई नहीं आता. हो न हो मिसेज शर्मा ही होंगी. लगता है कल चपरासी ठीक समय से पहुंच गया होगा,

यही सोचता मैं जल्दी से स्वयं को ठीक कर के जब तक दूसरी बार घंटी बजती, दरवाजे पर पहुंच गया. सामने अपनी पत्नी को पा कर सारा नशा काफूर हो गया. मेरा चेहरा उतर गया. ‘‘क्यों, हैरान हो गए न,’’ वह हांफते हुए बोली, ‘‘बहुत ही मुश्किल से मकान मिला है,’’ वह अपना सूटकेस भीतर रखते हुए बोली. ‘‘अरे, बताया तो होता, कोई फोन, चिट्ठी…’’ मैं ने कहा. ‘‘सोचा, आप को सरप्राइज दूंगी, जनाब क्या करते रहते हैं इस शहर में. अचानक बच्चों की छुट्टियां हुईं तो उन्हें मायके छोड़ सीधी चली आई. बताने का मौका कहां मिला.’’ मेरा मन उस के आने के इस स्वागत के लिए तैयार तो नहीं था परंतु चेहरे के भावों में संयतता बरतते हुए मुझे सामान्य होना ही पड़ा. फिर भी इस स्थिति को पचाते शाम हो ही गई. पत्नी के 3 दिन के इस आवासकाल में मैं ने हरसंभव प्रयास किया कि नपीतुली बातें की जाएं.

जब भी बाहर घूमने के लिए वह कहती तो सिरदर्द का बहाना बना कर टाल जाता. बाहर खाने के नाम पर उस के हाथ का खाना खाने की जिद करता. मुझे भय सा व्याप्त हो चुका था कि कहीं उस के साथ मिसेज शर्मा मिल गईं तो क्या करूंगा. क्या कह कर हमारा परिचय होगा. मेरे मन में अजीब सी शंका ने घर कर रखा था. मेरी पत्नी उस के स्वभाव, रूप को देख कर क्या सोचेगी. इसी भय के कारण मैं ने 3 दिन की छुट्टी ले ली थी. मन का भूत साए की तरह पीछे लगा रहा और यह तब तक सताता रहा जब तक मैं ने अपनी पत्नी को जाते वक्त बस में न बिठा दिया. क्या अच्छा है, क्या बुरा है, यह समझना भी नहीं चाहता था. अगली शाम मन का एकाकीपन दूर करने के लिए मैं टीवी देखता चाय की चुसकियां ले ही रहा था कि दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा खोला तो सामने मिसेज शर्मा को पाया.

दिल धक से रह गया. इच्छा के अनुकूल चिरपरिचिता को सामने पा कर सभी शब्दों और भावों पर विराम सा लग गया. बहुत ही कठिनाई से पूछा, ‘‘आप…’’ उस के हाथ में रजनीगंधा के फूलों का बना सुंदर सा बुके था. काफी समय बाद उसे देखा था. ‘‘जी,’’ वह भीतर आते हुए बोली, ‘‘कल बैंक गई तो पता चला आप कई दिनों से छुट्टी पर हैं. सोचा, आप से मिलती चलूं,’’ यह कह शालीनता का परिचय देते हुए उस ने मेरे हाथों में बुके पकड़ा दिया. ‘‘वह…क्या है कि…’’ मुझ से कहते न बना, ‘‘आप को मेरा पता कैसे मिला?’’ मैं ने हकलाते हुए बहुत बेहूदा सा प्रश्न पूछा, जिस का उत्तर भी मैं जानता था, ‘‘आइए, मैं ने उस पर भरपूर नजर डालते हुए आगे कहा, ‘‘बैठिए न. कुछ पिएंगी, चाय बनाता हूं. चलिए, थोड़ीथोड़ी पीते हैं.’’ ‘‘नहीं, बस, नीचे मेजर साहब गाड़ी में मेरा इंतजार कर रहे हैं.’’ ‘‘मेजर साहब…’’ मैं ने अचरज से पूछा. ‘‘हां, मेरे पति. उन का तबादला इसी शहर में हो गया है,’’ चेहरे पर बेहद खुशी लाते हुए बोली, ‘‘अब वे यहीं रहेंगे हमारे साथ. पूरा महीना लग गया तबादला कराने में. सुबह से रात तक भागदौड़ में बीत गया,

यहां तक कि सैर, स्कूल सभी को तिलांजलि देनी पड़ी,’’ कह कर वह चली गई. यह देखसुन कर मेरे शरीर का खून निचुड़ गया. स्वयं को संयत करता हुआ सोफे पर जा बैठा. आखिर इतनी तड़प क्यों हो गई थी मन में एक अनजान महिला के प्रति. क्यों इतनी उत्कंठा से टकटकी बांधे इंतजार करता रहा. यह अंतिम आशा भी निर्मूल सिद्ध हुई. क्या है यह सब, मैं पूरी ताकत से लगभग चीखते हुए मन ही मन बुदबुदाया. इतनी मुलाकातें… ढेरों बातें, लगता था वह प्रति पल करीब आती जा रही है. क्यों वह ऐसा करती रही? इतनी शिष्टता और आत्मीयता तो कोई अपने भी नहीं करते.

यदि ऐसे ही छिटक कर दूर होना था तो पास ही क्यों आई? ऐसा संबंध ही क्यों बनाया जिस के लिए मैं अपनी पत्नी से भी ठीक व्यवहार न कर सका तथा जिसे पाने की चाह पत्नी को भेजने की चाह से कहीं अधिक बलवती हो उठी थी? 2-4 बार की चंद मुलाकातों में क्याक्या सपने नहीं बुन डाले. परंतु मुझे लगा यह सब एकतरफा रास्ता था. उस ने कहीं, कुछ ऐसा नहीं किया जो अनैतिक हो, सिर्फ अनैतिकता मेरे विचारों और संवेदनाओं में थी, शायद संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने की. मैं रातभर विरोधाभास के समुद्र में डूबताउतराता रहा और अपने खोए हुए संबंधों को फिर स्थापित करने की दृढ़ इच्छा ने मुझे सवेरे की पहली बस से अपने परिवार के पास भिजवा दिया.

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लेखक-पंकज धवन

गजब का आकर्षण था उस अजनबी महिला के चेहरे पर. उस से हुई छोटी सी मुलाकात के बाद दोबारा मिलने की चाह उसे तड़पाने लगी थी. लेकिन यह एकतरफा चाह क्या मृगमरीचिका जैसी नहीं थी? बसस्टौप तक पहुंचतेपहुंचते मेरा सारा शरीर पसीने से तरबतर हो गया था. पैंट की जेब से रूमाल निकाल कर गरदन के पीछे आया पसीना पोंछा, फिर अपना ब्रीफकेस बैंच पर रख कर इधरउधर देखने लगा. ऊपर बस नंबर लिखे थे. मुझे किसी भी नंबर के बारे में कोई जानकारी नहीं थी.

फिर भी अनमने भाव से कोई जानापहचाना सा नंबर ढूंढ़ने लगा, 26, 212, 50… पता नहीं कौन सी बस मेरे औफिस के आसपास उतार दे. तभी अचानक वहां आई एक महिला से कुछ पूछना चाहा. स्लीवलैस ब्लाउज और पीली प्रिंटेड साड़ी में लिपटी वह महिला बहुत ही तटस्थ भाव से काला चश्मा लगाए एक ओर खड़ी हो गई. महिला के सिवा और कोई था भी नहीं. सकुचाते हुए मैं ने पूछा, ‘‘सैक्टर 40 के लिए यहां से कोई बस जाएगी क्या?’’ ‘‘827,’’ उस का संक्षिप्त सा उत्तर था. ‘‘क्या आप भी उस तरफ जा रही हैं?’’ मैं ने पूछा.

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हालांकि मुझे उस अनजान महिला से इस तरह कुछ पूछना तो नहीं चाहिए था परंतु देर तक कोई बस न आती दिखाई दी तो चुप्पी तोड़ने के लिए पूछ ही बैठा. ‘‘जी,’’ उस ने फिर संक्षिप्त उत्तर दिया. आधा घंटा और खड़े रहने के बाद भी कोई बस नहीं आई. 10 बजने वाले थे. देर से औफिस पहुंचूंगा तो कैसे चलेगा. एकदम सुनसान था बसस्टौप. ‘‘क्या सचमुच यहां से बसें जाती हैं?’’ मैं ने मुसकरा कर कहा. हालांकि मैं ने कुछ उत्तर सुनने के लिए नहीं कहा था, मगर फिर भी उस महिला ने कहा, ‘‘आज शायद बस लेट हो गई हो.’’ बस का इंतजार करना मेरी मजबूरी बन चुका था. आसपास कहीं औटो या रिकशा होता तो शायद एक क्षण के लिए भी न सोचता. तभी वही बस पहले आई जिस का इंतजार था. मुझे 3 महीने हो गए थे इस छोटे से शहर में. बसस्टौप से थोड़ी ही दूर मेरा फ्लैट था.

स्कूटर अचानक स्टार्ट न होने के कारण आज पहली बार बस में जाना पड़ा. बसस्टौप पर भी पूछतेपूछते पहुंच पाया था. स्टेट बैंक की नौकरी में मेरा यह पहला अवसर ही था जब इस छोटे से शहर में, जो कसबा ज्यादा था, रहना पड़ा. बच्चों की पढ़ाई की मजबूरी न होती तो शायद उन्हें भी यहीं ले आता और पत्नी का बच्चों के साथ रहना तो तय ही था. बड़ी लड़की को 10वीं की परीक्षा देनी थी और शहरों की अपेक्षा यहां इतनी सुविधा भी नहीं थी. 2 कमरों का छोटा सा फ्लैट बैंक की तरफ से ही मिला हुआ था. पिछले मैनेजर की भी यही मजबूरी थी, उसे भी इस फ्लैट में 3 वर्ष तक इसी तरह रहना पड़ा था.

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चैक पास करतेकरते उस दिन अचानक कैबिन के दरवाजे की चरमराहट और खनखनाती सी आवाज ने सारा ध्यान तोड़ दिया, ‘‘लौकर के लिए मिलना चाहती हूं,’’ उस महिला ने कैबिन में घुसते ही कहा. मैं ने सिर उठा कर देखा तो देखता ही रह गया. बहुत ही शालीनता से बौबकट बालों को पीछे करती हुई, धूप का चश्मा माथे पर अटकाते हुए उस ने पूछा. ‘‘जी,’’ मैं ने कहा. कोई और होता तो ऊंचे स्वर में 1-2 बातें कर के अपने मैनेजर होने का एहसास जरूर कराता कि देखते नहीं, मैं काम कर रहा हूं. परंतु कुछ कहते न बना. मैं ने एक बार फिर भरपूर नजरों से उसे देखा और उसे सामने वाली कुरसी पर बैठने का इशारा किया. ‘‘लगता है, हम पहले भी मिल चुके हैं,’’ उस महिला का स्पष्ट सा स्वर था, पर स्वर में न कोई महिलासुलभ झिझक थी न ही घबराहट. ‘‘याद आया,’’ मैं ने नाटक सा करते हुए कहा, ‘‘शायद उस दिन बसस्टौप पर…’’ वह मुसकरा पड़ी. मैं फिर बोला, ‘‘अच्छा बताइए, मैं क्या कर सकता हूं आप के लिए?’’ मैं ने सीधेसीधे बिना समय गंवाए पूछा. ‘‘लौकर लेना चाहती हूं इस बैंक में, कोई उपलब्ध हो तो…?’’ ‘‘आप का खाता है क्या यहां?’’ मैं ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘जी हां. पिछले 5 साल से हर बार लौकर के लिए प्रार्थनापत्र देती हूं, परंतु कोई फायदा नहीं हुआ. एफडी करने को भी तैयार हूं…’’ ‘‘क्या करती हैं आप?’’ मैं ने पूछा. ‘‘टीचर हूं, यहीं पास के स्कूल में.’’ मुझे लगा, इसे टालना ठीक नहीं. मैं ने उसे एप्लीकेशन फौर्म के साथ कुछ आवश्यक पेपर पूरे कर के कल लाने को कहा. उस असाधारण सी दिखने वाली महिला ने अपने साधारण स्वभाव से ऐसी अमिट छाप छोड़ दी कि मैं प्रभावित हुए बिना न रह सका. इस छोटी सी पहली मुलाकात से हम दोनों चिरपरिचित की तरह विदा हुए. कितने ही लोग आतेजाते मिलते रहते थे, परंतु इस महिला के आगे सब रंग ऐसे फीके पड़ गए कि मानसपटल पर किसी भी काल्पनिक स्वप्नसुंदरी की छवि भी शायद धूमिल पड़ जाए. दूसरे दिन ही मैं ने उसे लौकर उपलब्ध कराने की जैसे ठान ही ली और सारी औपचारिकताएं पूरी कर लीं. 11 बजे के बाद तो लगातार टकटकी बांधे बेसब्री से निगाहें दरवाजे पर अटकी रहीं. पौने 2 बजे उस के बैंक में आने से ही अटकी निगाहों को थोड़ी राहत मिली.

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चेहरे के सभी भावों को छिपा कर दूसरे कामों में अनमने भाव से लगा रहा, परंतु तिरछी निगाहें मेरी अपनी कैबिन की चरमराहट पर ही थीं. ‘‘नमस्ते,’’ हर बार की तरह संक्षिप्त शब्दों में उस ने मुसकरा कर कहा और कागजात देती हुई बोली, ‘‘ये लीजिए सारे पेपर्स, राशनकार्ड, फोटो और जो आप ने मंगवाए थे.’’ ‘‘बैठिए, प्लीज,’’ उस के हाथ से पेपर्स ले कर मैं ने पूछा, ‘‘कुछ लेंगी आप?’’ ‘‘नो, थैंक्यू. बच्चे स्कूल से घर आने वाले हैं, स्कूल में ही थोड़ा लेट हो गई थी. पहले सोचा कि कल आऊंगी. फिर लगा, न जाने आप क्या सोचेंगे.’’ थोड़ीबहुत खानापूर्ति कर उसे लौकर दिलवा दिया और अपना ताला लौकर में लगाने को कहा, जैसा कि नियम था. मुसकरा कर वह आभार प्रकट करती चली गई. एक सवेरे जौगिंग करते हुए मैं पार्क में पहुंचा तो वह लंबे कदमों से चक्कर लगाने में लीन थी.

मुझे देख कर एक क्षण के लिए रुकी भी, शायद पहचानने का प्रयत्न कर रही हो, पर शुरुआत मैं ने ही की, बोला, ‘‘मेरा नाम…’’ ‘‘जानती हूं,’’ मेरी बात काटती हुई हाथ जोड़ कर बहुत ही शिष्ट व्यवहार से वह बोली, ‘‘आप को भला मैं कैसे भूल सकती हूं. 5 साल से जो नहीं हो पाया वह 2 ही दिन में आप ने कर दिया.’’ उस के पहने हुए नीले रंग के ट्रैक सूट और महंगे जूते उस की पसंद और छवि को दोगुना कर रहे थे. इस शहर में तो इन वस्तुओं का उपलब्ध होना संभव नहीं था, परंतु इन सब के बावजूद बिना किसी मेकअप के उस के चेहरे में गजब की कशिश थी. कोई भी साहित्यकार मेरी आंखों से देखता तो शायद तारीफ में इतिहास रच डालता. ‘‘यहां कैसे, आप? कहीं पास ही में रहती हैं क्या?’’ मैं ने पूछा. ‘‘जी, सामने वाली सोसाइटी में. घूमतेघूमते इधर निकल आई. रविवार था. कहीं जाने की जल्दी तो थी नहीं.

एक ही पार्क है यहां.’’ बातोंबातों में ही उस ने बताया कि 2 छोटे बेटे हैं, पति आर्मी में मेजर हैं और दूसरी जगह पोस्टेड हैं. छुट्टियों में आते रहते हैं. समय बिताने के लिए उस ने यह सब शौक रखे हैं, वरना नीरस से जीवन में क्या रखा है. न जाने क्यों, पहले दिन से ही उस के प्रति आकर्षण था और उस का प्रत्येक हावभाव मेरे दिमाग पर अजीब सी मीठी कसक छोड़ता रहा. मुझे उस से मिलने का नशा सा हो गया. रविवार का मैं बहुत ही बेसब्री से इंतजार करता रहता और वह भी पार्क में आती रही. हम दोनों पार्क के 2 चक्कर तेजी से लगाते, फिर तीसरी बार में इधरउधर की बातें करते रहते. मैं बैंक की बताता तो वह अपने स्कूल के शरारती बच्चों के बारे में. उस का इस तरह नियमित समय से आना लगभग तय था. चेहरे की मुसकराहट तथा भाव से उस का भी मेरे प्रति झुकना कोई असामान्य नहीं लगा. एक दिन अपना उम्र प्रमाणपत्र सत्यापित कराने बैंक में आई तो उस में लिखी उम्र देख कर मैं हैरान रह गया.

‘‘1964 का जन्म है आप का, लगता नहीं कि आप 38 की होंगी,’’ मैं ने कहा तो वह मुसकरा कर रह गई. ‘‘क्यों?’’ वह सकुचाती सी बोली, ‘‘क्या लगता था आप को?’’ शायद हर नारी की तरह वह भी 20-22 ही सुनना चाहती हो. मैं बोला, ‘‘कुछ भी लगता हो, परंतु आप 38 की नहीं लगतीं.’’ उस के चेहरे की लालिमा मुझ से छिपी नहीं रही. इस लालिमा को देखने के लिए ही तो मैं लालायित था. ‘‘शायद इसीलिए ही लड़कियां अपनी उम्र बताना पसंद नहीं करतीं,’’ मैं बोला. महिला के स्थान पर लड़की शब्द का प्रयोग पता नहीं मैं किस बहाव में कर गया, परंतु उसे अच्छा ही लगा होगा. मैं ने फिर दोहराया, ‘‘परंतु कुछ भी कहिए, मिसेज शर्मा, आप 38 की लगती नहीं हैं,’’ मेरे द्वारा चुटकी लेते हुए कही गई इस बात से उस के सुर्ख चेहरे पर गहराती लालिमा देखते ही बनती थी. ‘‘आप मर्दों को तो छेड़ने का बहाना चाहिए,’’ उस ने सहज लेते हुए दार्शनिक अंदाज में मुसकराते हुए कहा. मुझे लगा वह बुरा मान गई है,

इसलिए मैं ने कहा, ‘‘माफी चाहता हूं, यदि अनजाने में कही यह बात आप को अच्छी न लगी हो.’’ ‘‘नहीं, मुझे कुछ भी बुरा नहीं लगा. आप को जो ठीक लगा, आप ने कह दिया. मेरे सामने कह कर स्पष्टवादिता का परिचय दिया, पर पीछे से कहते तो मैं क्या कह सकती थी,’’ वह बोली. इतनी गंभीर बात को सहज ढंग से निबटाना सचमुच प्रशंसनीय था. यह सिलसिला जो पार्क से प्रारंभ हुआ था, पार्क में ही समाप्त होता नजर आने लगा, क्योंकि यह क्रम उस दिन के बाद आगे नहीं चल सका. मुझे लगा वह मेरी उस बात का बुरा मान गईर् होगी. अब हर सवेरे मैं उस पार्क में जा कर एक चक्कर लगाता, 1-2 एक्सरसाइज करता और देर तक इधरउधर शरीर हिला कर व्यायाम का नाटक करता. बैंक में कैबिन के बाहर ही गतिविधियों पर पैनी नजरें गड़ाए रहता, परंतु उस से फिर पूरे 2 सप्ताह न बैंक में मुलाकात हो सकी न पार्क में. शाम होती तो सुबह का इंतजार रहता और सैर के बाद तो बैंक में आने का इंतजार.

3 दिन लगातार बसस्टौप पर भी जाता रहा. मेरे मन की स्थिति एकदम पपीहा जैसी हो गई जो सिर्फ बरसात का इंतजार करता रहता है. उस का पता ले कर एक दिन उस के घर जाने का मन भी बनाया पर लगा, यह ठीक नहीं रहेगा. वह स्वयं क्या सोचेगी, उस के बच्चों को क्या कहूंगा. वह क्या कह कर मेरा परिचय कराएगी और कोशिशों के बावजूद नहीं जा पाया. बैंक में उस के पते के साथ फोन नंबर न होने का आज सचमुच मुझे बहुत ही क्षोभ हुआ. कम से कम फोन तो इस मानसिक अंतर्द्वंद्व को कम करता. चपरासी के हाथ अकाउंट स्टेटमैंट के बहाने उस को बैंक में आने का संदेशा भिजवाया. रविवार की इस सुबह ने मुझे बेहद मायूस किया. इस पूरे आवास काल में पहला रविवार था कि घूमने का मन ही नहीं बन सका. दरवाजे पर अचानक बजी घंटी ने दिल के सारे तार झंकृत कर दिए. इतनी सुबह तो कोई नहीं आता. हो न हो मिसेज शर्मा ही होंगी. लगता है कल चपरासी ठीक समय से पहुंच गया होगा,

यही सोचता मैं जल्दी से स्वयं को ठीक कर के जब तक दूसरी बार घंटी बजती, दरवाजे पर पहुंच गया. सामने अपनी पत्नी को पा कर सारा नशा काफूर हो गया. मेरा चेहरा उतर गया. ‘‘क्यों, हैरान हो गए न,’’ वह हांफते हुए बोली, ‘‘बहुत ही मुश्किल से मकान मिला है,’’ वह अपना सूटकेस भीतर रखते हुए बोली. ‘‘अरे, बताया तो होता, कोई फोन, चिट्ठी…’’ मैं ने कहा. ‘‘सोचा, आप को सरप्राइज दूंगी, जनाब क्या करते रहते हैं इस शहर में. अचानक बच्चों की छुट्टियां हुईं तो उन्हें मायके छोड़ सीधी चली आई. बताने का मौका कहां मिला.’’ मेरा मन उस के आने के इस स्वागत के लिए तैयार तो नहीं था परंतु चेहरे के भावों में संयतता बरतते हुए मुझे सामान्य होना ही पड़ा. फिर भी इस स्थिति को पचाते शाम हो ही गई. पत्नी के 3 दिन के इस आवासकाल में मैं ने हरसंभव प्रयास किया कि नपीतुली बातें की जाएं.

जब भी बाहर घूमने के लिए वह कहती तो सिरदर्द का बहाना बना कर टाल जाता. बाहर खाने के नाम पर उस के हाथ का खाना खाने की जिद करता. मुझे भय सा व्याप्त हो चुका था कि कहीं उस के साथ मिसेज शर्मा मिल गईं तो क्या करूंगा. क्या कह कर हमारा परिचय होगा. मेरे मन में अजीब सी शंका ने घर कर रखा था. मेरी पत्नी उस के स्वभाव, रूप को देख कर क्या सोचेगी. इसी भय के कारण मैं ने 3 दिन की छुट्टी ले ली थी. मन का भूत साए की तरह पीछे लगा रहा और यह तब तक सताता रहा जब तक मैं ने अपनी पत्नी को जाते वक्त बस में न बिठा दिया. क्या अच्छा है, क्या बुरा है, यह समझना भी नहीं चाहता था. अगली शाम मन का एकाकीपन दूर करने के लिए मैं टीवी देखता चाय की चुसकियां ले ही रहा था कि दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा खोला तो सामने मिसेज शर्मा को पाया.

दिल धक से रह गया. इच्छा के अनुकूल चिरपरिचिता को सामने पा कर सभी शब्दों और भावों पर विराम सा लग गया. बहुत ही कठिनाई से पूछा, ‘‘आप…’’ उस के हाथ में रजनीगंधा के फूलों का बना सुंदर सा बुके था. काफी समय बाद उसे देखा था. ‘‘जी,’’ वह भीतर आते हुए बोली, ‘‘कल बैंक गई तो पता चला आप कई दिनों से छुट्टी पर हैं. सोचा, आप से मिलती चलूं,’’ यह कह शालीनता का परिचय देते हुए उस ने मेरे हाथों में बुके पकड़ा दिया. ‘‘वह…क्या है कि…’’ मुझ से कहते न बना, ‘‘आप को मेरा पता कैसे मिला?’’ मैं ने हकलाते हुए बहुत बेहूदा सा प्रश्न पूछा, जिस का उत्तर भी मैं जानता था, ‘‘आइए, मैं ने उस पर भरपूर नजर डालते हुए आगे कहा, ‘‘बैठिए न. कुछ पिएंगी, चाय बनाता हूं. चलिए, थोड़ीथोड़ी पीते हैं.’’ ‘‘नहीं, बस, नीचे मेजर साहब गाड़ी में मेरा इंतजार कर रहे हैं.’’ ‘‘मेजर साहब…’’ मैं ने अचरज से पूछा. ‘‘हां, मेरे पति. उन का तबादला इसी शहर में हो गया है,’’ चेहरे पर बेहद खुशी लाते हुए बोली, ‘‘अब वे यहीं रहेंगे हमारे साथ. पूरा महीना लग गया तबादला कराने में. सुबह से रात तक भागदौड़ में बीत गया,

यहां तक कि सैर, स्कूल सभी को तिलांजलि देनी पड़ी,’’ कह कर वह चली गई. यह देखसुन कर मेरे शरीर का खून निचुड़ गया. स्वयं को संयत करता हुआ सोफे पर जा बैठा. आखिर इतनी तड़प क्यों हो गई थी मन में एक अनजान महिला के प्रति. क्यों इतनी उत्कंठा से टकटकी बांधे इंतजार करता रहा. यह अंतिम आशा भी निर्मूल सिद्ध हुई. क्या है यह सब, मैं पूरी ताकत से लगभग चीखते हुए मन ही मन बुदबुदाया. इतनी मुलाकातें… ढेरों बातें, लगता था वह प्रति पल करीब आती जा रही है. क्यों वह ऐसा करती रही? इतनी शिष्टता और आत्मीयता तो कोई अपने भी नहीं करते.

यदि ऐसे ही छिटक कर दूर होना था तो पास ही क्यों आई? ऐसा संबंध ही क्यों बनाया जिस के लिए मैं अपनी पत्नी से भी ठीक व्यवहार न कर सका तथा जिसे पाने की चाह पत्नी को भेजने की चाह से कहीं अधिक बलवती हो उठी थी? 2-4 बार की चंद मुलाकातों में क्याक्या सपने नहीं बुन डाले. परंतु मुझे लगा यह सब एकतरफा रास्ता था. उस ने कहीं, कुछ ऐसा नहीं किया जो अनैतिक हो, सिर्फ अनैतिकता मेरे विचारों और संवेदनाओं में थी, शायद संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने की. मैं रातभर विरोधाभास के समुद्र में डूबताउतराता रहा और अपने खोए हुए संबंधों को फिर स्थापित करने की दृढ़ इच्छा ने मुझे सवेरे की पहली बस से अपने परिवार के पास भिजवा दिया.

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October 29, 2021 at 10:00AM

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