लेखक-डा. आर एस खरे
इंस्पैक्टर का फोन सुनते ही उस के चेहरे की रंगत फीकी पड़ गई. दिल जोरजोर से धड़कने लगा और माथे पर पसीने की बूंदें उभर आईं. सुबह 11बजे उसे लोकायुक्त में बुलाया गया था. इंस्पैक्टर ने लोकेशन भी समझा दी थी- ‘जिला न्यायालय के ठीक अपोजिट वाली नई बिल्डिंग में लोकायुक्त कार्यालय है.’
वह जिला न्यायालय के सामने से सैकड़ों बार गुजरा था पर उस का ध्यान कभी लोकायुक्त कार्यालय पर नहीं गया था. 11बजने के कुछ मिनट पहले ही वह उस नई बिल्डिंग के सामने खड़ा था. बिल्डिंग के ऊपर एक बोर्ड लगा था- ‘आर्थिक अपराध अनुसंधान कार्यालय‘. उस ने बिल्डिंग से निकल रहे खाकी वरदीधारी से पूछा, “लोकायुक्त का दफ्तर कहां है?”
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सिपाही ने बताया कि वह इसी बिल्डिंग के गेट नंबर 2 पर जाए. पीछे की ओर जाने पर गेट नंबर 2 के ऊपर दूर से ही ‘लोकायुक्त कार्यालय‘ का बोर्ड दिखाई दे गया. लिफ्ट के पास जा कर वह रुका. इंस्पैक्टर ने कहा था कि उसे थर्डफ्लोर पर आना है. जब काफी देर तक लिफ्ट में कोई हलचल न हुई, तो उस का ध्यान लिफ्ट के प्रवेशद्वार के ऊपर चस्पां कागज के टुकड़े पर गया, जिस पर किसी ने पेन से लिख दिया था- ‘लिफ्ट बंद है.’
हाई ब्लडप्रैशर का मरीज होने के कारण सीढ़ियां चढ़ते हुए उस की सांस फूलने लगी. रेलिंग के सहारे चढ़ता हुआ वह तीसरी मंजिल पर पहुंचा. गेट पर खड़े गार्ड ने रजिस्टर में उस से प्रविष्टियां कराईं- नाम, पता, मोबाइल नंबर तथा किस से मिलना है.‘
उस ने गार्ड से पूछा, “इंस्पैक्टर अशोक यादव कहां बैठते हैं?” गार्ड ने उसे हाथ के इशारे से मार्गदर्शन दिया. अब वह इंस्पैक्टर अशोक यादव की टेबल के सामने था. टेबल पर फाइलें बेतरतीब पड़ी थीं. इंस्पैक्टर की कुरसी खाली थी. कुरसी के पीछे दीवाल पर टाइप किया कागज चस्पां था- ‘आप गोपनीय कैमरे की निगरानी में हैं.’
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टेबल की बगल में पड़े स्टूल पर उस ने बैठना चाहा पर उसे स्टूल पर बैठने में अपनी तौहीन लगी. पिछले माह तक वह शासकीय सेवा में राज्य स्तर का वरिष्ठ प्रथम श्रेणी अधिकारी हुआ करता था, जिस के सामने राजपत्रित द्वितीय श्रेणी वर्ग के अधिकारी भी बैठने की जुर्रत न किया करते थे.
वह सोचविचार में मग्न था, तभी एक सिपाही ने आ कर पूछा, “आप आर के जैन हैं?” उस के हां कहते ही सिपाही बोला, “इंस्पैक्टर साहब अभी एसपी साहब के पास हैं, थोड़ी देर में आने वाले हैं.”वह अनुमान लगाने लगा, हो न हो, इंस्पैक्टर उन्हीं के प्रकरण में एसपी से चर्चा करने गया होगा.
उस के अनेक आईपीएस तथा आईएएस अधिकारियों से अच्छे संबंध रहे थे किंतु कभी भी किसी से भी अपने लिए मदद लेने का उसे अवसर नहीं आया था. उस ने पूरी शासकीय सेवा निष्ठा और ईमानदारी से पूरी की थी और स्वयं की प्रतिष्ठा को कभी धूमिल नहीं होने दिया था. सेवानिवृत्ति के समय अब यह केस दर्ज कर उस पर विभिन्न धाराएं अधिरोपित की गई थीं.जाड़े का मौसम होते हुए भी उस का मुंह सूख रहा था. उस ने चारों ओर निगाह दौड़ाई कि कहीं वाटरकूलर लगा हो. जब ऐसा कुछ न दिखा तो मजबूरी में उस ने स्टूल अपनी ओर खींचा और उस पर बैठ गया.
11 की जगह 11:30 हो चुके थे और इंस्पैक्टर अभी भी वापस नहीं आया था. अपने शासकीय सेवाकाल में वह सदैव समय का पाबंद रहा था और समय के संबंध में लापरवाही दिखाने वालों को जम कर लताड़ लगाया करता था. उसे अपने विभाग के प्रमुख सचिव के कहे शब्द याद हो आए- ‘जो समय की परवा नहीं करता, समय उस की परवा नहीं करता.’ उन्होंने उस समय जो दृष्टांत सुनाया था, वह उसे स्मरण हो आया. वह ऐसे ही खयालों में डूबा हुआ था कि तभी उसी सिपाही ने आ कर उसे सूचना दी, “यादव साहब, एसपी साहब के पास से पीपी साहब के पास गए हैं और वहां से सीधे यहीं आएंगे.”
उस ने उस अर्दली सिपाही से विनम्रता से पूछा, “क्या पीने का पानी मिल सकता है?”सिपाही ने इंस्पैक्टर यादव की कुरसी के पीछे जा कर, उस की वाटर बोतल से, कांच के गिलास में पानी निकाला और ला कर उसे दिया. पानी पीते हुए उस ने सूखते होंठों पर अपनी जीभ फिराई और उन्हें गीला किया.
वह सोचने लगा कि जब उस ने कोई अपराध नहीं किया है तो इतना घबराया और डरा हुआ क्यों है. ‘सांच को आंच नहीं’, यह कहावत वह कितनी ही बार सुन चुका था. यदि लोकायुक्त झूठा मुकदमा चलाएगा तो न्यायालय भी तो है, जहां न्याय प्राप्त किया जा सकता है.
पर एसपी साहब के पास से इंस्पैक्टर पीपी साहब के पास क्यों गया, क्या उस के विरुद्ध चार्जशीट न्यायालय में प्रस्तुत करने की तैयारी हो रही है और क्या उसे गिरफ्तार किया जाएगा? अखबारों में जब उस के बारे में खबरें छपेंगी तो वह तो किसी को मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहेगा. वह किसकिस को स्पष्टीकरण देता रहेगा कि उस ने कोई अपराध नहीं किया है. सारे आरोप झूठे हैं. उस के बेटे और बेटी की ससुराल वाले उस के बारे में क्या सोचेंगे? सभी अपनेपराए उस से मुंह मोड़ लेंगे और वह सभी की निगाहों में घृणा का पात्र बन जाएगा. उस की पत्नी का क्या हाल होगा? उस के क्लब की महिलाएं उस का मजाक उड़ाएंगी.
पर ऐसा वह क्यों सोच रहा है? उस ने जानबूझ कर तो कोई अपराध किया नहीं. क्या सत्य इतनी आसानी से पराजित हो जाएगा? उस के बाबा तो कहा करते थे, ‘सत्य का बल सब से बड़ा बल होता है.’उन के आदर्शों पर चल कर और उन के बताए एक ही सिद्धांत- ‘नौकरी मे जानबूझ कर गलत करना नहीं, बेमतलब किसी से डरना नहीं’ को ले कर पूरे 37 वर्ष शासकीय सेवा पूरी कर डाली. पर आज डर तो पीछा ही नहीं छोड़ रहा. उसे सब से अधिक बदनामी से डर लगता रहा है. वह जानता है, उस के विरुद्ध तैयार किया गया झूठा मुकदमा न्यायालय में टिक नहीं पाएगा. पर समाज की निगाहों में उस की अब तक अर्जित की गई प्रतिष्ठा तो तारतार हो जाएगी. भयमिश्रित क्रोध से उस का चेहरा तमतमा उठा और होंठ फिर से सूखने लगे.
तभी इंस्पैक्टर यादव ने आ कर विलंब के लिए खेद व्यक्त किया. वह पसोपेश में था कि खड़े हो कर इंस्पैक्टर को सम्मान दे या बैठेबैठे ही नमस्कार करे. फिर उम्र और पद की तुलना करते हुए उस ने बैठे रहना ही उचित समझा.इंस्पैक्टर ने अलमीरा का ताला खोला और एक मोटी सी फाइल निकाली. 10 वर्ष पूर्व जब वह जिले में विभाग का अधिकारी था, रिक्त पदों पर उस ने कुछ नियुक्तियां की थीं. जैसा कि अधिकांश अधिकारियों के साथ होता है, उस के साथ भी हुआ. नियुक्तियों में भ्रष्टाचार, भाईभतीजावाद के आरोप लगाए गए. विभागीय मंत्री ने विधानसभा में जांच कराने का आश्वासन दिया और विभाग ने प्रकरण लोकायुक्त को सौंप दिया.
इन 10 वर्षों में उस से न तो कभी किसी ने इन आरोपों के बारे में पूछताछ की और न ही किसी तरह की जानकारी मांगी. अब सेवानिवृत्त होते ही उसे पूछताछ के लिए बुलाया गया है.इंस्पैक्टर यादव ने फाइल हाथ में ली और उस से ‘पूछताछ कक्ष‘ में चलने के लिए पीछेपीछे आने को कहा. वह स्टूल से उठा और इंस्पैक्टर के पीछे चलने लगा.
पूछताछ कक्ष में एक गोल टेबल थी और 3 कुरसियां. इंस्पैक्टर ने बैठने का इशारा किया तो वह एक कुरसी पर बैठ गया. उस ने चारों ओर नजर दौड़ाई कि गोपनीय कैमरा कहां लगा है? पर उसे कुछ स्पष्ट नजर न आया.इंस्पैक्टर ने फाइल के अंदर रखी ‘प्रैसविज्ञप्ति‘ निकाली और उस के सामने रखते हुए बोला, “यह कल के सभी समाचारपत्रों में प्रकाशित होने को भेजी जा रही है.”
प्रैसविज्ञप्ति का शीर्षक था- ‘भ्रष्ट अधिकारी आर के जैन लोकायुक्त के शिकंजे में’. उस ने एकदो पैरा ही पढ़े थे कि उस का उच्च रक्तचाप अचानक बढ़ गया और वह वहीं लुढ़क गया. इंस्पैक्टर घबरा गया. उस ने कागज समेट कर फाइल में रखे और अर्दली को पानी लाने के लिए आवाज लगाई. पानी के छींटे चेहरे पर पड़ते ही उसे थोड़ा होश आया तो उस ने जेब से एस्प्रिन की टेबलेट निकाली और जीभ के नीचे रखी. दोतीन मिनट में ही वह सामान्य हो गया.
इंस्पैक्टर ने विनम्रता से उस से कहा कि, “अब वह जा सकता है और आवश्यकता हुई तो किसी अन्य दिन उसे वह बुलवा लेगा.” उस ने इंस्पैक्टर से कुछ नहीं कहा और धीमेधीमे चलते हुए सीढ़ियां उतरने लगा. कार में बैठते ही उस के सामने वही प्रैसविज्ञप्ति फिर से उभर आई- ‘आर के जैन पर लोकायुक्त का शिकंजा’. उस का खून फिर से खौलने लगा और रक्तचाप फिर से बढ़ गया. उस ने कार को अब बड़े तालाब की दिशा में मोड़ दिया. कार से उतर कर वह तालाब की मेड़ पर जा कर बैठ गया. उस के मस्तिष्क में विचार तालाब की लहरों की तरह उठ-गिर रहे थे. वह तालाब की लहरों को एकटक देखते हुए अपनी बदनामी को ले कर चिंतित था. हर लहर पर वही प्रैसविज्ञप्ति उस की आंखों के सामने आ जाती. उसे भ्रष्ट अधिकारी घोषित किया जा रहा था. उस पर मनगढ़ंत, झूठे आरोप लगाए गए थे. उस का रक्तचाप एक बार फिर से उबलने लगा और मस्तिष्क विवेकशून्य हो गया.
फिर अचानक उस के सीने में तेज दर्द उठा. उस ने अपनी सभी जेबों में दवा की गोली की तलाश की, जो अब थी ही नहीं. अचानक उस की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा और पसीने से सारा बदन भीग गया.फिर उसे होश नहीं रहा. गोताखोरों ने उस की बौडी को खोज कर बाहर निकाला. पर तब तक काफी देर हो चुकी थी.अगली सुबह सभी अखबारों में उस के फोटो के साथ आत्महत्या की खबरें प्रकाशित हुई थीं. कितनी आसानी से एक हत्या को आत्महत्या में तबदील किया जा चुका था…
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लेखक-डा. आर एस खरे
इंस्पैक्टर का फोन सुनते ही उस के चेहरे की रंगत फीकी पड़ गई. दिल जोरजोर से धड़कने लगा और माथे पर पसीने की बूंदें उभर आईं. सुबह 11बजे उसे लोकायुक्त में बुलाया गया था. इंस्पैक्टर ने लोकेशन भी समझा दी थी- ‘जिला न्यायालय के ठीक अपोजिट वाली नई बिल्डिंग में लोकायुक्त कार्यालय है.’
वह जिला न्यायालय के सामने से सैकड़ों बार गुजरा था पर उस का ध्यान कभी लोकायुक्त कार्यालय पर नहीं गया था. 11बजने के कुछ मिनट पहले ही वह उस नई बिल्डिंग के सामने खड़ा था. बिल्डिंग के ऊपर एक बोर्ड लगा था- ‘आर्थिक अपराध अनुसंधान कार्यालय‘. उस ने बिल्डिंग से निकल रहे खाकी वरदीधारी से पूछा, “लोकायुक्त का दफ्तर कहां है?”
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सिपाही ने बताया कि वह इसी बिल्डिंग के गेट नंबर 2 पर जाए. पीछे की ओर जाने पर गेट नंबर 2 के ऊपर दूर से ही ‘लोकायुक्त कार्यालय‘ का बोर्ड दिखाई दे गया. लिफ्ट के पास जा कर वह रुका. इंस्पैक्टर ने कहा था कि उसे थर्डफ्लोर पर आना है. जब काफी देर तक लिफ्ट में कोई हलचल न हुई, तो उस का ध्यान लिफ्ट के प्रवेशद्वार के ऊपर चस्पां कागज के टुकड़े पर गया, जिस पर किसी ने पेन से लिख दिया था- ‘लिफ्ट बंद है.’
हाई ब्लडप्रैशर का मरीज होने के कारण सीढ़ियां चढ़ते हुए उस की सांस फूलने लगी. रेलिंग के सहारे चढ़ता हुआ वह तीसरी मंजिल पर पहुंचा. गेट पर खड़े गार्ड ने रजिस्टर में उस से प्रविष्टियां कराईं- नाम, पता, मोबाइल नंबर तथा किस से मिलना है.‘
उस ने गार्ड से पूछा, “इंस्पैक्टर अशोक यादव कहां बैठते हैं?” गार्ड ने उसे हाथ के इशारे से मार्गदर्शन दिया. अब वह इंस्पैक्टर अशोक यादव की टेबल के सामने था. टेबल पर फाइलें बेतरतीब पड़ी थीं. इंस्पैक्टर की कुरसी खाली थी. कुरसी के पीछे दीवाल पर टाइप किया कागज चस्पां था- ‘आप गोपनीय कैमरे की निगरानी में हैं.’
ये भी पढ़ें- कर्ण : खराब परवरिश के अंधेरे रास्तों से गुजरती रम्या
टेबल की बगल में पड़े स्टूल पर उस ने बैठना चाहा पर उसे स्टूल पर बैठने में अपनी तौहीन लगी. पिछले माह तक वह शासकीय सेवा में राज्य स्तर का वरिष्ठ प्रथम श्रेणी अधिकारी हुआ करता था, जिस के सामने राजपत्रित द्वितीय श्रेणी वर्ग के अधिकारी भी बैठने की जुर्रत न किया करते थे.
वह सोचविचार में मग्न था, तभी एक सिपाही ने आ कर पूछा, “आप आर के जैन हैं?” उस के हां कहते ही सिपाही बोला, “इंस्पैक्टर साहब अभी एसपी साहब के पास हैं, थोड़ी देर में आने वाले हैं.”वह अनुमान लगाने लगा, हो न हो, इंस्पैक्टर उन्हीं के प्रकरण में एसपी से चर्चा करने गया होगा.
उस के अनेक आईपीएस तथा आईएएस अधिकारियों से अच्छे संबंध रहे थे किंतु कभी भी किसी से भी अपने लिए मदद लेने का उसे अवसर नहीं आया था. उस ने पूरी शासकीय सेवा निष्ठा और ईमानदारी से पूरी की थी और स्वयं की प्रतिष्ठा को कभी धूमिल नहीं होने दिया था. सेवानिवृत्ति के समय अब यह केस दर्ज कर उस पर विभिन्न धाराएं अधिरोपित की गई थीं.जाड़े का मौसम होते हुए भी उस का मुंह सूख रहा था. उस ने चारों ओर निगाह दौड़ाई कि कहीं वाटरकूलर लगा हो. जब ऐसा कुछ न दिखा तो मजबूरी में उस ने स्टूल अपनी ओर खींचा और उस पर बैठ गया.
11 की जगह 11:30 हो चुके थे और इंस्पैक्टर अभी भी वापस नहीं आया था. अपने शासकीय सेवाकाल में वह सदैव समय का पाबंद रहा था और समय के संबंध में लापरवाही दिखाने वालों को जम कर लताड़ लगाया करता था. उसे अपने विभाग के प्रमुख सचिव के कहे शब्द याद हो आए- ‘जो समय की परवा नहीं करता, समय उस की परवा नहीं करता.’ उन्होंने उस समय जो दृष्टांत सुनाया था, वह उसे स्मरण हो आया. वह ऐसे ही खयालों में डूबा हुआ था कि तभी उसी सिपाही ने आ कर उसे सूचना दी, “यादव साहब, एसपी साहब के पास से पीपी साहब के पास गए हैं और वहां से सीधे यहीं आएंगे.”
उस ने उस अर्दली सिपाही से विनम्रता से पूछा, “क्या पीने का पानी मिल सकता है?”सिपाही ने इंस्पैक्टर यादव की कुरसी के पीछे जा कर, उस की वाटर बोतल से, कांच के गिलास में पानी निकाला और ला कर उसे दिया. पानी पीते हुए उस ने सूखते होंठों पर अपनी जीभ फिराई और उन्हें गीला किया.
वह सोचने लगा कि जब उस ने कोई अपराध नहीं किया है तो इतना घबराया और डरा हुआ क्यों है. ‘सांच को आंच नहीं’, यह कहावत वह कितनी ही बार सुन चुका था. यदि लोकायुक्त झूठा मुकदमा चलाएगा तो न्यायालय भी तो है, जहां न्याय प्राप्त किया जा सकता है.
पर एसपी साहब के पास से इंस्पैक्टर पीपी साहब के पास क्यों गया, क्या उस के विरुद्ध चार्जशीट न्यायालय में प्रस्तुत करने की तैयारी हो रही है और क्या उसे गिरफ्तार किया जाएगा? अखबारों में जब उस के बारे में खबरें छपेंगी तो वह तो किसी को मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहेगा. वह किसकिस को स्पष्टीकरण देता रहेगा कि उस ने कोई अपराध नहीं किया है. सारे आरोप झूठे हैं. उस के बेटे और बेटी की ससुराल वाले उस के बारे में क्या सोचेंगे? सभी अपनेपराए उस से मुंह मोड़ लेंगे और वह सभी की निगाहों में घृणा का पात्र बन जाएगा. उस की पत्नी का क्या हाल होगा? उस के क्लब की महिलाएं उस का मजाक उड़ाएंगी.
पर ऐसा वह क्यों सोच रहा है? उस ने जानबूझ कर तो कोई अपराध किया नहीं. क्या सत्य इतनी आसानी से पराजित हो जाएगा? उस के बाबा तो कहा करते थे, ‘सत्य का बल सब से बड़ा बल होता है.’उन के आदर्शों पर चल कर और उन के बताए एक ही सिद्धांत- ‘नौकरी मे जानबूझ कर गलत करना नहीं, बेमतलब किसी से डरना नहीं’ को ले कर पूरे 37 वर्ष शासकीय सेवा पूरी कर डाली. पर आज डर तो पीछा ही नहीं छोड़ रहा. उसे सब से अधिक बदनामी से डर लगता रहा है. वह जानता है, उस के विरुद्ध तैयार किया गया झूठा मुकदमा न्यायालय में टिक नहीं पाएगा. पर समाज की निगाहों में उस की अब तक अर्जित की गई प्रतिष्ठा तो तारतार हो जाएगी. भयमिश्रित क्रोध से उस का चेहरा तमतमा उठा और होंठ फिर से सूखने लगे.
तभी इंस्पैक्टर यादव ने आ कर विलंब के लिए खेद व्यक्त किया. वह पसोपेश में था कि खड़े हो कर इंस्पैक्टर को सम्मान दे या बैठेबैठे ही नमस्कार करे. फिर उम्र और पद की तुलना करते हुए उस ने बैठे रहना ही उचित समझा.इंस्पैक्टर ने अलमीरा का ताला खोला और एक मोटी सी फाइल निकाली. 10 वर्ष पूर्व जब वह जिले में विभाग का अधिकारी था, रिक्त पदों पर उस ने कुछ नियुक्तियां की थीं. जैसा कि अधिकांश अधिकारियों के साथ होता है, उस के साथ भी हुआ. नियुक्तियों में भ्रष्टाचार, भाईभतीजावाद के आरोप लगाए गए. विभागीय मंत्री ने विधानसभा में जांच कराने का आश्वासन दिया और विभाग ने प्रकरण लोकायुक्त को सौंप दिया.
इन 10 वर्षों में उस से न तो कभी किसी ने इन आरोपों के बारे में पूछताछ की और न ही किसी तरह की जानकारी मांगी. अब सेवानिवृत्त होते ही उसे पूछताछ के लिए बुलाया गया है.इंस्पैक्टर यादव ने फाइल हाथ में ली और उस से ‘पूछताछ कक्ष‘ में चलने के लिए पीछेपीछे आने को कहा. वह स्टूल से उठा और इंस्पैक्टर के पीछे चलने लगा.
पूछताछ कक्ष में एक गोल टेबल थी और 3 कुरसियां. इंस्पैक्टर ने बैठने का इशारा किया तो वह एक कुरसी पर बैठ गया. उस ने चारों ओर नजर दौड़ाई कि गोपनीय कैमरा कहां लगा है? पर उसे कुछ स्पष्ट नजर न आया.इंस्पैक्टर ने फाइल के अंदर रखी ‘प्रैसविज्ञप्ति‘ निकाली और उस के सामने रखते हुए बोला, “यह कल के सभी समाचारपत्रों में प्रकाशित होने को भेजी जा रही है.”
प्रैसविज्ञप्ति का शीर्षक था- ‘भ्रष्ट अधिकारी आर के जैन लोकायुक्त के शिकंजे में’. उस ने एकदो पैरा ही पढ़े थे कि उस का उच्च रक्तचाप अचानक बढ़ गया और वह वहीं लुढ़क गया. इंस्पैक्टर घबरा गया. उस ने कागज समेट कर फाइल में रखे और अर्दली को पानी लाने के लिए आवाज लगाई. पानी के छींटे चेहरे पर पड़ते ही उसे थोड़ा होश आया तो उस ने जेब से एस्प्रिन की टेबलेट निकाली और जीभ के नीचे रखी. दोतीन मिनट में ही वह सामान्य हो गया.
इंस्पैक्टर ने विनम्रता से उस से कहा कि, “अब वह जा सकता है और आवश्यकता हुई तो किसी अन्य दिन उसे वह बुलवा लेगा.” उस ने इंस्पैक्टर से कुछ नहीं कहा और धीमेधीमे चलते हुए सीढ़ियां उतरने लगा. कार में बैठते ही उस के सामने वही प्रैसविज्ञप्ति फिर से उभर आई- ‘आर के जैन पर लोकायुक्त का शिकंजा’. उस का खून फिर से खौलने लगा और रक्तचाप फिर से बढ़ गया. उस ने कार को अब बड़े तालाब की दिशा में मोड़ दिया. कार से उतर कर वह तालाब की मेड़ पर जा कर बैठ गया. उस के मस्तिष्क में विचार तालाब की लहरों की तरह उठ-गिर रहे थे. वह तालाब की लहरों को एकटक देखते हुए अपनी बदनामी को ले कर चिंतित था. हर लहर पर वही प्रैसविज्ञप्ति उस की आंखों के सामने आ जाती. उसे भ्रष्ट अधिकारी घोषित किया जा रहा था. उस पर मनगढ़ंत, झूठे आरोप लगाए गए थे. उस का रक्तचाप एक बार फिर से उबलने लगा और मस्तिष्क विवेकशून्य हो गया.
फिर अचानक उस के सीने में तेज दर्द उठा. उस ने अपनी सभी जेबों में दवा की गोली की तलाश की, जो अब थी ही नहीं. अचानक उस की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा और पसीने से सारा बदन भीग गया.फिर उसे होश नहीं रहा. गोताखोरों ने उस की बौडी को खोज कर बाहर निकाला. पर तब तक काफी देर हो चुकी थी.अगली सुबह सभी अखबारों में उस के फोटो के साथ आत्महत्या की खबरें प्रकाशित हुई थीं. कितनी आसानी से एक हत्या को आत्महत्या में तबदील किया जा चुका था…
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October 29, 2021 at 10:00AM
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