Friday, 27 August 2021

आवेश – भाग 3 : संतू और राजन के रिश्ते क्यों खराब हो रहे थें

लेखक-अरुण अलबेला

‘‘आप ने शायद यह कहा कि हरदम आप की ही नहीं चलेगी. हम ने बेटी ब्याही है, बेची नहीं है.’’

‘‘नहीं, मेरे कहने का तात्पर्य…’’ उन का स्वर धीमा हो लड़खड़ा गया, ‘‘पिछली बार मोना थोड़े दिनों के लिए आई थी, तो संतोष बाबू जल्दी ले  गए. अब भी ले जाना चाहते हैं. मोना  1-2 माह रहे तो क्या हर्ज?’’

मैं ने उन्हें लपेटा, ‘‘लगता है, आप के बोलने का ढंग ही कुछ गलत था, जो संतू को पसंद नहीं आया. उस ने अपनी मां को बताया तो न उसे अच्छा लगा, न मु झे ही.’’

राजन बाबू  झेंपे, ‘‘मेरे मुंह से अगर ऐसी कोई बात निकल गई तो उन्हें उसे भूल जाना चाहिए था. बता कर आप सब को आवेशित करने की क्या जरूरत थी?’’

उन की गोलमटोल बातें मु झे आवेशित कर बैठीं. मैं बोला, ‘‘राजन बाबू, क्या  झूठ है, क्या सच, आप जानें, पर यह सच है कि हरदम हमारी नहीं चली है, आप अपनी चलाते रहे हैं. विवाह से पहले आप स्वामीजी की बातों में आ कर अपनी मरजी हम पर लादते रहे, जैसे हम ही लड़की वाले हों. आप ने गरीबी का रोना रो कर सादी शादी करनी चाहिए हम मान गए, क्या  झूठ है?

‘‘आप ने कहा कि मंडप में 8 आदमी से अधिक नहीं खिला सकते. मैं ने यह बात भी मान ली, हालांकि मेरे रिश्तेदार मु झ पर नाराज हुए,’’ यह सब सुन कर वे चुप रहे.

मैं फिर बोला, ‘‘आप स्वामीजी की बातों में आ कर मेरे गले में पीतल का हार डाल बैठे और सब को जताया कि सोने का हार डाल रहे हैं. आप की इज्जत बचाने के लिए मैं शांत रहा. मेरे दामादों ने इसे सच सम झा और मु झे उन्हें सोने की अंगूठियां देनी पड़ीं. आप हरदम छोटीछोटी गलतियां करते रहे, पर मैं ने ध्यान नहीं दिया. कुछ ऐसी ही छोटी गलती आप संतू से भी कर बैठे हैं और वह शांत न रह कर नाराज हो बैठा है.’’

अब राजन बाबू रोंआसे हो गए, पर मैं बोलता रहा.

‘‘आप ने शायद प्यार से ही कह दिया कि बेटी बेची नहीं है, 1-2 माह रखना है. बेचने का नाम क्यों लिया? संतू ने भी खरीदा नहीं है, प्यार ही किया है. मैं मानता हूं कि मोना आप की प्यारी बेटी है, पर यह भी सोचिए कि वह संतू की प्यारी पत्नी है. हां, वह फोन पर यह तो नहीं कह सकता था, सो, बोल बैठा कि सोनू मेरा प्यारा बेटा है, जो आप के पास है. उस के अंदर मोना के प्रति बेहद प्यार है, फिर भी वह ‘तुलसीदास’ की तरह भाग कर ‘रत्नावली’ से मिलने तो नहीं आया? संयम बरता है, धैर्य रखा है. वह आप से तर्क करने भी नहीं आया और इस से बचने के लिए मु झे भेजा है ताकि संबंध मधुर रहें.

‘‘उस ने बाद में आने का वादा भी किया है. अगर मोना फोन पर आवेश में बोली न होती तो आ भी जाता. वह मु झ से कहता है कि आप मोना को ‘प्यारी बेटी’ कहकह कर सिर चढ़ा बैठे हैं, लिहाजा, वह विरोध पर उतर आई है. उसे शंका हुई है कि स्वामीजी या बड़े भैया की तरह कभी आप यह भी कह सकते हैं कि बेटी को नहीं भेजूंगा. क्या आप मोना को अपने पास रखना चाहते हैं?’’

यह सुन कर राजन बाबू ठिठके, ‘‘नहीं, ऐसा नहीं. कौन बाप अपनी बेटी को अपने पास रख सकता है?’’

‘‘स्वामीजी और बड़े भैया ने रखा  ही है.’’

‘‘उन की बातें छोडि़ए. मैं बेटी को आप से विमुख कर के उसे खुशियां नहीं दे सकता. दरअसल, संतोष बाबू के मन में जो शंकाएं पैदा हुई हैं, वे स्वामीजी और बड़े भैया के चलते ही पैदा हुई हैं, जिन्होंने अपनी बेटी को अपने घर में रखा है और ससुराल भेजना नहीं चाहते. उन्हें बेटी के ससुराल पक्ष से कुछ शिकायतें हैं.’’

‘‘हम से तो आप को कोई शिकायत नहीं है न?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘तो मोना को मेरे साथ भेज दीजिए.’’

‘‘लोग क्या कहेंगे,’’ कहते हुए मोना की मम्मी आंखें पोंछने लगीं, ‘‘पितृपक्ष और दशहरे में लड़की नहीं भेजी जाती. संतोष बाबू को भेज दीजिएगा न.’’

‘‘बेकार बात बढ़ जाएगी. संतू जिद पर उतरेगा, विवाद का घेरा बढ़ेगा. आखिर उसे भी मोना और सोनू के साथ दशहरे की धूमधाम देखनी है. अब मैं मोना पर ही छोड़ता हूं.’’

यह सुन कर मोना संयमित स्वर से बोली, ‘‘बाबूजी, मैं आप लोगों से दूर कैसे रह सकती हूं? आप आए हैं और उन्होंने आप को मु झे लाने भेजा है, तो मैं जिद नहीं करूंगी. जब मेरे पापा मु झे आप के यहां से ला सकते हैं तो आप मु झे क्यों नहीं ले जा सकते?

मैं चलूंगी. बेटीबहू हूं, मेरा मायकेससुराल तो आनाजाना लगा ही रहेगा. मैं नहीं चाहती कि मेरे कारण दोनों समधियाने का संबंध बिगड़े…’’ मोना बोलती गई, ‘‘अभी मेरा वहां रहना भी जरूरी है. मांजी को मेरी सेवा की जरूरत है. उन्हें छोड़ मैं यहां रह भी नहीं सकती. वैसे उन का आवेश भी शांत करना होगा.’’

‘‘हां, आवेश में लिया गया निर्णय और किया गया कार्य अच्छा परिणाम नहीं देते.’’

दूसरे दिन मोना मेरे साथ चल पड़ी, ससुराल की ओर.

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लेखक-अरुण अलबेला

‘‘आप ने शायद यह कहा कि हरदम आप की ही नहीं चलेगी. हम ने बेटी ब्याही है, बेची नहीं है.’’

‘‘नहीं, मेरे कहने का तात्पर्य…’’ उन का स्वर धीमा हो लड़खड़ा गया, ‘‘पिछली बार मोना थोड़े दिनों के लिए आई थी, तो संतोष बाबू जल्दी ले  गए. अब भी ले जाना चाहते हैं. मोना  1-2 माह रहे तो क्या हर्ज?’’

मैं ने उन्हें लपेटा, ‘‘लगता है, आप के बोलने का ढंग ही कुछ गलत था, जो संतू को पसंद नहीं आया. उस ने अपनी मां को बताया तो न उसे अच्छा लगा, न मु झे ही.’’

राजन बाबू  झेंपे, ‘‘मेरे मुंह से अगर ऐसी कोई बात निकल गई तो उन्हें उसे भूल जाना चाहिए था. बता कर आप सब को आवेशित करने की क्या जरूरत थी?’’

उन की गोलमटोल बातें मु झे आवेशित कर बैठीं. मैं बोला, ‘‘राजन बाबू, क्या  झूठ है, क्या सच, आप जानें, पर यह सच है कि हरदम हमारी नहीं चली है, आप अपनी चलाते रहे हैं. विवाह से पहले आप स्वामीजी की बातों में आ कर अपनी मरजी हम पर लादते रहे, जैसे हम ही लड़की वाले हों. आप ने गरीबी का रोना रो कर सादी शादी करनी चाहिए हम मान गए, क्या  झूठ है?

‘‘आप ने कहा कि मंडप में 8 आदमी से अधिक नहीं खिला सकते. मैं ने यह बात भी मान ली, हालांकि मेरे रिश्तेदार मु झ पर नाराज हुए,’’ यह सब सुन कर वे चुप रहे.

मैं फिर बोला, ‘‘आप स्वामीजी की बातों में आ कर मेरे गले में पीतल का हार डाल बैठे और सब को जताया कि सोने का हार डाल रहे हैं. आप की इज्जत बचाने के लिए मैं शांत रहा. मेरे दामादों ने इसे सच सम झा और मु झे उन्हें सोने की अंगूठियां देनी पड़ीं. आप हरदम छोटीछोटी गलतियां करते रहे, पर मैं ने ध्यान नहीं दिया. कुछ ऐसी ही छोटी गलती आप संतू से भी कर बैठे हैं और वह शांत न रह कर नाराज हो बैठा है.’’

अब राजन बाबू रोंआसे हो गए, पर मैं बोलता रहा.

‘‘आप ने शायद प्यार से ही कह दिया कि बेटी बेची नहीं है, 1-2 माह रखना है. बेचने का नाम क्यों लिया? संतू ने भी खरीदा नहीं है, प्यार ही किया है. मैं मानता हूं कि मोना आप की प्यारी बेटी है, पर यह भी सोचिए कि वह संतू की प्यारी पत्नी है. हां, वह फोन पर यह तो नहीं कह सकता था, सो, बोल बैठा कि सोनू मेरा प्यारा बेटा है, जो आप के पास है. उस के अंदर मोना के प्रति बेहद प्यार है, फिर भी वह ‘तुलसीदास’ की तरह भाग कर ‘रत्नावली’ से मिलने तो नहीं आया? संयम बरता है, धैर्य रखा है. वह आप से तर्क करने भी नहीं आया और इस से बचने के लिए मु झे भेजा है ताकि संबंध मधुर रहें.

‘‘उस ने बाद में आने का वादा भी किया है. अगर मोना फोन पर आवेश में बोली न होती तो आ भी जाता. वह मु झ से कहता है कि आप मोना को ‘प्यारी बेटी’ कहकह कर सिर चढ़ा बैठे हैं, लिहाजा, वह विरोध पर उतर आई है. उसे शंका हुई है कि स्वामीजी या बड़े भैया की तरह कभी आप यह भी कह सकते हैं कि बेटी को नहीं भेजूंगा. क्या आप मोना को अपने पास रखना चाहते हैं?’’

यह सुन कर राजन बाबू ठिठके, ‘‘नहीं, ऐसा नहीं. कौन बाप अपनी बेटी को अपने पास रख सकता है?’’

‘‘स्वामीजी और बड़े भैया ने रखा  ही है.’’

‘‘उन की बातें छोडि़ए. मैं बेटी को आप से विमुख कर के उसे खुशियां नहीं दे सकता. दरअसल, संतोष बाबू के मन में जो शंकाएं पैदा हुई हैं, वे स्वामीजी और बड़े भैया के चलते ही पैदा हुई हैं, जिन्होंने अपनी बेटी को अपने घर में रखा है और ससुराल भेजना नहीं चाहते. उन्हें बेटी के ससुराल पक्ष से कुछ शिकायतें हैं.’’

‘‘हम से तो आप को कोई शिकायत नहीं है न?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘तो मोना को मेरे साथ भेज दीजिए.’’

‘‘लोग क्या कहेंगे,’’ कहते हुए मोना की मम्मी आंखें पोंछने लगीं, ‘‘पितृपक्ष और दशहरे में लड़की नहीं भेजी जाती. संतोष बाबू को भेज दीजिएगा न.’’

‘‘बेकार बात बढ़ जाएगी. संतू जिद पर उतरेगा, विवाद का घेरा बढ़ेगा. आखिर उसे भी मोना और सोनू के साथ दशहरे की धूमधाम देखनी है. अब मैं मोना पर ही छोड़ता हूं.’’

यह सुन कर मोना संयमित स्वर से बोली, ‘‘बाबूजी, मैं आप लोगों से दूर कैसे रह सकती हूं? आप आए हैं और उन्होंने आप को मु झे लाने भेजा है, तो मैं जिद नहीं करूंगी. जब मेरे पापा मु झे आप के यहां से ला सकते हैं तो आप मु झे क्यों नहीं ले जा सकते?

मैं चलूंगी. बेटीबहू हूं, मेरा मायकेससुराल तो आनाजाना लगा ही रहेगा. मैं नहीं चाहती कि मेरे कारण दोनों समधियाने का संबंध बिगड़े…’’ मोना बोलती गई, ‘‘अभी मेरा वहां रहना भी जरूरी है. मांजी को मेरी सेवा की जरूरत है. उन्हें छोड़ मैं यहां रह भी नहीं सकती. वैसे उन का आवेश भी शांत करना होगा.’’

‘‘हां, आवेश में लिया गया निर्णय और किया गया कार्य अच्छा परिणाम नहीं देते.’’

दूसरे दिन मोना मेरे साथ चल पड़ी, ससुराल की ओर.

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August 28, 2021 at 10:00AM

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