Wednesday 29 September 2021

म्लेच्छ : दिनेश्वर जी ने आधी उम्र किराए के मकान में क्यों गुजार दी थी

लेखक- कंवल भारती

दिनेश्वर प्रसाद दुबे अपने नवनिर्मित मकान के सामने खड़े थे. तीनमंजिला मकान बन कर तैयार हो गया था. अब केवल पेंटिंग का काम बाकी था. बाहरभीतर कौन सा कलर होना है, यह वे मजदूरों को समझा रहे थे कि उसी समय उन्हें अपने निकट किसी स्कूटर के रुकने की आवाज आई. उन्होंने पीछे मुड़ कर देखा, उन के कालेज के बड़े बाबू हरीश थे. वे स्कूटर पर बैठे हुए ही जोर से बोले- ‘नमस्कार दिनेश्वर जी,’ जवाब में दिनेश्वर जी ने भी नमस्कार कहा. फिर बोले, ‘अरे हरीश जी, सब कुशल तो है. इधर कैसे?’

‘बस जी, फ़िलहाल तो कुशल है, आगे की नहीं कह सकते,’  हरीश जी बोले. ‘अरे हरीश जी, आगे की किसे पता है? बस, वर्तमान ही ठीक रहना चाहिए. और इस कालोनी  में कैसे?’ ‘दिनेश्वर जी, इस कालोनी में एक आईटीओ रहते हैं, उन्हीं से कुछ काम है.’  फिर बोले, ‘क्या यही मकान बनवाया है आप ने?’

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‘हां, एक छोटा सा प्लौट इस कालोनी में पहले से ही ले रखा था. रिटायरमैंट के बाद बनवा लिया. पूरी जिंदगी तो किराए के मकानों में कट गई. अब कहीं जा कर अपना घर नसीब हुआ है.’ ‘हां, अपना घर तो अपना ही होता है. बड़ा सकून मिलता है,’ हरीश जी ने हंस कर आगे पूछा, ‘तो कब गृहप्रवेश कर रहे हैं?’

‘बस, पेंट का काम पूरा हो जाए. उस के बाद…’  दिनेश्वर जी ने कहा. ‘कब का मुहूर्त निकला है?’ हरीश जी ने पूछा. दिनेश्वर जी ने उत्तर दिया, ‘अरे काहे का मुहूर्त?  मेरे लिए सब दिन बराबर हैं. एक बात बताओ, क्या बच्चा मुहूर्त देख कर पैदा होता है?’

‘नहीं,’ हरीश जी ने जवाब दिया. ‘क्या मनुष्य मुहूर्त देख कर मरता है?’ ‘नहीं.’ ‘तो, जब जनम-मरण में मुहूर्त नहीं, फिर बाकी चीजों में मुहूर्त क्यों? मेरे लिए तो कोई भी दिन अशुभ नहीं है,’ दिनेश्वर जी ने कहा.हरीश जी ने कोई जवाब नहीं दिया. शायद उन्होंने इस तर्क को समझने की भी कोशिश नहीं की और हंसते हुए चले गए.

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दिनेश्वर जी ने मकान का सारा काम खत्म होने के बाद अपने किराए के मकान से धीरेधीरे अपना सामान ला कर रखना शुरू कर दिया. और एक दिन पूरी तरह मकान में शिफ्ट हो गए. उन के 2 बच्चे थे- एक बेटा, एक बेटी. बेटी की शादी वे पहले ही कर चुके थे. बेटे की शादी उन्होंने नए मकान में आने के बाद की. नीचे की मंजिल में वे और उन की पत्नी रहते थे, दूसरी अर्थात बीच की मंजिल में उन के बेटेबहू रहते थे. तीसरी मंजिल के कमरे खाली थे. दिनेश्वर जी और उनकी पत्नी दोनों की राय थी कि कोई ढंग का किराएदार मिल जाए तो ऊपरी मंजिल के कमरे किराए पर उठा दिए जाएं. इस से कम से कम बैंक की किस्तें निकलने में ही मदद मिलेगी. जिस कालोनी में उन्होंने मकान बनवाया था, वह नाम से तो आदर्श कालोनी थी, पर उस में 90 फीसदी मकान ब्राह्मणों के थे. इस वजह से लोग उसे  ब्राह्मण कालोनी भी कहते थे.

एक शाम दिनेश्वर जी बरामदे में बैठे चाय पी रहे थे कि कौलबैल बजी. उन्होंने गेट खोल कर देखा, उन के पुराने पड़ोसी प्रोफैसर रामखिलावन थे. ‘अरे रामखिलावन जी, आप, आइएआइए, बैठिए,’ उन्होंने बरामदे में पड़ी कुरसियों की ओर इशारा करते हुए कहा. रामखिलावन जी जब बैठ गए, तो दिनेश्वर जी अंदर गए और थोड़ी देर बाद एक ट्रे में चाय व पानी का गिलास ले कर आए. रामखिलावन जी बोले, ‘इस का तो भाईसाहब आप ने बेकार ही कष्ट किया.’

‘अरे, कैसा कष्ट? आप पहली बार आए हैं. यह कैसे हो सकता है कि मैं चाय पीता रहूं, और आप…’ दिनेश्वर जी ने कहा.दोनों के बीच कुछ देर बातें हुईं. फिर दिनेश्वर जी ने कहा, ‘रामखिलावन जी, एक किराएदार की जरूरत है. कोई नजर में हो तो बताइएगा. रामखिलावन जी बोले, ‘एक है तो… एक प्रोफैसर आजमगढ़ से ट्रांसफर हो कर आए हैं. आर्ट फैकल्टी में आप के स्थान पर ही आए हैं. लेकिन आप उन को रखेंगे नहीं.’

‘क्यों रामखिलावन जी, ऐसी क्या बात है उन में जो मैं उन को नहीं रखूंगा?’ दिनेश्वर जी ने हैरत से पूछा.‘वह इसलिए कि आप ब्राह्मण हैं, और वह…’‘वह क्या?’ दिनेश्वर जी को जिज्ञासा हुई. उन्होंने कहा, ‘रामखिलावन जी, आप मेरे साथ इतने लंबे समय से कालेज में साथ रहे हैं और पड़ोसी भी रहे हैं. आप मेरी विचारधारा को जानते हैं. मैं मनुष्यों में भेद नहीं करता. फिर भी आप मेरे सिद्धांतों पर संदेह कर रहे हैं. अगर वह प्रोफैसर दलित भी होगा, तो भी मुझे एतराज नहीं है.’

‘लेकिन वह दलित नहीं है.’‘फिर, फिर कौन है?’रामखिलावन जी ने धीरे से कहा, ‘मुसलमान है.’‘ओह,’ दिनेश्वर जी मुसकराए, ‘तो क्या दिक्कत है, ले आओ. क्या मुसलमान मनुष्य नहीं है. रामखिलावन जी, बुरा मत मानना, संकोच आप के अंदर है, मेरे अंदर नहीं.’रामखिलावन जी खुशी से उछल पड़े, बोले, ‘साहब, मुझे बड़ी खुशी हुई. पर साहब, आप देख लीजिए, यह ब्राह्मण कालोनी है, आप को परेशानी हो सकती है.’

‘रामखिलावन जी, क्या परेशानी होगी. मैं किराए के मकान में नहीं रहता हूं जो मकानमालिक पर दबाव बना कर मुझे निकलवा देंगे. मेरा अपना मकान है, क्या यहां भी मेरी मरजी नहीं चलेगी?’ दिनेश्वर जी ने जोर दे कर कहा.‘ठीक है, मैं कल ही उन को आप के पास ले कर आता हूं. किराए वगैरह की आप बात कर लीजिएगा,’ यह कह कर रामखिलावन जी उठ गए.

प्रोफैसर असमत अली को दिनेश्वर प्रसाद के मकान में रहते हुए एक सप्ताह हो गया था. वे अकेले ही रहते थे. आजमगढ़ से अपना परिवार लाने का इरादा उन्होंने नहीं बनाया था. इस की जरूरत भी उन को नहीं थी क्योंकि उन के रिटायरमैंट में एकडेढ़ साल ही बचा था. उस के बाद तो उन्हें आजमगढ़ में ही रहना था. इतने कम समय के लिए वे क्या सामान लाएं और ले जाएं. वे सुबहशाम की चाय खुद बना लेते थे और एक समय खाना खाते थे. दिन में वे हलकाफुलका नाश्ता कर के काम चला लेते थे. शाम को रौयल टिफिन सर्विस से उन का टिफिन बंधा हुआ था. दिनेश्वर पहली बार किसी मुसलमान को इतना सात्विक भोजन करते देख रहे थे, जबकि उन के यहां महीने में एकदो बार मटन, चिकन और मछली भी बन जाती थी. यही नहीं, वे  नियंत्रित मात्रा में रसरंजन (शराब का सेवन) भी करते थे.

एक दिन शाम को दिनेश्वर जी ने असमत अली को अपनी बैठक में चाय पर बुलाया. वे अभी चाय पी ही रहे थे कि गले में भगवा गमछा डाले कुछ लड़कों ने धावा बोल दिया. वे जोरजोर से दरवाजा पीटने लगे. दिनेश्वर जी को गुस्सा आ गया, कौन बदतमीज है यह? उन्होंने दरवाजा खोल कर देखा, कुछ लड़के थे, जो इस कालोनी के नहीं लग रहे थे. उन्होंने कहा, ‘जब घंटी लगी है, तो दरवाजा क्यों पीट रहे हो? कौन हो तुम लोग लोग?’

 

‘आप ने एक मुसलमान को किराए पर रखा हुआ है,’  उन में से एक उपद्रवी बोला.‘हां, रखा हुआ है, तो?’  दिनेश्वर जी ने पूछा.‘उसे आप फौरन निकालो.दिनेश्वर जी को भी गुस्सा आ गया, ‘क्यों निकालो? तुम्हारे बाप का राज है क्या?’‘वह मुसलमान है,’  एक दूसरे उपद्रवी ने चीखते हुए कहा.दिनेश्वर जी बोले, ‘मुसलमान है तो क्या वह इस देश का नागरिक नहीं है? क्या इस देश में रहने का उसे हक नहीं है?’

‘हक है, लेकिन कोई मुसलमान हिंदू कोलोनी में नहीं रह सकता. कह दिया बस,’ दूसरा उपद्रवी बोला‘क्यों नहीं रह सकता यहां मुसलमान, वजह बताओ?’ ‘बस कह दिया, नहीं रह सकता,’ तीसरा बोला.

‘यह क्या बस कह दिया, बस कह दिया की रट लगा रखी है?  तुम यहां के कलैक्टर हो जो तुम्हारा हुक्म चलेगा? क्या सरकार ने कोई कानून बना दिया है कि मुसलमान यहां नहीं रह सकता?’ दिनेश्वर जी ने उन्हें लगभग लताड़ते हुए कहा.‘आप हमारी बात सीधे तरीके से क्यों नहीं समझ रहे हैं?’ चौथा उपद्रवी बोला‘कैसे समझूं, जब समझाओगे, तभी तो समझूंगा,’ दिनेश्वर जी ने कहा.

‘मुसलमान हिंदू कालोनी में नहीं रह सकता,’ पहले वाला बोला.‘वही तो मैं भी समझना चाह रहा हूं कि क्यों नहीं रह सकता?’ दिनेश्वर जी ने अपना सवाल फिर दोहराया.‘क्योंकि मुसलमान म्लेच्छ होता है,’ दूसरा उपद्रवी बोला.

दिनेश्वर जी को हंसी आ गई, बोले,  ‘म्लेच्छ किसे कहते हैं, जानते हो?’‘हां जानते हैं, मुसलमानों को म्लेच्छ कहते हैं,’ उसी दूसरे उपद्रवी ने जवाब दिया.‘गलत,’ दिनेश्वर जी ने संस्कृत में एक श्लोक सुनाया-

त्यक्तस्वधर्माचरणा निर्घृणा: परपीडका: चण्डाश्चहिंसका नित्यं म्लेच्छास्ते ह्यविवेकिन: ॥फिर बोले, ‘यह शुक्रनीतिसार का 44वां श्लोक है. इस में शुक्राचार्य कहते हैं— ‘जिन्होंने अपने  धर्म  का आचरण करना छोड़ दिया है, जो निर्घृण हैं, दूसरों को कष्ट पहुंचाते हैं, क्रोध करते हैं, नित्य हिंसा करते हैं, अविवेकी हैं- वे म्लेच्छ हैं.  इस हिसाब से तुम्हीं सब लोग म्लेच्छ  हुए.’

उपद्रवियों को  सांप सूंघ गया. फिर भी एक उपद्रवी ने पूछा, ‘हम कैसे म्लेच्छ हुए?’दिनेश्वर जी ने कहा, ‘वह इस तरह कि तुम लोग अपने धर्म का आचरण नहीं कर रहे, तुम मुसलमानों से घृणा कर रहे हो, यह धर्माचरण नहीं है. इसलिए तुम भी निर्घृण हो, तुम सब जिस तरह एक मुसलमान पर क्रोध कर रहे हो, उसे कष्ट पहुंचाने के लिए यहां आए हो, इस का मतलब है कि तुम रोज इसी घृणा के साथ जीते हो, तो तुम भी नित्य हिंसा कर रहे  हो.  इस प्रकार तुम लोगों में विवेक भी कहां बचा? फिर तुम हुए न म्लेच्छ?’

उपद्रवियों का दिमाग घूम गया. उन को खामोश देख कर दिनेश्वर जी ने आगे कहा, ‘अब तुम इस मुसलमान को देखो जो मेरे मकान में किराएदार हैं. ये अपने धर्म का आचरण कर रहे हैं. ये हिंदुओं से ही नहीं, किसी भी धर्म के व्यक्ति से घृणा नहीं करते हैं. ये प्रोफैसर हैं. डिग्री कालेज में बीए, एमए के छात्रों को पढ़ाते हैं. इन के छात्र सभी जातियों और धर्मों के हैं. ये किसी से भेदभाव नहीं करते, सभी को समान भाव से पढ़ाते हैं. ये किसी को कष्ट नहीं पहुंचाते. अब बताओ, ये किधर से म्लेच्छ हैं?.’

उपद्रवी लोग ज्यादा पढेलिखे नहीं थे. वे, बस, कुछ हिंदू संगठनों द्वारा हिंदूमुसलिम दंगा करवाने में उपयोग किए जाने के लिए पाले जाने वाले लोग थे, जिन के दिमागों में मुसलमानों और ईसाईयों के खिलाफ नफ़रत का यह बीज बो दिया गया था कि मुसलमान हिंदुओं और हिंदू धर्म के लिए खतरा हैं. उन में वास्तविकता को समझने का अपना विवेक नहीं था. हालांकि वे दिनेश्वर जी के तर्क से विचलित हो गए थे, पर वे हार मानने के लिए तैयार नहीं थे. जब उन्हें कोई जवाब नहीं सूझा, तो उन में से एक उपद्रवी ने कहा, ‘आप नहीं जानते कि मुसलमान लोग गाय काटते हैं, लवजिहाद कर के हिंदुओं की बहनबेटियों को जबरदस्ती मुसलमान बना लेते हैं.’

 

दिनेश्वर जी जानते थे कि ये लोग गाय और लवजिहाद पर जरूर आएंगे क्योंकि वे इसी तरह के एक नफरती हिंदू संगठन को नजदीक से जानते थे, जिस के नेता लड़कों को यही सब सिखाया करते थे. उस संगठन में दिनेश्वर जी के एकदो रिश्तेदार भी थे. वे उन को भी अपने संगठन में लेना चाहते थे, लेकिन उन्होंने उन की जहरीली विचारधारा को कभी स्वीकार नहीं किया. दिनेश्वर जी ने पूछा, ‘तुम में से किसकिस ने मुसलमानों को गाय काटते हुए देखा है?’ किसी ने कोई जवाब नहीं दिया. दिनेश्वर जी ने फिर पूछा, ‘बोलो, तुम में से किसी ने तो देखा होगा? उन्होंने जवाब दिया, ‘हम में से किसी ने नहीं देखा.’  फिर दिनेश्वर जी ने उन्हें बताया, ‘जानते हो, पशु काटने और मांस बेचने का काम हिंदूमुसलमान नहीं करते, बल्कि कसाई या चिकवा लोग करते हैं. यह उन का पेशा है. हिंदू भी मांस खाते हैं. वे क्या खुद बकरा या सूअर काटते हैं? चाहे हिंदू हों, या मुसलमान, या कोई और, जो भी मांस खाते हैं, वे कसाई या चिकवे की दुकान से ही मांस लाते हैं. वे खुद पशु नहीं काटते हैं. गोवध पर कानूनन प्रतिबंध है. जो भी कसाई काटता है, उस पर कानून के तहत कार्यवाही होती है. तब कैसे मुसलमान गाय काट कर खाता है? यह व्यर्थ का आरोप है कि नहीं?’

वे लोग चुपचाप सुनते रहे. दिनेश्वर जी ने आगे कहा, ‘दूसरी बात तुम ने क्या कही? लवजिहाद की. तुम लोग इस कालोनी के तो हो नहीं. कहां रहते हो? चलो जाने दो इस सवाल को. जानता हूं कि तुम एक जगह के नहीं हो, अलगअलग बस्तियों से आए हो. अच्छा बताओ, तुम ने यह कैसे जाना कि मुसलमान हिंदुओं की बहनबेटियों को प्यार में फंसा कर मुसलमान बनाते हैं? क्या तुम्हारी बस्तियों में, जहां तुम रहते हो, ऐसी कोई घटना हुई?’

‘नहीं. हम होने ही नहीं देते अपने यहां ऐसी घटना,’ एक उपद्रवी ने गुस्से से कहा.‘फिर कहां पर हुआ लवजिहाद? कुछ जगहों का नाम तो बताओ?’ दिनेश्वर जी ने जोर दे कर कहा.उस ने जवाब दिया, ‘आप को नहीं पता, बरेली, कानपुर और लखनऊ में हुआ है लवजिहाद.’ ‘बस, ये 3 घटनाएं! उन तीनों घटनाओं का सच यह है कि पुलिस की तफ्तीश में उन में से किसी में भी धर्मपरिवर्तन की घटना नहीं हुई. तुम्हें जितना तुम्हारे हरामखोर नेताओं ने बताया, उतना ही तुम ने रट लिया. अखबार तुम पढते नहीं जो सचाई का तुम्हें पता चले. इन 3 घटनाओं से तुम ने समझ लिया कि हिंदू धर्म खतरे में पड़ गया?’ दिनेश्वर जी ने आश्चर्य प्रकट किया, फिर आगे बोले, ‘तुम्हें मालूम है, उत्तर प्रदेश में हिंदू आबादी कितनी है? मैं ही बताता हूं, हिंदुओं की संख्या 160 करोड़ के करीब है और मुसलमान 40 करोड़ से भी कम हैं. अगर लवजिहाद होता, तो मुसलमानों की आबादी इतनी कम होती या हिंदुओं से भी ज्यादा होती? बोलो, जवाब दो.’

वे कोई उत्तर न दे सके. बस, सिर झुकाए खड़े रहे. दिनेश्वर जी ने महसूस किया कि उन के दिमागों में कुछ चल रहा था. शायद वे आत्मग्लानि अनुभव कर रहे थे. इसी समय दिनेश्वर जी ने उन सब को अंदर बैठक में बैठाया और उन्हें समझाते हुए कहा, ‘मैं जानता हूं, तुम लोग धनी परिवारों से नहीं हो. लेकिन तुम्हारे नेता, जो तुम्हें मुसलमानों से नफ़रत करना सिखा रहे हैं, साधनसंपन्न लोग हैं. उन के बच्चे शहर के सब से मंहगे और बड़े स्कूलों में पढ़ रहे हैं. उन में एकाध के बच्चे विदेश में भी पढ़ रहे हैं. वे अपने बच्चों को मुसलमानों को मारने के लिए सड़कों पर नहीं भेजते, वे उन्हें डाक्टर, इंजीनियर और आईएएस बनवाएंगे. लेकिन तुम जैसे गरीब घरों के लड़कों को वे अपराधी बनाते हैं. असल में धर्म के नाम पर नफ़रत फैलाने वाले जिहादी वे लोग ही हैं. तुम यहां इस मुसलिम किराएदार को घर से निकाल कर मारने के लिए आए थे. तुम इस को मारते, तो क्या तुम बच जाते? क्या तुम्हारे खिलाफ एफआईआर न होती? जरूर होती, मैं स्वयं कराता. तुम जेल में होते, और तुम्हारे गरीब मांबाप अदालतों के चक्कर लगाते रहते. जिस संगठन से तुम जुड़े हुए हो, उस के लोग तुम्हारी कोई मदद न करते. उन्हें तुम जैसे दूसरे बेवकूफ मिल जाएंगे. क्यों अपनी जिंदगी खराब कर रहे हो? तुम्हारी इस नफ़रत का अंत जेल में ही है, और एक बार अगर जेल चले गए तो तुम्हारा क्या भविष्य रह जाएगा?’

 

वे सभी उपद्रवी अब शांत थे. उन में से एक ने कहा, ‘सर, हम गलती पर थे.’ दूसरे ने कहा, ‘आप ने हमारी आंखें खोल दीं.’ तीसरा बोला, ‘सौरी सर.’ चौथा बोला, ‘सचमुच सर, हम गलत रास्ते पर थे.’ वे सभी शर्मिंदा हो कर उठ कर जाने को हुए, तभी दिनेश्वर जी ने हंस कर कहा, ‘अब कहां चले मेरे बच्चो, चाय पी कर जाना.’ और उन्होंने घर में अपनी पत्नी को बुला कर सब के लिए चाय भेजने को कह दिया.

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लेखक- कंवल भारती

दिनेश्वर प्रसाद दुबे अपने नवनिर्मित मकान के सामने खड़े थे. तीनमंजिला मकान बन कर तैयार हो गया था. अब केवल पेंटिंग का काम बाकी था. बाहरभीतर कौन सा कलर होना है, यह वे मजदूरों को समझा रहे थे कि उसी समय उन्हें अपने निकट किसी स्कूटर के रुकने की आवाज आई. उन्होंने पीछे मुड़ कर देखा, उन के कालेज के बड़े बाबू हरीश थे. वे स्कूटर पर बैठे हुए ही जोर से बोले- ‘नमस्कार दिनेश्वर जी,’ जवाब में दिनेश्वर जी ने भी नमस्कार कहा. फिर बोले, ‘अरे हरीश जी, सब कुशल तो है. इधर कैसे?’

‘बस जी, फ़िलहाल तो कुशल है, आगे की नहीं कह सकते,’  हरीश जी बोले. ‘अरे हरीश जी, आगे की किसे पता है? बस, वर्तमान ही ठीक रहना चाहिए. और इस कालोनी  में कैसे?’ ‘दिनेश्वर जी, इस कालोनी में एक आईटीओ रहते हैं, उन्हीं से कुछ काम है.’  फिर बोले, ‘क्या यही मकान बनवाया है आप ने?’

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‘हां, एक छोटा सा प्लौट इस कालोनी में पहले से ही ले रखा था. रिटायरमैंट के बाद बनवा लिया. पूरी जिंदगी तो किराए के मकानों में कट गई. अब कहीं जा कर अपना घर नसीब हुआ है.’ ‘हां, अपना घर तो अपना ही होता है. बड़ा सकून मिलता है,’ हरीश जी ने हंस कर आगे पूछा, ‘तो कब गृहप्रवेश कर रहे हैं?’

‘बस, पेंट का काम पूरा हो जाए. उस के बाद…’  दिनेश्वर जी ने कहा. ‘कब का मुहूर्त निकला है?’ हरीश जी ने पूछा. दिनेश्वर जी ने उत्तर दिया, ‘अरे काहे का मुहूर्त?  मेरे लिए सब दिन बराबर हैं. एक बात बताओ, क्या बच्चा मुहूर्त देख कर पैदा होता है?’

‘नहीं,’ हरीश जी ने जवाब दिया. ‘क्या मनुष्य मुहूर्त देख कर मरता है?’ ‘नहीं.’ ‘तो, जब जनम-मरण में मुहूर्त नहीं, फिर बाकी चीजों में मुहूर्त क्यों? मेरे लिए तो कोई भी दिन अशुभ नहीं है,’ दिनेश्वर जी ने कहा.हरीश जी ने कोई जवाब नहीं दिया. शायद उन्होंने इस तर्क को समझने की भी कोशिश नहीं की और हंसते हुए चले गए.

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दिनेश्वर जी ने मकान का सारा काम खत्म होने के बाद अपने किराए के मकान से धीरेधीरे अपना सामान ला कर रखना शुरू कर दिया. और एक दिन पूरी तरह मकान में शिफ्ट हो गए. उन के 2 बच्चे थे- एक बेटा, एक बेटी. बेटी की शादी वे पहले ही कर चुके थे. बेटे की शादी उन्होंने नए मकान में आने के बाद की. नीचे की मंजिल में वे और उन की पत्नी रहते थे, दूसरी अर्थात बीच की मंजिल में उन के बेटेबहू रहते थे. तीसरी मंजिल के कमरे खाली थे. दिनेश्वर जी और उनकी पत्नी दोनों की राय थी कि कोई ढंग का किराएदार मिल जाए तो ऊपरी मंजिल के कमरे किराए पर उठा दिए जाएं. इस से कम से कम बैंक की किस्तें निकलने में ही मदद मिलेगी. जिस कालोनी में उन्होंने मकान बनवाया था, वह नाम से तो आदर्श कालोनी थी, पर उस में 90 फीसदी मकान ब्राह्मणों के थे. इस वजह से लोग उसे  ब्राह्मण कालोनी भी कहते थे.

एक शाम दिनेश्वर जी बरामदे में बैठे चाय पी रहे थे कि कौलबैल बजी. उन्होंने गेट खोल कर देखा, उन के पुराने पड़ोसी प्रोफैसर रामखिलावन थे. ‘अरे रामखिलावन जी, आप, आइएआइए, बैठिए,’ उन्होंने बरामदे में पड़ी कुरसियों की ओर इशारा करते हुए कहा. रामखिलावन जी जब बैठ गए, तो दिनेश्वर जी अंदर गए और थोड़ी देर बाद एक ट्रे में चाय व पानी का गिलास ले कर आए. रामखिलावन जी बोले, ‘इस का तो भाईसाहब आप ने बेकार ही कष्ट किया.’

‘अरे, कैसा कष्ट? आप पहली बार आए हैं. यह कैसे हो सकता है कि मैं चाय पीता रहूं, और आप…’ दिनेश्वर जी ने कहा.दोनों के बीच कुछ देर बातें हुईं. फिर दिनेश्वर जी ने कहा, ‘रामखिलावन जी, एक किराएदार की जरूरत है. कोई नजर में हो तो बताइएगा. रामखिलावन जी बोले, ‘एक है तो… एक प्रोफैसर आजमगढ़ से ट्रांसफर हो कर आए हैं. आर्ट फैकल्टी में आप के स्थान पर ही आए हैं. लेकिन आप उन को रखेंगे नहीं.’

‘क्यों रामखिलावन जी, ऐसी क्या बात है उन में जो मैं उन को नहीं रखूंगा?’ दिनेश्वर जी ने हैरत से पूछा.‘वह इसलिए कि आप ब्राह्मण हैं, और वह…’‘वह क्या?’ दिनेश्वर जी को जिज्ञासा हुई. उन्होंने कहा, ‘रामखिलावन जी, आप मेरे साथ इतने लंबे समय से कालेज में साथ रहे हैं और पड़ोसी भी रहे हैं. आप मेरी विचारधारा को जानते हैं. मैं मनुष्यों में भेद नहीं करता. फिर भी आप मेरे सिद्धांतों पर संदेह कर रहे हैं. अगर वह प्रोफैसर दलित भी होगा, तो भी मुझे एतराज नहीं है.’

‘लेकिन वह दलित नहीं है.’‘फिर, फिर कौन है?’रामखिलावन जी ने धीरे से कहा, ‘मुसलमान है.’‘ओह,’ दिनेश्वर जी मुसकराए, ‘तो क्या दिक्कत है, ले आओ. क्या मुसलमान मनुष्य नहीं है. रामखिलावन जी, बुरा मत मानना, संकोच आप के अंदर है, मेरे अंदर नहीं.’रामखिलावन जी खुशी से उछल पड़े, बोले, ‘साहब, मुझे बड़ी खुशी हुई. पर साहब, आप देख लीजिए, यह ब्राह्मण कालोनी है, आप को परेशानी हो सकती है.’

‘रामखिलावन जी, क्या परेशानी होगी. मैं किराए के मकान में नहीं रहता हूं जो मकानमालिक पर दबाव बना कर मुझे निकलवा देंगे. मेरा अपना मकान है, क्या यहां भी मेरी मरजी नहीं चलेगी?’ दिनेश्वर जी ने जोर दे कर कहा.‘ठीक है, मैं कल ही उन को आप के पास ले कर आता हूं. किराए वगैरह की आप बात कर लीजिएगा,’ यह कह कर रामखिलावन जी उठ गए.

प्रोफैसर असमत अली को दिनेश्वर प्रसाद के मकान में रहते हुए एक सप्ताह हो गया था. वे अकेले ही रहते थे. आजमगढ़ से अपना परिवार लाने का इरादा उन्होंने नहीं बनाया था. इस की जरूरत भी उन को नहीं थी क्योंकि उन के रिटायरमैंट में एकडेढ़ साल ही बचा था. उस के बाद तो उन्हें आजमगढ़ में ही रहना था. इतने कम समय के लिए वे क्या सामान लाएं और ले जाएं. वे सुबहशाम की चाय खुद बना लेते थे और एक समय खाना खाते थे. दिन में वे हलकाफुलका नाश्ता कर के काम चला लेते थे. शाम को रौयल टिफिन सर्विस से उन का टिफिन बंधा हुआ था. दिनेश्वर पहली बार किसी मुसलमान को इतना सात्विक भोजन करते देख रहे थे, जबकि उन के यहां महीने में एकदो बार मटन, चिकन और मछली भी बन जाती थी. यही नहीं, वे  नियंत्रित मात्रा में रसरंजन (शराब का सेवन) भी करते थे.

एक दिन शाम को दिनेश्वर जी ने असमत अली को अपनी बैठक में चाय पर बुलाया. वे अभी चाय पी ही रहे थे कि गले में भगवा गमछा डाले कुछ लड़कों ने धावा बोल दिया. वे जोरजोर से दरवाजा पीटने लगे. दिनेश्वर जी को गुस्सा आ गया, कौन बदतमीज है यह? उन्होंने दरवाजा खोल कर देखा, कुछ लड़के थे, जो इस कालोनी के नहीं लग रहे थे. उन्होंने कहा, ‘जब घंटी लगी है, तो दरवाजा क्यों पीट रहे हो? कौन हो तुम लोग लोग?’

 

‘आप ने एक मुसलमान को किराए पर रखा हुआ है,’  उन में से एक उपद्रवी बोला.‘हां, रखा हुआ है, तो?’  दिनेश्वर जी ने पूछा.‘उसे आप फौरन निकालो.दिनेश्वर जी को भी गुस्सा आ गया, ‘क्यों निकालो? तुम्हारे बाप का राज है क्या?’‘वह मुसलमान है,’  एक दूसरे उपद्रवी ने चीखते हुए कहा.दिनेश्वर जी बोले, ‘मुसलमान है तो क्या वह इस देश का नागरिक नहीं है? क्या इस देश में रहने का उसे हक नहीं है?’

‘हक है, लेकिन कोई मुसलमान हिंदू कोलोनी में नहीं रह सकता. कह दिया बस,’ दूसरा उपद्रवी बोला‘क्यों नहीं रह सकता यहां मुसलमान, वजह बताओ?’ ‘बस कह दिया, नहीं रह सकता,’ तीसरा बोला.

‘यह क्या बस कह दिया, बस कह दिया की रट लगा रखी है?  तुम यहां के कलैक्टर हो जो तुम्हारा हुक्म चलेगा? क्या सरकार ने कोई कानून बना दिया है कि मुसलमान यहां नहीं रह सकता?’ दिनेश्वर जी ने उन्हें लगभग लताड़ते हुए कहा.‘आप हमारी बात सीधे तरीके से क्यों नहीं समझ रहे हैं?’ चौथा उपद्रवी बोला‘कैसे समझूं, जब समझाओगे, तभी तो समझूंगा,’ दिनेश्वर जी ने कहा.

‘मुसलमान हिंदू कालोनी में नहीं रह सकता,’ पहले वाला बोला.‘वही तो मैं भी समझना चाह रहा हूं कि क्यों नहीं रह सकता?’ दिनेश्वर जी ने अपना सवाल फिर दोहराया.‘क्योंकि मुसलमान म्लेच्छ होता है,’ दूसरा उपद्रवी बोला.

दिनेश्वर जी को हंसी आ गई, बोले,  ‘म्लेच्छ किसे कहते हैं, जानते हो?’‘हां जानते हैं, मुसलमानों को म्लेच्छ कहते हैं,’ उसी दूसरे उपद्रवी ने जवाब दिया.‘गलत,’ दिनेश्वर जी ने संस्कृत में एक श्लोक सुनाया-

त्यक्तस्वधर्माचरणा निर्घृणा: परपीडका: चण्डाश्चहिंसका नित्यं म्लेच्छास्ते ह्यविवेकिन: ॥फिर बोले, ‘यह शुक्रनीतिसार का 44वां श्लोक है. इस में शुक्राचार्य कहते हैं— ‘जिन्होंने अपने  धर्म  का आचरण करना छोड़ दिया है, जो निर्घृण हैं, दूसरों को कष्ट पहुंचाते हैं, क्रोध करते हैं, नित्य हिंसा करते हैं, अविवेकी हैं- वे म्लेच्छ हैं.  इस हिसाब से तुम्हीं सब लोग म्लेच्छ  हुए.’

उपद्रवियों को  सांप सूंघ गया. फिर भी एक उपद्रवी ने पूछा, ‘हम कैसे म्लेच्छ हुए?’दिनेश्वर जी ने कहा, ‘वह इस तरह कि तुम लोग अपने धर्म का आचरण नहीं कर रहे, तुम मुसलमानों से घृणा कर रहे हो, यह धर्माचरण नहीं है. इसलिए तुम भी निर्घृण हो, तुम सब जिस तरह एक मुसलमान पर क्रोध कर रहे हो, उसे कष्ट पहुंचाने के लिए यहां आए हो, इस का मतलब है कि तुम रोज इसी घृणा के साथ जीते हो, तो तुम भी नित्य हिंसा कर रहे  हो.  इस प्रकार तुम लोगों में विवेक भी कहां बचा? फिर तुम हुए न म्लेच्छ?’

उपद्रवियों का दिमाग घूम गया. उन को खामोश देख कर दिनेश्वर जी ने आगे कहा, ‘अब तुम इस मुसलमान को देखो जो मेरे मकान में किराएदार हैं. ये अपने धर्म का आचरण कर रहे हैं. ये हिंदुओं से ही नहीं, किसी भी धर्म के व्यक्ति से घृणा नहीं करते हैं. ये प्रोफैसर हैं. डिग्री कालेज में बीए, एमए के छात्रों को पढ़ाते हैं. इन के छात्र सभी जातियों और धर्मों के हैं. ये किसी से भेदभाव नहीं करते, सभी को समान भाव से पढ़ाते हैं. ये किसी को कष्ट नहीं पहुंचाते. अब बताओ, ये किधर से म्लेच्छ हैं?.’

उपद्रवी लोग ज्यादा पढेलिखे नहीं थे. वे, बस, कुछ हिंदू संगठनों द्वारा हिंदूमुसलिम दंगा करवाने में उपयोग किए जाने के लिए पाले जाने वाले लोग थे, जिन के दिमागों में मुसलमानों और ईसाईयों के खिलाफ नफ़रत का यह बीज बो दिया गया था कि मुसलमान हिंदुओं और हिंदू धर्म के लिए खतरा हैं. उन में वास्तविकता को समझने का अपना विवेक नहीं था. हालांकि वे दिनेश्वर जी के तर्क से विचलित हो गए थे, पर वे हार मानने के लिए तैयार नहीं थे. जब उन्हें कोई जवाब नहीं सूझा, तो उन में से एक उपद्रवी ने कहा, ‘आप नहीं जानते कि मुसलमान लोग गाय काटते हैं, लवजिहाद कर के हिंदुओं की बहनबेटियों को जबरदस्ती मुसलमान बना लेते हैं.’

 

दिनेश्वर जी जानते थे कि ये लोग गाय और लवजिहाद पर जरूर आएंगे क्योंकि वे इसी तरह के एक नफरती हिंदू संगठन को नजदीक से जानते थे, जिस के नेता लड़कों को यही सब सिखाया करते थे. उस संगठन में दिनेश्वर जी के एकदो रिश्तेदार भी थे. वे उन को भी अपने संगठन में लेना चाहते थे, लेकिन उन्होंने उन की जहरीली विचारधारा को कभी स्वीकार नहीं किया. दिनेश्वर जी ने पूछा, ‘तुम में से किसकिस ने मुसलमानों को गाय काटते हुए देखा है?’ किसी ने कोई जवाब नहीं दिया. दिनेश्वर जी ने फिर पूछा, ‘बोलो, तुम में से किसी ने तो देखा होगा? उन्होंने जवाब दिया, ‘हम में से किसी ने नहीं देखा.’  फिर दिनेश्वर जी ने उन्हें बताया, ‘जानते हो, पशु काटने और मांस बेचने का काम हिंदूमुसलमान नहीं करते, बल्कि कसाई या चिकवा लोग करते हैं. यह उन का पेशा है. हिंदू भी मांस खाते हैं. वे क्या खुद बकरा या सूअर काटते हैं? चाहे हिंदू हों, या मुसलमान, या कोई और, जो भी मांस खाते हैं, वे कसाई या चिकवे की दुकान से ही मांस लाते हैं. वे खुद पशु नहीं काटते हैं. गोवध पर कानूनन प्रतिबंध है. जो भी कसाई काटता है, उस पर कानून के तहत कार्यवाही होती है. तब कैसे मुसलमान गाय काट कर खाता है? यह व्यर्थ का आरोप है कि नहीं?’

वे लोग चुपचाप सुनते रहे. दिनेश्वर जी ने आगे कहा, ‘दूसरी बात तुम ने क्या कही? लवजिहाद की. तुम लोग इस कालोनी के तो हो नहीं. कहां रहते हो? चलो जाने दो इस सवाल को. जानता हूं कि तुम एक जगह के नहीं हो, अलगअलग बस्तियों से आए हो. अच्छा बताओ, तुम ने यह कैसे जाना कि मुसलमान हिंदुओं की बहनबेटियों को प्यार में फंसा कर मुसलमान बनाते हैं? क्या तुम्हारी बस्तियों में, जहां तुम रहते हो, ऐसी कोई घटना हुई?’

‘नहीं. हम होने ही नहीं देते अपने यहां ऐसी घटना,’ एक उपद्रवी ने गुस्से से कहा.‘फिर कहां पर हुआ लवजिहाद? कुछ जगहों का नाम तो बताओ?’ दिनेश्वर जी ने जोर दे कर कहा.उस ने जवाब दिया, ‘आप को नहीं पता, बरेली, कानपुर और लखनऊ में हुआ है लवजिहाद.’ ‘बस, ये 3 घटनाएं! उन तीनों घटनाओं का सच यह है कि पुलिस की तफ्तीश में उन में से किसी में भी धर्मपरिवर्तन की घटना नहीं हुई. तुम्हें जितना तुम्हारे हरामखोर नेताओं ने बताया, उतना ही तुम ने रट लिया. अखबार तुम पढते नहीं जो सचाई का तुम्हें पता चले. इन 3 घटनाओं से तुम ने समझ लिया कि हिंदू धर्म खतरे में पड़ गया?’ दिनेश्वर जी ने आश्चर्य प्रकट किया, फिर आगे बोले, ‘तुम्हें मालूम है, उत्तर प्रदेश में हिंदू आबादी कितनी है? मैं ही बताता हूं, हिंदुओं की संख्या 160 करोड़ के करीब है और मुसलमान 40 करोड़ से भी कम हैं. अगर लवजिहाद होता, तो मुसलमानों की आबादी इतनी कम होती या हिंदुओं से भी ज्यादा होती? बोलो, जवाब दो.’

वे कोई उत्तर न दे सके. बस, सिर झुकाए खड़े रहे. दिनेश्वर जी ने महसूस किया कि उन के दिमागों में कुछ चल रहा था. शायद वे आत्मग्लानि अनुभव कर रहे थे. इसी समय दिनेश्वर जी ने उन सब को अंदर बैठक में बैठाया और उन्हें समझाते हुए कहा, ‘मैं जानता हूं, तुम लोग धनी परिवारों से नहीं हो. लेकिन तुम्हारे नेता, जो तुम्हें मुसलमानों से नफ़रत करना सिखा रहे हैं, साधनसंपन्न लोग हैं. उन के बच्चे शहर के सब से मंहगे और बड़े स्कूलों में पढ़ रहे हैं. उन में एकाध के बच्चे विदेश में भी पढ़ रहे हैं. वे अपने बच्चों को मुसलमानों को मारने के लिए सड़कों पर नहीं भेजते, वे उन्हें डाक्टर, इंजीनियर और आईएएस बनवाएंगे. लेकिन तुम जैसे गरीब घरों के लड़कों को वे अपराधी बनाते हैं. असल में धर्म के नाम पर नफ़रत फैलाने वाले जिहादी वे लोग ही हैं. तुम यहां इस मुसलिम किराएदार को घर से निकाल कर मारने के लिए आए थे. तुम इस को मारते, तो क्या तुम बच जाते? क्या तुम्हारे खिलाफ एफआईआर न होती? जरूर होती, मैं स्वयं कराता. तुम जेल में होते, और तुम्हारे गरीब मांबाप अदालतों के चक्कर लगाते रहते. जिस संगठन से तुम जुड़े हुए हो, उस के लोग तुम्हारी कोई मदद न करते. उन्हें तुम जैसे दूसरे बेवकूफ मिल जाएंगे. क्यों अपनी जिंदगी खराब कर रहे हो? तुम्हारी इस नफ़रत का अंत जेल में ही है, और एक बार अगर जेल चले गए तो तुम्हारा क्या भविष्य रह जाएगा?’

 

वे सभी उपद्रवी अब शांत थे. उन में से एक ने कहा, ‘सर, हम गलती पर थे.’ दूसरे ने कहा, ‘आप ने हमारी आंखें खोल दीं.’ तीसरा बोला, ‘सौरी सर.’ चौथा बोला, ‘सचमुच सर, हम गलत रास्ते पर थे.’ वे सभी शर्मिंदा हो कर उठ कर जाने को हुए, तभी दिनेश्वर जी ने हंस कर कहा, ‘अब कहां चले मेरे बच्चो, चाय पी कर जाना.’ और उन्होंने घर में अपनी पत्नी को बुला कर सब के लिए चाय भेजने को कह दिया.

The post म्लेच्छ : दिनेश्वर जी ने आधी उम्र किराए के मकान में क्यों गुजार दी थी appeared first on Sarita Magazine.

September 30, 2021 at 10:00AM

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