Wednesday 29 September 2021

लौकडाउन और अपराध : भाग 3

‘‘सुबूत तो रहा इस कैमरे के अंदर जिस पर अभी तुम ने अपना इकरारनामा किया है,’’ अपने कुरते के बटन पर लगा हुआ एक माइक्रो कैमरा दिखाते हुए वह लड़की बोली.

‘‘और अब बाकी की जिंदगी काटना जेल में,’’ दूसरी लड़की ने कहा.

‘‘पर, तुम कौन हो और यह पुलिस यहां तक कैसे पहुंची?’’

‘‘अरे, आजकल ऐसे सवाल कौन करता है और तुम लोग तो अपनेआप को बड़ा मास्टर सम झते हो. तुम्हें तो इतना पता होना चाहिए कि जीपीएस द्वारा हम किसी की भी लोकेशन ट्रैक कर सकते हैं. और रही बात कि मैं कौन हूं, तो मैं बता दूं कि मैं उस लड़की की बड़ी बहन हूं, जिस का रेप तुम तीनों ने मिल कर किया था और ब्लैक मेल कर के पैसे भी ऐंठे थे,’’ उस लड़की ने कहा.

‘‘नहीं, हमें माफ कर दो, मैं उस रेप में शामिल नहीं था. और… और ,हम लोग कोई पेशेवर क्रिमिनल नहीं हैं… यह तो लौकडाउन के दौरान ऐसे हालात बन गए कि मजबूरन हमें यह काम करना पड़ा,’’ दिलावर कहे जा रहा था.

‘‘लौकडाउन तो सब के लिए था. इस का मतलब यह नहीं होता कि हम सब अपराध की राह पर चल पड़ें… अब जो किया है, उसे भुगतो,’’ पुलिस इंस्पैक्टर ने कहा.

उस के बाद उन लोगों के पास से भारी नकदी और कई मोबाइल फोन और लैपटौप भी मिला.

बस जो नहीं मिल सका… वह उन बेचारे लोगों की जिंदगियां थीं, जो इन लोगों के हाथों में पड़ने के बाद खत्म हो चुकी थीं

समस्या

सरकारी बनाम निजी अस्पताल

बदनामी के बहाने

निजीकरण की राह

मदन कोथुनियां

सरकारी अस्पतालों के खिलाफ पूंजीवादी मौडल के इन कर्ताधर्ताओं ने बदनामी की ऐसी मुहिम चलाई है कि जनता का उन से मोह भंग हो जाए और सरकार समाज कल्याण की जिम्मेदारी निजी लोगों के हाथों में सौंप कर चैन की नींद सो सके.

सरकारी अस्पतालों में देश की आजादी के बाद से अब तक मुलाजिमों की बहाली आबादी के हिसाब से नहीं हुई है, जिस का खमियाजा भारत की जनता भुगतती रही है और सत्ता में बैठे लोग इस का हल निजीकरण के रूप में देख रहे थे.

अभी सरकारी अस्पताल ही देश की जनता के कर्णधार बने हुए हैं. कुछ लाशों के वीडियो बना कर अफवाह फैलाई जा रही है कि सरकारी अस्पतालों में लाशों के साथ ही मरीजों का इलाज हो रहा है. उन को सम झना चाहिए कि देश पर आपदा आई है और सरकारों का जोर हमेशा निजीकरण पर रहा है, इसलिए कई कमियां सामने आ रही हैं.

आप खुद सोचिए कि सरकारी अस्पतालों में ग्रुप सी व ग्रुप डी की ज्यादातर नौकरियां आउटसोर्स कर दी गई हैं. न्यूनतम मजदूरी के हिसाब से सरकार ठेकेदार को भुगतान करती है, मगर अस्पतालों में लाश उठाने, साफसफाई करने वालों को उस से भी कम यानी 10,000 से 12,000 रुपए दिए जाते हैं.

जब कोरोना को ले कर मीडिया इतना हौआ बना रहा है, तो कौन इतने कम पैसों में संक्रमण का खतरा  झेलने को तैयार होगा? न सरकार की घोषणा में उन को कवर किया गया है और न किसी तरह का कोई रिस्क अलाउंस दिया जा रहा है. सामान्य बीमारी से हुई मौत के बाद भी लाश उठाने से ये ठेके के कामगार इनकार कर देते हैं, इसलिए कभीकभार देरी हो जाती है और इस को ले कर सरकारी अस्पतालों को बदनाम किया जा रहा है.

असल बात यह है कि आमजन की जो सोच बना कर निजीकरण द्वारा विकास का जो गुब्बारा फुलाया गया था, वह फुस हो चुका है. किसी भी निजी अस्पताल में जा कर बताइए कि 2 दिन से बुखार आ रहा है, तो असल आईना सामने आ जाएगा.

आपदा निजी अस्पतालों का रोल जनता के सामने पेश कर रही है और सत्ता व निजी गठजोड़ इन को दूध का धुला ऐलान करने के लिए सरकारी अस्पतालों के खिलाफ एक मुहिम

चला रही है, ताकि जनता इन के

खिलाफ बगावत न करे और इन की लूट बरकरार रखने का इंतजाम बेरोकटोक चलता रहे.

डाक्टरी पेशे को ले कर इस देश में इतना बड़ा बवंडर खड़ा किया गया कि डाक्टर तो बीमारों के भगवान कहलाने लगें और जनता लाचारी में इन के आगे हाथ जोड़ कर लुटती रहे.

कौडि़यों के भाव निजी अस्पतालों को महंगी जमीनें दी गईं, जनता की पूंजी से कर्ज दे कर फाइव स्टार इमारतें खड़ी की गईं और जनता का पैसा बीमा कंपनियों के जरीए इन लुटेरों को देने का इंतजाम किया गया, मगर ये लुटेरे  आपदा को अवसर बना कर जनता को ही लूटना शुरू कर दिया.

जिस तरह का इन का गठजोड़ है, जिस तरह की इन की पहुंच है, जिस तरह के कारोबारी इन को चलाते हैं, उस के हिसाब से इस आपदा में सत्ता में बैठे लोगों के पास कुंभकरण बनने के अलावा कोई रास्ता नहीं है.

अब ये अस्पताल दादागीरी पर उतर चुके हैं और जो बीमा कराया है, उस की बत्ती बना लो, यहां तो रोकड़ा दोगे तो ही बिस्तर मिलेगा.

भारत में कारपोरेट अस्पतालों को ही निजी अस्पताल सम झ लिया गया है. डाक्टर आईपीएल के खिलाड़ी जैसे हैं और उद्योगपति उन को खरीद कर नियुक्ति देते हैं. सैलरी प्लस टोटल कमाई का कुछ फीसदी दिया जाता है और कमाई का मिनिमम टारगेट तय होता है.

कोई गरीब बिल का पेमेंट न कर सके, तो कारोबारी द्वारा नियुक्त कर्मचारी मरीज को चाहे बांध कर रखें, जैसे मध्य प्रदेश का मामला सामने आया था.

अब यह मान लेना चाहिए कि चिकित्सा जैसे नागरिकों के जीवनमरण यानी बुनियादी हक से जुड़े क्षेत्र का जिम्मा इन लुटेरों के हवाले करने के बजाय पूरी तरह से सरकार यानी सार्वजनिक क्षेत्र उठाएं. नागरिकों की जिंदगी से बड़ा कोई मुद्दा किसी देश की व्यवस्था के लिए नहीं होता.

अगर नागरिक ही जिंदा नहीं रहेंगे, तो लोकतंत्र में मतदान कौन करेगा? अगर नागरिक ही जिंदा नहीं रहेंगे, तो रैलियों की भीड़ कहां से आएगी? अगर नागरिक ही नहीं रहे, तो लोकतंत्र व संविधान की दुहाई देते हुए सड़कों को आबाद कौन करेगा?

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‘‘सुबूत तो रहा इस कैमरे के अंदर जिस पर अभी तुम ने अपना इकरारनामा किया है,’’ अपने कुरते के बटन पर लगा हुआ एक माइक्रो कैमरा दिखाते हुए वह लड़की बोली.

‘‘और अब बाकी की जिंदगी काटना जेल में,’’ दूसरी लड़की ने कहा.

‘‘पर, तुम कौन हो और यह पुलिस यहां तक कैसे पहुंची?’’

‘‘अरे, आजकल ऐसे सवाल कौन करता है और तुम लोग तो अपनेआप को बड़ा मास्टर सम झते हो. तुम्हें तो इतना पता होना चाहिए कि जीपीएस द्वारा हम किसी की भी लोकेशन ट्रैक कर सकते हैं. और रही बात कि मैं कौन हूं, तो मैं बता दूं कि मैं उस लड़की की बड़ी बहन हूं, जिस का रेप तुम तीनों ने मिल कर किया था और ब्लैक मेल कर के पैसे भी ऐंठे थे,’’ उस लड़की ने कहा.

‘‘नहीं, हमें माफ कर दो, मैं उस रेप में शामिल नहीं था. और… और ,हम लोग कोई पेशेवर क्रिमिनल नहीं हैं… यह तो लौकडाउन के दौरान ऐसे हालात बन गए कि मजबूरन हमें यह काम करना पड़ा,’’ दिलावर कहे जा रहा था.

‘‘लौकडाउन तो सब के लिए था. इस का मतलब यह नहीं होता कि हम सब अपराध की राह पर चल पड़ें… अब जो किया है, उसे भुगतो,’’ पुलिस इंस्पैक्टर ने कहा.

उस के बाद उन लोगों के पास से भारी नकदी और कई मोबाइल फोन और लैपटौप भी मिला.

बस जो नहीं मिल सका… वह उन बेचारे लोगों की जिंदगियां थीं, जो इन लोगों के हाथों में पड़ने के बाद खत्म हो चुकी थीं

समस्या

सरकारी बनाम निजी अस्पताल

बदनामी के बहाने

निजीकरण की राह

मदन कोथुनियां

सरकारी अस्पतालों के खिलाफ पूंजीवादी मौडल के इन कर्ताधर्ताओं ने बदनामी की ऐसी मुहिम चलाई है कि जनता का उन से मोह भंग हो जाए और सरकार समाज कल्याण की जिम्मेदारी निजी लोगों के हाथों में सौंप कर चैन की नींद सो सके.

सरकारी अस्पतालों में देश की आजादी के बाद से अब तक मुलाजिमों की बहाली आबादी के हिसाब से नहीं हुई है, जिस का खमियाजा भारत की जनता भुगतती रही है और सत्ता में बैठे लोग इस का हल निजीकरण के रूप में देख रहे थे.

अभी सरकारी अस्पताल ही देश की जनता के कर्णधार बने हुए हैं. कुछ लाशों के वीडियो बना कर अफवाह फैलाई जा रही है कि सरकारी अस्पतालों में लाशों के साथ ही मरीजों का इलाज हो रहा है. उन को सम झना चाहिए कि देश पर आपदा आई है और सरकारों का जोर हमेशा निजीकरण पर रहा है, इसलिए कई कमियां सामने आ रही हैं.

आप खुद सोचिए कि सरकारी अस्पतालों में ग्रुप सी व ग्रुप डी की ज्यादातर नौकरियां आउटसोर्स कर दी गई हैं. न्यूनतम मजदूरी के हिसाब से सरकार ठेकेदार को भुगतान करती है, मगर अस्पतालों में लाश उठाने, साफसफाई करने वालों को उस से भी कम यानी 10,000 से 12,000 रुपए दिए जाते हैं.

जब कोरोना को ले कर मीडिया इतना हौआ बना रहा है, तो कौन इतने कम पैसों में संक्रमण का खतरा  झेलने को तैयार होगा? न सरकार की घोषणा में उन को कवर किया गया है और न किसी तरह का कोई रिस्क अलाउंस दिया जा रहा है. सामान्य बीमारी से हुई मौत के बाद भी लाश उठाने से ये ठेके के कामगार इनकार कर देते हैं, इसलिए कभीकभार देरी हो जाती है और इस को ले कर सरकारी अस्पतालों को बदनाम किया जा रहा है.

असल बात यह है कि आमजन की जो सोच बना कर निजीकरण द्वारा विकास का जो गुब्बारा फुलाया गया था, वह फुस हो चुका है. किसी भी निजी अस्पताल में जा कर बताइए कि 2 दिन से बुखार आ रहा है, तो असल आईना सामने आ जाएगा.

आपदा निजी अस्पतालों का रोल जनता के सामने पेश कर रही है और सत्ता व निजी गठजोड़ इन को दूध का धुला ऐलान करने के लिए सरकारी अस्पतालों के खिलाफ एक मुहिम

चला रही है, ताकि जनता इन के

खिलाफ बगावत न करे और इन की लूट बरकरार रखने का इंतजाम बेरोकटोक चलता रहे.

डाक्टरी पेशे को ले कर इस देश में इतना बड़ा बवंडर खड़ा किया गया कि डाक्टर तो बीमारों के भगवान कहलाने लगें और जनता लाचारी में इन के आगे हाथ जोड़ कर लुटती रहे.

कौडि़यों के भाव निजी अस्पतालों को महंगी जमीनें दी गईं, जनता की पूंजी से कर्ज दे कर फाइव स्टार इमारतें खड़ी की गईं और जनता का पैसा बीमा कंपनियों के जरीए इन लुटेरों को देने का इंतजाम किया गया, मगर ये लुटेरे  आपदा को अवसर बना कर जनता को ही लूटना शुरू कर दिया.

जिस तरह का इन का गठजोड़ है, जिस तरह की इन की पहुंच है, जिस तरह के कारोबारी इन को चलाते हैं, उस के हिसाब से इस आपदा में सत्ता में बैठे लोगों के पास कुंभकरण बनने के अलावा कोई रास्ता नहीं है.

अब ये अस्पताल दादागीरी पर उतर चुके हैं और जो बीमा कराया है, उस की बत्ती बना लो, यहां तो रोकड़ा दोगे तो ही बिस्तर मिलेगा.

भारत में कारपोरेट अस्पतालों को ही निजी अस्पताल सम झ लिया गया है. डाक्टर आईपीएल के खिलाड़ी जैसे हैं और उद्योगपति उन को खरीद कर नियुक्ति देते हैं. सैलरी प्लस टोटल कमाई का कुछ फीसदी दिया जाता है और कमाई का मिनिमम टारगेट तय होता है.

कोई गरीब बिल का पेमेंट न कर सके, तो कारोबारी द्वारा नियुक्त कर्मचारी मरीज को चाहे बांध कर रखें, जैसे मध्य प्रदेश का मामला सामने आया था.

अब यह मान लेना चाहिए कि चिकित्सा जैसे नागरिकों के जीवनमरण यानी बुनियादी हक से जुड़े क्षेत्र का जिम्मा इन लुटेरों के हवाले करने के बजाय पूरी तरह से सरकार यानी सार्वजनिक क्षेत्र उठाएं. नागरिकों की जिंदगी से बड़ा कोई मुद्दा किसी देश की व्यवस्था के लिए नहीं होता.

अगर नागरिक ही जिंदा नहीं रहेंगे, तो लोकतंत्र में मतदान कौन करेगा? अगर नागरिक ही जिंदा नहीं रहेंगे, तो रैलियों की भीड़ कहां से आएगी? अगर नागरिक ही नहीं रहे, तो लोकतंत्र व संविधान की दुहाई देते हुए सड़कों को आबाद कौन करेगा?

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September 30, 2021 at 10:00AM

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