Tuesday 30 March 2021

लौकडाउन का शिकार: भाग 2

लेखकप्रो अलखदेव प्रसाद अचल

पत्नी यानी पुष्पा जब भी अपने मायके चली जाती तो महीनेभर के अंदर यह कहते हुए सूरज लेने पहुंच जाता कि मां से काम नहीं होता. मां थक चुकी है. खाना बनाना भी मुश्किल लगता है. हम लोगों को हाथ जलाना पड़ता है. उस में भी जैसेतैसे कर के पेट भरना पड़ता है, इसलिए इसे चलना जरूरी है.

सूरज हर तरह से प्रगतिशील सोच रखता था. परंतु वर्तमान सरकार की नाकामियों के खिलाफ कोई बोल देता तो उसे वह बरदाश्त नहीं करता था. जब भी लोकसभा या विधानसभा का चुनाव आता, तो सूरज दिनभर चुनाव पार्टी का झंडा उठाए रहता. जब कभी राजनीतिक बात निकलती, तो अतार्किक रूप से ही सही, पर सरकार की प्रशंसा खूब करता.

इसी तरह दिन गुजरते चले गए, सूरज  बीए पार्ट वन से पार्ट टू में और पार्ट टू से पार्ट थ्री में चला गया और  परीक्षा में पास भी हो गया.

अब सूरज घर पर ही रह कर किसी कंपटीशन की तैयारी के लिए सोचता, पर संभव होता दिखाई नहीं देता, जबकि उसी दौरान उस ने कंपटीशन की तैयारी के लिए कई प्रतियोगी पत्रिकाएं भी खरीदी थीं. कई प्रतियोगिताओं में वह सम्मिलित भी हुआ था, पर सफलता नहीं मिल सकी थी. वह जानता था कि परिवार के बीच रह कर प्रतियोगिता निकालना टेढ़ी खीर है और शहर में रह कर तैयारी करने के लिए पास में पैसे नहीं हैं.

इधर सूरज के घर की स्थिति ऐसी थी कि बुढ़ापे की अवस्था आ जाने की वजह से मातापिता भी मेहनतमजदूरी करने से लाचार होते जा रहे थे. उसी दौरान सूरज दोदो बच्चियों का बाप बन चुका था. इस में एक ढाई साल की बेटी थी तो दूसरी 6 महीने की.

न चाहते हुए भी दोदो बच्चियों के पिता बनने पर सूरज इस हकीकत को अच्छी तरह समझता था कि बिलकुल ही छोटे से घर में पत्नी से दूरियां बना कर रहना संभव नहीं था, जबकि उन दोनों बच्चियों के जन्म पर मातापिता की सोच थी कि भगवान देता है, तो भगवान पार भी लगाता है.

जबकि सूरज की सोच मातापिता की सोच से बिलकुल अलग थी. वह जानता था कि मातापिता काम करने से लाचार होते जा रहे हैं तो बगैर कुछ किए अब संभव नहीं है. अब निश्चित रूप से कुछ करना होगा, अन्यथा या तो हम लोग फटेहाली के कगार पर पहुंच जाएंगे या फिर मुझे भी पढ़लिख कर बंधुआ मजदूर बनने के लिए विवश हो जाना पड़ेगा.

सूरज, बस इसी चिंतन में रहने लगा और संपर्क वाले साथियों  से इस की चर्चा भी करने लगा.

आश्विन का महीना था. चारों तरफ दुर्गा पूजा की तैयारी चल रही थी. जगहजगह रंगारंग कार्यक्रम होने वाले थे. दीपावली भी सिर पर थी. इसी अवसर पर बगल के गांव का साथी रोहित छुट्टी पर घर आया था, जो कभी सूरज के साथ ही पढ़ता था. पर घर की आर्थिक तंगी की वजह से इंटर पास करने के बाद ही वह गुजरात चला गया था और प्राइवेट कंपनी में काम करने लगा था.

सूरज ने इस बार साथ चलने का आग्रह किया, तो रोहित ने सिर्फ आश्वासन ही नहीं दिया, अपितु जब वह जाने लगा तो सूरज को भी साथ लेता गया और प्राइवेट कंपनी में काम लगवा दिया.

सूरज जिस कंपनी में काम करता था, उस में 8 घंटे के बजाय काम तो 12 घंटे करना पड़ता था, परंतु वेतन 10 हजार रुपए के अलावा कंपनी की तरफ से ही खानेपीने और रहने की व्यवस्था थी. हर माह की 10 तारीख के अंदर वेतन मिल जाता था.

अब सूरज हर माह सिर्फ घर पर पैसे ही नहीं भेजता, अपितु दोनों बच्चियों के नाम से बीमा भी करवा लिया था. फोन पर उस ने मातापिता को कह दिया था कि आप लोगों को इस अवस्था में मेहनतमजदूरी करने की कोई जरूरत नहीं है. अब आप लोग आराम से खाइए, पीजिए और रहिए.

यह सुन कर मातापिता की आंखों में खुशी के आंसू छलक पड़े.

इस के साथ ही सूरज अपने मन में तरहतरह के सपने भी बुनने लगा था. उन सपनों में छोटा ही सही, पर अच्छा मकान बनाने, बच्चियों को अच्छे स्कूलों में पढ़ाने और घर में तरहतरह की सुविधाएं शामिल थीं. इन्हीं सपनों के साथ समय अपनी गति से आगे बढ़ता चला जा रहा था.

फाल्गुन का महीना आया. वसंत ऋतु अपने मौसम के साथ लोगों के मन को गुदगुदाने लगी तो पुष्पा को अपने पति का अभाव खलने लगा.

इस दौरान जब पुष्पा की अपने पति सूरज से बातें हुईं, “क्या होली में अकेले ही रहना पड़ेगा?”

सूरज ने कहा, “इच्छा तो मेरी भी थी कि घर आऊं, पर लग नहीं रहा है कि आ पाऊंगा. क्योंकि कंपनी के बहुत सारे  वैसे लोग होली की छुट्टी में घर जा रहे हैं ,जो सालभर से घर नहीं गए थे. होली में रहने वाले को कंपनी की ओर से अलग से बोनस  मिलेगा.

“पुष्पा, तुम अन्यथा नहीं समझना. कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है. अगर होली में न आ पाऊंगा तो शायद छठ के अवसर पर एक सप्ताह के लिए ही सही, पर जरूर आऊंगा.”

होली के बाद कोरोना महामारी की सुगबुगाहट शुरू हो गई. देखते ही देखते सरकार ने स्कूलों ,कालेजों, मौलों, सिनेमाघरों आदि को बंद करने की घोषणा कर दी.

लोगों में भय का माहौल काले बादलों की भांति छाने लगा. बस, एकाएक सरकार ने एक दिन के लिए लौकडाउन की घोषणा कर दी. तब लगा, शायद इस महामारी से नजात मिल जाएगी. वहीं दूसरी तरफ अखबारों और टीवी चैनलों में देश के कोनेकोने में कोरोना वायरस से प्रभावित लोगों की सूचना आने लगी.

बस फिर क्या था, सरकार ने आमजन की बगैर सुविधाओं का खयाल रखे 21 दिनों के लिए लौकडाउन का ऐलान कर दिया गया. हवा में खबर भी तैरने लगी कि लौकडाउन का समय और भी बढ़ सकता है.

यह देख कर पूरे देश में अफरातफरी मच गई. देश के कोनेकोने में सरकारी, गैरसरकारी कंपनियों को बंद करा दिया गया. पर उस में काम करने वाले कर्मी कहां रहेंगे? कैसे रहेंगे? इस बारे में तनिक भी सरकार सोच नहीं सकी.

सरकारी व गैरसरकारी कंपनियों के मालिकों ने अपने कर्मियों की सुविधाएं मुहैया करने के मामले में अपने हाथ खड़े कर दिए. शहर में खानेपीने जैसी सारी दुकानें बंद करा दी गईं. यातायात की सुविधाएं एकाएक ठप हो गईं.

The post लौकडाउन का शिकार: भाग 2 appeared first on Sarita Magazine.



from कहानी – Sarita Magazine https://ift.tt/3m6kvL2

लेखकप्रो अलखदेव प्रसाद अचल

पत्नी यानी पुष्पा जब भी अपने मायके चली जाती तो महीनेभर के अंदर यह कहते हुए सूरज लेने पहुंच जाता कि मां से काम नहीं होता. मां थक चुकी है. खाना बनाना भी मुश्किल लगता है. हम लोगों को हाथ जलाना पड़ता है. उस में भी जैसेतैसे कर के पेट भरना पड़ता है, इसलिए इसे चलना जरूरी है.

सूरज हर तरह से प्रगतिशील सोच रखता था. परंतु वर्तमान सरकार की नाकामियों के खिलाफ कोई बोल देता तो उसे वह बरदाश्त नहीं करता था. जब भी लोकसभा या विधानसभा का चुनाव आता, तो सूरज दिनभर चुनाव पार्टी का झंडा उठाए रहता. जब कभी राजनीतिक बात निकलती, तो अतार्किक रूप से ही सही, पर सरकार की प्रशंसा खूब करता.

इसी तरह दिन गुजरते चले गए, सूरज  बीए पार्ट वन से पार्ट टू में और पार्ट टू से पार्ट थ्री में चला गया और  परीक्षा में पास भी हो गया.

अब सूरज घर पर ही रह कर किसी कंपटीशन की तैयारी के लिए सोचता, पर संभव होता दिखाई नहीं देता, जबकि उसी दौरान उस ने कंपटीशन की तैयारी के लिए कई प्रतियोगी पत्रिकाएं भी खरीदी थीं. कई प्रतियोगिताओं में वह सम्मिलित भी हुआ था, पर सफलता नहीं मिल सकी थी. वह जानता था कि परिवार के बीच रह कर प्रतियोगिता निकालना टेढ़ी खीर है और शहर में रह कर तैयारी करने के लिए पास में पैसे नहीं हैं.

इधर सूरज के घर की स्थिति ऐसी थी कि बुढ़ापे की अवस्था आ जाने की वजह से मातापिता भी मेहनतमजदूरी करने से लाचार होते जा रहे थे. उसी दौरान सूरज दोदो बच्चियों का बाप बन चुका था. इस में एक ढाई साल की बेटी थी तो दूसरी 6 महीने की.

न चाहते हुए भी दोदो बच्चियों के पिता बनने पर सूरज इस हकीकत को अच्छी तरह समझता था कि बिलकुल ही छोटे से घर में पत्नी से दूरियां बना कर रहना संभव नहीं था, जबकि उन दोनों बच्चियों के जन्म पर मातापिता की सोच थी कि भगवान देता है, तो भगवान पार भी लगाता है.

जबकि सूरज की सोच मातापिता की सोच से बिलकुल अलग थी. वह जानता था कि मातापिता काम करने से लाचार होते जा रहे हैं तो बगैर कुछ किए अब संभव नहीं है. अब निश्चित रूप से कुछ करना होगा, अन्यथा या तो हम लोग फटेहाली के कगार पर पहुंच जाएंगे या फिर मुझे भी पढ़लिख कर बंधुआ मजदूर बनने के लिए विवश हो जाना पड़ेगा.

सूरज, बस इसी चिंतन में रहने लगा और संपर्क वाले साथियों  से इस की चर्चा भी करने लगा.

आश्विन का महीना था. चारों तरफ दुर्गा पूजा की तैयारी चल रही थी. जगहजगह रंगारंग कार्यक्रम होने वाले थे. दीपावली भी सिर पर थी. इसी अवसर पर बगल के गांव का साथी रोहित छुट्टी पर घर आया था, जो कभी सूरज के साथ ही पढ़ता था. पर घर की आर्थिक तंगी की वजह से इंटर पास करने के बाद ही वह गुजरात चला गया था और प्राइवेट कंपनी में काम करने लगा था.

सूरज ने इस बार साथ चलने का आग्रह किया, तो रोहित ने सिर्फ आश्वासन ही नहीं दिया, अपितु जब वह जाने लगा तो सूरज को भी साथ लेता गया और प्राइवेट कंपनी में काम लगवा दिया.

सूरज जिस कंपनी में काम करता था, उस में 8 घंटे के बजाय काम तो 12 घंटे करना पड़ता था, परंतु वेतन 10 हजार रुपए के अलावा कंपनी की तरफ से ही खानेपीने और रहने की व्यवस्था थी. हर माह की 10 तारीख के अंदर वेतन मिल जाता था.

अब सूरज हर माह सिर्फ घर पर पैसे ही नहीं भेजता, अपितु दोनों बच्चियों के नाम से बीमा भी करवा लिया था. फोन पर उस ने मातापिता को कह दिया था कि आप लोगों को इस अवस्था में मेहनतमजदूरी करने की कोई जरूरत नहीं है. अब आप लोग आराम से खाइए, पीजिए और रहिए.

यह सुन कर मातापिता की आंखों में खुशी के आंसू छलक पड़े.

इस के साथ ही सूरज अपने मन में तरहतरह के सपने भी बुनने लगा था. उन सपनों में छोटा ही सही, पर अच्छा मकान बनाने, बच्चियों को अच्छे स्कूलों में पढ़ाने और घर में तरहतरह की सुविधाएं शामिल थीं. इन्हीं सपनों के साथ समय अपनी गति से आगे बढ़ता चला जा रहा था.

फाल्गुन का महीना आया. वसंत ऋतु अपने मौसम के साथ लोगों के मन को गुदगुदाने लगी तो पुष्पा को अपने पति का अभाव खलने लगा.

इस दौरान जब पुष्पा की अपने पति सूरज से बातें हुईं, “क्या होली में अकेले ही रहना पड़ेगा?”

सूरज ने कहा, “इच्छा तो मेरी भी थी कि घर आऊं, पर लग नहीं रहा है कि आ पाऊंगा. क्योंकि कंपनी के बहुत सारे  वैसे लोग होली की छुट्टी में घर जा रहे हैं ,जो सालभर से घर नहीं गए थे. होली में रहने वाले को कंपनी की ओर से अलग से बोनस  मिलेगा.

“पुष्पा, तुम अन्यथा नहीं समझना. कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है. अगर होली में न आ पाऊंगा तो शायद छठ के अवसर पर एक सप्ताह के लिए ही सही, पर जरूर आऊंगा.”

होली के बाद कोरोना महामारी की सुगबुगाहट शुरू हो गई. देखते ही देखते सरकार ने स्कूलों ,कालेजों, मौलों, सिनेमाघरों आदि को बंद करने की घोषणा कर दी.

लोगों में भय का माहौल काले बादलों की भांति छाने लगा. बस, एकाएक सरकार ने एक दिन के लिए लौकडाउन की घोषणा कर दी. तब लगा, शायद इस महामारी से नजात मिल जाएगी. वहीं दूसरी तरफ अखबारों और टीवी चैनलों में देश के कोनेकोने में कोरोना वायरस से प्रभावित लोगों की सूचना आने लगी.

बस फिर क्या था, सरकार ने आमजन की बगैर सुविधाओं का खयाल रखे 21 दिनों के लिए लौकडाउन का ऐलान कर दिया गया. हवा में खबर भी तैरने लगी कि लौकडाउन का समय और भी बढ़ सकता है.

यह देख कर पूरे देश में अफरातफरी मच गई. देश के कोनेकोने में सरकारी, गैरसरकारी कंपनियों को बंद करा दिया गया. पर उस में काम करने वाले कर्मी कहां रहेंगे? कैसे रहेंगे? इस बारे में तनिक भी सरकार सोच नहीं सकी.

सरकारी व गैरसरकारी कंपनियों के मालिकों ने अपने कर्मियों की सुविधाएं मुहैया करने के मामले में अपने हाथ खड़े कर दिए. शहर में खानेपीने जैसी सारी दुकानें बंद करा दी गईं. यातायात की सुविधाएं एकाएक ठप हो गईं.

The post लौकडाउन का शिकार: भाग 2 appeared first on Sarita Magazine.

March 31, 2021 at 10:00AM

No comments:

Post a Comment