Tuesday 30 March 2021

लौकडाउन का शिकार: भाग 1

लेखकप्रो अलखदेव प्रसाद अचल

सूरज अपने मातापिता का  एकलौता लड़का था. उस के मातापिता थे तो भूमिहीन, पर फिर भी मेहनतमजदूरी कर के सूरज को पढ़ालिखा कर कुछ भिन्न रूप में देखना चाहते थे. इसीलिए पढ़ाई में कोई चीज रुकावट न बने, इस के लिए कोई कोरकसर नहीं छोड़ना चाहते थे.

सूरज बचपन से ही पढ़नेलिखने में काफी मन लगाता था. पर जिस महल्ले में वह रह रहा था, वहां का माहौल काफी  खराब था. अधिकांश बच्चे स्कूल पढ़ने नहीं जाते थे. जो स्कूल जाते भी थे या तो मिड डे मील के चक्कर में या फिर फ्री में मिलने वाली पोशाक के लालच में.

महल्ले के अधिकांश बच्चे बकरी ले कर टांड़ी पर उछलकूद करते रहते या फिर नदी की तरफ चले जाते और बालू पर दौड़ लगाते रहते. पानी में डुबकियां लगाते रहते.

ये भी पढ़ें-Short Story: मानसिकता का एक दृष्टिकोण

महल्ले के लोग अपने बच्चे की पढ़ाने पर ध्यान नहीं देते थे. वे लोग बस यही समझते कि पढ़नेलिखने का काम बाबुओं का है. वैसे भी पढ़नेलिखने से कुछ नहीं होता. किस्मत में जो होता है, वही होता है. आदमी बलवान नहीं होता, बलवान होता है समय. हम लाख जतन करते रहें, पर वही होगा जो किस्मत में लिखा होगा.

यही सोच उस तबके के लोगों को विकास के सोपान ऊपर बढ़ने नहीं दे रही थी.

उस बीच सूरज वास्तव में सूरज की भांति दिखाई दे रहा था. सूरज गांव के लड़कों के साथ खेलकूद के बजाय पढ़ाई के बाद जो भी समय बचता, उसे अपने मातापिता के साथ कामों में लगा रहता था. उन के कामों में सहयोग करता. खेत से ले कर खलिहानों तक अपने ही मातापिता के साथ दिखता. जिसे देख कर गांव के बच्चे उस पर तरहतरह की फब्तियां भी कसते रहते, परंतु सूरज इस की परवाह नहीं करता.

जबकि सूरज के पिता रामदहिन जिन मालिकों के घर मजदूरी करता, उसे मालिक यही नसीहत देता — तुम बेकार अपने बेटे पर मेहनत की कमाई बरबाद कर रहे हो. अगर तुम्हारे साथ वह भी कमाता, तो निश्चित रूप से तुम्हारी आय दोगुनी हो जाती और घर में अधिक खुशहाली आ जाती. पर रामदहिन उन बातों पर तनिक भी ध्यान नहीं देता. उसे लगता कि हम लोग तो जिंदगीभर अंगूठाछाप ही रह गए. चलो जब बेटा होनहार निकला है, तो उसे पेट काट कर भी पढ़ा ही देते हैं.

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पढ़ने के दौरान सूरज के सामने जो भी समस्या आती, उसे झेलते हुए आगे बढ़ते जाता. उस दौरान स्कूलों में कुछ खास तबके के लड़कों द्वारा उसे छुआछूत की भावना का शिकार भी होना पड़ता. जब कभी ऐसा भी होता कि वह जिस बेंच पर बैठता, तो अपनी ही कक्षा के बच्चे जो अपना बस्ता रखे भी रहते, उसे हटा कर दूसरी बेंच पर बैठ जाते या फिर बेंच पर अन्य साथियों के लिए सीट लूट कर रखे रहते. जब सूरज बैठना चाहता, तो वैसे बच्चे साफ कह देते —‘ पीछे चले जाओ इस पर सीट नहीं है’.

सूरज चाह कर भी विरोध नहीं करता कि इन लफंगों से झगड़ा मोल लेना बेकार है. इन्हें तो पढ़ना है नहीं. इन से उलझ कर हम अपना समय क्यों बरबाद करने जाए. कभी सोचता —हमारे लोगों में भी इतनी एकता नहीं कि हम जीत भी जाएंगे. ये लड़के इसी सोच का तो नाजायज फायदा उठाते रहते हैं.

पर हां, गांव में सूरज की पूछ जरूर थी. जब से उस ने हाईस्कूल में प्रवेश किया था, तभी से गांव में ‘कला संगम’ नामक संस्था की स्थापना की गई थी, जिस का वह सचिव था. मालिकाने घराने को छोड़ कर प्रायः सभी तबके के लड़के उस संस्था से जुड़े हुए थे. उसी के माध्यम से कभी नाटक का कार्यक्रम करवाता, तो कभी अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम. समाज के विकास के लिए हमेशा ध्यान रखता.

गांव में चाहे किसी के यहां शादी समारोह हो या फिर श्राद्ध का काम, सूरज अपने साथियों के साथ शुरू से अंत तक मुस्तैद रहा करता था. सारे काम साथियों सहित अपने सिर पर उठाए रहता था. घर का बोझ  बिलकुल हलका किए रहता था. इस की वजह से अकसर लोग उस की सराहना करते. शायद  इसी वजह से अपने समाज में उस की लोकप्रियता काफी बढ़ती चली जा रही थी.

अब तो देखादेखी में और लोग भी अपनेअपने बच्चों को सूरज की तरह पढ़ने और करने की नसीहत देते.

सूरज भी गांव में वैसे लोगों को समझाता, जो अपने बच्चे को स्कूल न भेज कर काम में लगाए रहते या फिर पढ़ाई की अहमियत को न समझते हुए पढ़ाई के प्रति लापरवाह रहते.

परिणाम यह हुआ कि उस के गांव के गरीबगुरबों के लड़के भी अकसर स्कूल जाने लगे.

यह बात अलग थी कि सरकारी स्कूल में शिक्षकों द्वारा ध्यान न देने की वजह से बच्चों का जिस रूप में विकास होना चाहिए था, नहीं हो पाता था.

जो बच्चे स्कूल के अलावा अपने घर पर जीतोड़ मेहनत करते, उन का विकास तो दिखता, पर जो सिर्फ स्कूल के ऊपर आश्रित रहते, वे अगली कक्षा में पहुंच तो रहे थे, पर उन का विकास ठीक से हो नहीं पा रहा था, क्योंकि गांव था न, इसलिए वहां अभिभावकों को मेहनतमजदूरी करने से फुरसत कहां थी, जो अपने बच्चों पर ध्यान देते? जो देना भी चाहते थे, वे या तो खुद अशिक्षित थे या फिर इतना कम पढ़ेलिखे थे, जो अपने बच्चों को चाह कर भी दिशानिर्देश नहीं कर सकते थे.

हाईस्कूल से उसे छात्रवृत्ति मिलनी शुरू हो गई थी, जिस से कुछ राहत भी मिल जाती थी. परंतु 12वीं जमात पास करने के बाद जब कालेज में नामांकन की बारी आई, तो सूरज ने कालेज में नामांकन तो करवा लिया, पर कालेजों में पढ़ाई नहीं होती थी, सिर्फ छात्रछात्राओं का नामांकन होता. समय पर रजिस्ट्रेशन होता. समय पर परीक्षाएं होतीं. इसी तरह परीक्षा परिणाम भी आते रहते. जो पैसे वाले होते, वे आईएससी में नामांकन करवाते. निजी शिक्षण संस्थानों में या तो अलगअलग विषय के ट्यूशन पढ़ते या फिर एकसाथ कोचिंग में पढ़ते. पर जिन की आर्थिक स्थिति बदहाल थी या कोई सुविधा नहीं थी, ,वे आर्ट सब्जेक्ट्स ही रख लेना मुनासिब समझते थे.

सूरज के पास न तो इतने पैसे थे कि वह एक हजार रुपए महीना दे कर कोचिंग में पढ़ सकता था और न ही किसी शहर में रह कर पढ़ सकता था, इसलिए उस ने आर्ट सब्जेक्ट्स ही रखना मुनासिब समझा. वह घर पर ही रहता और स्वाध्याय करता. स्वाध्याय की बदौलत ही इंटर में संतोषजनक परीक्षा परिणाम भी आया था उस का.

जैसे ही सूरज ने अपना नामांकन बीए में करवाया, वैसे ही उस के पिता ने उस की शादी तय कर दी, जबकि सूरज नहीं चाहता था कि अभी उस की शादी हो. इसलिए उस नेे विरोध करते हुए कहा भी, “पिताजी मेरी शादी कर के क्यों मेरा जीवन बरबाद करना चाहते हैं?”

पिताजी ने कहा, “बेटा, हर मांबाप अपनी जिंदगी में सपने बुनते हैं. तुम्हारी शादी हो जाएगी तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाएगा?”

सूरज ने कहा, “जो भी बिगड़ेगा, उसे भोगना तो मुझे ही पड़ेगा, आप लोगों को नहीं.”

पिता ने कहा, “तो क्या इस बुढ़ापे की अवस्था में भी तुम्हारी बूढ़ी मां ही हाथ जलाती रहे?”

सूरज ने कहा, “मां के तो हाथ ही जल रहे हैं पिताजी, मेरी तो जिंदगी ही जल जाएगी. पर चलिए, आप लोगों को इसी में खुशी है, तो मैं कुछ नहीं कहूंगा.”

शादी के बाद घर के कामों में मातापिता को काफी राहत मिलने लगी, इसीलिए वे दोनों भी काफी खुश रहने लगे. इधर सूरज भी पत्नी के प्रेमपाश में धीरेधीरे जकड़ता चला गया.

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लेखकप्रो अलखदेव प्रसाद अचल

सूरज अपने मातापिता का  एकलौता लड़का था. उस के मातापिता थे तो भूमिहीन, पर फिर भी मेहनतमजदूरी कर के सूरज को पढ़ालिखा कर कुछ भिन्न रूप में देखना चाहते थे. इसीलिए पढ़ाई में कोई चीज रुकावट न बने, इस के लिए कोई कोरकसर नहीं छोड़ना चाहते थे.

सूरज बचपन से ही पढ़नेलिखने में काफी मन लगाता था. पर जिस महल्ले में वह रह रहा था, वहां का माहौल काफी  खराब था. अधिकांश बच्चे स्कूल पढ़ने नहीं जाते थे. जो स्कूल जाते भी थे या तो मिड डे मील के चक्कर में या फिर फ्री में मिलने वाली पोशाक के लालच में.

महल्ले के अधिकांश बच्चे बकरी ले कर टांड़ी पर उछलकूद करते रहते या फिर नदी की तरफ चले जाते और बालू पर दौड़ लगाते रहते. पानी में डुबकियां लगाते रहते.

ये भी पढ़ें-Short Story: मानसिकता का एक दृष्टिकोण

महल्ले के लोग अपने बच्चे की पढ़ाने पर ध्यान नहीं देते थे. वे लोग बस यही समझते कि पढ़नेलिखने का काम बाबुओं का है. वैसे भी पढ़नेलिखने से कुछ नहीं होता. किस्मत में जो होता है, वही होता है. आदमी बलवान नहीं होता, बलवान होता है समय. हम लाख जतन करते रहें, पर वही होगा जो किस्मत में लिखा होगा.

यही सोच उस तबके के लोगों को विकास के सोपान ऊपर बढ़ने नहीं दे रही थी.

उस बीच सूरज वास्तव में सूरज की भांति दिखाई दे रहा था. सूरज गांव के लड़कों के साथ खेलकूद के बजाय पढ़ाई के बाद जो भी समय बचता, उसे अपने मातापिता के साथ कामों में लगा रहता था. उन के कामों में सहयोग करता. खेत से ले कर खलिहानों तक अपने ही मातापिता के साथ दिखता. जिसे देख कर गांव के बच्चे उस पर तरहतरह की फब्तियां भी कसते रहते, परंतु सूरज इस की परवाह नहीं करता.

जबकि सूरज के पिता रामदहिन जिन मालिकों के घर मजदूरी करता, उसे मालिक यही नसीहत देता — तुम बेकार अपने बेटे पर मेहनत की कमाई बरबाद कर रहे हो. अगर तुम्हारे साथ वह भी कमाता, तो निश्चित रूप से तुम्हारी आय दोगुनी हो जाती और घर में अधिक खुशहाली आ जाती. पर रामदहिन उन बातों पर तनिक भी ध्यान नहीं देता. उसे लगता कि हम लोग तो जिंदगीभर अंगूठाछाप ही रह गए. चलो जब बेटा होनहार निकला है, तो उसे पेट काट कर भी पढ़ा ही देते हैं.

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पढ़ने के दौरान सूरज के सामने जो भी समस्या आती, उसे झेलते हुए आगे बढ़ते जाता. उस दौरान स्कूलों में कुछ खास तबके के लड़कों द्वारा उसे छुआछूत की भावना का शिकार भी होना पड़ता. जब कभी ऐसा भी होता कि वह जिस बेंच पर बैठता, तो अपनी ही कक्षा के बच्चे जो अपना बस्ता रखे भी रहते, उसे हटा कर दूसरी बेंच पर बैठ जाते या फिर बेंच पर अन्य साथियों के लिए सीट लूट कर रखे रहते. जब सूरज बैठना चाहता, तो वैसे बच्चे साफ कह देते —‘ पीछे चले जाओ इस पर सीट नहीं है’.

सूरज चाह कर भी विरोध नहीं करता कि इन लफंगों से झगड़ा मोल लेना बेकार है. इन्हें तो पढ़ना है नहीं. इन से उलझ कर हम अपना समय क्यों बरबाद करने जाए. कभी सोचता —हमारे लोगों में भी इतनी एकता नहीं कि हम जीत भी जाएंगे. ये लड़के इसी सोच का तो नाजायज फायदा उठाते रहते हैं.

पर हां, गांव में सूरज की पूछ जरूर थी. जब से उस ने हाईस्कूल में प्रवेश किया था, तभी से गांव में ‘कला संगम’ नामक संस्था की स्थापना की गई थी, जिस का वह सचिव था. मालिकाने घराने को छोड़ कर प्रायः सभी तबके के लड़के उस संस्था से जुड़े हुए थे. उसी के माध्यम से कभी नाटक का कार्यक्रम करवाता, तो कभी अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम. समाज के विकास के लिए हमेशा ध्यान रखता.

गांव में चाहे किसी के यहां शादी समारोह हो या फिर श्राद्ध का काम, सूरज अपने साथियों के साथ शुरू से अंत तक मुस्तैद रहा करता था. सारे काम साथियों सहित अपने सिर पर उठाए रहता था. घर का बोझ  बिलकुल हलका किए रहता था. इस की वजह से अकसर लोग उस की सराहना करते. शायद  इसी वजह से अपने समाज में उस की लोकप्रियता काफी बढ़ती चली जा रही थी.

अब तो देखादेखी में और लोग भी अपनेअपने बच्चों को सूरज की तरह पढ़ने और करने की नसीहत देते.

सूरज भी गांव में वैसे लोगों को समझाता, जो अपने बच्चे को स्कूल न भेज कर काम में लगाए रहते या फिर पढ़ाई की अहमियत को न समझते हुए पढ़ाई के प्रति लापरवाह रहते.

परिणाम यह हुआ कि उस के गांव के गरीबगुरबों के लड़के भी अकसर स्कूल जाने लगे.

यह बात अलग थी कि सरकारी स्कूल में शिक्षकों द्वारा ध्यान न देने की वजह से बच्चों का जिस रूप में विकास होना चाहिए था, नहीं हो पाता था.

जो बच्चे स्कूल के अलावा अपने घर पर जीतोड़ मेहनत करते, उन का विकास तो दिखता, पर जो सिर्फ स्कूल के ऊपर आश्रित रहते, वे अगली कक्षा में पहुंच तो रहे थे, पर उन का विकास ठीक से हो नहीं पा रहा था, क्योंकि गांव था न, इसलिए वहां अभिभावकों को मेहनतमजदूरी करने से फुरसत कहां थी, जो अपने बच्चों पर ध्यान देते? जो देना भी चाहते थे, वे या तो खुद अशिक्षित थे या फिर इतना कम पढ़ेलिखे थे, जो अपने बच्चों को चाह कर भी दिशानिर्देश नहीं कर सकते थे.

हाईस्कूल से उसे छात्रवृत्ति मिलनी शुरू हो गई थी, जिस से कुछ राहत भी मिल जाती थी. परंतु 12वीं जमात पास करने के बाद जब कालेज में नामांकन की बारी आई, तो सूरज ने कालेज में नामांकन तो करवा लिया, पर कालेजों में पढ़ाई नहीं होती थी, सिर्फ छात्रछात्राओं का नामांकन होता. समय पर रजिस्ट्रेशन होता. समय पर परीक्षाएं होतीं. इसी तरह परीक्षा परिणाम भी आते रहते. जो पैसे वाले होते, वे आईएससी में नामांकन करवाते. निजी शिक्षण संस्थानों में या तो अलगअलग विषय के ट्यूशन पढ़ते या फिर एकसाथ कोचिंग में पढ़ते. पर जिन की आर्थिक स्थिति बदहाल थी या कोई सुविधा नहीं थी, ,वे आर्ट सब्जेक्ट्स ही रख लेना मुनासिब समझते थे.

सूरज के पास न तो इतने पैसे थे कि वह एक हजार रुपए महीना दे कर कोचिंग में पढ़ सकता था और न ही किसी शहर में रह कर पढ़ सकता था, इसलिए उस ने आर्ट सब्जेक्ट्स ही रखना मुनासिब समझा. वह घर पर ही रहता और स्वाध्याय करता. स्वाध्याय की बदौलत ही इंटर में संतोषजनक परीक्षा परिणाम भी आया था उस का.

जैसे ही सूरज ने अपना नामांकन बीए में करवाया, वैसे ही उस के पिता ने उस की शादी तय कर दी, जबकि सूरज नहीं चाहता था कि अभी उस की शादी हो. इसलिए उस नेे विरोध करते हुए कहा भी, “पिताजी मेरी शादी कर के क्यों मेरा जीवन बरबाद करना चाहते हैं?”

पिताजी ने कहा, “बेटा, हर मांबाप अपनी जिंदगी में सपने बुनते हैं. तुम्हारी शादी हो जाएगी तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाएगा?”

सूरज ने कहा, “जो भी बिगड़ेगा, उसे भोगना तो मुझे ही पड़ेगा, आप लोगों को नहीं.”

पिता ने कहा, “तो क्या इस बुढ़ापे की अवस्था में भी तुम्हारी बूढ़ी मां ही हाथ जलाती रहे?”

सूरज ने कहा, “मां के तो हाथ ही जल रहे हैं पिताजी, मेरी तो जिंदगी ही जल जाएगी. पर चलिए, आप लोगों को इसी में खुशी है, तो मैं कुछ नहीं कहूंगा.”

शादी के बाद घर के कामों में मातापिता को काफी राहत मिलने लगी, इसीलिए वे दोनों भी काफी खुश रहने लगे. इधर सूरज भी पत्नी के प्रेमपाश में धीरेधीरे जकड़ता चला गया.

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March 31, 2021 at 10:00AM

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