Tuesday 27 October 2020

रूपमती- भाग 3 : क्या रूपमती के दर्द को समझने वाला कोई था?

रूपमती को कौन समझाता कि जवानी में फैशन न करें तो कब करें? उसे टोकने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पाता. न औरत न मर्द. औरतें क्या कहतीं जब मर्द चूडि़यां पहन कर बैठ गए थे.
यह खंडहर जब तक आबाद था, रूपमती उस में बरसों रही. मकान दीनदयाल नाम के व्यवसायी का था. वह आज भी मिठाई की दुकान चलाता है. नकली मिठाई के धंधे में पिछले साल सजा भी काट चुका है. उस ने कई बार रूपमती को प्रलोभन दिया कि वह मकान ठीक कर उसे ही देगा लेकिन वह टस से मस नहीं हुई. किराया देना भी कई साल पहले बंद हो गया था. एक तरह से रूपमती का मकान पर कब्जा बरकरार रहा. मकान की हालत दयनीय होती जा रही थी. दीवारें कई जगहों से फूल कर एक ओर झुकने लगी थीं और टिन की छत ने भी भीतर झांकना शुरू कर दिया था. लेकिन रूपमती इन सब से बेफिक्र थी.

इस मकान में जो भी रहा, फलताफूलता रहा. जिस ने इसे बनाया, देखते ही देखते वह धनी हो गया. जब मकान दीनदयाल के नाम हुआ तो उस ने एक अलग कोठी खड़ी कर ली. उस ने यह मकान रूपमती के परिवार को किराए पर दे दिया. रूपमती भी मालामाल हो गई लेकिन यह मकान सेठ की गलफांस बन गया.

सबकुछ होते हुए भी सेठ को हरदम पुलिस का खौफ रहता. जब वह तकाजे के लिए आता, रूपमती उसे खदेड़ देती और गला फाड़फाड़ कर चिल्लाती, ‘‘रांड़ औरत हूं, इसलिए तू धमक जाता है इधर. अरे, देखती हूं कौन मर्द का बच्चा मुझ से मकान खाली करवाता है.’’

खाली समय में रूपमती छज्जे पर बैठ जाती थी. आनेजाने वालों को बैठेबैठे बिना पूछे नसीहतें दे डालती. कुछ लोग उस के गालीपुराण के डर से बतियाते तो कुछ देवी प्रकोप से. कभी उस की खूबसूरती खींचती थी लेकिन धीरेधीरे वह आंखों की किरकिरी बन गई.

रातरात तक रूपमती की किलकारियां, कभी विद्रूप सी हंसी सुनाई देती. रूपमती की किलकारी से दीपू घबरा जाता. रात घिरते ही वह मेरे वक्ष से चिपक कर पूछने लगता, ‘मां, ताई क्यों चिल्लाईं?’

मैं उसे लाड़ से समझाती, ‘बेटा, ताई पर देवी आई है.’

‘देवी ऐसे चिल्लाती है, मम्मी?’ बच्चा जिज्ञासा से पूछता.

मैं भला क्या समझाती? लेकिन मेरा समझदार पति अलग राय रखता. जब नशा टूटने को होता तब वह मुझे समझाता, ‘मूर्ख है तू. ऐसी वाहियात औरत पर ही देवी क्यों आती है? तू तो भली औरत है, तुझ पर क्यों नहीं आती देवी, बोल? अरे धूर्त है धूर्त, एक नंबर की पाखंडी.’

मैं घबरा जाती और कहती, ‘देवी कुपित हो जाएगी, ऐसी बात मुंह से न निकालो. देवी ही तो बुलवाती है उस से.’

रामबहादुर ठठा कर हंस देता और मेरा शरीर पत्ते सा कांप जाता. आंखों में भय के बेतरतीब डोरे फैल जाते. मैं मतिभ्रष्ट पति की ओर से हजारों बार देवी से हाथ जोड़ कर क्षमा मांग चुकी थी. क्या करती, धर्मभीरु स्वभाव की जो थी.

एक दिन पड़ोस की औरतों ने बताया कि कुछ लोग रूपमती को ले कर गुस्से में थे. कोई उसे खदेड़ने की बात कह रहा था तो कोई सामाजिक बहिष्कार करने की. तब मुझे रोज की इस चखचख, शोरशराबे से छुटकारा मिलने की उम्मीद जगी.

वह अमावस की रात थी, घुप अंधेरा था. आधी रात तक रूपमती पर कथित देवी सवार रही. रुकरुक कर चीखनेचिल्लाने की आवाजें बाहर सुनाई दे रही थीं. इतने शोरशराबे में न मैं सो पा रही थी न दीपू, जबकि थकामांदा रामबहादुर खर्राटे ले रहा था.

अगली सुबह मैं ने सुना कि रूपमती लापता है. कई दिनों तक वापस नहीं आई. रूपमती को ले कर लोगों के बीच कानाफूसी होने लगी. फिर एक दिन मैं ने देखा, रूपमती के घर के नीचे लोगों की भीड़ थी. पुलिस आई थी. ताला खोला गया. सामान यथावत था. 2 पलंग, पुराना टैलीविजन, खस्ताहाल फ्रिज, टेबलफैन और एक कोने में सिंदूर पुती देवीदेवताओं की तसवीरें. रसोई के बरतन, स्टोव सभी मौजूद थे. जो नहीं था, वह थी रूपमती. कमरे में मारपीट के चिह्न भी कहीं नजर नहीं आए जिस से लगे कि रूपमती के साथ कुछ बुरा घटित हुआ हो. तहकीकात के बाद पुलिस चली गई. भीड़ भी धीरेधीरे खिसक गई. कुछ दिन रहने के बाद शांता भी उस मकान को छोड़ कर कहीं चली गई.

पुलिस को रूपमती का सुराग न मिला. अफवाहों का बाजार गर्म था. कोई कहता, ‘रूपमती ने साध्वी का रूप धारण कर लिया है.’ कोई कहता, ‘रूपमती ने आत्महत्या कर ली है, किसी ने उस की हत्या कर के लाश नदी में डुबो दी है.’ जितने मुंह उतनी बातें.

रूपमती को गुम हुए 10 महीने बीत गए थे. मनोहर मां को ढूंढ़ता फिरता रहा. एक बार जब वह इधर आया तब मुझ से भी मिला. मां के बारे में पूछा. मैं ने असमर्थता जताई तो वह निराश हो कर चला गया. एक दिन पुलिस थाने से उसे खबर मिली कि उस की मां शहर के सरकारी अस्पताल में बीमार हालत में है. वह दौड़ादौड़ा अस्पताल गया लेकिन वहां हाथ कुछ नहीं आया. खबर पुरानी थी. वह अस्पताल के स्टाफ से मिला. डाक्टरों के आगे गिड़गिड़ाया. तब कहीं जा कर रिपोर्ट निकलवाई गई. फाइलों से पता चला कि उस की मां ‘एड्स’ नामक लाइलाज बीमारी से पीडि़त थी. अंत समय में उस के पास कोई अपना न था. आखिरकार एक दिन वह हाड़मांस का पिंजरा छोड़ गई. उस के बाद लावारिस लाश समझ कर रूपमती की अंत्येष्टि कर दी गई.

रूपमती फिर कभी मकान में नहीं लौटी. दूसरों का भविष्य बताने वाली अपने भविष्य से अनभिज्ञ रही. कसबे वाले चैन की बंसी बजाने लगे थे. कभीकभी मुझे लगता जैसे मैं किसी एकांत जगह में आ गई हूं.

उधर, मनोहर को मां की मौत का दुख था. जिस दिन आया तो मां की बचीखुची धरोहर को कमरे से बाहर निकालते हुए दहाड़ें मारमार कर रोया. उस की आंखें रोरो कर सूज गई थीं.

मां की संवेदनहीनता भले ही मनोहर के साथ रही हो, किंतु कहीं न कहीं रूपमती के हृदय में ममता का स्थान अवश्य ही रहा होगा. मैं सोचती रही.

मनोहर ने फिर कसबे की ओर मुंह नहीं किया. जहां उसे कदमकदम पर संत्रास मिला, दुत्कार मिली, ऐसे स्थान पर जा कर वह अपने जख्मों को क्यों हरा करता?
समय अपनी रफ्तार से आगे दौड़ा. अषाढ़ के महीने में मूसलाधार बरसात हुई. ऐसी बरसात कि मजबूत चट्टानें खिसक गईं, नदी ने मुहाने बदल दिए. और तो और, वह मकान भी ढह गया जिस में कभी रूपमती का बसेरा था.

आज भी मकान के खंडहर को देख कर रूपमती की अभिशप्त कहानी मेरे जेहन में सिहरन पैदा कर देती है. ऐसा प्रतीत होता है मानो रूपमती खंडहर से बाहर आ कर ललकार रही है उस समाज को, विधि के विधान को जिस ने एक औरत को ही इस अपराध का समूचा उत्तरदायी मानते हुए सजाएमौत मुकर्रर की और पुरुष प्रधान समाज को बाइज्जत बरी. तब मेरे हृदय में रूपमती के लिए सहानुभूति और करुणा के भाव उभरने लगे.

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रूपमती को कौन समझाता कि जवानी में फैशन न करें तो कब करें? उसे टोकने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पाता. न औरत न मर्द. औरतें क्या कहतीं जब मर्द चूडि़यां पहन कर बैठ गए थे.
यह खंडहर जब तक आबाद था, रूपमती उस में बरसों रही. मकान दीनदयाल नाम के व्यवसायी का था. वह आज भी मिठाई की दुकान चलाता है. नकली मिठाई के धंधे में पिछले साल सजा भी काट चुका है. उस ने कई बार रूपमती को प्रलोभन दिया कि वह मकान ठीक कर उसे ही देगा लेकिन वह टस से मस नहीं हुई. किराया देना भी कई साल पहले बंद हो गया था. एक तरह से रूपमती का मकान पर कब्जा बरकरार रहा. मकान की हालत दयनीय होती जा रही थी. दीवारें कई जगहों से फूल कर एक ओर झुकने लगी थीं और टिन की छत ने भी भीतर झांकना शुरू कर दिया था. लेकिन रूपमती इन सब से बेफिक्र थी.

इस मकान में जो भी रहा, फलताफूलता रहा. जिस ने इसे बनाया, देखते ही देखते वह धनी हो गया. जब मकान दीनदयाल के नाम हुआ तो उस ने एक अलग कोठी खड़ी कर ली. उस ने यह मकान रूपमती के परिवार को किराए पर दे दिया. रूपमती भी मालामाल हो गई लेकिन यह मकान सेठ की गलफांस बन गया.

सबकुछ होते हुए भी सेठ को हरदम पुलिस का खौफ रहता. जब वह तकाजे के लिए आता, रूपमती उसे खदेड़ देती और गला फाड़फाड़ कर चिल्लाती, ‘‘रांड़ औरत हूं, इसलिए तू धमक जाता है इधर. अरे, देखती हूं कौन मर्द का बच्चा मुझ से मकान खाली करवाता है.’’

खाली समय में रूपमती छज्जे पर बैठ जाती थी. आनेजाने वालों को बैठेबैठे बिना पूछे नसीहतें दे डालती. कुछ लोग उस के गालीपुराण के डर से बतियाते तो कुछ देवी प्रकोप से. कभी उस की खूबसूरती खींचती थी लेकिन धीरेधीरे वह आंखों की किरकिरी बन गई.

रातरात तक रूपमती की किलकारियां, कभी विद्रूप सी हंसी सुनाई देती. रूपमती की किलकारी से दीपू घबरा जाता. रात घिरते ही वह मेरे वक्ष से चिपक कर पूछने लगता, ‘मां, ताई क्यों चिल्लाईं?’

मैं उसे लाड़ से समझाती, ‘बेटा, ताई पर देवी आई है.’

‘देवी ऐसे चिल्लाती है, मम्मी?’ बच्चा जिज्ञासा से पूछता.

मैं भला क्या समझाती? लेकिन मेरा समझदार पति अलग राय रखता. जब नशा टूटने को होता तब वह मुझे समझाता, ‘मूर्ख है तू. ऐसी वाहियात औरत पर ही देवी क्यों आती है? तू तो भली औरत है, तुझ पर क्यों नहीं आती देवी, बोल? अरे धूर्त है धूर्त, एक नंबर की पाखंडी.’

मैं घबरा जाती और कहती, ‘देवी कुपित हो जाएगी, ऐसी बात मुंह से न निकालो. देवी ही तो बुलवाती है उस से.’

रामबहादुर ठठा कर हंस देता और मेरा शरीर पत्ते सा कांप जाता. आंखों में भय के बेतरतीब डोरे फैल जाते. मैं मतिभ्रष्ट पति की ओर से हजारों बार देवी से हाथ जोड़ कर क्षमा मांग चुकी थी. क्या करती, धर्मभीरु स्वभाव की जो थी.

एक दिन पड़ोस की औरतों ने बताया कि कुछ लोग रूपमती को ले कर गुस्से में थे. कोई उसे खदेड़ने की बात कह रहा था तो कोई सामाजिक बहिष्कार करने की. तब मुझे रोज की इस चखचख, शोरशराबे से छुटकारा मिलने की उम्मीद जगी.

वह अमावस की रात थी, घुप अंधेरा था. आधी रात तक रूपमती पर कथित देवी सवार रही. रुकरुक कर चीखनेचिल्लाने की आवाजें बाहर सुनाई दे रही थीं. इतने शोरशराबे में न मैं सो पा रही थी न दीपू, जबकि थकामांदा रामबहादुर खर्राटे ले रहा था.

अगली सुबह मैं ने सुना कि रूपमती लापता है. कई दिनों तक वापस नहीं आई. रूपमती को ले कर लोगों के बीच कानाफूसी होने लगी. फिर एक दिन मैं ने देखा, रूपमती के घर के नीचे लोगों की भीड़ थी. पुलिस आई थी. ताला खोला गया. सामान यथावत था. 2 पलंग, पुराना टैलीविजन, खस्ताहाल फ्रिज, टेबलफैन और एक कोने में सिंदूर पुती देवीदेवताओं की तसवीरें. रसोई के बरतन, स्टोव सभी मौजूद थे. जो नहीं था, वह थी रूपमती. कमरे में मारपीट के चिह्न भी कहीं नजर नहीं आए जिस से लगे कि रूपमती के साथ कुछ बुरा घटित हुआ हो. तहकीकात के बाद पुलिस चली गई. भीड़ भी धीरेधीरे खिसक गई. कुछ दिन रहने के बाद शांता भी उस मकान को छोड़ कर कहीं चली गई.

पुलिस को रूपमती का सुराग न मिला. अफवाहों का बाजार गर्म था. कोई कहता, ‘रूपमती ने साध्वी का रूप धारण कर लिया है.’ कोई कहता, ‘रूपमती ने आत्महत्या कर ली है, किसी ने उस की हत्या कर के लाश नदी में डुबो दी है.’ जितने मुंह उतनी बातें.

रूपमती को गुम हुए 10 महीने बीत गए थे. मनोहर मां को ढूंढ़ता फिरता रहा. एक बार जब वह इधर आया तब मुझ से भी मिला. मां के बारे में पूछा. मैं ने असमर्थता जताई तो वह निराश हो कर चला गया. एक दिन पुलिस थाने से उसे खबर मिली कि उस की मां शहर के सरकारी अस्पताल में बीमार हालत में है. वह दौड़ादौड़ा अस्पताल गया लेकिन वहां हाथ कुछ नहीं आया. खबर पुरानी थी. वह अस्पताल के स्टाफ से मिला. डाक्टरों के आगे गिड़गिड़ाया. तब कहीं जा कर रिपोर्ट निकलवाई गई. फाइलों से पता चला कि उस की मां ‘एड्स’ नामक लाइलाज बीमारी से पीडि़त थी. अंत समय में उस के पास कोई अपना न था. आखिरकार एक दिन वह हाड़मांस का पिंजरा छोड़ गई. उस के बाद लावारिस लाश समझ कर रूपमती की अंत्येष्टि कर दी गई.

रूपमती फिर कभी मकान में नहीं लौटी. दूसरों का भविष्य बताने वाली अपने भविष्य से अनभिज्ञ रही. कसबे वाले चैन की बंसी बजाने लगे थे. कभीकभी मुझे लगता जैसे मैं किसी एकांत जगह में आ गई हूं.

उधर, मनोहर को मां की मौत का दुख था. जिस दिन आया तो मां की बचीखुची धरोहर को कमरे से बाहर निकालते हुए दहाड़ें मारमार कर रोया. उस की आंखें रोरो कर सूज गई थीं.

मां की संवेदनहीनता भले ही मनोहर के साथ रही हो, किंतु कहीं न कहीं रूपमती के हृदय में ममता का स्थान अवश्य ही रहा होगा. मैं सोचती रही.

मनोहर ने फिर कसबे की ओर मुंह नहीं किया. जहां उसे कदमकदम पर संत्रास मिला, दुत्कार मिली, ऐसे स्थान पर जा कर वह अपने जख्मों को क्यों हरा करता?
समय अपनी रफ्तार से आगे दौड़ा. अषाढ़ के महीने में मूसलाधार बरसात हुई. ऐसी बरसात कि मजबूत चट्टानें खिसक गईं, नदी ने मुहाने बदल दिए. और तो और, वह मकान भी ढह गया जिस में कभी रूपमती का बसेरा था.

आज भी मकान के खंडहर को देख कर रूपमती की अभिशप्त कहानी मेरे जेहन में सिहरन पैदा कर देती है. ऐसा प्रतीत होता है मानो रूपमती खंडहर से बाहर आ कर ललकार रही है उस समाज को, विधि के विधान को जिस ने एक औरत को ही इस अपराध का समूचा उत्तरदायी मानते हुए सजाएमौत मुकर्रर की और पुरुष प्रधान समाज को बाइज्जत बरी. तब मेरे हृदय में रूपमती के लिए सहानुभूति और करुणा के भाव उभरने लगे.

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October 28, 2020 at 10:00AM

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