Tuesday 27 October 2020

रूपमती- भाग 1 : क्या रूपमती के दर्द को समझने वाला कोई था?

सप्ताहभर की मूसलाधार बारिश के बाद आज बादलों के कतरे नीले आसमान में तैरने लगे थे. कुनकुनी धूप से छत नहा उठी थी. सड़क पर जगहजगह गड्ढे पड़ गए थे और बरसाती पानी से नाले लबालब भर गए थे.

वातावरण में नमी इस कदर थी कि गीले वस्त्र सूखने का नाम न लेते. कमरों के भीतर तक नमी पैठ गई थी. सीलन की अजीब सी गंध बेचैन कर रही थी. ऐसी गंध मुझे नापसंद थी. उपयुक्त समय जान कर मैं ने ढेर सारे कपड़े छत पर फैला दिए. पहाड़ी से ले कर समूचा कसबा चांदी सी चमकदार धूप से नहा उठा था. पेड़पौधों पर कुदरती गहरा हरा रंग चढ़ चुका था.

मुझे ज्ञात नहीं कब हमारे पूर्वज यहां आ कर बस गए. पहाड़ी की तलहटी में बसा यह कसबा लाजवाब है. कसबे से सट कर नदी बहती है. दूसरी तरफ हरेभरे जंगल बरबस नजरें खींच लेते हैं. मेरा बचपन इसी कसबे में बीता. विवाह के बाद अपने पति रामबहादुर के साथ अलग मकान में रहने लगी. कुछ ही दूरी पर मेरा मायका है. मांबाप, भाईबहन सभी हैं. अब हम 3 जने हैं. हम दोनों और हमारा 4 साल का बेटा दीपक. पड़ोसी मुझे धन्नो के नाम से जानते हैं.

मैं ने इतमीनान से सांस ली, फिर चारों तरफ नजर दौड़ाई. ठीक सामने खंडहर की ओर देखा तो एक अजीब सिहरन बदन में कौंध गई. खंडहर के मलबे से झांकते मटमैले पत्थरों से मुझे सहानुभूति सी होने लगी. पत्थर खालिस पत्थर ही नहीं थे बल्कि मूकदृष्टा और राजदार थे एक दर्द भरी कहानी के. मैं जिस की धुरी में प्रत्यक्ष मात्र बन कर रह गई थी. मेरी आंखों के आगे वह कहानी बादल के टुकड़े की तरह फैलती चली गई.

खंडहर में कभी दोमंजिला मकान हुआ करता था. पत्थरों का मकान था लेकिन इस में बाहर से सीमेंट की मोटी तह चढ़ी थी. मकान की सीढि़यां सड़क से सटी थीं और उस का प्लास्टर कई जगहों से नदारद था. पत्थरों से रेत तक भुरभुरा कर उतर गई थी. दीवार के पत्थर बिना मसूड़े के भद्दे दांतों जैसे दिखाई देते थे. ऐसा लगता था कि मकान अब गिरा कि तब गिरा. इस की अघोषित मालकिन रूपमती जीवट की थी. वह सुबहसवेरे अपने दैनिक काम निबटा कर लकड़ी के तख्तों वाले छज्जे पर बैठ जाती. वहीं से आनेजाने वालों पर अपनी नजर गड़ाए रहती. इधर मैं थी और सड़क के उस पार रूपमती. दोनों मकानों के बीच में यदि कोई था तो वह थी 15 फुट चौड़ी पक्की सड़क.

लोग कहा करते कि भरी जवानी में वह सचमुच की रूपमती थी. गोरीचिट्टी, सेब जैसे लाल गाल, मोटीमोटी आंखें, नितंबों तक झूलते हुए बाल और मदमस्त करने वाली चाल. रूपमती को देख कर मनचलों के होश फाख्ता हो जाते. दिनभर तितली बनी फिरती थी वह. तभी तो नदी पार गांव के बिरजू की आंखें जो उस पर अटकीं, शादी के बाद ही हटीं.

बिरजू था तो हट्टाकट्टा लेकिन एक सड़क हादसे में रूपमती को भरपूर जवानी में अकेला छोड़ गया. उस की बसीबसाई दुनिया में भूचाल आ गया. छोटा बच्चा गोद में था. पेट की आग से व्याकुल हो गई थी रूपमती. कमाई का कोई जरिया न था. हार मान कर उस ने जिस्म को भूखे दरिंदों के आगे डाल दिया.

दलदल इतना गहरा कि वह कभी बाहर निकल ही नहीं पाई. मजबूरन वह एक नई रूपमती बन गई. उस के स्वभाव और व्यवहार में निरंतर बदलाव आता चला गया. कितने ही इज्जतदार उस के आगे नतमस्तक हो गए. और तो और, कुछ वरदी वाले भी रूपमती के घर पर हाजिरी देने से नहीं चूकते. मजाल क्या थी कि कसबे में कोई उस से उलझे या आंखें डाल कर बतियाए. वरदी वाले रूपमती की पैरवी में आगे आते. जुर्रत करने वालों को थाने ले जाने में वह कोरकसर न छोड़ती.

रूपमती का लड़का था, मनोहर. दुबलापतला और डरपोक. अबोध अवस्था तक घर में रहा और जब वह समझदार हुआ तो हालात से घबरा गया. प्रताड़ना और अपमान से आहत एक दिन उस ने घर ही छोड़ दिया. रूपमती लोगों के सामने झूठे को ही आंसू बहाती रही. दरअसल, रूपमती यही चाहती थी, खुली आजादी.

रात गहराती और रूपमती सजधज कर छज्जे पर बैठ जाती. ग्राहक आने लगते, एक के बाद एक. वे उस ऊबड़खाबड़, उधड़ी हुई सीढि़यों पर चपलता से चढ़तेउतरते.

दिन में वे लोग कभी इस तरफ नहीं निकलते जिन्हें समाज का डर होता. किसी को रूपमती देख लेती तो उसे झक मार कर बतियाना पड़ता. कौन जाने कब रूपमती दुखती रग पर हाथ रख दे. डर बला ही ऐसी है लेकिन अंधेरे में समाज की किसे परवा? मुझे यह सब देखसुन कर उबकाई सी होने लगती. इस माहौल से ऊब गई थी मैं.

2-3 साल बीते. मनोहर यदाकदा घर आने लगा. जब आता उस दिन रूपमती के घर की सीढि़यां सूनी पड़ी रहतीं. शायद मनोहर ने दुनिया देख ली थी. उस की बातों से रूपमती आपा खो देती और मारपीट पर आमादा हो जाती. मनोहर उसी दिन चला जाता. वह शहर में गुजारे भर का पैसा कमाने लगा था. जाते वक्त कभी कुछ रुपए मां के सिरहाने रख देता. वैसे रूपमती को उस के पैसों की जरूरत नहीं थी. बहुत रुपया कमा चुकी थी वह. ऐसे धंधे में हानि का प्रश्न ही नहीं था.

इस तरह कई वसंत आए, कई गए. लेकिन रूपमती के लिए दिन, महीने, साल घाटे के साबित होने लगे. वह 50 की उम्र पार कर गई थी. धंधे की आंच ठंडी पड़ गई थी. शरीर थुलथुला हो गया था, चेहरे पर झुर्रियां गहरा गई थीं. छोटेबड़े रूपमती को ताई कह कर पुकारने लगे थे. रूपमती को इस में कुछ भी अजीब नहीं लगता. वक्त हालात से साक्षात्कार करा ही देता है.

शायद उसे भी एहसास होने लगा था. समय रहते ही रूपमती ने कमाई का नया जरिया ढूंढ़ लिया. लोग कहने लगे कि उस पर कोई देवी आती है. देवी सच बताती है. मुसीबतों से त्रस्त अंधविश्वासी उस के घर आते. किसी का लड़का बीमार है, किसी पर प्रेत की छाया है तो किसी पर जादूटोना. रूपमती झूमझूम कर देवी को बुलाती और उपाय बताती.

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सप्ताहभर की मूसलाधार बारिश के बाद आज बादलों के कतरे नीले आसमान में तैरने लगे थे. कुनकुनी धूप से छत नहा उठी थी. सड़क पर जगहजगह गड्ढे पड़ गए थे और बरसाती पानी से नाले लबालब भर गए थे.

वातावरण में नमी इस कदर थी कि गीले वस्त्र सूखने का नाम न लेते. कमरों के भीतर तक नमी पैठ गई थी. सीलन की अजीब सी गंध बेचैन कर रही थी. ऐसी गंध मुझे नापसंद थी. उपयुक्त समय जान कर मैं ने ढेर सारे कपड़े छत पर फैला दिए. पहाड़ी से ले कर समूचा कसबा चांदी सी चमकदार धूप से नहा उठा था. पेड़पौधों पर कुदरती गहरा हरा रंग चढ़ चुका था.

मुझे ज्ञात नहीं कब हमारे पूर्वज यहां आ कर बस गए. पहाड़ी की तलहटी में बसा यह कसबा लाजवाब है. कसबे से सट कर नदी बहती है. दूसरी तरफ हरेभरे जंगल बरबस नजरें खींच लेते हैं. मेरा बचपन इसी कसबे में बीता. विवाह के बाद अपने पति रामबहादुर के साथ अलग मकान में रहने लगी. कुछ ही दूरी पर मेरा मायका है. मांबाप, भाईबहन सभी हैं. अब हम 3 जने हैं. हम दोनों और हमारा 4 साल का बेटा दीपक. पड़ोसी मुझे धन्नो के नाम से जानते हैं.

मैं ने इतमीनान से सांस ली, फिर चारों तरफ नजर दौड़ाई. ठीक सामने खंडहर की ओर देखा तो एक अजीब सिहरन बदन में कौंध गई. खंडहर के मलबे से झांकते मटमैले पत्थरों से मुझे सहानुभूति सी होने लगी. पत्थर खालिस पत्थर ही नहीं थे बल्कि मूकदृष्टा और राजदार थे एक दर्द भरी कहानी के. मैं जिस की धुरी में प्रत्यक्ष मात्र बन कर रह गई थी. मेरी आंखों के आगे वह कहानी बादल के टुकड़े की तरह फैलती चली गई.

खंडहर में कभी दोमंजिला मकान हुआ करता था. पत्थरों का मकान था लेकिन इस में बाहर से सीमेंट की मोटी तह चढ़ी थी. मकान की सीढि़यां सड़क से सटी थीं और उस का प्लास्टर कई जगहों से नदारद था. पत्थरों से रेत तक भुरभुरा कर उतर गई थी. दीवार के पत्थर बिना मसूड़े के भद्दे दांतों जैसे दिखाई देते थे. ऐसा लगता था कि मकान अब गिरा कि तब गिरा. इस की अघोषित मालकिन रूपमती जीवट की थी. वह सुबहसवेरे अपने दैनिक काम निबटा कर लकड़ी के तख्तों वाले छज्जे पर बैठ जाती. वहीं से आनेजाने वालों पर अपनी नजर गड़ाए रहती. इधर मैं थी और सड़क के उस पार रूपमती. दोनों मकानों के बीच में यदि कोई था तो वह थी 15 फुट चौड़ी पक्की सड़क.

लोग कहा करते कि भरी जवानी में वह सचमुच की रूपमती थी. गोरीचिट्टी, सेब जैसे लाल गाल, मोटीमोटी आंखें, नितंबों तक झूलते हुए बाल और मदमस्त करने वाली चाल. रूपमती को देख कर मनचलों के होश फाख्ता हो जाते. दिनभर तितली बनी फिरती थी वह. तभी तो नदी पार गांव के बिरजू की आंखें जो उस पर अटकीं, शादी के बाद ही हटीं.

बिरजू था तो हट्टाकट्टा लेकिन एक सड़क हादसे में रूपमती को भरपूर जवानी में अकेला छोड़ गया. उस की बसीबसाई दुनिया में भूचाल आ गया. छोटा बच्चा गोद में था. पेट की आग से व्याकुल हो गई थी रूपमती. कमाई का कोई जरिया न था. हार मान कर उस ने जिस्म को भूखे दरिंदों के आगे डाल दिया.

दलदल इतना गहरा कि वह कभी बाहर निकल ही नहीं पाई. मजबूरन वह एक नई रूपमती बन गई. उस के स्वभाव और व्यवहार में निरंतर बदलाव आता चला गया. कितने ही इज्जतदार उस के आगे नतमस्तक हो गए. और तो और, कुछ वरदी वाले भी रूपमती के घर पर हाजिरी देने से नहीं चूकते. मजाल क्या थी कि कसबे में कोई उस से उलझे या आंखें डाल कर बतियाए. वरदी वाले रूपमती की पैरवी में आगे आते. जुर्रत करने वालों को थाने ले जाने में वह कोरकसर न छोड़ती.

रूपमती का लड़का था, मनोहर. दुबलापतला और डरपोक. अबोध अवस्था तक घर में रहा और जब वह समझदार हुआ तो हालात से घबरा गया. प्रताड़ना और अपमान से आहत एक दिन उस ने घर ही छोड़ दिया. रूपमती लोगों के सामने झूठे को ही आंसू बहाती रही. दरअसल, रूपमती यही चाहती थी, खुली आजादी.

रात गहराती और रूपमती सजधज कर छज्जे पर बैठ जाती. ग्राहक आने लगते, एक के बाद एक. वे उस ऊबड़खाबड़, उधड़ी हुई सीढि़यों पर चपलता से चढ़तेउतरते.

दिन में वे लोग कभी इस तरफ नहीं निकलते जिन्हें समाज का डर होता. किसी को रूपमती देख लेती तो उसे झक मार कर बतियाना पड़ता. कौन जाने कब रूपमती दुखती रग पर हाथ रख दे. डर बला ही ऐसी है लेकिन अंधेरे में समाज की किसे परवा? मुझे यह सब देखसुन कर उबकाई सी होने लगती. इस माहौल से ऊब गई थी मैं.

2-3 साल बीते. मनोहर यदाकदा घर आने लगा. जब आता उस दिन रूपमती के घर की सीढि़यां सूनी पड़ी रहतीं. शायद मनोहर ने दुनिया देख ली थी. उस की बातों से रूपमती आपा खो देती और मारपीट पर आमादा हो जाती. मनोहर उसी दिन चला जाता. वह शहर में गुजारे भर का पैसा कमाने लगा था. जाते वक्त कभी कुछ रुपए मां के सिरहाने रख देता. वैसे रूपमती को उस के पैसों की जरूरत नहीं थी. बहुत रुपया कमा चुकी थी वह. ऐसे धंधे में हानि का प्रश्न ही नहीं था.

इस तरह कई वसंत आए, कई गए. लेकिन रूपमती के लिए दिन, महीने, साल घाटे के साबित होने लगे. वह 50 की उम्र पार कर गई थी. धंधे की आंच ठंडी पड़ गई थी. शरीर थुलथुला हो गया था, चेहरे पर झुर्रियां गहरा गई थीं. छोटेबड़े रूपमती को ताई कह कर पुकारने लगे थे. रूपमती को इस में कुछ भी अजीब नहीं लगता. वक्त हालात से साक्षात्कार करा ही देता है.

शायद उसे भी एहसास होने लगा था. समय रहते ही रूपमती ने कमाई का नया जरिया ढूंढ़ लिया. लोग कहने लगे कि उस पर कोई देवी आती है. देवी सच बताती है. मुसीबतों से त्रस्त अंधविश्वासी उस के घर आते. किसी का लड़का बीमार है, किसी पर प्रेत की छाया है तो किसी पर जादूटोना. रूपमती झूमझूम कर देवी को बुलाती और उपाय बताती.

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October 28, 2020 at 10:00AM

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