Tuesday 24 December 2019

औरों से आगे : भाग 2

औरों से आगे : भाग 1

अब आगे पढ़ें

सभी को लगा कि लड़का लाखों में एक है. अम्मां ने कहा, ‘‘हिंदी तो ऐसे बोलता है, जैसे हमारे बीच ही रहता आया हो.’’ अम्मां का अनुकूल रुख देख कर बड़े भैया भी बदले थे. भाभी तो ऐसे अवसरों पर सदा तटस्थ रहती थीं. फिर भी बेटी को मनचाहा घरवर मिल रहा था, इस बात की अनुभूति उन के तटस्थ चेहरे को निखार गई थी. वह मन की प्रसन्नता मन तक ही रख कर अम्मां और भैया के सामने कुछ कहने का दुस्साहस नहीं कर पा रही थीं. बस, दबी जबान से इतना ही कहा, ‘‘आजकल तो वैश्यों में कितने ही अंतर्जातीय विवाह हो रहे हैं और सभी सहर्ष स्वीकार किए जा रहे हैं. जाति की संकुचित भावना का अब उतना महत्त्व नहीं है, जितना 15-20 वर्ष पहले था.’’ इतना सुनते ही अम्मां और भैया साथसाथ बोल उठे थे, ‘‘तुम्हारी ही शह है.’’ उस के बाद जब तक विवाह नहीं हुआ, भाभी मौन ही रहीं. वैसे यह सच था कि भाभी के बढ़ावे से ही कनु ने जाति से बाहर जाने की जिद की थी. सम्मिलित परिवार में रहीं भाभी नहीं चाहती थीं कि उन की बेटी सिर्फ आदर्श बहू बन कर रह जाए.

वह चाहती थीं कि वह स्वतंत्र व्यक्तित्व की स्वामिनी बने. कनु और राघवन विवाह के अवसर पर फुजूलखर्ची के खिलाफ थे. इसलिए बहुत सादी रीति से ब्याह हो गया, जो बाद में सब को अच्छा लगा. जैसेजैसे समय बीतता गया, राघवन का सभ्य व्यवहार, दहेज विरोधी सुलझे विचार और स्वाभिमानी व्यक्तित्व की ठंडी फुहार तले भीगता सब का मन शांत व सहज हो गया था. दोनों परिवारों में आपसी सद्भाव, प्रेम व स्नेह के आदानप्रदान ने प्रांतीयता व भाषा रूपी भेदभावों को पीछे छोड़, कब स्वयं को व्यक्त करने के लिए नई भाषा अपना ली, पता ही नहीं लगा. वह थी, हिंदी, अंगरेजी, तमिल मिश्रित भाषा. हमारे परिवार में भी तमिल समझने- सीखने की होड़ लग गई थी. यह जरूरी भी था. एक भाषाभाषी होने पर जो आत्मीयता व अपनेपन के स्पर्श की अनुभूति होती है, वह भिन्नभिन्न भाषाभाषी व्यक्तियों के साथ नहीं हो पाती. संभवत: यही कारण है कि अंतर्जातीय विवाहों में दूरी का अनुभव होता है. भाषा भेद हमारी एकता में बाधक है. नहीं तो भारत के हर प्रांत की सभ्यता व संस्कृति एक ही है.

प्रांतों की भाषा की अनेकता में भी एकता गहरी है या शायद विशाल एकता की भावना ने रंगबिरंगी हो भिन्नभिन्न भाषाओं के रूप में प्रांतों में विविधता सजा दी है. कनु के ब्याह के बाद स्मिता का ब्याह गुजराती परिवार में हुआ. मझली भाभी व भैया के लाख न चाहने पर भी वह ब्याह हुआ. सब से आश्चर्यजनक बात यह थी कि किसी को उस विवाह पर आपत्ति नहीं हुई. जैसे वह रोज की सामान्य सी बात थी. साथ ही रिंकू के लिए वर खोजने की आवश्यकता नहीं है, यह भी सोच लिया गया. अनिल व स्मिता को जैसे एकदूसरे के लिए ही बनाया गया था. दोनों की जोड़ी बारबार देखने को मन करता था. अम्मां इस बार पहले से कुछ अधिक शांत थीं. अनिल डाक्टर था, इसलिए आते ही अम्मां की कमजोर नब्ज पहचान गया था. जितनी देर रहता, ‘अम्मांअम्मां’ कह कर उन्हें निहाल करता रहता. एक बार जब अम्मां बीमार पड़ीं, तब ज्यादा तबीयत बिगड़ जाने पर अनिल सारी रात वहीं कुरसी डाले बैठा रहा. सवेरे आंख खुलने पर अम्मां ने आशीर्वादों की झड़ी लगा दी थी.

ये भी पढ़ें- रफ कौपी : इस की उम्र का किसी को नहीं पता

बेटी से ज्यादा दामाद जिगर का टुकड़ा बन चला था. अम्मां ने अनिल के पिता से बारबार कहा था, ‘‘हमारी स्मिता के दिन फिर गए, जो आप के घर की बहू बनी. हमें गर्व है कि हमें ऐसा हीरा सा दामाद मिला.’’ अनिल के मातापिता ने अम्मां का हाथ पकड़ कर गद्गद कंठ से सिर्फ इतना ही कहा, ‘‘आप घर की बड़ी हैं. बस, सब को आप का आशीर्वाद मिलता रहे.’’ सुखदुख में जाति भेद व भाषा भेद न जाने कैसे लुप्त हो जाता है. सिर्फ भावना ही प्रमुख रह जाती है, जिस की न जाति होती है, न भाषा. और भावना हमें कितना करीब ला सकती है, देख कर आश्चर्य होता था. अब रिंकू का ब्याह था. घर के कोनेकोने में उत्साह व आनंद बिखरा पड़ा था.

जातीयविजातीय अपनेअपने तरीके से, अपनीअपनी जिज्ञासा लिए अनेक दृष्टिकोणों से हमारे परिवार को समझने का प्रयास कर रहे थे. रिंकू बंगाली परिवार में ब्याही जा रही थी. कहां शुद्ध शाकाहारी वैश्य परिवार की कन्या रिंकू और कहां माछेर झोल का दीवाना मलय. पर किसी को चिंता नहीं थी, अम्मां उत्साह से भरी थीं. उन की बातों से लगता था कि उन्हें अपने विजातीय दामादों पर नाज है. अम्मां का उत्साह व रवैया देख कर जातीय भाईबंधु, जो कल तक अम्मां को ‘इन बेचारी की कोई सुनता नहीं’ कह कर सहानुभूति दर्शा रहे थे, अब चकित हो पसोपेश में पड़े क्या सोच रहे थे, कह पाना मुश्किल था. रिंकू का विवाह सानंद संपन्न हो गया. वह विदा हो ससुराल चली गई. दूसरे दिन मन का कुतूहल जब प्रश्न बन कर अम्मां के आगे आया तो पहले तो अम्मां ने टालना चाहा, लेकिन राकेश, विवेक, कनु, राघवन, स्मिता, अनिल सभी उन के पीछे पड़ गए, ‘‘अम्मां, सचसच बताइएगा, अंतर्जातीय विवाहों को आप सच ही उचित नहीं समझतीं या…’’ प्रश्न पूरा होने से पहले ही अम्मां सकुचाती सी बोल उठीं, ‘‘मेरे अपने विचार में इन विवाहों में कुछ भी अनुचित नहीं. पर हम जिस समाज में रहते हैं, उस के साथ ही चलना चाहिए.’’ ‘‘पर अम्मां, समाज तो हम से बनता है. यदि हम किसी बात को सही समझते हैं तो उसे दूसरों को समझा कर उन्हें भी उस के औचित्य का विश्वास दिलाना चाहिए न कि डर कर स्वयं भी चुप रह जाना चाहिए.’’ अब स्मिता को बोलने का अवसर भी मिल गया था, ‘‘अम्मां, जातिभेद प्रकृति की देन नहीं है.

ये भी पढ़ें- मृदुभाषिणी : शुभा को मामी का चरित्र बौना क्यों लगने लगा

यह वर्गीकरण तो हमारे शास्त्रों की जबरदस्ती की देन है. लेकिन अब तो हर जाति का व्यक्ति शास्त्र के विरुद्ध व्यवसाय अपना रहा है. अंतर्मन सब का एक जैसा ही तो है. फिर यह भेद क्यों?’’ राकेश ने अम्मां को एक और दृष्टिकोण से समझाना चाहा, ‘‘अम्मां, हम लोगों में शिक्षा की प्रधानता है. और शिक्षित व्यक्ति ही आगे बढ़ सकता है, ऐसा करने से हम आगे बढ़ते हैं. हमें जाति से जरा भी नफरत नहीं है. आप ऐसा क्यों सोचती हैं?’’ सब बातों में इतने मशगूल थे कि पता ही नहीं लगा, कब भैयाभाभी इत्यादि आ कर खड़े हो गए थे. अम्मां कुछ देर चुप रहीं, फिर बोलीं, ‘‘सच है, यदि हमारे परिवार की तरह ही हर परिवार अंतर्जातीय विवाहों को स्वीकार करे तो किसी हद तक तलाक व दहेज की समस्या सुलझ सकती है और बेमानी वैवाहिक जिंदगी जीने वालों की जिंदगी खुशहाल हो सकती है.’’ अम्मां के पोतेपोतियों ने उन्हें झट चूम लिया. एक बार फिर हमें गर्व की अनुभूति ने सहलाया, ‘हमारी अम्मां औरों से आगे हैं.’

The post औरों से आगे : भाग 2 appeared first on Sarita Magazine.



from कहानी – Sarita Magazine https://ift.tt/35Wx2b0

औरों से आगे : भाग 1

अब आगे पढ़ें

सभी को लगा कि लड़का लाखों में एक है. अम्मां ने कहा, ‘‘हिंदी तो ऐसे बोलता है, जैसे हमारे बीच ही रहता आया हो.’’ अम्मां का अनुकूल रुख देख कर बड़े भैया भी बदले थे. भाभी तो ऐसे अवसरों पर सदा तटस्थ रहती थीं. फिर भी बेटी को मनचाहा घरवर मिल रहा था, इस बात की अनुभूति उन के तटस्थ चेहरे को निखार गई थी. वह मन की प्रसन्नता मन तक ही रख कर अम्मां और भैया के सामने कुछ कहने का दुस्साहस नहीं कर पा रही थीं. बस, दबी जबान से इतना ही कहा, ‘‘आजकल तो वैश्यों में कितने ही अंतर्जातीय विवाह हो रहे हैं और सभी सहर्ष स्वीकार किए जा रहे हैं. जाति की संकुचित भावना का अब उतना महत्त्व नहीं है, जितना 15-20 वर्ष पहले था.’’ इतना सुनते ही अम्मां और भैया साथसाथ बोल उठे थे, ‘‘तुम्हारी ही शह है.’’ उस के बाद जब तक विवाह नहीं हुआ, भाभी मौन ही रहीं. वैसे यह सच था कि भाभी के बढ़ावे से ही कनु ने जाति से बाहर जाने की जिद की थी. सम्मिलित परिवार में रहीं भाभी नहीं चाहती थीं कि उन की बेटी सिर्फ आदर्श बहू बन कर रह जाए.

वह चाहती थीं कि वह स्वतंत्र व्यक्तित्व की स्वामिनी बने. कनु और राघवन विवाह के अवसर पर फुजूलखर्ची के खिलाफ थे. इसलिए बहुत सादी रीति से ब्याह हो गया, जो बाद में सब को अच्छा लगा. जैसेजैसे समय बीतता गया, राघवन का सभ्य व्यवहार, दहेज विरोधी सुलझे विचार और स्वाभिमानी व्यक्तित्व की ठंडी फुहार तले भीगता सब का मन शांत व सहज हो गया था. दोनों परिवारों में आपसी सद्भाव, प्रेम व स्नेह के आदानप्रदान ने प्रांतीयता व भाषा रूपी भेदभावों को पीछे छोड़, कब स्वयं को व्यक्त करने के लिए नई भाषा अपना ली, पता ही नहीं लगा. वह थी, हिंदी, अंगरेजी, तमिल मिश्रित भाषा. हमारे परिवार में भी तमिल समझने- सीखने की होड़ लग गई थी. यह जरूरी भी था. एक भाषाभाषी होने पर जो आत्मीयता व अपनेपन के स्पर्श की अनुभूति होती है, वह भिन्नभिन्न भाषाभाषी व्यक्तियों के साथ नहीं हो पाती. संभवत: यही कारण है कि अंतर्जातीय विवाहों में दूरी का अनुभव होता है. भाषा भेद हमारी एकता में बाधक है. नहीं तो भारत के हर प्रांत की सभ्यता व संस्कृति एक ही है.

प्रांतों की भाषा की अनेकता में भी एकता गहरी है या शायद विशाल एकता की भावना ने रंगबिरंगी हो भिन्नभिन्न भाषाओं के रूप में प्रांतों में विविधता सजा दी है. कनु के ब्याह के बाद स्मिता का ब्याह गुजराती परिवार में हुआ. मझली भाभी व भैया के लाख न चाहने पर भी वह ब्याह हुआ. सब से आश्चर्यजनक बात यह थी कि किसी को उस विवाह पर आपत्ति नहीं हुई. जैसे वह रोज की सामान्य सी बात थी. साथ ही रिंकू के लिए वर खोजने की आवश्यकता नहीं है, यह भी सोच लिया गया. अनिल व स्मिता को जैसे एकदूसरे के लिए ही बनाया गया था. दोनों की जोड़ी बारबार देखने को मन करता था. अम्मां इस बार पहले से कुछ अधिक शांत थीं. अनिल डाक्टर था, इसलिए आते ही अम्मां की कमजोर नब्ज पहचान गया था. जितनी देर रहता, ‘अम्मांअम्मां’ कह कर उन्हें निहाल करता रहता. एक बार जब अम्मां बीमार पड़ीं, तब ज्यादा तबीयत बिगड़ जाने पर अनिल सारी रात वहीं कुरसी डाले बैठा रहा. सवेरे आंख खुलने पर अम्मां ने आशीर्वादों की झड़ी लगा दी थी.

ये भी पढ़ें- रफ कौपी : इस की उम्र का किसी को नहीं पता

बेटी से ज्यादा दामाद जिगर का टुकड़ा बन चला था. अम्मां ने अनिल के पिता से बारबार कहा था, ‘‘हमारी स्मिता के दिन फिर गए, जो आप के घर की बहू बनी. हमें गर्व है कि हमें ऐसा हीरा सा दामाद मिला.’’ अनिल के मातापिता ने अम्मां का हाथ पकड़ कर गद्गद कंठ से सिर्फ इतना ही कहा, ‘‘आप घर की बड़ी हैं. बस, सब को आप का आशीर्वाद मिलता रहे.’’ सुखदुख में जाति भेद व भाषा भेद न जाने कैसे लुप्त हो जाता है. सिर्फ भावना ही प्रमुख रह जाती है, जिस की न जाति होती है, न भाषा. और भावना हमें कितना करीब ला सकती है, देख कर आश्चर्य होता था. अब रिंकू का ब्याह था. घर के कोनेकोने में उत्साह व आनंद बिखरा पड़ा था.

जातीयविजातीय अपनेअपने तरीके से, अपनीअपनी जिज्ञासा लिए अनेक दृष्टिकोणों से हमारे परिवार को समझने का प्रयास कर रहे थे. रिंकू बंगाली परिवार में ब्याही जा रही थी. कहां शुद्ध शाकाहारी वैश्य परिवार की कन्या रिंकू और कहां माछेर झोल का दीवाना मलय. पर किसी को चिंता नहीं थी, अम्मां उत्साह से भरी थीं. उन की बातों से लगता था कि उन्हें अपने विजातीय दामादों पर नाज है. अम्मां का उत्साह व रवैया देख कर जातीय भाईबंधु, जो कल तक अम्मां को ‘इन बेचारी की कोई सुनता नहीं’ कह कर सहानुभूति दर्शा रहे थे, अब चकित हो पसोपेश में पड़े क्या सोच रहे थे, कह पाना मुश्किल था. रिंकू का विवाह सानंद संपन्न हो गया. वह विदा हो ससुराल चली गई. दूसरे दिन मन का कुतूहल जब प्रश्न बन कर अम्मां के आगे आया तो पहले तो अम्मां ने टालना चाहा, लेकिन राकेश, विवेक, कनु, राघवन, स्मिता, अनिल सभी उन के पीछे पड़ गए, ‘‘अम्मां, सचसच बताइएगा, अंतर्जातीय विवाहों को आप सच ही उचित नहीं समझतीं या…’’ प्रश्न पूरा होने से पहले ही अम्मां सकुचाती सी बोल उठीं, ‘‘मेरे अपने विचार में इन विवाहों में कुछ भी अनुचित नहीं. पर हम जिस समाज में रहते हैं, उस के साथ ही चलना चाहिए.’’ ‘‘पर अम्मां, समाज तो हम से बनता है. यदि हम किसी बात को सही समझते हैं तो उसे दूसरों को समझा कर उन्हें भी उस के औचित्य का विश्वास दिलाना चाहिए न कि डर कर स्वयं भी चुप रह जाना चाहिए.’’ अब स्मिता को बोलने का अवसर भी मिल गया था, ‘‘अम्मां, जातिभेद प्रकृति की देन नहीं है.

ये भी पढ़ें- मृदुभाषिणी : शुभा को मामी का चरित्र बौना क्यों लगने लगा

यह वर्गीकरण तो हमारे शास्त्रों की जबरदस्ती की देन है. लेकिन अब तो हर जाति का व्यक्ति शास्त्र के विरुद्ध व्यवसाय अपना रहा है. अंतर्मन सब का एक जैसा ही तो है. फिर यह भेद क्यों?’’ राकेश ने अम्मां को एक और दृष्टिकोण से समझाना चाहा, ‘‘अम्मां, हम लोगों में शिक्षा की प्रधानता है. और शिक्षित व्यक्ति ही आगे बढ़ सकता है, ऐसा करने से हम आगे बढ़ते हैं. हमें जाति से जरा भी नफरत नहीं है. आप ऐसा क्यों सोचती हैं?’’ सब बातों में इतने मशगूल थे कि पता ही नहीं लगा, कब भैयाभाभी इत्यादि आ कर खड़े हो गए थे. अम्मां कुछ देर चुप रहीं, फिर बोलीं, ‘‘सच है, यदि हमारे परिवार की तरह ही हर परिवार अंतर्जातीय विवाहों को स्वीकार करे तो किसी हद तक तलाक व दहेज की समस्या सुलझ सकती है और बेमानी वैवाहिक जिंदगी जीने वालों की जिंदगी खुशहाल हो सकती है.’’ अम्मां के पोतेपोतियों ने उन्हें झट चूम लिया. एक बार फिर हमें गर्व की अनुभूति ने सहलाया, ‘हमारी अम्मां औरों से आगे हैं.’

The post औरों से आगे : भाग 2 appeared first on Sarita Magazine.

December 25, 2019 at 10:11AM

No comments:

Post a Comment