Friday 31 May 2019

उपाध्यक्ष महोदय

जब कोई व्यक्ति किसी संस्था के लिए ‘उगलत निगलत पीर घनेरी’ वाली दशा को प्राप्त हो जाता है तो उसे उस संस्था का उपाध्यक्ष बना दिया जाता है.

उपाध्यक्ष पदाधिकारियों में ईश्वर की तरह होता है, जो होते हुए भी नहीं होता है और नहीं होते हुए भी होता है. वह टीम का 12वां खिलाड़ी होता है, जो पैडगार्ड बांधे बल्ले पर ठुड्डी टिकाए किसी के घायल होने की प्रतीक्षा में लघुशंका तक नहीं जाता और मैच समाप्त होने पर गु्रपफोटो के लिए बुला लिया जाता है.

उपाध्यक्ष कार्यकारिणी का ‘खामखां’ होता है. किसी भी कार्यक्रम के अवसर पर वह ठीक समय पर पहुंच जाता है तथा अध्यक्ष महोदय के स्वास्थ्य की पूछताछ इस तरह करता है जैसे वह उन का बहुत हितैषी हो. वह संस्था के लौन में बाहर टहलता रहता है और अध्यक्ष के आने और खासतौर पर न आने की आहट लेता रहता है.

अगर इस बात की पुष्टि हो जाती है कि अध्यक्ष महोदय नहीं आ रहे हैं, तो वह इस बात की जानकारी अपने तक ही बनाए रखता है और बहुत विनम्रता व गंभीरता से बिलकुल पीछे की ओर बैठ जाता है, जैसे उसे कुछ पता ही न हो. जब सचिव आदि अध्यक्ष महोदय के न आने की सूचना देते हैं, जिस का कारण अपरिहार्य होता है और सामान्यत: बहुवचन में होता है, तो वह ऐसा जाहिर करता है जैसे उस के लिए यह सूचना सभी सर्वेक्षणों के विपरीत चुनाव परिणाम आने की सूचना हो.

वह माथे पर चिंता की लकीरें उभारता है और अध्यक्ष महोदय के न आने के पीछे वाले कारणों के प्रति जिज्ञासा उछालता है. फिर कोई गंभीर बात न होने की घोषणा पर संतोष कर के गहरी सांस लेता है. अब वह अध्यक्ष है और संस्था का भार उस के कंधों पर है.

आमतौर पर उपाध्यक्ष, अध्यक्ष से संख्या में कई गुना अधिक होते हैं. कई संस्थाओं में अध्यक्ष तो एक ही होता है पर उपाध्यक्ष एक दर्जन तक होते हैं क्योंकि काम करने वालों की तुलना में काम न करने वालों की संख्या हमेशा ही अधिक रहती है.

उपाध्यक्षों के 2 ही भविष्य होते हैं, एक तो वे अध्यक्ष के मर जाने, पागल हो जाने या निकाल दिए जाने की स्थिति में अध्यक्ष बना दिए जाते हैं या फिर झींक कर अंतत: दूसरी संस्था में चले जाते हैं जहां पहली संस्था में व्याप्त अनेक अनियमितताओं के बारे में रामायण के अखंड पाठ की तरह लगातार बताते रहते हैं.

उपाध्यक्षों का सपना संस्था का अध्यक्ष बनने का होता है और संस्था इस प्रयास में रहती है कि इस व्यक्ति को ऐसे कौन से तरीके से निकाल दिया जाए कि यह संस्था की ज्यादा फजीहत न कर सके.

ये भी पढ़ें- नई सुबह

मंच पर उपाध्यक्षों के लिए कोई कुरसी नहीं होती है. वहां अध्यक्ष बैठता है, सचिव बैठता है, विशिष्ट अतिथि बैठता है पर उपाध्यक्ष नहीं बैठता है, केवल उस की दृष्टि वहां स्थिर हो कर बैठी रहती है. कभीकभी जब फूलमालाएं अधिक आ जाएं तब मुख्य अतिथि से उस का परिचय कराने के लिए मंच से घोषणा की जाती है कि अब हमारी संस्था के वरिष्ठ उपाध्यक्ष मुख्य अतिथि को माला पहनाएंगे. बेचारा मरे कदमों से मंच पर चढ़ता है और माला डाल कर उतर आता है. फोटोग्राफर उस का फोटो नहीं खींचता इसलिए वह मुंह पर मुसकान चिपकाने की भी जरूरत नहीं समझता.

उपाध्यक्ष किसी संस्था का वैसा ही हिस्सा होता है जैसे कि शरीर में फांस चुभ जाए, आंख में तिनका पड़ जाए या दांतों के बीच कोई रेशा फंस जाए. सूखने डाले गए कपड़े पर की गई चिडि़या की बीट की भांति उस के सूख कर झड़ जाने की प्रतीक्षा मेें पूरी संस्था सदैव तत्पर रहती है क्योंकि गीले में छुटाने पर वह दाग दे सकता है.

उपाध्यक्ष के दस्तखत न चेक पर होते हैं न वार्षिक रिपोर्ट पर. न उसे संस्था के संस्थापक सदस्य पूछते हैं न चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी. न उसे अंत में धन्यवाद ज्ञापन को कहा जाता है और न ही प्रारंभ में विषय प्रवर्तन को. न उस का नाम निमंत्रणपत्रों में होता है और न प्रेस रिपोर्टों में. गलती से यदि कभी अखबार की रिपोर्टों में नाम चला भी जाता है तो समझदार अखबार वाले समाचार बनाते समय उसे काट देते हैं. अगले दिन सुबह वह अखबार देखता है और उसे पलट कर मन ही मन सोचता है कि लोकतंत्र के 3 ही स्तंभ होते हैं. काश, चौथा भी होता तो मैं भी उस पर बैठ कर प्रकाशित हो लेता.

वैसे मैं आत्महत्या का पक्षधर नहीं हूं और इस साहस को हमेशा कायरतापूर्ण कृत्य बता कर तथाकथित बहादुर बना घूमता हूं पर फिर भी मेरा यह विश्वास है कि किसी संस्था का उपाध्यक्ष बनने की तुलना में आत्महत्या कर लेना लाखगुना अच्छा है.

ये भी पढ़ें- अंत्येष्टि

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जब कोई व्यक्ति किसी संस्था के लिए ‘उगलत निगलत पीर घनेरी’ वाली दशा को प्राप्त हो जाता है तो उसे उस संस्था का उपाध्यक्ष बना दिया जाता है.

उपाध्यक्ष पदाधिकारियों में ईश्वर की तरह होता है, जो होते हुए भी नहीं होता है और नहीं होते हुए भी होता है. वह टीम का 12वां खिलाड़ी होता है, जो पैडगार्ड बांधे बल्ले पर ठुड्डी टिकाए किसी के घायल होने की प्रतीक्षा में लघुशंका तक नहीं जाता और मैच समाप्त होने पर गु्रपफोटो के लिए बुला लिया जाता है.

उपाध्यक्ष कार्यकारिणी का ‘खामखां’ होता है. किसी भी कार्यक्रम के अवसर पर वह ठीक समय पर पहुंच जाता है तथा अध्यक्ष महोदय के स्वास्थ्य की पूछताछ इस तरह करता है जैसे वह उन का बहुत हितैषी हो. वह संस्था के लौन में बाहर टहलता रहता है और अध्यक्ष के आने और खासतौर पर न आने की आहट लेता रहता है.

अगर इस बात की पुष्टि हो जाती है कि अध्यक्ष महोदय नहीं आ रहे हैं, तो वह इस बात की जानकारी अपने तक ही बनाए रखता है और बहुत विनम्रता व गंभीरता से बिलकुल पीछे की ओर बैठ जाता है, जैसे उसे कुछ पता ही न हो. जब सचिव आदि अध्यक्ष महोदय के न आने की सूचना देते हैं, जिस का कारण अपरिहार्य होता है और सामान्यत: बहुवचन में होता है, तो वह ऐसा जाहिर करता है जैसे उस के लिए यह सूचना सभी सर्वेक्षणों के विपरीत चुनाव परिणाम आने की सूचना हो.

वह माथे पर चिंता की लकीरें उभारता है और अध्यक्ष महोदय के न आने के पीछे वाले कारणों के प्रति जिज्ञासा उछालता है. फिर कोई गंभीर बात न होने की घोषणा पर संतोष कर के गहरी सांस लेता है. अब वह अध्यक्ष है और संस्था का भार उस के कंधों पर है.

आमतौर पर उपाध्यक्ष, अध्यक्ष से संख्या में कई गुना अधिक होते हैं. कई संस्थाओं में अध्यक्ष तो एक ही होता है पर उपाध्यक्ष एक दर्जन तक होते हैं क्योंकि काम करने वालों की तुलना में काम न करने वालों की संख्या हमेशा ही अधिक रहती है.

उपाध्यक्षों के 2 ही भविष्य होते हैं, एक तो वे अध्यक्ष के मर जाने, पागल हो जाने या निकाल दिए जाने की स्थिति में अध्यक्ष बना दिए जाते हैं या फिर झींक कर अंतत: दूसरी संस्था में चले जाते हैं जहां पहली संस्था में व्याप्त अनेक अनियमितताओं के बारे में रामायण के अखंड पाठ की तरह लगातार बताते रहते हैं.

उपाध्यक्षों का सपना संस्था का अध्यक्ष बनने का होता है और संस्था इस प्रयास में रहती है कि इस व्यक्ति को ऐसे कौन से तरीके से निकाल दिया जाए कि यह संस्था की ज्यादा फजीहत न कर सके.

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मंच पर उपाध्यक्षों के लिए कोई कुरसी नहीं होती है. वहां अध्यक्ष बैठता है, सचिव बैठता है, विशिष्ट अतिथि बैठता है पर उपाध्यक्ष नहीं बैठता है, केवल उस की दृष्टि वहां स्थिर हो कर बैठी रहती है. कभीकभी जब फूलमालाएं अधिक आ जाएं तब मुख्य अतिथि से उस का परिचय कराने के लिए मंच से घोषणा की जाती है कि अब हमारी संस्था के वरिष्ठ उपाध्यक्ष मुख्य अतिथि को माला पहनाएंगे. बेचारा मरे कदमों से मंच पर चढ़ता है और माला डाल कर उतर आता है. फोटोग्राफर उस का फोटो नहीं खींचता इसलिए वह मुंह पर मुसकान चिपकाने की भी जरूरत नहीं समझता.

उपाध्यक्ष किसी संस्था का वैसा ही हिस्सा होता है जैसे कि शरीर में फांस चुभ जाए, आंख में तिनका पड़ जाए या दांतों के बीच कोई रेशा फंस जाए. सूखने डाले गए कपड़े पर की गई चिडि़या की बीट की भांति उस के सूख कर झड़ जाने की प्रतीक्षा मेें पूरी संस्था सदैव तत्पर रहती है क्योंकि गीले में छुटाने पर वह दाग दे सकता है.

उपाध्यक्ष के दस्तखत न चेक पर होते हैं न वार्षिक रिपोर्ट पर. न उसे संस्था के संस्थापक सदस्य पूछते हैं न चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी. न उसे अंत में धन्यवाद ज्ञापन को कहा जाता है और न ही प्रारंभ में विषय प्रवर्तन को. न उस का नाम निमंत्रणपत्रों में होता है और न प्रेस रिपोर्टों में. गलती से यदि कभी अखबार की रिपोर्टों में नाम चला भी जाता है तो समझदार अखबार वाले समाचार बनाते समय उसे काट देते हैं. अगले दिन सुबह वह अखबार देखता है और उसे पलट कर मन ही मन सोचता है कि लोकतंत्र के 3 ही स्तंभ होते हैं. काश, चौथा भी होता तो मैं भी उस पर बैठ कर प्रकाशित हो लेता.

वैसे मैं आत्महत्या का पक्षधर नहीं हूं और इस साहस को हमेशा कायरतापूर्ण कृत्य बता कर तथाकथित बहादुर बना घूमता हूं पर फिर भी मेरा यह विश्वास है कि किसी संस्था का उपाध्यक्ष बनने की तुलना में आत्महत्या कर लेना लाखगुना अच्छा है.

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May 31, 2019 at 10:23AM

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