Tuesday 30 April 2019

परिंदा

‘‘सुनिए, टे्रन का इंजन फेल हो गया है. आगे लोकल ट्रेन से जाना होगा.’’

आवाज की दिशा में पलकें उठीं तो उस का सांवला चेहरा देख कर पिछले ढाई घंटे से जमा गुस्सा आश्चर्य में सिमट गया. उस की सीट बिलकुल मेरे पास वाली थी मगर पिछले 6 घंटे की यात्रा के दौरान उस ने मुझ से कोई बात करने की कोशिश नहीं की थी.

हमारी टे्रन का इंजन एक सुनसान जगह में खराब हुआ था. बाहर झांक कर देखा तो हड़बड़ाई भीड़ अंधेरे में पटरी के साथसाथ घुलती नजर आई.

अपनी पूरी शक्ति लगा कर भी मैं अपना सूटकेस बस, हिला भर ही पाई. बाहर कुली न देख कर मेरी सारी बहादुरी आंसू बन कर छलकने को तैयार थी कि उस ने अपना बैग मुझे थमाया और बिना कुछ कहे ही मेरा सूटकेस उठा लिया. मेरी समझ में नहीं आया कि क्या कुछ क हूं.

‘‘रहने दो,’’ मैं थोड़ी सख्ती से बोली.

‘‘डरिए मत, काफी भारी है. ले कर भाग नहीं पाऊंगा,’’ उस ने मुसकरा कर कहा और आगे बढ़ गया.

पत्थरों पर पांव रखते ही मुझे वास्तविकता का एहसास हुआ. रात के 11 बजे से ज्यादा का समय हो रहा था. घनघोर अंधेरे आकाश में बिजलियां आंखें मटका रही थीं और बारिश धीरेधीरे जोश में आ रही थी.

हमारे भीगने से पहले एक दूसरी टे्रन आ गई लेकिन मेरी रहीसही हिम्मत भी हवा हो गई. टे्रन में काफी भीड़ थी. उस की मदद से मुझे किसी तरह जगह मिल गई मगर उस बेचारे को पायदान ही नसीब हुआ. यह बात तो तय थी कि वह न होता तो उस सुनसान जगह में मैं…

आखिरी 3-4 स्टेशन तक जब टे्रन कुछ खाली हो गई तब मैं उस का नाम जान पाई. अभिन्न कोलकाता से पहली बार गुजर रहा था जबकि यह मेरा अपना शहर था. इसलिए कालिज की छुट्टियों में अकेली ही आतीजाती थी.

हावड़ा पहुंच कर अभिन्न को पता चला कि उस की फ्लाइट छूट चुकी है और अगला जहाज कम से कम कल दोपहर से पहले नहीं था.

‘‘क्या आप किसी होटल का पता बता देंगी?’’ अभिन्न अपने भीगे कपड़ों को रूमाल से पोंछता हुआ बोला.

हम साथसाथ ही टैक्सी स्टैंड की ओर जा रहे थे. कुली ने मेरा सामान उठा रखा था.

लगभग आधे घंटे की बातचीत के बाद हम कम से कम अजनबी नहीं रह गए थे. वह भी कालिज का छात्र था और किसी सेमिनार में भाग लेने के लिए दूसरे शहर जा रहा था. टैक्सी तक पहुंचने से पहले मैं ने उसे 3-4 होटल गिना दिए.

‘‘बाय,’’ मेरे टैक्सी में बैठने के बाद उस ने हाथ हिला कर कहा. उस ने कभी ज्यादा बात करने की कोशिश नहीं की थी. बस, औपचारिकताएं ही पूरी हुई थीं मगर विदा लेते वक्त उस के शब्दों में एक दोस्ताना आभास था.

‘‘एक बात पूछूं?’’ मैं ने खिड़की से गरदन निकाल कर कुछ सोचते हुए कहा.

एक जोरदार बिजली कड़की और उस की असहज आंखें रोशन हो गईं. शायद थकावट के कारण मुझे उस का चेहरा बुझाबुझा लग रहा था.

उस ने सहमति में सिर हिलाया. वैसे तो चेहरा बहुत आकर्षक नहीं था लेकिन आत्मविश्वास और शालीनता के ऊपर बारिश की नन्ही बूंदें चमक रही थीं.

‘‘यह शहर आप के लिए अजनबी है और हो सकता है आप को होटल में जगह न भी मिले,’’ कह कर मैं थोड़ी रुकी, ‘‘आप चाहें तो हमारे साथ हमारे घर चल सकते हैं?’’

उस के चेहरे पर कई प्रकार की भावनाएं उभर आईं. उस ने प्रश्न भरी निगाहों से मुझे देखा.

‘‘डरिए मत, आप को ले कर भाग नहीं जाऊंगी,’’ मैं खिलखिला पड़ी तो वह झेंप गया. एक छोटी सी हंसी में बड़ीबड़ी शंकाएं खो जाती हैं.

वह कुछ सोचने लगा. मैं जानती थी कि वह क्या सोच रहा होगा. एक अनजान लड़की के साथ इस तरह उस के घर जाना, बहुत अजीब स्थिति थी.

‘‘आप को बेवजह तकलीफ होगी,’’ आखिरकार अभिन्न ने बहाना ढूंढ़ ही निकाला.

‘‘हां, होगी,’’ मैं गंभीर हो कर बोली, ‘‘वह भी बहुत ज्यादा यदि आप नहीं चलेंगे,’’ कहते हुए मैं ने अपने साथ वाला गेट खोल दिया.

वह चुपचाप आ कर टैक्सी में बैठ गया. इंसानियत के नाते मेरा क्या फर्ज था पता नहीं, लेकिन मैं गलत कर रही हूं या सही यह सोचने की नौबत ही नहीं आई.

मैं रास्ते भर सोचती रही कि चलो, अंत भला तो सब भला. मगर उस दिन तकदीर गलत पटरी पर दौड़ रही थी. घर पहुंच कर पता चला कि पापा बिजनेस ट्रिप से एक दिन बाद लौटेंगे और मम्मी 2 दिन के लिए रिश्तेदारी में दूसरे शहर चली गई हैं. हालांकि चाबी हमारे पास थी लेकिन मैं एक भयंकर विडंबना में फंस गई.

‘‘मुझे होटल में जगह मिल जाएगी,’’ अभिन्न टैक्सी की ओर पलटता हुआ बोला. उस ने शायद मेरी दुविधा समझ ली थी.

‘‘आप हमारे घर से यों ही नहीं लौट सकते हैं. वैसे भी आप काफी भीग चुके हैं. कहीं तबीयत बिगड़ गई तो आप सेमिनार में नहीं जा पाएंगे और मैं इतनी डरपोक भी नहीं हूं,’’ भले ही मेरे दिल में कई आशंकाएं उठ रही थीं पर ऊपर से बहादुर दिखना जरूरी था.

कुछ देर में हम घर के अंदर थे. हम दोनों बुरी तरह से सहमे हुए थे. यह बात अलग थी कि दोनों के अपनेअपने कारण थे.

मैं ने उसे गेस्टरूम का नक्शा समझा दिया. वह अपने कपड़ों के साथ चुपचाप बाथरूम की ओर बढ़ गया तो मैं कुछ सोचती हुई बाहर आई और गेस्टरूम की कुंडी बाहर से लगा दी. सुरक्षा की दृष्टि से यह जरूरी था. दुनियादारी के पहले पाठ का शीर्षक है, शक. खींचतेधकेलते मैं सूटकेस अपने कमरे तक ले गई और स्वयं को व्यवस्थित करने लगी.

‘‘लगता है दरवाजा फंसता है?’’ अभिन्न गेस्टरूम के दरवाजे को गौर से देखता हुआ बोला. उस ने कम से कम 5 मिनट तक दरवाजा तो अवश्य ठकठकाया होगा जिस के बारे में मैं भूल गई थी.

‘‘हां,’’ मैं ने तपाक से झूठ बोल दिया ताकि उसे शक न हो, पर खुद पर ही यकीन न कर पाई. फिर मेरी मुश्किलें बढ़ती जा रही थीं.

किचन से मुझे जबरदस्त चिढ़ थी और पढ़ाई के बहाने मम्मी ने कभी जोर नहीं दिया था. 1-2 बार नसीहतें मिलीं भी तो एक कान से सुनी दूसरे से निकल गईं. फ्रिज खोला तो आंसू जमते हुए महसूस होने लगे. 1-2 हरी सब्जी को छोड़ कर उस में कुछ भी नहीं था. अगर घर में कोई और होता तो आसमान सिर पर उठा लेती मगर यहां खुद आसमान ही टूट पड़ा था.

एक बार तो इच्छा हुई कि उसे चुपचाप रफादफा करूं और खुद भूख हड़ताल पर डट जाऊं. लेकिन बात यहां आत्मसम्मान पर आ कर अटक गई थी. दिमाग का सारा सरगम ही बेसुरा हो गया था. पहली बार अफ सोस हुआ कि कुछ पकाना सीख लिया होता.

‘‘मैं कुछ मदद करूं?’’

आवाज की ओर पलट कर देखा तो मन में आया कि उस की हिम्मत के लिए उसे शौर्यचक्र तो मिलना ही चाहिए. वह ड्राइंगरूम छोड़ कर किचन में आ धमका था.

‘दफा हो जाओ यहां से,’ मेरे मन में शब्द कुलबुलाए जरूर थे मगर प्रत्यक्ष में मैं कुछ और ही कह गई, ‘‘नहीं, आप बैठिए, मैं कुछ पकाने की कोशिश करती हूं,’’ वैसे भी ज्यादा सच बोलने की आदत मुझे थी नहीं.

‘‘देखिए, आप इतनी रात में कुछ करने की कोशिश करें इस से बेहतर है कि मैं ही कुछ करूं,’’ वह धड़धड़ा कर अंदर आ गया और किचन का जायजा लेने लगा. उस के होंठों पर बस, हलकी सी मुसकान थी.

मैं ठीक तरह से झूठ नहीं बोल पा रही थी इसलिए आंखें ही इशारों में बात करने लगीं. मैं चाह कर भी उसे मना नहीं कर पाई. कारण कई हो सकते थे मगर मुझे जोरदार भूख लगी थी और भूखे इनसान के लिए तो सबकुछ माफ है. मैं चुपचाप उस की मदद करने लगी.

10 मिनट तक तो उस की एक भी गतिविधि समझ में नहीं आई. मुझे पता होता कि खाना पकाना इतनी चुनौती का काम है तो एक बार तो जरूर पराक्रम दिखाती. उस ने कढ़ाई चढ़ा कर गैस जला दी. 1-2 बार उस से नजर मिली तो इच्छा हुई कि खुद पर गरम तेल डाल लूं, मगर हिम्मत नहीं कर पाई. मुझे जितना समझ में आ रहा था उतना काम करने लगी.

‘‘यह आप क्या कर रही हैं?’’

मैं पूरी तल्लीनता से आटा गूंधने में लगी थी कि उस ने मुझे टोक  दिया. एक तो ऐसे काम मुझे बिलकुल पसंद नहीं थे और ऊपर से एक अजनबी की रोकटोक, मैं तिलमिला उठी.

‘‘दिखता नहीं, आटा गूंध रही हूं,’’ मैं ने मालिकाना अंदाज में कहा, पर लग रहा था कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है. मैं ने एक बार उस की ओर नजर उठाई तो उस की दबीदबी हंसी भी दुबक गई.

‘‘आप रहने दें, मैं कर लूंगा,’’ उस ने विनती भरे स्वर में कहा.

आटा ज्यादा गीला तो नहीं था मगर थोड़ा पानी और मिलाती तो मिल्क शेक अवश्य बन जाता.

हाथ धोने बेसिन पर पहुंची तो आईना देख कर हृदय हाहाकार कर उठा. कान, नाक, होंठ, बाल, गाल यानी कोई ऐसी जगह नहीं बची थी जहां आटा न लगा हो. एक बार तो मेरे होंठों पर भी हंसी फिसल गई.

मैं जानबूझ कर किचन में देर से लौटी.

‘‘आइए, खाना बस, तैयार ही है,’’ उस ने मेरा स्वागत यों किया जैसे वह खुद के घर में हो और मैं मेहमान.

इतनी शर्मिंदगी मुझे जीवन में कभी नहीं हुई थी. मैं उस पल को कोसने लगी जिस पल उसे घर लाने का वाहियात विचार मेरे मन में आया था. लेकिन अब तीर कमान से निकल चुका था. किसी तरह से 5-6 घंटे की सजा काटनी थी.

मैं फ्रिज से टमाटर और प्याज निकाल कर सलाद काटने लगी. फिलहाल यही सब से आसान काम था मगर उस पर नजर रखना नहीं भूली थी. वह पूरी तरह तन्मय हो कर रोटियां बेल रहा था.

‘‘क्या कर रही हैं आप?’’

‘‘आप को दिखता कम है क्या…’’ मेरे गुस्से का बुलबुला फटने ही वाला था कि…

‘‘मेरा मतलब,’’ उस ने मेरी बात काट दी, ‘‘मैं कर रहा हूं न,’’ उसे भी महसूस हुआ होगा कि उस की कुछ सीमाएं हैं.

‘‘क्यों, सिर्फ काटना ही तो है,’’ मैं उलटे हाथों से आंखें पोंछती हुई बोली. अब टमाटर लंबा रहे या गोल, रहता तो टमाटर ही न. वही कहानी प्याज की भी थी.

‘‘यह तो ठीक है इशिताजी,’’ उस ने अपने शब्दों को सहेजने की कोशिश की, ‘‘मगर…इतने खूबसूरत चेहरे पर आंसू अच्छे नहीं लगते हैं न.’’

मैं सकपका कर रह गई. सुंदर तो मैं पिछले कई घंटों से थी पर इस तरह बेवक्त उस की आंखों का दीपक जलना रहस्यमय ही नहीं खतरनाक भी था. मुझे क्रोध आया, शर्म आई या फिर पता नहीं क्या आया लेकिन मेरा दूधिया चेहरा रक्तिम अवश्य हो गया. फिर मैं इतनी बेशर्म तो थी नहीं कि पलकें उठा कर उसे देखती.

उजाले में आंखें खुलीं तो सूरज का कहीं अतापता नहीं था. शायद सिर पर चढ़ आया हो. मैं भागतीभागती गेस्टरूम तक गई. अभिन्न लेटेलेटे ही अखबार पलट रहा था.

‘‘गुडमार्निंग…’’ मैं ने अपनी आवाज से उस का ध्यान खींचा.

‘‘गुडमार्निंग,’’ उस ने तत्परता से जवाब दिया, ‘‘पेपर उधर पड़ा था,’’ उस ने सफाई देने की कोशिश की.

‘‘कोई बात नहीं,’’ मैं ने टाल दिया. जो व्यक्ति रसोई में धावा बोल चुका था उस ने पेपर उठा कर कोई अपराध तो किया नहीं था.

‘‘मुझे कल सुबह की फ्लाइट में जगह मिल गई है,’’ उसे यह कहने में क्या प्रसन्नता हुई यह तो मुझे पता नहीं लेकिन मैं आशंकित हो उठी, ‘‘सौरी, वह बिना पूछे ही आप का फोन इस्तेमाल कर लिया,’’ उस ने व्यावहारिकतावश क्षमा मांग ली, ‘‘अब मैं चलता हूं.’’

‘‘कहां?’’

अभिन्न ने मुझे यों देखा जैसे पहली बार देख रहा हो. प्रश्न तो बहुत सरल था मगर मैं जिस सहजता से पूछ बैठी थी वह असहज थी. मुझे यह भी आभास नहीं हुआ कि यह ‘कहां’ मेरे मन में कहां से आ गया. मेरी रहीसही नींद भी गायब हो गई.

कितने पलों तक कौन शांत रहा पता नहीं. मैं तो बिलकुल किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई थी.

‘‘10 बज गए हैं,’’ ऐसा नहीं था कि घड़ी देखनी मुझे नहीं आती हो मगर कुछ कहना था इसलिए उस ने कह दिया होगा.

‘‘ह…हां…’’ मेरी शहीद हिम्मत को जैसे संजीवनी मिल गई, ‘‘आप चाहें तो इधर रुक सकते हैं, बस, एक दिन की बात तो है.’’

मैं ने जोड़तोड़ कर के अपनी बात पूरी तो कर दी मगर अभिन्न दुविधा में फंस गया.

उस की क्या इच्छा थी यह तो मुझे पता न था लेकिन उस की दुविधा मेरी विजय थी. मेरी कल्पना में उस की स्थिति उस पतंग जैसी थी जो अनंत आकाश में कुलांचें तो भर सकती थी मगर डोर मेरे हाथ में थी. पिछले 15 घंटों में यह पहला सुखद अनुभव था. मेरा मन चहचहा उठा.

‘‘फिर से खाना बनवाने का इरादा तो नहीं है?’’

उस के इस प्रश्न से तो मेरे अरमानों की दुनिया ही चरमरा गई. पता नहीं उस की काया किस मिट्टी की बनी थी, मुझे तो जैसे प्रसन्न देख ही नहीं सकता था.

‘‘अब तो आप को यहां रुकना ही पड़ेगा,’’ मैं ने अपना फैसला सुना दिया. वास्तव में मैं किसी ऐसे अवसर की तलाश में थी कि कुछ उस की भी खबर ली जा सके.

‘‘एक शर्त पर, यदि खाना आप पकाएं.’’

उस ने मुसकरा कर कहा था, सारा घर खिलखिला उठा. मैं भी.

‘‘चलिए, आज आप को अपना शहर दिखा लाऊं.’’

मेरे दिमाग से धुआं छटने लगा था इसलिए कुछ षड्यंत्र टिमटिमाने लगे थे. असल में मैं खानेपीने का तामझाम बाहर ही निबटाना चाहती थी. रसोई में जाना मेरे लिए सरहद पर जाने जैसा था. मैं ने जिस अंदाज में अपना निर्णय सुनाया था उस के बाद अभिन्न की प्रतिक्रियाएं काफी कम हो गई थीं. उस ने सहमति में सिर हिला दिया.

‘‘मैं कुछ देर में आती हूं,’’ कह कर मैं फिर से अंदर चली गई थी.

आखिरी बार खुद को आईने में निहार कर कलाई से घड़ी लपेटी तो दिल फूल कर फुटबाल बन गया. नानी, दादी की मैं परी जैसी लाडली बेटी थी. कालिज में लड़कों की आशिक निगाहों ने एहसास दिला दिया था कि बहुत बुरी नहीं दिखती हूं. मगर वास्तव में खूबसूरत हूं इस का एहसास मुझे कभीकभार ही हुआ था. गहरे बैगनी रंग के सूट में खिलती गोरी बांहें, मैच नहीं करती मम्मी की गहरी गुलाबी लिपस्टिक और नजर नहीं आती काजल की रेखाएं. बचीखुची कमी बेमौसम उमड़ आई लज्जा ने पूरी कर दी थी. एक बार तो खुद पर ही सीटी बजाने को दिल मचल गया.

घड़ी की दोनों सुइयां सीधेसीधे आलिंगन कर रही थीं.

‘‘चलें?’’ मैं ने बड़ी नजाकत से गेस्टरूम के  दरवाजे पर दस्तक दी.

‘‘बस, एक मिनट,’’ उस ने अपनी नजर एक बार दरवाजे से घुमा कर वापस कैमरे पर टिका दी.

मैं तब तक अंदर पहुंच चुकी थी. थोड़ी ऊंची सैंडल के कारण मुझे धीरेधीरे चलना पड़ रहा था.

उस ने मेरी ओर नजरें उठाईं और जैसे उस की पलकें जम गईं. कुछ पलों तक मुझे महसूस हुआ सारी सृष्टि ही मुझे निहारने को थम गई है.

‘‘चलें?’’ मैं ने हौले से उस की तंद्रा भंग की तो लगा जैसे वह नींद से जागा.

‘‘बिलकुल नहीं,’’ उस ने इतने सीधे शब्दों में कहा कि मैं उलझ कर रह गई.

‘‘क्यों? क्या हुआ?’’ मेरी सारी अदा आलोपित हो गई.

‘‘क्या हुआ? अरे मैडम, लंगूर के साथ हूर देख कर तो शहर वाले हमारा काम ही तमाम कर देंगे न,’’ उस ने भोलेपन से जवाब दिया.

ऐसा न था कि मेरी प्रशंसा करने वाला वह पहला युवक था लेकिन ऐसी विचित्र बात किसी ने नहीं कही थी. उस की बात सुन कर और लड़कियों पर क्या गुजरती पता नहीं लेकिन शरम के मारे मेरी धड़कनें हिचकोले खाने लगीं.

टैक्सी में उस ने कितनी बार मुझे देखा पता नहीं लेकिन 3-4 बार नजरें मिलीं तो वह खिड़की के बाहर परेशान शहर को देखने लगता. यों तो शांत लोग मुझे पसंद थे मगर मौन रहना खलने लगा तो बिना शीर्षक और उपसंहार के बातें शुरू कर दीं.

अगर दिल में ज्यादा कपट न हो तो हृदय के मिलन में देर नहीं लगती है. फिर हम तो हमउम्र थे और दिल में कुछ भी नहीं था. जो मन में आता झट से बोल देती.

‘‘क्या फिगर है?’’

उस की ऊटपटांग बातें मुझे अच्छी लगने लगी थीं. मैं ने शरमाते हुए कनखियों से उस की भावभंगिमाएं देखने की कोशिश की तो मेरे मन में क्रोध की सुनामी उठने लगी. वह मेरी नहीं संगमरमर की प्रतिमा की बात कर रहा था. जब तक उस की समझ में आता कि उस ने क्या गुस्ताखी की तब तक मैं उसे खींचती हुई विक्टोरिया मेमोरियल से बाहर ले आई.

‘‘मैं आप की एक तसवीर उतार लूं?’’ अभिन्न ने अपना कैमरा निकालते हुए पूछा.

‘‘नहीं,’’ जब तक मैं उस का प्रश्न समझ कर एक अच्छा सा उत्तर तैयार करती एक शब्द फुदक कर बाहर आ गया. मेरे मन में थोड़ा नखरा करने का आइडिया आया था.

‘‘कोई बात नहीं,’’ उस ने यों कंधे उचकाए जैसे इसी उत्तर के लिए तैयार बैठा हो.

मैं गुमशुम सी तांबे की मूर्ति के साथ खड़ी हो गई जहां ज्यादातर लोग फोटो खिंचवाते थे. वह खुशीखुशी कैमरे में झांकने लगा.

‘‘जरा उधर…हां, ठीक है. अब जरा मुसकराइए.’’

उस की हरकतें देख मेरे चेहरे पर वे तमाम भावनाएं आ सकती थीं सिवा हंसने के. मैं ने उसे चिढ़ाने के लिए विचित्र मुद्रा में बत्तीसी खिसोड़ दी. उस ने झट बटन दबा दिया. मेरा नखरे का सारा नशा उतर गया.

रास्ते में पड़े पत्थरों को देख कर खयाल आया कि चुपके से एक पत्थर उठा कर उस का सिर तोड़ दूं. कमाल का लड़का था, जब साथ में इतनी सुंदर लड़की हो तो थोड़ाबहुत भाव देने में उस का क्या चला जाता. मेरा मन खूंखार होने लगा.

‘‘चलिए, थोड़ा रक्तदान कर दिया जाए?’’ रक्तदान का चलताफिरता शिविर देख कर मुझे जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई. मैं बस, थोड़ा सा कष्ट उसे भी देना चाहती थी.

‘‘नहीं, अभी नहीं. अभी मुझे बाहर जाना है.’’

‘‘चलिए, आप न सही मगर मैं रक्तदान करना चाहती हूं,’’ मुझे उसे नीचा दिखाने का अवसर मिल गया.

‘‘आप हो आइए, मैं इधर ही इंतजार करता हूं,’’ उस ने नजरें चुराते हुए कहा.

मैं इतनी आसानी से मानने वाली नहीं थी. उसे लगभग जबरदस्ती ले कर गाड़ी तक पहुंची. नामपता लिख कर जब नर्स ने सूई निकाली तो मेरी सारी बहादुरी ऐसे गायब हो गई जैसे मैं कभी बहादुर थी ही नहीं. पलभर के लिए इच्छा हुई कि चुपचाप खिसक लूं मगर मैं उसे दर्द का एहसास कराना चाहती थी.

किसी तरह खुद को बहलाफुसला कर लेट गई. खुद का खून देखने का शौक कभी रहा नहीं इसलिए नर्स की विपरीत दिशा में देखने लगी. गाड़ी में ज्यादा जगह न होने की वजह से वह बिलकुल पास ही खड़ा था. चेहरे पर ऐसी लकीरें थीं जैसे कोई उस के दिल में सूई चुभो रहा हो.

दर्द और घबराहट का बवंडर थमा तो वह मेरी हथेली थामे मुझे दिलासा दे रहा था. मेरी आंखों में थोड़े आंसू जरूर जमा हो गए होंगे. मन भी काफी भारी लगने लगा था.

बाहर आने से पहले मैं ने 2 गिलास जूस गटक लिया था और बहुत मना करने के बाद भी डाक्टरों ने उस का ब्लड सैंपल ले लिया.

इंडियन म्यूजियम से निकल कर हम ‘मैदान’ में आ गए. गहराते अंधकार के साथ हमेशा की तरह लोगों की संख्या घटने लगी थी और जोड़े बढ़ने लगे थे. यहां अकसर प्रेमी युगल खुले आकाश के नीचे बैठ सितारों के बीच अपना आशियाना बनाते थे. इच्छा तो बिलकुल नहीं थी लेकिन मैं ने सोच रखा था कि खानेपीने का कार्यक्रम निबटा कर ही वापस लौटूंगी. हम दोनों भी अंधेरे का हिस्सा बन गए.

मैं कुछ ज्यादा ही थकावट महसूस कर रही थी. इसलिए अनजाने ही कब उस की गोद में सिर रख कर लेट गई पता ही नहीं चला. मेरी निगाहें आसमान में तारों के बीच भटकने लगीं.

वे अगणित सितारे हम से कितनी दूर होते हैं. हम उन्हें रोज देखा करते हैं. वे भी मौन रह कर हमें बस, देख लिया करते हैं. हम कभी उन से बातें करने की कोशिश नहीं करते हैं. हम कभी उन के बारे में सोचते ही नहीं हैं क्योंकि हमें लगता ही नहीं है कि वे हम से बात कर सकते हैं, हमें सुन सकते हैं, हमारे साथ हंस सकते हैं, सिसक सकते हैं. हम कभी उन्हें याद रखने की कोशिश नहीं करते हैं क्योंकि हम जानते हैंकि कल भी वे यहीं थे और कल भी वे यही रहेंगे.

मुझे अपने माथे पर एक शीतल स्पर्श का एहसास हुआ. शायद शीतल हवा मेरे ललाट को सहला कर गुजर गई.

सुबह दरवाजे पर ताबड़तोड़ थापों से मेरी नींद खुली. मम्मी की चीखें साफ सुनाई दे रही थीं. मैं भाग कर गेस्टरूम में पहुंची तो कोई नजर नहीं आया. मैं दरवाजे की ओर बढ़ गई.

4 दिन बाद 2 चिट्ठियां लगभग एकसाथ मिलीं. मैं ने एक को खोला. एक तसवीर में मैं तांबे की मूर्ति के बगल में विचित्र मुद्रा में खड़ी थी. साथ में एक कागज भी था. लिखा था :

‘‘इशिताजी,

मैं बड़ीबड़ी बातें करना नहीं जानता, लेकिन कुछ बातें जरूर कहना चाहूंगा जो मेरे लिए शायद सबकुछ हैं. आप कितनी सुंदर हैं यह तो कोई भी आंख वाला समझ सकता है लेकिन जो अंधा है वह इस सच को जानता है कि वह कभी आप को नहीं देख पाएगा. जैसे हर लिखे शब्द का कोई अर्थ नहीं होता है वैसे ही हर भावना के लिए शब्द नहीं हैं, इसलिए मैं ज्यादा लिख भी नहीं सकता. मगर एक चीज ऐसी है जो आप से कहीं अधिक खूबसूरत है, वह है आप का दिल.

हम जीवन में कई चीजों को याद रखने की कोशिश नहीं करते हैं क्योंकि वे हमेशा हमारे साथ होती हैं और कुछ चीजों को याद रखने का कोई मतलब नहीं होता क्योंकि वे हमारे साथ बस, एक बार होती हैं.

सच कहूं तो आप के साथ गुजरे 2 दिन में मैं ठीक से मुसकरा भी नहीं सका था. जब इतनी सारी हंसी एकसाथ मिल जाए तो इन्हें खोने का गम सताने लगता है. उन 2 दिनों के सहारे तो मैं दो जनम जी लेता फिर ये जिंदगी तो दो पल की है. जानता हूं दुनिया गोल है, बस रास्ते कुछ ज्यादा ही लंबे निकल आते हैं.

जब हम अपने आंगन में खड़े होते हैं तो कभीकभार एक पंछी मुंडेर पर आ बैठता है. हमें पता नहीं होता है कि वह कहां से आया. हम बस, उसे देखते हैं, थोड़ा गुस्साते हैं, थोड़ा हंसते भी हैं और थोड़ी देर में वह वापस उड़ जाता है. हमें पता नहीं होता है कि वह कहां जाएगा और उसे याद रखने की जरूरत कभी महसूस ही नहीं होती है.

जीवन के कुछ लमहे हमारे नाम करने का शुक्रिया.

-एक परिंदा.’’

दूसरी चिट्ठी में ब्लड रिपोर्ट थी. मुझे अपने बारे में पता था. अभिन्न की जांच रिपोर्ट देख कर पलकें उठाईं तो महसूस हुआ कि कोई परिंदा धुंधले आकाश में उड़ चला है…अगणित सितारों की ओर…दिल में  चुभन छोड़ कर.

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‘‘सुनिए, टे्रन का इंजन फेल हो गया है. आगे लोकल ट्रेन से जाना होगा.’’

आवाज की दिशा में पलकें उठीं तो उस का सांवला चेहरा देख कर पिछले ढाई घंटे से जमा गुस्सा आश्चर्य में सिमट गया. उस की सीट बिलकुल मेरे पास वाली थी मगर पिछले 6 घंटे की यात्रा के दौरान उस ने मुझ से कोई बात करने की कोशिश नहीं की थी.

हमारी टे्रन का इंजन एक सुनसान जगह में खराब हुआ था. बाहर झांक कर देखा तो हड़बड़ाई भीड़ अंधेरे में पटरी के साथसाथ घुलती नजर आई.

अपनी पूरी शक्ति लगा कर भी मैं अपना सूटकेस बस, हिला भर ही पाई. बाहर कुली न देख कर मेरी सारी बहादुरी आंसू बन कर छलकने को तैयार थी कि उस ने अपना बैग मुझे थमाया और बिना कुछ कहे ही मेरा सूटकेस उठा लिया. मेरी समझ में नहीं आया कि क्या कुछ क हूं.

‘‘रहने दो,’’ मैं थोड़ी सख्ती से बोली.

‘‘डरिए मत, काफी भारी है. ले कर भाग नहीं पाऊंगा,’’ उस ने मुसकरा कर कहा और आगे बढ़ गया.

पत्थरों पर पांव रखते ही मुझे वास्तविकता का एहसास हुआ. रात के 11 बजे से ज्यादा का समय हो रहा था. घनघोर अंधेरे आकाश में बिजलियां आंखें मटका रही थीं और बारिश धीरेधीरे जोश में आ रही थी.

हमारे भीगने से पहले एक दूसरी टे्रन आ गई लेकिन मेरी रहीसही हिम्मत भी हवा हो गई. टे्रन में काफी भीड़ थी. उस की मदद से मुझे किसी तरह जगह मिल गई मगर उस बेचारे को पायदान ही नसीब हुआ. यह बात तो तय थी कि वह न होता तो उस सुनसान जगह में मैं…

आखिरी 3-4 स्टेशन तक जब टे्रन कुछ खाली हो गई तब मैं उस का नाम जान पाई. अभिन्न कोलकाता से पहली बार गुजर रहा था जबकि यह मेरा अपना शहर था. इसलिए कालिज की छुट्टियों में अकेली ही आतीजाती थी.

हावड़ा पहुंच कर अभिन्न को पता चला कि उस की फ्लाइट छूट चुकी है और अगला जहाज कम से कम कल दोपहर से पहले नहीं था.

‘‘क्या आप किसी होटल का पता बता देंगी?’’ अभिन्न अपने भीगे कपड़ों को रूमाल से पोंछता हुआ बोला.

हम साथसाथ ही टैक्सी स्टैंड की ओर जा रहे थे. कुली ने मेरा सामान उठा रखा था.

लगभग आधे घंटे की बातचीत के बाद हम कम से कम अजनबी नहीं रह गए थे. वह भी कालिज का छात्र था और किसी सेमिनार में भाग लेने के लिए दूसरे शहर जा रहा था. टैक्सी तक पहुंचने से पहले मैं ने उसे 3-4 होटल गिना दिए.

‘‘बाय,’’ मेरे टैक्सी में बैठने के बाद उस ने हाथ हिला कर कहा. उस ने कभी ज्यादा बात करने की कोशिश नहीं की थी. बस, औपचारिकताएं ही पूरी हुई थीं मगर विदा लेते वक्त उस के शब्दों में एक दोस्ताना आभास था.

‘‘एक बात पूछूं?’’ मैं ने खिड़की से गरदन निकाल कर कुछ सोचते हुए कहा.

एक जोरदार बिजली कड़की और उस की असहज आंखें रोशन हो गईं. शायद थकावट के कारण मुझे उस का चेहरा बुझाबुझा लग रहा था.

उस ने सहमति में सिर हिलाया. वैसे तो चेहरा बहुत आकर्षक नहीं था लेकिन आत्मविश्वास और शालीनता के ऊपर बारिश की नन्ही बूंदें चमक रही थीं.

‘‘यह शहर आप के लिए अजनबी है और हो सकता है आप को होटल में जगह न भी मिले,’’ कह कर मैं थोड़ी रुकी, ‘‘आप चाहें तो हमारे साथ हमारे घर चल सकते हैं?’’

उस के चेहरे पर कई प्रकार की भावनाएं उभर आईं. उस ने प्रश्न भरी निगाहों से मुझे देखा.

‘‘डरिए मत, आप को ले कर भाग नहीं जाऊंगी,’’ मैं खिलखिला पड़ी तो वह झेंप गया. एक छोटी सी हंसी में बड़ीबड़ी शंकाएं खो जाती हैं.

वह कुछ सोचने लगा. मैं जानती थी कि वह क्या सोच रहा होगा. एक अनजान लड़की के साथ इस तरह उस के घर जाना, बहुत अजीब स्थिति थी.

‘‘आप को बेवजह तकलीफ होगी,’’ आखिरकार अभिन्न ने बहाना ढूंढ़ ही निकाला.

‘‘हां, होगी,’’ मैं गंभीर हो कर बोली, ‘‘वह भी बहुत ज्यादा यदि आप नहीं चलेंगे,’’ कहते हुए मैं ने अपने साथ वाला गेट खोल दिया.

वह चुपचाप आ कर टैक्सी में बैठ गया. इंसानियत के नाते मेरा क्या फर्ज था पता नहीं, लेकिन मैं गलत कर रही हूं या सही यह सोचने की नौबत ही नहीं आई.

मैं रास्ते भर सोचती रही कि चलो, अंत भला तो सब भला. मगर उस दिन तकदीर गलत पटरी पर दौड़ रही थी. घर पहुंच कर पता चला कि पापा बिजनेस ट्रिप से एक दिन बाद लौटेंगे और मम्मी 2 दिन के लिए रिश्तेदारी में दूसरे शहर चली गई हैं. हालांकि चाबी हमारे पास थी लेकिन मैं एक भयंकर विडंबना में फंस गई.

‘‘मुझे होटल में जगह मिल जाएगी,’’ अभिन्न टैक्सी की ओर पलटता हुआ बोला. उस ने शायद मेरी दुविधा समझ ली थी.

‘‘आप हमारे घर से यों ही नहीं लौट सकते हैं. वैसे भी आप काफी भीग चुके हैं. कहीं तबीयत बिगड़ गई तो आप सेमिनार में नहीं जा पाएंगे और मैं इतनी डरपोक भी नहीं हूं,’’ भले ही मेरे दिल में कई आशंकाएं उठ रही थीं पर ऊपर से बहादुर दिखना जरूरी था.

कुछ देर में हम घर के अंदर थे. हम दोनों बुरी तरह से सहमे हुए थे. यह बात अलग थी कि दोनों के अपनेअपने कारण थे.

मैं ने उसे गेस्टरूम का नक्शा समझा दिया. वह अपने कपड़ों के साथ चुपचाप बाथरूम की ओर बढ़ गया तो मैं कुछ सोचती हुई बाहर आई और गेस्टरूम की कुंडी बाहर से लगा दी. सुरक्षा की दृष्टि से यह जरूरी था. दुनियादारी के पहले पाठ का शीर्षक है, शक. खींचतेधकेलते मैं सूटकेस अपने कमरे तक ले गई और स्वयं को व्यवस्थित करने लगी.

‘‘लगता है दरवाजा फंसता है?’’ अभिन्न गेस्टरूम के दरवाजे को गौर से देखता हुआ बोला. उस ने कम से कम 5 मिनट तक दरवाजा तो अवश्य ठकठकाया होगा जिस के बारे में मैं भूल गई थी.

‘‘हां,’’ मैं ने तपाक से झूठ बोल दिया ताकि उसे शक न हो, पर खुद पर ही यकीन न कर पाई. फिर मेरी मुश्किलें बढ़ती जा रही थीं.

किचन से मुझे जबरदस्त चिढ़ थी और पढ़ाई के बहाने मम्मी ने कभी जोर नहीं दिया था. 1-2 बार नसीहतें मिलीं भी तो एक कान से सुनी दूसरे से निकल गईं. फ्रिज खोला तो आंसू जमते हुए महसूस होने लगे. 1-2 हरी सब्जी को छोड़ कर उस में कुछ भी नहीं था. अगर घर में कोई और होता तो आसमान सिर पर उठा लेती मगर यहां खुद आसमान ही टूट पड़ा था.

एक बार तो इच्छा हुई कि उसे चुपचाप रफादफा करूं और खुद भूख हड़ताल पर डट जाऊं. लेकिन बात यहां आत्मसम्मान पर आ कर अटक गई थी. दिमाग का सारा सरगम ही बेसुरा हो गया था. पहली बार अफ सोस हुआ कि कुछ पकाना सीख लिया होता.

‘‘मैं कुछ मदद करूं?’’

आवाज की ओर पलट कर देखा तो मन में आया कि उस की हिम्मत के लिए उसे शौर्यचक्र तो मिलना ही चाहिए. वह ड्राइंगरूम छोड़ कर किचन में आ धमका था.

‘दफा हो जाओ यहां से,’ मेरे मन में शब्द कुलबुलाए जरूर थे मगर प्रत्यक्ष में मैं कुछ और ही कह गई, ‘‘नहीं, आप बैठिए, मैं कुछ पकाने की कोशिश करती हूं,’’ वैसे भी ज्यादा सच बोलने की आदत मुझे थी नहीं.

‘‘देखिए, आप इतनी रात में कुछ करने की कोशिश करें इस से बेहतर है कि मैं ही कुछ करूं,’’ वह धड़धड़ा कर अंदर आ गया और किचन का जायजा लेने लगा. उस के होंठों पर बस, हलकी सी मुसकान थी.

मैं ठीक तरह से झूठ नहीं बोल पा रही थी इसलिए आंखें ही इशारों में बात करने लगीं. मैं चाह कर भी उसे मना नहीं कर पाई. कारण कई हो सकते थे मगर मुझे जोरदार भूख लगी थी और भूखे इनसान के लिए तो सबकुछ माफ है. मैं चुपचाप उस की मदद करने लगी.

10 मिनट तक तो उस की एक भी गतिविधि समझ में नहीं आई. मुझे पता होता कि खाना पकाना इतनी चुनौती का काम है तो एक बार तो जरूर पराक्रम दिखाती. उस ने कढ़ाई चढ़ा कर गैस जला दी. 1-2 बार उस से नजर मिली तो इच्छा हुई कि खुद पर गरम तेल डाल लूं, मगर हिम्मत नहीं कर पाई. मुझे जितना समझ में आ रहा था उतना काम करने लगी.

‘‘यह आप क्या कर रही हैं?’’

मैं पूरी तल्लीनता से आटा गूंधने में लगी थी कि उस ने मुझे टोक  दिया. एक तो ऐसे काम मुझे बिलकुल पसंद नहीं थे और ऊपर से एक अजनबी की रोकटोक, मैं तिलमिला उठी.

‘‘दिखता नहीं, आटा गूंध रही हूं,’’ मैं ने मालिकाना अंदाज में कहा, पर लग रहा था कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है. मैं ने एक बार उस की ओर नजर उठाई तो उस की दबीदबी हंसी भी दुबक गई.

‘‘आप रहने दें, मैं कर लूंगा,’’ उस ने विनती भरे स्वर में कहा.

आटा ज्यादा गीला तो नहीं था मगर थोड़ा पानी और मिलाती तो मिल्क शेक अवश्य बन जाता.

हाथ धोने बेसिन पर पहुंची तो आईना देख कर हृदय हाहाकार कर उठा. कान, नाक, होंठ, बाल, गाल यानी कोई ऐसी जगह नहीं बची थी जहां आटा न लगा हो. एक बार तो मेरे होंठों पर भी हंसी फिसल गई.

मैं जानबूझ कर किचन में देर से लौटी.

‘‘आइए, खाना बस, तैयार ही है,’’ उस ने मेरा स्वागत यों किया जैसे वह खुद के घर में हो और मैं मेहमान.

इतनी शर्मिंदगी मुझे जीवन में कभी नहीं हुई थी. मैं उस पल को कोसने लगी जिस पल उसे घर लाने का वाहियात विचार मेरे मन में आया था. लेकिन अब तीर कमान से निकल चुका था. किसी तरह से 5-6 घंटे की सजा काटनी थी.

मैं फ्रिज से टमाटर और प्याज निकाल कर सलाद काटने लगी. फिलहाल यही सब से आसान काम था मगर उस पर नजर रखना नहीं भूली थी. वह पूरी तरह तन्मय हो कर रोटियां बेल रहा था.

‘‘क्या कर रही हैं आप?’’

‘‘आप को दिखता कम है क्या…’’ मेरे गुस्से का बुलबुला फटने ही वाला था कि…

‘‘मेरा मतलब,’’ उस ने मेरी बात काट दी, ‘‘मैं कर रहा हूं न,’’ उसे भी महसूस हुआ होगा कि उस की कुछ सीमाएं हैं.

‘‘क्यों, सिर्फ काटना ही तो है,’’ मैं उलटे हाथों से आंखें पोंछती हुई बोली. अब टमाटर लंबा रहे या गोल, रहता तो टमाटर ही न. वही कहानी प्याज की भी थी.

‘‘यह तो ठीक है इशिताजी,’’ उस ने अपने शब्दों को सहेजने की कोशिश की, ‘‘मगर…इतने खूबसूरत चेहरे पर आंसू अच्छे नहीं लगते हैं न.’’

मैं सकपका कर रह गई. सुंदर तो मैं पिछले कई घंटों से थी पर इस तरह बेवक्त उस की आंखों का दीपक जलना रहस्यमय ही नहीं खतरनाक भी था. मुझे क्रोध आया, शर्म आई या फिर पता नहीं क्या आया लेकिन मेरा दूधिया चेहरा रक्तिम अवश्य हो गया. फिर मैं इतनी बेशर्म तो थी नहीं कि पलकें उठा कर उसे देखती.

उजाले में आंखें खुलीं तो सूरज का कहीं अतापता नहीं था. शायद सिर पर चढ़ आया हो. मैं भागतीभागती गेस्टरूम तक गई. अभिन्न लेटेलेटे ही अखबार पलट रहा था.

‘‘गुडमार्निंग…’’ मैं ने अपनी आवाज से उस का ध्यान खींचा.

‘‘गुडमार्निंग,’’ उस ने तत्परता से जवाब दिया, ‘‘पेपर उधर पड़ा था,’’ उस ने सफाई देने की कोशिश की.

‘‘कोई बात नहीं,’’ मैं ने टाल दिया. जो व्यक्ति रसोई में धावा बोल चुका था उस ने पेपर उठा कर कोई अपराध तो किया नहीं था.

‘‘मुझे कल सुबह की फ्लाइट में जगह मिल गई है,’’ उसे यह कहने में क्या प्रसन्नता हुई यह तो मुझे पता नहीं लेकिन मैं आशंकित हो उठी, ‘‘सौरी, वह बिना पूछे ही आप का फोन इस्तेमाल कर लिया,’’ उस ने व्यावहारिकतावश क्षमा मांग ली, ‘‘अब मैं चलता हूं.’’

‘‘कहां?’’

अभिन्न ने मुझे यों देखा जैसे पहली बार देख रहा हो. प्रश्न तो बहुत सरल था मगर मैं जिस सहजता से पूछ बैठी थी वह असहज थी. मुझे यह भी आभास नहीं हुआ कि यह ‘कहां’ मेरे मन में कहां से आ गया. मेरी रहीसही नींद भी गायब हो गई.

कितने पलों तक कौन शांत रहा पता नहीं. मैं तो बिलकुल किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई थी.

‘‘10 बज गए हैं,’’ ऐसा नहीं था कि घड़ी देखनी मुझे नहीं आती हो मगर कुछ कहना था इसलिए उस ने कह दिया होगा.

‘‘ह…हां…’’ मेरी शहीद हिम्मत को जैसे संजीवनी मिल गई, ‘‘आप चाहें तो इधर रुक सकते हैं, बस, एक दिन की बात तो है.’’

मैं ने जोड़तोड़ कर के अपनी बात पूरी तो कर दी मगर अभिन्न दुविधा में फंस गया.

उस की क्या इच्छा थी यह तो मुझे पता न था लेकिन उस की दुविधा मेरी विजय थी. मेरी कल्पना में उस की स्थिति उस पतंग जैसी थी जो अनंत आकाश में कुलांचें तो भर सकती थी मगर डोर मेरे हाथ में थी. पिछले 15 घंटों में यह पहला सुखद अनुभव था. मेरा मन चहचहा उठा.

‘‘फिर से खाना बनवाने का इरादा तो नहीं है?’’

उस के इस प्रश्न से तो मेरे अरमानों की दुनिया ही चरमरा गई. पता नहीं उस की काया किस मिट्टी की बनी थी, मुझे तो जैसे प्रसन्न देख ही नहीं सकता था.

‘‘अब तो आप को यहां रुकना ही पड़ेगा,’’ मैं ने अपना फैसला सुना दिया. वास्तव में मैं किसी ऐसे अवसर की तलाश में थी कि कुछ उस की भी खबर ली जा सके.

‘‘एक शर्त पर, यदि खाना आप पकाएं.’’

उस ने मुसकरा कर कहा था, सारा घर खिलखिला उठा. मैं भी.

‘‘चलिए, आज आप को अपना शहर दिखा लाऊं.’’

मेरे दिमाग से धुआं छटने लगा था इसलिए कुछ षड्यंत्र टिमटिमाने लगे थे. असल में मैं खानेपीने का तामझाम बाहर ही निबटाना चाहती थी. रसोई में जाना मेरे लिए सरहद पर जाने जैसा था. मैं ने जिस अंदाज में अपना निर्णय सुनाया था उस के बाद अभिन्न की प्रतिक्रियाएं काफी कम हो गई थीं. उस ने सहमति में सिर हिला दिया.

‘‘मैं कुछ देर में आती हूं,’’ कह कर मैं फिर से अंदर चली गई थी.

आखिरी बार खुद को आईने में निहार कर कलाई से घड़ी लपेटी तो दिल फूल कर फुटबाल बन गया. नानी, दादी की मैं परी जैसी लाडली बेटी थी. कालिज में लड़कों की आशिक निगाहों ने एहसास दिला दिया था कि बहुत बुरी नहीं दिखती हूं. मगर वास्तव में खूबसूरत हूं इस का एहसास मुझे कभीकभार ही हुआ था. गहरे बैगनी रंग के सूट में खिलती गोरी बांहें, मैच नहीं करती मम्मी की गहरी गुलाबी लिपस्टिक और नजर नहीं आती काजल की रेखाएं. बचीखुची कमी बेमौसम उमड़ आई लज्जा ने पूरी कर दी थी. एक बार तो खुद पर ही सीटी बजाने को दिल मचल गया.

घड़ी की दोनों सुइयां सीधेसीधे आलिंगन कर रही थीं.

‘‘चलें?’’ मैं ने बड़ी नजाकत से गेस्टरूम के  दरवाजे पर दस्तक दी.

‘‘बस, एक मिनट,’’ उस ने अपनी नजर एक बार दरवाजे से घुमा कर वापस कैमरे पर टिका दी.

मैं तब तक अंदर पहुंच चुकी थी. थोड़ी ऊंची सैंडल के कारण मुझे धीरेधीरे चलना पड़ रहा था.

उस ने मेरी ओर नजरें उठाईं और जैसे उस की पलकें जम गईं. कुछ पलों तक मुझे महसूस हुआ सारी सृष्टि ही मुझे निहारने को थम गई है.

‘‘चलें?’’ मैं ने हौले से उस की तंद्रा भंग की तो लगा जैसे वह नींद से जागा.

‘‘बिलकुल नहीं,’’ उस ने इतने सीधे शब्दों में कहा कि मैं उलझ कर रह गई.

‘‘क्यों? क्या हुआ?’’ मेरी सारी अदा आलोपित हो गई.

‘‘क्या हुआ? अरे मैडम, लंगूर के साथ हूर देख कर तो शहर वाले हमारा काम ही तमाम कर देंगे न,’’ उस ने भोलेपन से जवाब दिया.

ऐसा न था कि मेरी प्रशंसा करने वाला वह पहला युवक था लेकिन ऐसी विचित्र बात किसी ने नहीं कही थी. उस की बात सुन कर और लड़कियों पर क्या गुजरती पता नहीं लेकिन शरम के मारे मेरी धड़कनें हिचकोले खाने लगीं.

टैक्सी में उस ने कितनी बार मुझे देखा पता नहीं लेकिन 3-4 बार नजरें मिलीं तो वह खिड़की के बाहर परेशान शहर को देखने लगता. यों तो शांत लोग मुझे पसंद थे मगर मौन रहना खलने लगा तो बिना शीर्षक और उपसंहार के बातें शुरू कर दीं.

अगर दिल में ज्यादा कपट न हो तो हृदय के मिलन में देर नहीं लगती है. फिर हम तो हमउम्र थे और दिल में कुछ भी नहीं था. जो मन में आता झट से बोल देती.

‘‘क्या फिगर है?’’

उस की ऊटपटांग बातें मुझे अच्छी लगने लगी थीं. मैं ने शरमाते हुए कनखियों से उस की भावभंगिमाएं देखने की कोशिश की तो मेरे मन में क्रोध की सुनामी उठने लगी. वह मेरी नहीं संगमरमर की प्रतिमा की बात कर रहा था. जब तक उस की समझ में आता कि उस ने क्या गुस्ताखी की तब तक मैं उसे खींचती हुई विक्टोरिया मेमोरियल से बाहर ले आई.

‘‘मैं आप की एक तसवीर उतार लूं?’’ अभिन्न ने अपना कैमरा निकालते हुए पूछा.

‘‘नहीं,’’ जब तक मैं उस का प्रश्न समझ कर एक अच्छा सा उत्तर तैयार करती एक शब्द फुदक कर बाहर आ गया. मेरे मन में थोड़ा नखरा करने का आइडिया आया था.

‘‘कोई बात नहीं,’’ उस ने यों कंधे उचकाए जैसे इसी उत्तर के लिए तैयार बैठा हो.

मैं गुमशुम सी तांबे की मूर्ति के साथ खड़ी हो गई जहां ज्यादातर लोग फोटो खिंचवाते थे. वह खुशीखुशी कैमरे में झांकने लगा.

‘‘जरा उधर…हां, ठीक है. अब जरा मुसकराइए.’’

उस की हरकतें देख मेरे चेहरे पर वे तमाम भावनाएं आ सकती थीं सिवा हंसने के. मैं ने उसे चिढ़ाने के लिए विचित्र मुद्रा में बत्तीसी खिसोड़ दी. उस ने झट बटन दबा दिया. मेरा नखरे का सारा नशा उतर गया.

रास्ते में पड़े पत्थरों को देख कर खयाल आया कि चुपके से एक पत्थर उठा कर उस का सिर तोड़ दूं. कमाल का लड़का था, जब साथ में इतनी सुंदर लड़की हो तो थोड़ाबहुत भाव देने में उस का क्या चला जाता. मेरा मन खूंखार होने लगा.

‘‘चलिए, थोड़ा रक्तदान कर दिया जाए?’’ रक्तदान का चलताफिरता शिविर देख कर मुझे जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई. मैं बस, थोड़ा सा कष्ट उसे भी देना चाहती थी.

‘‘नहीं, अभी नहीं. अभी मुझे बाहर जाना है.’’

‘‘चलिए, आप न सही मगर मैं रक्तदान करना चाहती हूं,’’ मुझे उसे नीचा दिखाने का अवसर मिल गया.

‘‘आप हो आइए, मैं इधर ही इंतजार करता हूं,’’ उस ने नजरें चुराते हुए कहा.

मैं इतनी आसानी से मानने वाली नहीं थी. उसे लगभग जबरदस्ती ले कर गाड़ी तक पहुंची. नामपता लिख कर जब नर्स ने सूई निकाली तो मेरी सारी बहादुरी ऐसे गायब हो गई जैसे मैं कभी बहादुर थी ही नहीं. पलभर के लिए इच्छा हुई कि चुपचाप खिसक लूं मगर मैं उसे दर्द का एहसास कराना चाहती थी.

किसी तरह खुद को बहलाफुसला कर लेट गई. खुद का खून देखने का शौक कभी रहा नहीं इसलिए नर्स की विपरीत दिशा में देखने लगी. गाड़ी में ज्यादा जगह न होने की वजह से वह बिलकुल पास ही खड़ा था. चेहरे पर ऐसी लकीरें थीं जैसे कोई उस के दिल में सूई चुभो रहा हो.

दर्द और घबराहट का बवंडर थमा तो वह मेरी हथेली थामे मुझे दिलासा दे रहा था. मेरी आंखों में थोड़े आंसू जरूर जमा हो गए होंगे. मन भी काफी भारी लगने लगा था.

बाहर आने से पहले मैं ने 2 गिलास जूस गटक लिया था और बहुत मना करने के बाद भी डाक्टरों ने उस का ब्लड सैंपल ले लिया.

इंडियन म्यूजियम से निकल कर हम ‘मैदान’ में आ गए. गहराते अंधकार के साथ हमेशा की तरह लोगों की संख्या घटने लगी थी और जोड़े बढ़ने लगे थे. यहां अकसर प्रेमी युगल खुले आकाश के नीचे बैठ सितारों के बीच अपना आशियाना बनाते थे. इच्छा तो बिलकुल नहीं थी लेकिन मैं ने सोच रखा था कि खानेपीने का कार्यक्रम निबटा कर ही वापस लौटूंगी. हम दोनों भी अंधेरे का हिस्सा बन गए.

मैं कुछ ज्यादा ही थकावट महसूस कर रही थी. इसलिए अनजाने ही कब उस की गोद में सिर रख कर लेट गई पता ही नहीं चला. मेरी निगाहें आसमान में तारों के बीच भटकने लगीं.

वे अगणित सितारे हम से कितनी दूर होते हैं. हम उन्हें रोज देखा करते हैं. वे भी मौन रह कर हमें बस, देख लिया करते हैं. हम कभी उन से बातें करने की कोशिश नहीं करते हैं. हम कभी उन के बारे में सोचते ही नहीं हैं क्योंकि हमें लगता ही नहीं है कि वे हम से बात कर सकते हैं, हमें सुन सकते हैं, हमारे साथ हंस सकते हैं, सिसक सकते हैं. हम कभी उन्हें याद रखने की कोशिश नहीं करते हैं क्योंकि हम जानते हैंकि कल भी वे यहीं थे और कल भी वे यही रहेंगे.

मुझे अपने माथे पर एक शीतल स्पर्श का एहसास हुआ. शायद शीतल हवा मेरे ललाट को सहला कर गुजर गई.

सुबह दरवाजे पर ताबड़तोड़ थापों से मेरी नींद खुली. मम्मी की चीखें साफ सुनाई दे रही थीं. मैं भाग कर गेस्टरूम में पहुंची तो कोई नजर नहीं आया. मैं दरवाजे की ओर बढ़ गई.

4 दिन बाद 2 चिट्ठियां लगभग एकसाथ मिलीं. मैं ने एक को खोला. एक तसवीर में मैं तांबे की मूर्ति के बगल में विचित्र मुद्रा में खड़ी थी. साथ में एक कागज भी था. लिखा था :

‘‘इशिताजी,

मैं बड़ीबड़ी बातें करना नहीं जानता, लेकिन कुछ बातें जरूर कहना चाहूंगा जो मेरे लिए शायद सबकुछ हैं. आप कितनी सुंदर हैं यह तो कोई भी आंख वाला समझ सकता है लेकिन जो अंधा है वह इस सच को जानता है कि वह कभी आप को नहीं देख पाएगा. जैसे हर लिखे शब्द का कोई अर्थ नहीं होता है वैसे ही हर भावना के लिए शब्द नहीं हैं, इसलिए मैं ज्यादा लिख भी नहीं सकता. मगर एक चीज ऐसी है जो आप से कहीं अधिक खूबसूरत है, वह है आप का दिल.

हम जीवन में कई चीजों को याद रखने की कोशिश नहीं करते हैं क्योंकि वे हमेशा हमारे साथ होती हैं और कुछ चीजों को याद रखने का कोई मतलब नहीं होता क्योंकि वे हमारे साथ बस, एक बार होती हैं.

सच कहूं तो आप के साथ गुजरे 2 दिन में मैं ठीक से मुसकरा भी नहीं सका था. जब इतनी सारी हंसी एकसाथ मिल जाए तो इन्हें खोने का गम सताने लगता है. उन 2 दिनों के सहारे तो मैं दो जनम जी लेता फिर ये जिंदगी तो दो पल की है. जानता हूं दुनिया गोल है, बस रास्ते कुछ ज्यादा ही लंबे निकल आते हैं.

जब हम अपने आंगन में खड़े होते हैं तो कभीकभार एक पंछी मुंडेर पर आ बैठता है. हमें पता नहीं होता है कि वह कहां से आया. हम बस, उसे देखते हैं, थोड़ा गुस्साते हैं, थोड़ा हंसते भी हैं और थोड़ी देर में वह वापस उड़ जाता है. हमें पता नहीं होता है कि वह कहां जाएगा और उसे याद रखने की जरूरत कभी महसूस ही नहीं होती है.

जीवन के कुछ लमहे हमारे नाम करने का शुक्रिया.

-एक परिंदा.’’

दूसरी चिट्ठी में ब्लड रिपोर्ट थी. मुझे अपने बारे में पता था. अभिन्न की जांच रिपोर्ट देख कर पलकें उठाईं तो महसूस हुआ कि कोई परिंदा धुंधले आकाश में उड़ चला है…अगणित सितारों की ओर…दिल में  चुभन छोड़ कर.

The post परिंदा appeared first on Sarita Magazine.

April 30, 2019 at 10:37AM

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